- संजीव खुदशाहनवंबर 2008 में एक एनजीओ के बुलावे पर मैं पुणे गया। वहां का कार्यक्रम सफाई कामगारों के उत्थान के लिए समर्पित था, किन्तु वहां के सफाई कामगारों की बस्तियों में घुमना तथा अपने पाठकों से मिलना बेहद रोमांचक यादगार पल था। पाठकों का मेरे प्रति प्रेम सम्मान एवं अपनापन के बीच मुझे पुणे में नया जैसा कुछ भी नहीं लग रहा था। पूणे की आबो-हवा एवं वहां के लोगों का बर्ताव बेहद सरल है। पुणे की एक विशेषता मुझे अच्छी लगी वह यह की यहां एक भी भिखारी नहीं है। लोग कहते है पूना बुद्धिमानों का शहर है, भिखारी के भेष में अमीरी की उसे परख है, शायद इसलिए यहां भीख देने का रिवाज नहीं है।
यहां सफाई कामगार बहुत बड़ी संख्या में रहते है। इनकी लगभग 20 से 25 बस्तियां है। ज्यादातर कामगार गुजराती तथा राजस्थानी मूल है, कुछेक यूपी से भी आये है। इनका रहन सहन का स्तर (पुणे के बारे में जैसा माना जाता है) तुलनात्मक अच्छा नहीं है, लेकिन गुजरात जैसे राज्य के बनिस्पत ठीक है। इसीलिए गुजरात से आये कुछ मानव-अधिकार कार्यकर्ताओं को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि यहां के सफाई कामगार अच्छी स्थिति में रह रहे है।
दरअसल गुजरात जैसे कट्टरपंथी एवं परंपरावादी राज्य में, जहां सफाई कामगार आज भी नरक सी सामाजिक स्थिति में जीवन-यापन कर रहे हैं, पर नवसृजन नाम का एक एनजीओ कार्य कर रहा है। ऐसी असामान्य स्थिति में काम करना अपने आपमें एक साहस का कार्य है। जब वहां के कार्यकर्ताओं ने पहली बार यहां के कामगारों की स्थिति देखी तो उनका आत्मविश्वास ठहर सा गया। उन्होंने यह स्वीकार किया कि वहां और ताकत से कार्य किये जाने की जरूरत है। चूंकि मैं मध्यभारत के अन्य शहरों में जाकर इनकी स्थिति से परिचित था, इसलिए मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी।
असल में इन कामगारों का आर्थिक स्तर तो सुधरा है, लेकिन सामाजिक स्तर (जिसे सामाजिक चेतना भी कहते है) वहीं का वहीं है। आर्थिक स्थिति ठीक होने के बाद भी लोग सफाई पेशा छोडऩे को तैयार नहीं हैं।
मैंने इनके सदस्यों से मुलाकात की। यह आत्मीय मुलाकात सचमुच अविस्मरणिय है इनकी यहां स्थानीय पंचायत भी है। इसी पंचायत के प्रबंध सदस्य श्री खेमचंद बाबू साउके ने गोगापीर के बारे में जानकारी मिथक के रूप में दी। वे बड़े ही रोचक ढंग से बताते हैं कि गोगापीर नाथसंप्रदाय के गुरू श्री गोरखनाथ के शिष्य थे। मैं यहां पर जानकारी देना आवश्यक समझता हूं कि बौद्ध धर्म के पतन के समय जब हीनयांन-महायान की उत्पत्ति हो चुकी थी, उसी समय कुछ पंथ भी तैयार हुए। ये पंथ बौद्ध भिक्षुओं से ही टूटकर बने थे। इन्ही में एक पंथ नाथ सम्प्रदाय था, जिसमें बौध्द धर्म के अवशेष नाम-मात्र के थे। भंगी जाति के लोग यह मानते हैं कि गोगापीर चुहड़ा जाति के हंै लेकिन सच्चाई कुछ और है।
ऐसा कहा जाता है कि मारवाड़ क्षेत्र में एक राजपूत राजा थे, जिनका नाम जेवर तथा उनकी रानी का नाम बाचल था। रानी लंबे समय से संतानहीनता का दंश झेल रही थी। इन्हें एक साधु ने आर्शीवाद के साथ गोगल (सर्प के जहर से बना लुगदीनुमा मणी जैसा) भी दिया। उस रानी ने इस गोगल के पांच भाग किये तथा चार भाग अपनी सेविकाओं को भी दे दिया जो संतानहीन थीं। उनमें से एक भाग मेहतरानी (चुहड़ी) को तथा एक टुकड़ा घोड़ी को भी दिया। एक भाग स्वयं रानी ने भी खाया। रानी से जो पुत्र पैदा हुआ वह गोगापीर कहलाये। कहीं कहीं इन्हें गोगावीर भी कहते हैं। जो पुत्र मेहतरानी से हुआ वे रत्नाजी चावरिया कहलाये चूंकि गोगल के रिश्ते से दोनों भाई थे, इसलिए चूहड़ा समाज के लोगों ने इन पर विशेष श्रध्दा दिखाई। कहा जाता है कि गोगापीर विशेष चमत्कारी व्यक्तित्व के थे। इनके मानने वाले कहीं कहीं कालबेलिया भी कहलाते है।
जैसा कि अन्य चमत्कारियों के हाथ पांव सफाई कामगीरों को उबारने के मामले में ठंडे पड़ जाते हैं, उसी प्रकार गोगापीर की भी चमत्कारिक शक्तियां अपने गोगली भाईयों को मैला ढोने की संस्कृति से निजात दिलाने के मामले में जवाब दे बैठी।
लेकिन ये सफाई करने वाली जातियां जोर-शोर से इनकी रैलियां निकालती हंै। वे उसे भगवान मानते हैं। उनके शिष्यों के आगमन पर पुणे में भव्य स्वागत किया जाता है। ऐसा नहीं है कि सभी लोग दलित चेतना से विमुख हंै। कुछ लोग तो हंै, लेकिन उन्हें उंगलियों में गिना जा सकता है। अम्बेडकरी धारा में आने के सम्बन्ध में उनका कहना है कि नये ब्राम्हणों ने भी हमारा खूब शोषण किया है। उनका सभी दलित संस्थाओं में कब्जा है। अपने शोषकों के साथ हम कैसे हो सकते हैं।
यहां की बहुसंख्यक दलित जाति के बारे में वे राय रखते हैं कि हमें मिलने वाली सभी सुविधाएं ये ले लेते है और हमसे छुआछूत बरतते हैं। ऐसे में दलित चेतना गंजे के सिर में पानी डालने जैसा है। जब तक यहां की बहुसंख्यक संगठित जातियां हमसे समानता का व्यवहार नहीं करेंगी, तब तक हम कैसे इनके साथ दलित चेतना से जुड़ पायेंगे। माणुस्कि जैसे कुछ एनजीओ के कार्यकर्ता ऐसा प्रयास कर रहे है जो सराहनीय हैं, इसलिए कुछेक व्यक्तियों का रूझान दलित चेतना की ओर हुआ है, किन्तु बैठकों में भंगी-भंगी की पुकार एवं अलग से पहचान करवाये जाने के कारण वे कुण्ठा के शिकार हो जाते हैं। कुछ तो इस दंश के कारण वापस आने से भी परहेज करते हैं। दरअसल दलित संस्थानों में सफाई कामगारों को वाल्मीकि पुकारना भी एक अटपटा अनुभव है। आखिर कब तक सभी दलित जातियां अपने दासत्व बोधी नाम से छुटकारा पायेंगी?
जब दलित आंदोलन से जुड़े लोग भी ऐसा करते है तो दुख होता है। क्या ऐसी दिशाहीन संस्थाएं समाज को दिशा दिखा सकेंगी?

1 comment:

  1. aap sahi h. jahan hame brahmanwad chhutkara pana chahiye wahi hum iski jakad me fanste ja rahe h. ise daliton me brahmanwad kahen ya daliton durbhagya

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