त्रैमासिक पत्रिका, अपेक्षा,
नई दिल्ली, अंक अप्रैल- जून २००८
न्याय
की कसौटी पर साहित्यीक चोरी ..........!
संजीव खुदशाह
मुझे यह जानकारी देते हुए बेहद
दुख हो रहा है कि हमारे ही बीच के ही तथाकथित वरिष्ठ लेखक श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि ने
अपनी नई किताब सफाई देवता में ज्यादातर तथ्य एवं स्थापनांए मेरी मौलिक किताब ''सफाई कामगार समुदाय``
से तोड़-मरोड़ कर अपने नाम से पेश की गयी है।
ज्ञातव्य हो कि इस किताब को
लिखने में मुझे कड़ी मेहनत करनी पड़ी, जिसमें कई पुस्तको का अध्ययन, विभिन्न स्थानों पर भ्रमण, साक्षात्कार शामिल है। इस कार्य में मुझे
लगभग तीन से चार वर्ष लगे। यह किताब राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुई थी।
इस किताब को वृहद रूप से सराहा गया था। छत्तीसगढ़ में इसे साहित्य का तेजस्वनी सम्मान
भी प्राप्त हुआ। साथ ही इस किताब को अमेरिका की वाशिगटन यूनिर्वसिटी लायब्रेरी में
''भारत में भंगी समुदाय अध्ययन`` हेतु शामिल किया गया है। पूर्व
में इस विषय पर १९६९,
१९७६ तथा १९९४ में तीन अन्य अंग्रेजी किताबों को शामिल किया
गया था। २००५ में शामिल हुई यह इस विषय पर पहली हिन्दी भाषा की किताब है। यह समस्त
दलितों के साथ हिन्दी भाषा-भाषियों के लिए भी गर्व की बात है। इस जानकारी को यूनीर्वसिटी
अपनी आधकारिक वेबसाईट पर प्रकाशित किया है।
मासिक पत्रिका ''प्रकाशन समाचार`` से मुझे जानकारी मिली की श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि की नई किताब सफाई देवता प्रकाशित
हुई है। मैने सर्व-प्रथम उसी दिन शाम को श्री वाल्मीकि से फोन पर बात की तथा नई किताब
के प्रकाशन पर उन्हे बधाई दी। इसके बाद मैंने प्रकाशक के सचिव को फोन पर इस किताब को
भेजने हेतु कहा और यह किताब मुझे मिल गई। मुझे बेहद प्रसन्नता हुई की इस विषय पर एक
और किताब का प्रकाशन हुआ है तथा दलित साहित्य और अधिक समृघ्द हो रहा है, लेकिन किताब पढ़ते ही मुझे लगा कि कई तथ्य मेरे किताब से लिये गये है तथा उनका
उचित संदर्भ भी नही दिया गया है। मुझे लगा की ऐसा संपादकीय त्रुटिवश भी हो सकता है
लेकिन कई पृष्ठो में ऐसी ही स्थिति थी। मुझसे रहा नही गया, दूसरे दिन मैने श्री कवंल भारती जी से इस बाबत् चर्चा की तथा उन्हे उक्त अंशो की
फोटो कापी भेजी। और भी कई लेखको को मैने अंश की फोटो कापी दिखायी । तत्पश्चात् मैने
एक औपचारिक पत्र दिनांक २९.२.०८ को स्पीड पोस्ट से श्री वाल्मीकिजी को भेजा। उन्होने
मुझे दिनांक ३.३.०८ को रात्रि ९.१७ बजे फोन किया तथा यह माना की कुछ स्थानों पर मेरी
किताब का सन्दर्भ देने में भूल हो गई है, जिसे अगले संस्करण में सुधार
लिया जायेगा। मैंने उन्हे लिखित मे जवाब देने हेतु निवेदन किया। किन्तु आज दिनांक तक
उनका न तो कोई खण्डन आया,
न ही कोई लिखित में जवाब मुझे मिला। इसके बाद पुन: दिनांक ८.३.०८ रात्रि ८.३४ बजे उनका
फोन आया। उन्होने करीब दस से पन्द्रह मिनट तक मुझसे बात की उनका कहना था कि ''मै तुम्हे अपना छोटा भाई मानता हूॅं, तुम कहो तो अपनी अगली किताब
तुम्हारे नाम कर दू। इस लाइन (लेखकीय लाइन से आशय है) में ऐसा तो होता ही रहता है।
एक जगह तो तुम्हारा नाम दिया है न मैने। तुम्हे शांत रहना चाहिए।``
मैने इस विषय पर लिखने से पहले
बहुत सोच-विचार किया तथा वरिष्ठ लेखकों तथा शोधकर्ताओं से विचार विमर्श भी किया। बड़ी
मानसिक उलझनो एवं अंर्तद्वंद से मुझे गुजरना पड़ा। क्योकि मेरे मन मे उनके प्रति आदर
ही था, जो मुझे उनके खिलाफ लिखने से रोके रहा । किन्तु मै ऐसा मानता हूॅं, कि समाज की बुराई के खिलाफ कलम उठाने पर ही मुझे समाज में एक स्थान मिला है। इस
स्थान का हकदार मै बना रहूं इसके लिए जरूरी है कि समाज की बुराईयों से लड़ता रहूॅ, बिना किसी का चेहरा या कद देखे (आशय पक्षपात से है।)। चाहे इसके लिए मै समाज मे
अकेला ही क्यों न कर दिया जाउ। क्योंकि इस प्रवृत्ति को भी मैं एक समाजिक बुराई मानता
हूॅ। इसके बाद मैने तय किया कि मुझे मुखर होना ही पड़ेगा, अन्यथा कई मौलिक कृतियां ऐसी ही कुटिलताओं के नीचे दफ्न होकर रह जायेगी।
लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने
अपनी पूरी किताब में कई जगह बिना ''सफाई कामगार समुदाय`` किताब का संदर्भ देते हुए अंश अथवा अंश को तोड़ मरोड़ कर पेश किया है। यह उनकी
विद्वता और मौलिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।
पृष्ठ क्रमांक-५० ( सफाई देवता
) में वे लिखते हैं-
''डॉ. विमल कीर्ति की भी इसी तरह की मान्यता
है कि सुपच सुदर्शन ऋषि और कोई नही सुदर्शन नाम के बौध्द श्रमण थे। नागपुर के आसपास
अनेक लोग (भंगी समाज)``
सुदर्शन को अपना गुरू मानते है। पालि भाषा के अनेक ग्रन्थों
में सुदर्शन नामक एक बौध्द भिक्षु का जिक्र आता है।``
यह तथ्य डॉ विमल कीर्ति से
मेरी बातचीत के दौरान सामने आया था जिसे मैने अपनी किताब ''सफाई कामगार समुदाय``
में पृ. क्र. ७६ में लिया था।
''४. इसी सन्दर्भ मंे डा. विमल कीर्ति, जो नागपुर विश्वविद्यालय में पालि भाषा के प्रमुख है, ने अपनी मुलाकात के दौरान बताया कि सुपक्ष सुदर्शन ऋषि कोई और नही बल्कि बौध्द
धर्म के श्रमण श्री सुदर्शन (पाली ग्रन्थों में श्रमण सुदर्शन नामक एक बौध्द भिक्षु
का विवरण मिलता है।) रहे होगें। जिन्हे पिछड़ी जाति के लोग आज अपना गुरू मानते है।
इससे इस सम्भावना को बल मिलता है कि समस्त पिछड़ी जाति बौध्द नही होगी। इसके विरोध
के कारण ही उन्हे नीच करार दिया गया होगा।``
इसी प्रकार पृष्ठ क्रमांक ५७
( सफाई देवता ) में १९१० की जनगणना के कमिश्नर की रिपोर्ट में अछूतों के लक्षण बताए
गए है।
''१. जो ब्राम्हणो की प्रधानता नही मानते।
२. जो किसी ब्राम्हण अथवा अन्य किसी माने हुए गुरू से मन्त्र
नही लेते
३. जो वेदों को प्रमाण नही मानते
४. जो हिन्दू देवी-देवताओं को नही पूजते
५. जो हिन्दू मन्दिरों में नही जा सकते है।``
इन पर करीब १२ लक्षणो पर गहन
विवेचना मेरी किताब में प्रस्तुत की गई है जिसके अंश तोड-मरोड़ कर यहां प्रस्तुत किये
गये है। ठीक इसी प्रकार पृ.क्र. ७९( सफाई देवता) में लिखा गया है
''छिटकी-बुंदकी के आधार पर इनकी शादी-विवाह
तय होते है। छिटकी-बुदकी में इनके मूल निवास और देवी-देवताओं की जानकारी मिलती है।
छिटकी-बुंदकी न मिलने से रिश्ते नही बनते। इनमें 'जसगीत` गाने की एक विशिष्ट शैली पाई जाती है।``
किताब ''सफाई कामगार समुदाय``
(देखे पृ.क्र.-९५) के पृ.क्र. ११० में छिटकी बुंदकी पर पूरा का
पूरा एक उपअध्याय है उसी में से उक्त अंश को तोड़-मरोड़ कर उदधृत किया गया है। छिटकी
बुंदकी पर मेरे व्दारा विवेचना की गई है तथा निष्कर्ष निकाले है, उसी निष्कर्ष को उपर लिख दिया गया है। इसी प्रकार नाभाजी का जिक्र पृष्ठ क्रमांक
१३३ ( सफाई देवता ) में दिया गया है, जिसका संदर्भ पहली बार किताब
''सफाई कामगार समुदाय``
में आया था।
''सफाई कामगार समुदाय`` पुस्तक के पृष्ठ क्रमांक १३७ में विभिन्न राज्यों के सफाई कामगारों के जातियों
के नाम दिये गये थे। इसी सूची को थोड़ा बहुत संशोधित करते हुए श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि
व्दारा अपनी किताब ( सफाई देवता ) पृष्ठ क्रमांक १४७ में प्रस्तुत किया गया है। उनका
यह कृत्य साहित्यिक अथवा प्राकृतिक न्याय की कसौटी पर एक ओछा कार्य है। उनसे अपेक्षा
थी कि वे बताते कि ये सारे तथ्य उन्होने कहां
से उठाएं है। शायद इससे उनका मान और बढ़ जाता। वे यह भी बताते कि डॉ. विमल कीर्ति से
सुदर्शन ऋ़षि के बौध्द श्रमण होने का तथ्य उन्होने कहां से लिया है। शायद वे जगह-जगह
पुस्तक ''सफाई कामगार समुदाय``
का जिक्र करने में शर्मिदगी महसूस कर रहे होंगे। अथवा वे फासीवादियों
की तरह दूसरों की उपलब्धियों को चट कर जाना चाहते है। इस प्रकार कई जगह पर मेरी किताब
से निकाले निष्कर्ष को बहुत ही आसानी से इस किताब में लिया गया है। शायद वे किताब के
शुरू में आयी कापी-राईट की चेतावनी को पढ़ना भूल गये।
पूरे किताब में श्री ओम प्रकाश
वाल्मीकि व्दारा मेरी अथवा किताब ''सफाई कामगार समुदाय`` का जिक्र किये जाने से बचने की कोशिश स्पष्ट नजर आती है। केवल एक जगह पृष्ठ क्रमांक
७६ ( सफाई देवता ) में संजीव खुदशाह का जिक्र किया गया है, वह भी एक साक्षात्कार की रिर्पोटिंग के सम्बन्ध में। वैसे तो पूरी की पूरी किताब
पुस्तक ''सफाई कामगार समुदाय``
की छाया से उबर नही पाई है।
एक वरिष्ठ साहित्यकार व्दारा
ऐसा किया जाना उनके साहित्यक बौने पन की निशानी है। आज जब दलित आंदोलन तेजी से आगे
बढ़ रहा है,
ऐसे वक्त में श्रेय लेने की होड़ में कुछ लोग ऐसा कृत्य भी करेंगें
यह अकल्पनीय था। बेहतर होता प्रतियोगिता एवं ईर्ष्या की भावना से उपर उठकर वे एक मौलिक
कृति को अंजाम देते,
जो सामाज को रास्ता दिखाने के काम आती।
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