नर्मलजीत सिंह नरुला,
जो इन दिनों निर्मल बाबा के नाम से देश के 39 टीवी चैनलों पर काबिज हैं, चतरा, झारखंड से निर्वाचित लोकसभा सांसद इंदरसिंह नामधारी के साले हैं। निर्मल बाबा उर्फ निर्मलजीत सिंह ने इससे पहले झारखंड में ठेकेदारी की, ईंट भट्टा चलाया, कपड़े की दुकान खोली और जब सब जगह से हताश और विफल हो गए तो सब कुछ छोड़ कर दिल्ली चले आए। यहां आकर उन्होंने ‘समागम’ शुरू किया, जिसमें देश के हजारों लोग शामिल होते रहे हैं। वर्चुअल स्पेस यानी इंटरनेट पर निर्मल बाबा से जुड़ी इस तरह की खबरें पिछले एक महीने से चल रही थीं।मीडिया से जुड़ी वेबसाइटें लगातार इस खबर की फॉलो-अप खबरें दे रही थीं। जबकि एकाध चैनलों को छोड़ दें तो देश के सभी प्रमुख राष्ट्रीय चैनलों पर लाखों रुपए लेकर निर्मल बाबा दरबार और समागम से जुड़े कार्यक्रम प्रसारित होते रहे। इन कार्यक्रमों में भोले श्रद्धालुओं को समस्याओं के टोटके सुझाए जाते थे। जहां तुक्का सही लगा, ‘बाबा’ उसे अदृश्य शक्ति की ‘किरपा’ बताते, जो उनके जरिए श्रद्धालु तक पहुंची! इस बीच इंडीजॉब्स डॉट हब पेजेज डॉट कॉम ने निर्मल बाबा के फ्रॉड होने का सवाल उठाया। उसे निर्मल दरबार की ओर से कानूनी नोटिस भेजा गया और सामग्री हटाने को कहा गया। अब वह पोस्ट इस वेबसाइट से हटा ली गई है। इसके बाद कई मीडिया वेबसाइटों को कानूनी नोटिस दिए जाने की बात प्रमुखता से आती रही। लेकिन किसी भी चैनल ने इससे संबंधित किसी भी तरह की खबर और निर्मल बाबा के विज्ञापन की शक्ल में कार्यक्रम दिखाए जाने को लेकर स्पष्टीकरण देना जरूरी नहीं समझा। टोटके जारी रहे और लंबे-चौड़े ‘कार्यक्रम’ से होने वाली भारी-भरकम कमाई भी। 11 अप्रैल को झारखंड से प्रकाशित दैनिक प्रभात खबर ने ‘‘कौन है निर्मल बाबा’’ शीर्षक से पहले पन्ने पर खबर छापी और फिर रोज उसका फॉलो-अप छापता रहा। हालांकि अखबार की इस खबर में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसे पहले सोशल वेबसाइट और फेसबुक पर शाया न किया गया हो। लेकिन सांसद इंदरसिंह नामधारी का वह वक्तव्य प्रकाशित किए जाने से उन खबरों की आधिकारिक पुष्टि हो गई, जिसमें निर्मलजीत सिंह के अतीत का हवाला भी था। सबसे पहले 12 अप्रैल की शाम स्टार न्यूज ने ‘‘कृपा या कारोबार’’ नाम से निर्मल बाबा के पाखंड पर खबर प्रसारित की। चैनल ने दावा किया कि वह इस खबर को लेकर पिछले एक महीने से तैयारी कर रहा है, लेकिन उसकी इस खबर में उन्हीं बातों का दोहराव था, जो सोशल मीडिया पर प्रकाशित होती आई थीं। यहां तक कि निर्मल बाबा की कमाई के जो ब्योरे दिए, वे समागम में शामिल होने वाले लोगों और उनकी फीस को लेकर अनुमान के आधार पर ही निकाले गए थे। चैनल ने वह कार्यक्रम प्रसारित करने से पहले जो स्पष्टीकरण (डिस्क्लेमर) दिया, वह भी अपने आप में कम दिलचस्प नहीं था। बताया गया कि वह खुद भी निर्मल बाबा के कार्यक्रम को विज्ञापन की शक्ल में प्रसारित करता आया है, जिसे अगले महीने 12 मई से बंद कर देगा। किसी दूसरे विज्ञापन की तरह ही चैनल इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। इस विज्ञापन की पूरी जिम्मेदारी निर्मल बाबा की संस्था निर्मल दरबार के ऊपर है। इसका मतलब है, चैनल निर्मल बाबा के खिलाफ खबर के बावजूद एक महीने तक पाखंड भरे विज्ञापन रूपी कार्यक्रमों को प्रसारित करता रहेगा। इस स्पष्टीकरण और आगे के प्रसारण को लेकर दो-तीन गंभीर सवाल उठते हैं। पहली बात तो यह कि 12 अप्रैल को जब चैनल को पता चल जाता है कि निर्मल बाबा पाखंडी है और दुनिया भर में अंधविश्वास फैलाने का काम कर रहा है, फिर भी व्यावसायिक करार के चलते इसका प्रसारण करता रहेगा। क्या किसी चैनल को कुछेक लाख रुपए के नुकसान की बात पर देश के करोड़ों लोगों के बीच अगले एक महीने तक अंधविश्वास फैलाने की छूट दी जा सकती है, जिसे वह खुद विवाद के घेरे में मानता है। दूसरा, अगर निर्मल बाबा समागम के कार्यक्रम विज्ञापन हैं तो स्टार न्यूज ही क्यों, बाकी न्यूज चैनल भी उसे ‘‘कार्यक्रम’’ की शक्ल में क्यों दिखाते आए हैं? उसे कार्यक्रमों की सूची में क्यों शामिल किया जाता रहा है? क्या किसी दूसरे विज्ञापन के बारे में चैनलों पर कभी बार-बार बताया जाता है कि कौन विज्ञापन कब-कब प्रसारित होगा? चैनलों का इस कदर पल्ला झाड़ लेना कि चूंकि यह विज्ञापन है, इसलिए उनकी जिम्मेदारी नहीं है, क्या सही है? पैसे के दम पर विज्ञापन देकर कोई भी कुछ भी प्रसारित करवा सकता है? फिर आने वाले समय में राजनीतिक विज्ञापन और पेड न्यूज से किस तरह लड़ा जा सकेगा? क्या यह पिछवाड़े से पेड न्यूज का प्रवेश नहीं है, जो पैसा देकर वह सब प्रसारित करवा ले, जो विज्ञापनदाता और विज्ञापन पाने वाले के हित में है, मगर समाज के अहित में? सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा गठित मीडिया मॉनिटरिंग सेल जब कभी बैठक करता है और चैनलों को स्कैन करके जो रिपोर्ट जारी करता है, उसके साथ विज्ञापन के निर्देश भी नत्थी करता है। क्या न्यूज चैनलों के लिए वह सब निरर्थक है? तीसरी, इन सबसे बड़ी बात यह है कि अगर ये विज्ञापन थे- जो थे ही- तो फिर टीआरपी चार्ट में उन्हें बाकायदा चैनल कंटेंट के रूप में क्यों शामिल किया जाता है? न्यूज 24, जिसने सबसे पहले निर्मल बाबा के विज्ञापन को कमाई का जरिया बनाया, जिसका एक भी कार्यक्रम (कालचक्र को छोड़ दें तो) टॉप 5 में नहीं रहा, पिछले दो महीने से निर्मल बाबा पर प्रसारित विज्ञापन इस सूची में शामिल रहा है? क्या इससे पहले कोई और विज्ञापन बतौर चैनल कंटेंट टीआरपी चार्ट में शामिल किया गया है और उसके दम पर चैनल की सेहत सुधारने की कवायद की गई है? गोरखधंधे का यह खेल क्या सिर्फ निर्मल बाबा और टीवी चैनलों तक सीमित है या फिर इसका विस्तार टीआरपी सिस्टम तक होता है? निर्मल बाबा के इस विज्ञापन ने टीवी चैनलों के व्याकरण और सरकारी निर्देशों को किस तरह से तहस-नहस किया है, इसे कुछ उदाहरणों के जरिए बेहतर समझा जा सकता है। हिस्ट्री चैनल, जो कि अपने तर्कसंगत विश्लेषण, शोध और तथ्यपरक सामग्री के लिए दुनिया भर में मशहूर है, वहां भी निर्मल बाबा समागम के कार्यक्रम बिना किसी तर्क और स्पष्टीकरण के प्रसारित किए जा रहे हैं। सीएनएन आइबीएन चैनल, जो कि स्टिंग ऑपरेशन के मामले में अपने को बादशाह मानता रहा है, वहां भी निर्मल बाबा का विज्ञापन चलाने के पहले उनकी पृष्ठभूमि की कोई पड़ताल शायद नहीं की गई। आजतक ने सप्ताह के बीतते हुए सच को जानने-बताने का जरूर जतन किया, कुछ तार्किक लोगों से बात की, जिन्होंने निर्मल बाबा का उपहास किया। लेकिन निर्मल बाबा से की गई ‘एक्सक्लूसिव’ बातचीत काफी नरम थी। क्या यह अकारण है कि निर्मल बाबा ने बाकी हर चैनल को इंटरव्यू देने से इनकार कर दिया?
वैसे तो टीवी चैनलों, खासकर न्यूज चैनलों पर संधि-सुधा, लाल- किताब, स्काई-शॉपिंग के विज्ञापनों के जरिए सरकारी निर्देशों की धज्जियां सालों से उड़ाई जा रही हैं। रात के ग्यारह-बारह बजे उनमें सिर्फ विज्ञापन या पेड कंटेंट दिखाए जाते हैं, जबकि उन्हें लाइसेंस चौबीस घंटे न्यूज चैनल चलाने का मिला है। लेकिन निर्मल बाबा के जरिए यह मामला तो प्राइम टाइम तक पहुंच गया। सवाल है कि जब इन चैनलों के पास चौबीस घंटे न्यूज चलाने की सामग्री या क्षमता नहीं है, तो उन्हें चौबीस घंटे चैनल चलाने का लाइसेंस क्यों दिया जाए? दूसरे, क्या दिन में दो-तीन बार आधे-आधे घंटे के लिए लगातार ऐसे विज्ञापन प्रसारित करना केबल एक्ट के अनुसार सही है? गौर करने की बात है कि इस तरह के लंबे-चौड़े कार्यक्रम-रूपी विज्ञापनों में प्रसिद्ध अभिनेताओं का इस्तेमाल भी होता है, जो मासूम दर्शकों को विज्ञापन के ‘कार्यक्रम’ होने का छलावा पैदा करने में मदद करते हैं।
2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो तमाशे दिखाए गए और अण्णा के लाइव कवरेज से 37.5 की रिकॉर्डतोड़ टीआरपी मिली, उससे टीवी संपादकों का सुर अचानक बदला। शायद टीआरपी की इस सफलता के दम पर ही न्यूज चैनलों के हित में काम करने वाले बीइए और एनबीए जैसे संगठनों ने दावा किया कि इस देश को अण्णा की जरूरत है! अब निर्मल बाबा की टीआरपी अण्णा के उस रिकार्ड को तोड़ कर चालीस तक पहुंच गई है, तो इसका मतलब क्या यह होगा कि देश को लोगों को चूना लगाने वालों की जरूरत है? संभव है कि स्टार न्यूज ने निर्मल बाबा के खिलाफ जो खबर प्रसारित की है, उसकी टीआरपी समागम से भी ज्यादा मिले। यह भी संभव है कि आजतक पर प्रसारित निर्मल बाबा के इंटरव्यू को सबसे ज्यादा देखा गया हो। ऐसा भी हो सकता है कि चैनल अब एक दूसरे की देखादेखी निर्मल बाबा के खिलाफ शायद ज्यादा खबरें प्रसारित करें, क्योंकि सहयोग न करने वाले चैनल को बाबा के भारी – भरकम विज्ञापन मिलने बंद हो जाएंगे। अभी तो बाबा के कारनामों के बारे में जानकारी बहुत प्राथमिक स्तर पर है। तब और तफसील से सूचनाएं आने लगेंगी। लेकिन, क्या एक-एक करके दर्जनों चैनल निर्मल बाबा का असली चेहरा यानी धर्म के नाम पर अंधविश्वास फैलाने वाला पाखंड साबित कर देते हैं तो इससे पूरा सच सामने आ जाएगा? दरअसल, यह तब तक आधा सच रहेगा, जब तक यह बात सामने नहीं आती कि इस करोड़ों (बाबा ने खुद यह राशि करीब 240 करोड़ रुपए सालाना बताई है) की कमाई से टीवी चैनलों की झोली में कितने करोड़ रुपए गए?
तेज-तर्रार संपादकों के आगे ऐसी कौन-सी मजबूरी थी कि उन्होंने अपनी साख ताक पर रख कर इसे प्रसारित किया? क्या कोई संपादक हमारे टीवी चैनलों में ऐसा नहीं, जिसने जनता को गुमराह करने वाले कार्यक्रम-रूपी विज्ञापनों के खिलाफ आवाज उठाई हो? क्या टीवी चैनलों पर सचमुच संपादक हैं? यह सवाल इसलिए जरूरी है, क्योंकि पेड न्यूज मामले में हमने देखा कि 2011 में चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश के विधायक उमलेश यादव की सदस्यता रद्द कर दी, लेकिन जिन दो अखबारों ने पैसे लेकर खबरें छापीं, वे अब भी सीना ताने खड़े हैं। निर्मल बाबा के खिलाफ न्यूज चैनलों द्वारा लगातार खबरें प्रसारित किए जाने से संभव है कि शायद उन पर भी कार्रवाई हो। लेकिन प्रसारित करने वाले 39 चैनल, जो कि इस अनाचार में बराबर के भागीदार हैं, उनका क्या होगा? भविष्य में और ‘निर्मल’ बाबाओं के पैदा होने न होने का मुद्दा भी इसी से जुड़ा है। (मूलतः जनसत्ता के रविवार के अंक में प्रकाशित )विनीत कुमार
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