क्या कभी उनकी आहत भावनाओं को न्याय मिलेगा?
संजीव खुदशाह
विगत 9 अक्टूबर 2014 को दिल्ली स्थित फारवर्ड प्रेस के कार्यालय में छापा पङा । यह छापा किसी दलित बहुजन पत्रिका के कार्यालय में पङने वाला पहला छापा है। इसके पहले भी कुछ पत्रिकाओं में छापे पङे थे लेकिन ये पत्रिकाये दलित बहुजन विचारधारा से प्रेरित नही थी। मै आपको बताना चाहूगां की भारत में अब तक सैकङो दलित बहुजन या अंबेडकरवादी पत्रिकाएँ निकलती है जिनमें अब तक कभी छापे नही पङे। फारर्वड प्रेस एक ऐसी पत्रिका है जो बहुजनवादी दृष्टिकोण से बैकवर्ड को जगाने का बीड़ा उठाये हुये है। हलांकि फारवर्ड प्रेस ने अपने आपको अंबेडकरवादी पत्रिका होने की कभी घोषणा नही की किंतु उनके विचार प्रकोष्ट के महापुरुषों में अंबेडकर का स्थान प्रमुख है।
विगत तीन सालों से इस पत्रिका के अक्टूबर माह का अंक दुर्गा-महिषासुर पर केन्द्रित आ रहा है। इस माध्यम से यह संदेश देने का प्रयास किया जा रहा है कि महिषासुर और दुर्गा की लड़ाई आर्य और अनार्य की लड़ाई है। महिषासुर एक पशु पालक जाति का व्यक्ति और मूल निवासी है जिसे आर्य दुर्गा के माध्यम से छल के द्वारा हत्या करवा देते है। इसी प्रकार फारवर्ड प्रेस देश भर में होने वाले महिषासुर शहादत दिवस कार्यक्रम को प्रमुखता से प्रकाशित कर रहा है। प्रेस की रपट से ज्ञात होता है कि जे एन यू दिल्ली सहित देश के कुछ नाम चीन विश्वविद्यालय में दशहरे के दिन महिषासुर शहादत दिवस मनाया जा रहा है।
फारवर्ड प्रेस में छापे और गिरफ़्तारी से प्रश्न खड़ा होता है कि क्या फारवर्ड प्रेस अकेली वह पत्रिका है जो इस मुद्दे को उठा रही है। जबकि सच यह है कि यह मुद्दा नया नही है, महात्मा ज्योतिबा फुले अपने साहित्य में बलीराजा, प्रहलाद और महिषासुर के मुद्दाे को पहले ही उठा चुके है। वे बलीराजा को भारत का मूल निवासी राजा करार देते है। इस लिहाज से कार्यवाही फूले के उपर होनी चाहिए या उनकी उन किताबों पर, जो इस तरह के संदेश देती है। लेकिन फारवर्ड प्रेस पर दमन की कार्यवाही के पीछे मंशा कुछ और थी, ऐसा प्रतीत होता है। सबसे पहला कारण है फारवर्ड प्रेस भारतीय मूल के किसी ईसाई संपादक के द्वारा संचालित किया जा रहा है, दूसरा कारण है दलित बहुजन आंदोलन को लेकर चलने वाली यह पत्रिका व्यवसायिक तौर पर अपने पैर जमा चुकी है। 10,000 से अधिक संख्या में छपने वाली यह पत्रिका अंग्रेजी हिन्दी दोनो भाषा में प्रकाशित होती है। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोग नये अंक का बेसब्री से इंतजार करते है और यह पत्रिका हांथो हाथ बिक जाती है। ये दोनो कारण किसी भी सामंतवादी विचारधारा के व्यक्ति के लिए संकट बन सकते है। खासकर उनके लिए जो हिन्दू राष्ट्र के पैरो कार है। मुझे लगता है किसी ऐसे ही पूर्वाग्रही व्यक्ति के इशारों में ये कार्यवाही करवाई की गई। इस दौरान कुछ ऐसे मौक़ापरस्त लेखकों के लेख पढने को मिले जिसमें फारवर्ड प्रेस को दोषी ठहराते हुए दुर्गा को स्त्री विमर्श की ऊचाई पर बिठाया गया।
क्या डा अंबेडकर पौराणिक मिथको को बहुजन नायक बनाने के पक्ष में थे ? मै यहां पर यह जानकारी देना आवश्यक समझता हूँ की डाँ भीम राव अंबेडकर महात्मा फूले को अपना गुरू मानते थे। किंतु वे पौराणिक नायकों को बहुजन नायक बनाने पर जोर नही देते थे। वे मानते थे की इससे बहुजन भ्रमित हो जायेगे। इसलिए अंबेडकर वादियों के नायक बुद्ध, कबीर, फुले एवं स्वयं अंबेडकर रहे है। ग़ौरतलब है की फारवर्ड प्रेस ने महिषासुर के मुद्दे को उठा कर खासतौर पर ओबीसी समुदाय के बीच अपना ध्यान खींचा है।
आज से 40 या 50 साल पहले दुर्गा पूजा उत्सव केवल बंगाल या उसके आसपास के क्षेत्रों में मनाया जाता था। अब यह पूरे देश में खासकर उत्तर भारत में बडे ही धूम धाम से मनाया जाता है। लेकिन विगत कुछ सालों से यह उत्सव हिन्दूत्व के प्रतीक के रूप में उभरता गया। किसी जाति (राक्षस या तथाकथित पशु पालक) विशेष की हत्या के प्रतीक के रूप में यह उत्सव पूरे विश्व में सिर्फ यहीं मनाया जाता है। ये भारत जैसे देश का एक दुखद पहलू है की जिसके पास जश्न के कोई और विकल्प नही रह गये है हम ऐसे मिथको पर जश्न मनाने को मजबूर है जो किसी की हत्या पर आधारित है। लानत है ऐसी संस्कृति पर। कल फूले ने ऐसा प्रश्न खड़ा किया था आज फारवर्ड प्रेस ने किया, परसों कोई और किसी मुद्दे पर प्रश्न खड़ा करेगा। आखिर कब तक और किस किस को गिरफ़्तार करेगी सरकार। अभी तो और भी मिथक नायकों के बारे में सवाल खड़े होने बाकी है जैसे रावण, हिरण्याकश्यप, सुग्रीव बाली, एकलव्य,संबूक, बलीराजा आदि आदि।
धार्मिक भावना भङकाये जाने का भ्रम-ज्यादातर ऐसे मुआमलो में यह आरोप लगाना आसान होता है कि ऐसे साहित्यों से धार्मिक भावनाएं आहत हुई। इसलिए जप्ती और गिरफ़्तारी कि कार्यवाही की गई। मेरा कहना है यदि धार्मिक किताबों से किसी की भावनाएं यदि आहत होती हो तो किसकी गिरफ़्तारी होनी चाहिए ? यदि ऐसे किताबों का पठन पाठन हो तो किस पर कार्यवाही होनी चाहिए। तुलसी दास के रामायण में ‘शूद्र गवांर ढोल पशु नारी ये है ताडन के अधिकारी’ में पूरे स्त्री एवं शूद्र वर्ग की भावनाएं आहत हुई और रोज हो रही है। मनु स्मृति में छोटी-छोटी ओबीसी जातियों को अवैध संतान बताया गया है। क्या इससे उनकी भावनाएं आहत नही होती? क्या कभी उनकी आहत भावनाओं को न्याय मिलेगा? भारत की न्याय व्यवस्था पर यह प्रश्न हमेशा भारी पडेगा।
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