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अंबेडकरवादी बहुजन समाज पार्टी के हार की समीक्षा

अंबेडकरवादी बहुजन समाज पार्टी के हार की समीक्षा
·         संजीव खुदशाह
विगत दिनों उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में अंबेडकरवादी पार्टी मानी जाने वाली बी एस पी की करारी हार हुईवही भारतीय जनता पार्टी की बंपर जीत हुई. बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती सहित उसके कार्यकर्ता हार को स्वीकार नहीं कर पा रहे है. बस हार का ठीकरा evm के सर फोड़ रहे है. कुछ तो को कुछ मोहन भागवत को और निर्वाचन आयोग को गरिया रहे है. दरअसल हार की समीक्षा हर हालत में होनी चाहिए चाहे हार का कारण जो भी हो लेकिन bsp evmके मुद्दे की आड़ में हार की समीक्षा से बचना चाहती है. ऐसा प्रतीत होता है. यह उन लोगों के साथ छल की तरह जिन्होंने अपने खून पसीने की कमाई से इस पार्टी को खड़ा किया. इस पार्टी के दान दाता कोई औधोगिक घराना नहीं रहा है इसे उन लोगों ने दान देकर खड़ा किया जिन्हें खुद दो वक्त की रोटी मुश्किल से नसीब होती रही हैं. इनके कार्यकर्ताओं ने बेहद कम संसाधनों में कैम्प आयोजित कर-कर के लोगों को जगाया उन्हें सामाजिक न्याय से अवगत कराया. हर वे लोग जो समानता, समता, प्रगतिशीलता, लोकतंत्र पर यकीन करते थे उन्होंने अम्बेडरवादी पार्टी ब स पा को सपोर्ट किया था और उसे एक ऊंचाई पर देखना चाहते थे. हालांकि राजनैतिक पार्टियों की हार एवं जीत का आम बात है.  बावजूद इसे बसपा का एक-एक समर्थक उन वास्तविक कारणों को जानना चाहता है जिसके कारण उसकी हार हुई है.

इस पर पूर्वाग्रह से मुक्त होकर एक समीक्षा करने का प्रयास कर रहा हूं इसके साथ उन मुद्दों पर बात करूँगा की कैसे और किन कारणों से भारतीय जनता पार्टी जीत सुनिश्चित हुई.
(अ) बसपा ने अपना मूल वोट बैंक (मतदाताओं) का विश्वास खोया
(1) यह एक मात्र पार्टी है जो समाज के वंचितों, दबे कुचले, पिछड़ों के हितों की रक्षा को लेकर खड़ी हुई खासकर उनके आरक्षण के पक्ष को जनता तक पहुंचायालेकिन bsp के सरकार बनते ही सवर्णों को  आरक्षण देने की वकालत करने वाली भी यही एक माह पार्टी बन गई.
(2) यह पार्टी अंबेडकर फुले की विचारधारा को लेकर पैदा हुइ जिसमें लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्खा करनाहर प्रकार की भेदभावसामंतवादब्राह्मणवाद को ख़त्म करने की बातें इसके मूल सिद्धांत में शामिल हैं और अंबेडकर फूल वाद का सबसे बड़ा सिद्धांत है कुर्सी के खातिर अपने सिद्धांतो की बलि को ना चढ़ाना. लेकिन मायावती ने मुख्यमंत्री बनने के लिएbjp के साथ समझौता कर यह संदेश अपने वोटरों को दिया कि वे अंबेडकर सिद्धांत को अपने पैरों तले कुचल ने के लिए आमादा है
(ब)  पार्टी में लोकतांत्रिक मूल्यों की कमी
(1) काशीराम ने जिन लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए इस पार्टी को खड़ा कियापार्टी एक परिवार / व्यक्ति की संपत्ति बनकर रह गई है के प्रति तीन साल बी एस पी में अध्यक्ष पद का चुनाव महज एक औपचारिकता बन कर रह गया काशीराम के बाद मायावती लगातार अध्यक्ष बनती रही. पार्टी सदस्यता का कहना है कि अध्यक्ष चुनाव में नियमानुसार वोटिंग पद्धति का इस्तेमाल नहीं किया जाता है.
(2)  आम कार्यकर्ता और जनता से दूरी
कांशीराम ने जिस प्रकार एक आम कार्यकर्ताओं की तरह जीवन गुजारा,लोगों के बीच रहकर मिशन को खड़ा किया. मायावती ठीक इसके उलट आम आदमी तो दूरविधायक और सांसद को भी मिलने का समय छः – छः  महीने के बाद का देती है. (नाम ना छापने की शर्त पर एक पूर्व सांसद ने इन पंक्तियों के लेखक को यह जानकारी दी है)
(3) हिटलर शाही
मायावती पार्टी की सर्वे सर्व है अगर सतीश चंद्र मिश्रा को छोड़ दे तो शेष कोई भी नहीं है जो मायावती के आगे बैठ सके. वे इस पार्टी की प्रवक्ता है,मीडिया प्रमुख भी खुद ही हैसारे राज्यों की अध्‍यक्ष  वही है कोषाध्‍यक्ष  भी वे ही है याने पार्टी की सारे अधिकार वो अपने पास ही रखती है उन्‍हे पार्टी के किसी कार्यकर्ता और नेताओं पर एक कौड़ी का विश्‍वास नही है।
(4) दूसरी लाइन के नेताओं को ठिकाने लगाना
यदि मैं आपसे पूछ हूं कि bsp मैं कौन-कौन से नेता प्रमुख है तो शायद आप सोच में पड़ जाएंगे। या कोई नाम नहीं बता पाएंगे। मायावती ने बड़ी सोची समझी रणनीति के तहत काशीराम के समय के नेताओ और कार्यकर्ताओं को ठिकाने लगाया है। नतीजतन किसी ने नहीं पार्टी बना लियातो किसी ने दूसरी पार्टी जॉइन कर लियाकिसी ने नया संगठन बना लियाकिसी ने बामसेफ को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया और वे बिखर कर अपने अपने स्तर पर काम करते रहे।
(स) भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के लिए मायावती जरूरी है
सभी जानते हैं कि अंबेडकरवादी बिकाऊ नहीं होते लेकिन बीजेपी कांग्रेस को अपनी राजनीतिक रोटी सेक ने के लिए ऐसे बिकाऊ नेता की नितांत अवश्‍यकता होती है जो देखने में लगे कि यह गरीबों के दलितों के मसीहा हैंअंबेडकरवादी है,लेकिन वास्तव में ऐसा ना हो। इस कड़ी में आप उदित राजरामदास आठवले,रामविलास पासवान आदि का नाम ले सकते हैं इन सभी में मायावती अहम है क्योंकि उनकी मुठ्ठी में बहुजन समाज पार्टी जैसी पार्टी है जिसकी कार्यकर्ता उसे अंधभक्तों की तरफ पूजते हैं(जिस व्‍यक्ति पूजा का विरोध डॉं अंबेडकर ने किया था) उनकी गलतियों तक को सुनने के लिए तैयार नहीं है। स्वर्ण पार्टियों के प्रमुख जानते हैं कि बी एस पी में मायावती के रहते कोई सच्चा लीडर नहीं आ सकता। इसलिए भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस समय समय पर जब जैसा चाहें मायावती और बहुजन समाज पार्टी का प्रयोग करती रही है।
इसी प्रकार मायावती को भी इन केंद्र सरकार वाली पार्टियों की सख्त जरुरत हैक्‍योकि मायावती आय से अधिक संपत्ति (जो की कार्यकर्ताओं के खून पसीने से भेजी गई चंदा की रकम है) भाई के 50 कंपनियों के घोटालेताज कारीडोर जैसे कई मामले में फसी हुई है उन्हें कभी भी सजा हो सकती है उनकी लाख करोड की संपत्ति जप्‍त किया जा सकता है। 
सभी सवर्ण पार्टियां और उनकी मीडिया चाहती है कि मायावती का इसी प्रकार महिमा मंडन किया जाएताकि देश में एक मात्र दलितों की लीडर के रूप में वे नजर आए और उनकी भारी भरकम छवि बनी रहे। आज बहुजन समाज पार्टी नियमानुसार अपनी राष्ट्रीय पार्टी होने का तमगा भी खो चुकी है
(ड) क्या मायावती सच में दलितों की लीडर है?
यह प्रश्न हमेशा खड़ा होता है कि क्या दलित परिवार में जन्म देना ही इस योग्‍यता को समृद्ध करता है कि वह दलितों का नेता है। जबकि यह सच नहीं हैमायावती ने उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहने के दौरान दलितों आदिवासियों वंचितों के लिए क्या-क्या काम किए? उनकी शिक्षा के लिए कितने कॉलेजविश्वविद्यालय बनाएंकितने किताब छपवाएंकौन-कौन सी पत्रिकाएं निकलवाईदेश में होने वाले कितने आंदोलन में वे जमीनी तौर पर शामिल हुईया कौन सा आंदोलन उन्होंने खड़ा किया ? वे कभी भी एक जन नेता के रुप में नहीं जानी गई। जबकि उन्‍होने अंबेडकर सिद्धांत की विरुद्ध अपने कार्यकाल के दौरान निजीकरण को बढ़ावा दिया।

वह कभी भी रोहित वेमुलाजिग्नेश कन्‍हैया कुमार के आंदोलन के साथ नहीं खड़ी हुई। न ही वे किसी दलित प्रताडना या महिला प्रताडना के पक्ष में आंदोलन करते देखा गया। जबकि इसके साथ खड़ी होकर up में बहुजन आंदोलन के रफ्तार को बढ़ा सकती थी।
समाधान
आइए जाने की कोशिश करें की किस प्रकार भारतीय जनता पार्टी ने कैसे जनता का विश्वास जीता
(1) इन्होंने 2014 से पूरे up में अपने कार्यकर्ताओं को काम पर लगवाया जो फूल टाइमर थे इन्‍हे नियत वेतन दिया गया। जबकि बहुजन समाज पार्टी ने सदस्यता का अभियान तक नहीं चलाया और जो कार्यकर्ता फिल्ड में काम करते थे उन्हें आर्थिक सहायता देना तो दूर उनसे चंदा वसूलने का टारगेट दिया जाता रहा।
(2)  भारतीय जनता पार्टी ने अपने मूल सिद्धांत से कभी समझौता नहीं किया हिंदूवाद ब्राह्मणवाद पर अडिग रहे। लेकिन मायावती ने अपने सिद्धांत के उलट ‘’हाथी नहीं गणेश है यह ब्रम्हा विष्णु महेश है ये’’ का नारा बुलंद किया
(3) भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता उत्तर प्रदेश के एक-एक वोटरों से घरों-घर संपर्क किया और वह यह समझाने में कामयाब रहे कि अखिलेश यादवयादव’ के नेता हैं। मायावती चमारों की नेता है। उन्होंने जनता के बीच सबका साथ सबका विकास’ नारा को बुलंद किया जिसकी भनक अखलेश और मायावती तक को नहीं लगी।
(4)  मायावती ने जीतने वाले उम्मीदवारों को दरकिनार कर के मुसलमानों को 100 टिकट देने की कोई कारण नहीं थे। सिवाय इसके की किसी गुप्त समझौते के तहत समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोट काटकर भारतीय जनता पार्टी की जीत सुनिश्चित किया जाए। जब की भारतीय जनता पार्टी अपने सिद्धांत के तहत किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को खड़ा नहीं किया।
(5)  चुनाव प्रचार में अपनी पूरी ताकत झोक दी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने अपनी पूरी कैबिनेट मंत्रियों को उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार में लगा दिया। जिसमें भारतीय जनता पार्टी से शासित राज्‍यों के मुख्यमंत्री भी शामिल है। जबकि बहुजन समाज पार्टी में मायावती अपने सिवाय किसी और को स्टार प्रचारक तक नहीं बनने दिया।
(6) भारतीय जनता पार्टी और rss ने अपने बुद्धिजीवी लेखकों को चिंतकों को सर आंखों पर बिठाया। उन्होंने बकायदा एक इन्‍टेलेक्‍चुअल विंग का निर्माण किया तथा उन से संवाद जारी रखा। इन्होंने माहौल बनानेदस्तावेज बनाने और चुनाव को जिताने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जबकि बहुजन समाज पार्टी ने अपने लेखकों चिंतकों बुद्धिजीवी को दूध की मक्खी की तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया।

बी जे पी की जीत का ठीकरा ई वी एम के सर फोड़ने के पीछे भी एक साजिश की बू आती है। दरअसल मायावती स्वयं यह नहीं चाहती कि बहुजन समाज पार्टी में हार की समीक्षा हो और उनके द्वारा की गई कार गुजारिंया सामने आए। जबकी ई वी एम पर हमला करने पर कार्यकर्ताओं मतदाताओं को आसानी से गुमराह किया जा सकता है।
मैं नहीं कहता कि मायावती बुरी है मैं ये भी नहीं कहता कि बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ताओं ने चुनाव में कोई कोर कसर छोड़ी होगी। मैने वही बात रखी है जो मेरे टेबल में बिखरे समाचार पत्रों दस्‍तावेजो से सामने आई है। कुछ लोगों को लग सकता है कि मैंने मायावती को कुछ ज्यादा ही जिम्मेदार ठहराया है दरअसल हार की समीक्षा तो होनी चाहिए। हार का जिम्मा भी उन्‍ही के सर जाता है जो जीत का सरताज पहने की आगे रहते है। अब मुद्दा ये नहीं रह गया। मुद्दा यह है कि बहुजन समाज पार्टी में कैसे लोकतंत्र की बहाली होकैसे वह अंबेडकर फुले के सिद्धांत पर चलेकैसे वह दबे कुचले लोगों के हितों की बात कर सकेयह तभी संभव है जब बहुजन समाज पार्टी में नेताओं की संख्या में इजाफा होगा और हर एक नेता मुख्यमंत्री बनने की हैसियत रखता हो। लेकिन आज की परिस्थिति में ये संभव नहीं है क्योंकि मायावती अध्यक्ष पद छोड़ेगी नहीयदि छोड़ दिया तो उनका अगला पड़ाव जेल में होगा। क्योंकि जो bsp के नेता उन्हें बचाने की ताकत रखते थे। उन्हें बहनजी ने पहले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया। यदि bsp खत्म होती है यानि मायावती की राजनीतिक ताकत खत्‍म होने की सूरत में भी वे कानून के घेरे में आयेगी। यानी भविष्‍य में भी बहुजन समाज पार्टी एक व्‍यक्‍ति की संपत्ति बनी रहेगी यदि उसके कार्यकता न जागे तो। बेहतर होगा बहुजन समाज पार्टी जल्‍दी से जल्‍दी वास्‍तव में बहुजनों की पार्टी बने उनमें अन्‍दरूनी लोकतंत्र की स्‍थापना हो।




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