झूठ का पुलिंदा है स्वामी विवेकानंद के शिकागो भाषण
स्वामी विवेकानंद को उनके जिस शिकागो भाषण के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है, उसका पुनर्पाठ होना चाहिए। मैंने 1977 में उस भाषण को पढ़ा था, जिसे श्रीरामकृष्ण आश्रम, नागपुर ने "शिकागो वक्तृता " शीर्षक से छापा था। आज मैंने उस भाषण को फिर से पढ़ा। सच कहूँ, मुझे वह झूट का पुलिंदा नजर आया। उसमे इतिहास की पूरी उपेक्षा की गयी है। इस भाषण के बारे में आज के नौजवानों में यह भ्रम है कि स्वामी जी ने शिकागो की धर्म संसद में "जीरो" पर व्याख्यान दिया था, जबकि ऐसा कुछ नहीं था। उन्होंने वहां हिंदूधर्म का ही गुणगान किया था। उन्होंने जो कहा, उसे मै सार रूप में यहाँ दे रहा हूँ--
1- उन्होंने कहा, 'मुझे ऐसे धर्मावलम्बी होने का गौरव है, जिसने संसार को 'सहिष्णुता' की शिक्षा दी है।' वे इतिहास की इस सच्चाई को नकार गये कि इन्हीं धर्मावलम्बियों ने जैन और बौद्ध धर्मावलम्बियों की गर्दनें काटी थीं।
2- उन्होंने कहा, 'मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी की समस्त पीड़ित और शरणागत जातियों तथा भिन्न धर्मों के बहिष्कृत मतावलम्बियों को आश्रय दिया है।' उन्होंने यहाँ इतिहास के इस सच को छिपाया कि जिस देश पर उन्हें अभिमान है, उसी देश में करोड़ों लोगों को दास, अछूत और बहिष्कृत बना कर रखा गया है, जिन्हें मानवीय अधिकार तक प्राप्त नहीं थे।
3- उन्होंने कहा, वेद अपौरुषेय हैं। वे अनादि और अनन्त हैं। किन्तु सत्य यह है कि वेद पौरुषेय हैं और उनके अलग अलग रचयिता हैं।
4- उन्होंने जन्मान्तर वाद का समर्थन करते हुए कहा, 'कुछ लोग जन्म से ही सुखी होते हैं और कुछ लोग जन्म से ही दुखी होते हैं, किसी के हाथ या पाँव नहीं होते, तो कोई मूर्ख होते हैं। ऐसा क्यों? क्या भगवान पक्षपाती है?' यह सवाल करने के बाद वे उत्तर देते हैं, 'यह स्वीकार करना ही होगा कि इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिए, जिनके फलस्वरूप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुखी हुआ करता है। और ये कारण हैं उनके ही पूर्वानुष्ठित कर्म।'
5- उन्होंने मूर्ति पूजा का समर्थन किया और कहा कि मूर्ति के बिना चिन्तन असम्भव है।
6-उन्होंने कोलम्बिया अर्थात अमेरिका की प्रशंसा में कहा, 'ऐ स्वाधीनता की जन्मभूमि कोलम्बिया, तू धनी है। तू ही सभ्य जातियों में अग्रणी होकर शांति-पताका फहराने की अधिकारिणी है।
कवंल भारती
- कवंल भारती
स्वामी विवेकानंद को उनके जिस शिकागो भाषण के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है, उसका पुनर्पाठ होना चाहिए। मैंने 1977 में उस भाषण को पढ़ा था, जिसे श्रीरामकृष्ण आश्रम, नागपुर ने "शिकागो वक्तृता " शीर्षक से छापा था। आज मैंने उस भाषण को फिर से पढ़ा। सच कहूँ, मुझे वह झूट का पुलिंदा नजर आया। उसमे इतिहास की पूरी उपेक्षा की गयी है। इस भाषण के बारे में आज के नौजवानों में यह भ्रम है कि स्वामी जी ने शिकागो की धर्म संसद में "जीरो" पर व्याख्यान दिया था, जबकि ऐसा कुछ नहीं था। उन्होंने वहां हिंदूधर्म का ही गुणगान किया था। उन्होंने जो कहा, उसे मै सार रूप में यहाँ दे रहा हूँ--
1- उन्होंने कहा, 'मुझे ऐसे धर्मावलम्बी होने का गौरव है, जिसने संसार को 'सहिष्णुता' की शिक्षा दी है।' वे इतिहास की इस सच्चाई को नकार गये कि इन्हीं धर्मावलम्बियों ने जैन और बौद्ध धर्मावलम्बियों की गर्दनें काटी थीं।
2- उन्होंने कहा, 'मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी की समस्त पीड़ित और शरणागत जातियों तथा भिन्न धर्मों के बहिष्कृत मतावलम्बियों को आश्रय दिया है।' उन्होंने यहाँ इतिहास के इस सच को छिपाया कि जिस देश पर उन्हें अभिमान है, उसी देश में करोड़ों लोगों को दास, अछूत और बहिष्कृत बना कर रखा गया है, जिन्हें मानवीय अधिकार तक प्राप्त नहीं थे।
3- उन्होंने कहा, वेद अपौरुषेय हैं। वे अनादि और अनन्त हैं। किन्तु सत्य यह है कि वेद पौरुषेय हैं और उनके अलग अलग रचयिता हैं।
4- उन्होंने जन्मान्तर वाद का समर्थन करते हुए कहा, 'कुछ लोग जन्म से ही सुखी होते हैं और कुछ लोग जन्म से ही दुखी होते हैं, किसी के हाथ या पाँव नहीं होते, तो कोई मूर्ख होते हैं। ऐसा क्यों? क्या भगवान पक्षपाती है?' यह सवाल करने के बाद वे उत्तर देते हैं, 'यह स्वीकार करना ही होगा कि इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिए, जिनके फलस्वरूप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुखी हुआ करता है। और ये कारण हैं उनके ही पूर्वानुष्ठित कर्म।'
5- उन्होंने मूर्ति पूजा का समर्थन किया और कहा कि मूर्ति के बिना चिन्तन असम्भव है।
6-उन्होंने कोलम्बिया अर्थात अमेरिका की प्रशंसा में कहा, 'ऐ स्वाधीनता की जन्मभूमि कोलम्बिया, तू धनी है। तू ही सभ्य जातियों में अग्रणी होकर शांति-पताका फहराने की अधिकारिणी है।
कवंल भारती
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