संजीव खुदशाह
दलित शब्द का जिक्र सबसे पहले 1831 की मोल्सवर्थ डिक्शनरी में पाया जाता है. फिर बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर
ने
भी इस शब्द को अपने भाषणों में प्रयोग किया.
प्रोफेसर विवेक कुमार बताते हैं कि
"1921 से 1926 के बीच ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल ‘स्वामी श्रद्धानंद’ ने भी किया था. दिल्ली में
दलितोद्धार सभा बनाकर उन्होंने दलितों को सामाजिक स्वीकृति की वकालत की थी."
संविधान में दलित शब्द नहीं है न ही
दलित शब्द को ले करके कोई स्वीकृति या प्रतिबंध है। लेकिन 2008 में नेशनल एससी कमीशन ने सारे राज्यों को निर्देश दिया था कि राज्य अपने
आधिकारिक दस्तावेज़ों में दलित शब्द का इस्तेमाल न करें।
उल्लेखनीय है कि केरल की कम्युनिष्ट
सरकार ने हरिजन और दलित शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगा दी है। राज्य एसटी/एससी आयोग
की सिफारिश का हवाला देते हुए सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने इस संबंध में सर्कुलर
जारी किया है। आधिकारिक कार्यों और प्रचार-प्रसार में दोनों शब्दों का इस्तेमाल
नहीं करने की अपील सभी विभागों से की गई है।
इन शब्दों पर प्रतिबंध लगाने को लेकर
विभिन्न सरकारी महकमों में चल रही बहस के बीच यह सर्कुलर आया है। इसमें दलित/हरिजन
शब्दों की जगह एससी/एसटी शब्द का इस्तेमाल करने का सुझाव दिया गया है। हालांकि इस
मामले में अंतिम आदेश लोगों से बात करने के बाद ही आएगा।
राज्य एसटी/एससी आयोग के अध्यक्ष
जस्टिस पीएन विजय कुमार के हवाले से टाइम्स ऑफ इंडिया ने बताया है कि इन शब्दों के
इस्तेमाल पर रोक लगाने की सिफारिश आयोग ने उन सामाजिक भेदभाव को खत्म करने के लिए
की थी जो आज भी कई जगहों पर हो रहे हैं। लेकिन, दलित
आंदोलनकारियों को सरकार का यह फैसला रास नहीं आ रहा है। वे इसे दलित राजनीति के
उभार को रोकने की कोशिश बता रहे हैं।
दलित कार्यकर्ता अजय कुमार ने बताया कि
वे सरकार के इस कदम को स्वीकार नहीं कर सकते। दलित संबोधन उन्हें अपमान जनक नहीं
लगता, क्योंकि यह उन्हें एक सामाजिक-राजनीतिक पहचान देता
है। उन्होंने कहा कि यह फैसला ऐसे वक्त में किया गया है जब राज्य में दलित आंदोलन
तेजी से आगे बढ़ रहा है।
प्रसंगवश यह बताना बेहद आवश्यक है कि
एक कट्टरवादी संगठन के कार्यकर्ता प्रेम कुमार सिंह ने इसके पहले से दिल्ली हाई
कोर्ट में एक अपील लगाई हुई है कि मीडिया में दलित शब्द का प्रयोग नहीं किया
जाए इससे दलित हिंदुओं से अलग दिखाई पड़ते हैं और ऊंच-नीच को बढ़ावा मिलता है.
दिल्ली हाई कोर्ट ने उनकी अपील को स्वीकार करते हुए केंद्र सरकार से जवाब तलब किया
है। यदि हाईकोर्ट द्वारा दलित शब्द पर प्रतिबंध का आदेश दिया जाता है तो, दलित शब्द को रिप्लेस करने के लिए एक नए शब्द को खोजना पड़ेगा। क्योंकि
वर्तमान में दलित जैसे व्यापक शब्द के लिए कोई दूसरा शब्द जो सर्व स्वीकृत हो नहीं
है।
गौरतलब है कि दलित शब्द का सर्वप्रथम
व्यापक रूप से प्रयोग महाराष्ट्र से चालू हुआ खासकर दलित पैंथर ने दलित आंदोलन को
काफी तेजी से बढ़ाया। अभी भले ही दलित शब्द का प्रयोग कुछ राज्यों में नही पहुंच
पाया है। लेकिन पूरे देश में दलित शब्द धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है।
वर्तमान में दलित साहित्य पर कई
किताबें लिखी जा चुकी है और दलित साहित्य के नाम से ही किताबें बिकती हैं बहुत
सारे लेखक दलित लेखक के नाम से ही जाने जाते हैं। दलित के नाम पर कई सारे संस्थाएं
बनी हुई है जो जमीनी तौर पर काम कर रही हैं। दलितो की व्यवसायीक संस्था डिक्की
का कार्य किसी से छिपा नही है। इन सभी को अपने लिए नया नाम खोजना होगा। कुछ लोग
मूल निवासी शब्द की सलाह देते हैं। लेकिन दलित लेखक इस शब्द को नहीं स्वीकार करते
हैं उनका कहना है कि मूल निवासी शब्द वंशवाद एवं स्थानीयता के भेदभाव को बढ़ाता है
जोकि अंबेडकरवादी विचारधारा के विरुद्ध है। साथ ही यह शब्द दलित शब्द की तरह तरह
शोषण, दमन, विद्रोह, आंदोलन को परिभाषित नही करता है।
मेरे दृष्टिकोण में वांम पंथी सरकार का
यह सामंतवादी कदम निंदनीय है। वह दलित आंदोलन के साथ-साथ अंबेडकरी आंदोलन को भी
कुचलना चाहती है। केरल सरकार यह कदम निंदनीय और अशोभनीय है | इस
पर तुरंत कड़ा विरोध होना चाहिए | खासतौर से दलित नेताओं ,दलित साहित्यकारो और प्रगतिशील संस्थानों को इसके विरोध में मुखर होना
चाहिए |
फेसबुक में श्री सूरज बड़त्या कहते है
‘केरल वामपंथी सरकार का दिवाली तोहफ़ा ...दलित शब्द के इस्तेमाल पर सरकारी
प्रतिबंध... अब दलित साहित्य .. लेखन .. आंदोलन ..विमर्श सब केरल के बाहर .... ब्राह्मणवादी
वामपंथी नज़रों में तो ये सब वैसे भी साम्राज्यवादी साजिश का ही परिणाम है ...सामाजिक
न्याय की अस्मितावादी धड़कने अब वहाँ सुनाई नहीँ देंगी.. ये प्रतिरोधी स्वरों को दबाना
है ..... प्रगतिशील वामपंथी साथियों आओ इसका विरोध करें’
फेसबुक पर ही श्री नामदेव लिखते है ‘केरल
सरकार द्वारा दलित शब्द को निषेध करने का निर्णय एकतरफा ही नहीं है बल्कि दलित
विरोधी भी है | यह घोर निंदनीय है | हम यह जानते हैं
कि दलित शब्द हजारों वर्षों की उत्पीड़न के खिलाफ चलाए गए आंदोलन से निकला है और
जो अछूत समाज की अस्मिता, संस्कृति तथा प्रतिष्ठा का
सार्वभौमिक प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित हो चूका है | राजनीति,
साहित्य, विमर्श, फिल्म
इत्यादि प्रमुख सामाजिक तंत्रों में *दलित* शब्द रूढ़ हो चूका है | 60 वर्षों से महाराष्ट्र में और 40 वर्षों से हिंदी क्षेत्रों में दलित
साहित्य ने अपनी वैश्विक पहचान बनाई है | देश के लगभग
अधिकांश विश्वविद्यालयों में इसका अध्यापन, अध्ययन और शोध
जारी है | दलित लेखक, दलित नेता,
दलित कलाकार, दलित विमर्श सब सहस्तित्व में
शामिल हैं | ऐसे में केरल की वामपंथी सरकार द्वारा दलित शब्द
को खारिज करना स्पष्ट तौर पर दलित समाज को नकारना ही है | यह
भी सच है कि आज भी अधिकांश नकली सवर्ण वामपंथी जातिवाद को नकारते ही हैं | उनकी एकांगी आयातित वर्गीय अवधारणा में दलितों की पीड़ा लगभग लुप्त ही रही
है | जबकि प्रगतिशील दलित चिंतक मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद
को भारतीय मनुवाद, सामंतवाद, ब्राह्मणवाद
की जातिवादी मानसिकता और अन्याय से ,मिलकर लड़ने पर जोर देते
आ रहे हैं |’
संजीव खुदशाह दलित एवं पिछड़ा
वर्ग साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर, प्रगतिशील
विचारक. कवि, कथाकार, समीक्षक, आलोचक और पत्रकार.
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