भीमा कोरेगांव आज बहुजन समाज के लिए एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल बन चुका है. लेकिन क्याा आपको मालूम है इसे तीर्थ बनाने में लोगो ने अपने जान की बाजी लगा दी. यह समय था आज से लगभग 200 साल पहले 1818 का. जब कहने को तो शिवाजी के वंश मराठों का शासन था पर दरअसल हुक़ूमत पेशवाओं (चितपावन ब्राम्हपणों) की चलती थी. कहा जाता है कि पेशवाओं ने मनुस्मृ(ति के कानून को लागू कर रखा था. वहां पिछड़ी जाति के लोगों को संपत्ति, वस्त्रम, गहने आदि खरीदने के अधिकार नही था. दुकानदार नये वस्त्रे बेचते समय दलितों के बेचे गये वस्त्रृ बीच से फाड़ दिया करते थे. उनका कहना था ऐसा पेशवा का फरमान है. मनुस्मृेति में दिये गये आदेश के अनुसार अन्य्थे जों ( दलितों) के परछाई से भी परहेज करना था. पेशवओं ने दलितों को अपने पीठ में झाड़ू एवं गले में गड़गा बांधने के लिए मजबूर कर दिया था. मकसद था चलते समय उनके पद चिन्ह़ मिट जाये और उनकी थूक सड़क पर न गिरे. एक खास प्रकार का आवाज़ भी उन्हेन निकालना पड़ता था ताकि सवर्ण यह जान जाये की कोई दलित आ रहा है और वे उनकी परछाई से दूर हो जाये. वह अपवित्र हाने से बचे रहे. बड़ी ही जलालत भरी जिन्दलगी थी उस वक्तस दलितों की. जिससे मानवता भी शर्मशार हो जाये.
इस वक्त अंग्रेज शैने शैने अपने पांव जमा रहे थे. पूणे का कुछ हिस्सा उनके कब्जेत में आ चुका था. शनिवारवाड़ा समेत महत्वंपूर्ण हिस्साप अब भी पेशवाओ के हक में ही था. अंग्रेजो ने महार रेजिमेंट का गठन किया जिसमें अन्यत दलित जातियों के साथ साथ ज्याादातर महार जाति के भी लोग थे. दलितों को अपनी गुलामी से निजात पानी थी. लड़ाई में अंग्रेजो का मकसद तो जगजाहिर था लेकिन दलितो ने इस लड़ाई को अपनी अस्मिता का प्रश्नज बना दिया. 1 जनवरी 1818 को संशाधनो की कमी के बावजूद वे पूर दमखम के साथ लड़े. यह निर्णायक लड़ाई पूणे के पास स्थित कोरेगाव जो भीमा नदी से लगा हुआ था पर हुई. दस्ताावेजी तथ्यप के मुताबिक महार रेजिमेन्ट की ओर से करीब 900 सैनिक एवं पेशवाओं की 25000 फौज आपने सामने लड़ी. जिसमें पेशवाओं की बुरी तरह हार हुई. इस लड़ाई ने पेशवा राज को हमेशा हमेशा के लिए खत्मड कर दिया. जो एक इन्सातन की गुलामी का प्रतीक था. बाद में यहां पर एक स्मायरक बनाया गया है जिसमें महार रेजिमेंट के सैनिको के नाम लिखे है. 1927 में डॉं अंबेडकर के यहां आने के बाद इस स्थाहन को तीर्थ का दर्जा मिल गया.
कुछ सामंतवादी लोग इस घटना को देशद्रोह के नजरिये से देखने की कोशिश करते है. वे कहते है अंग्रेज पूंजीवादियों के साथ मिलकर देशी राजाओं से लड़ना देशद्रोह है. जबकि ये लड़ाई देश से भी ऊपर मानव स्तरर की जिन्द़गी पाने के लिए थी. यहां पर अंग्रेज जो उन्हेअ एक इन्साशन का दर्जा दे रहे थे और उन्हेर सैनिक के रूप में स्वी कार कर रहे थे दूसरी ओर भारतीय राज व्यीवस्थाज उन्हेर पालतू जानवर तक का दर्जा भी देने के लिए तैयार नही थी.
क्योी महत्वयपूर्ण है यह लड़ाई?
क्योी महत्वयपूर्ण है यह लड़ाई?
इस लड़ाई को याद रखा जाना इसलिए जरूरी है, क्यो कि आज महार समुदाय के लोग बहुत तरक्की कर चुके है. ये घटना इस बात को दर्शाती है कि उन्होंजने इस मुकाम को पाने के लिए क्या क्याह नहीं किया. आज तमाम दलित पिछड़ी जातियां जिस मानव निहीत सुविधा के हकदार हैं वे उस महार रेजिमेंट के हमेशा ऋणी रहेगे. और सभी वंचित जातियों को प्रेरणा देते रहेगे. हालांकि बाद में अंग्रेजों ने इसी तर्ज पर चमार रेजिमेंट एवं मेहतर रेजिमेंट का भी गठन किया था. लेकिन जब अन्यि सवर्ण जाति के लड़ाके भर्ती किये जाने लगे तो इन रेजिमेंट को बंद कर दिया गया.
इस लड़ाई के बाद अंग्रेजी शासन ने दलितों के लिए शिक्षा, संपत्ति के द्वार खोल दिये गये. महात्माल फुले पढ़कर निकले, पहली महिला शिक्षिका सावित्र बाई फुले बनी. यानि इस लड़ाई ने पूरे वंचित जातियों को प्रभावित किया. जो समाजिक,आर्थिक,बौध्दिक दृष्टिकोण से मील का पत्थ र साबित हुआ.
- लेखक- संजीव खुदशाह
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