क्या गीता एक
साहित्यिक चोरी है ?
प्रेमकुमार
मणि
गीता हिन्दू
अभिजन का केंद्रीय धर्मग्रन्थ तो है ही , इसका
राष्ट्रीय मूल्य भी है . हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में तिलक और गाँधी ने
इसे वैचारिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया और तमाम भारतीय जुबानों में इसकी जाने
कितनी व्याख्याएं हुईं . तिलक का 'गीता रहस्य ' और
गाँधी का यरवदा मंदिर प्रांगण में दिए गए प्रवचनों की श्रृंखला 'गीता
बोध '
देश में खूब पढ़ी गयी है . स्वयं मुझे गीता के बहुत सारे श्लोक
कंठाग्र हैं . उसके खूबसूरत -प्रांजल भाषा सौष्ठव पर मैं मुग्ध होता रहा हूँ .
किसी को संस्कृत सीखनी हो ,तो उसे गीता पढ़नी चाहिए .
लेकिन मैं
कहूं कि साहित्यिक रूप में यह पैरोडी या चोरी है ,तब बात अटपटी
लग सकती है . लेकिन कुछ तथ्यों को देखना शायद बुरा नहीं होगा . ' सौन्दरनन्द
'
के नाम से कम लोग परिचित हैं . यह संस्कृत के महाकवि अश्वघोष
की एक काव्यकृति है . आधुनिक भारत में इससे प्रभावित होकर हिंदी लेखक मोहन राकेश
ने एक बहुत खूब नाटक की रचना की है -'लहरों के राजहंस ' . इसके अलावे मुझे भारतीय जनमन पर इसके
किसी और प्रभाव की जानकारी नहीं है . आप जानते होंगे अश्वघोष बौद्ध थे और उनकी
रचनाएं तड़ीपार कर दी गई थीं . वह वर्णव्यवस्था विरोधी पुस्तक ' बज्रसूचि
'
के लेखक भी थे . उनकी दो और साहित्यिक रचना है -' बुद्ध
चरित '
और 'सारिपुत्रप्रकरण ' . बुद्ध चरित का
आधा ही हिस्सा मिल सका .शेष भाग चीनी अनुवाद से प्राप्त हो सका है . 'सारिपुत्रप्रकरण
'
नाटक है और वह भी अधूरा प्राप्त हुआ है . सौन्दरनन्द सही
सलामत उपलब्ध हो सका है . इसके काव्य सौष्ठव का मैं प्रशंसक हूँ और कह सकता हूँ यह
बुद्धचरित से श्रेष्ठ है .
सौन्दरनन्द को
तरुणाई के दिनों में पढ़ा था . पढ़ते समय मुझे अनुभव हुआ गीता और इसमें बहुत साम्य
है . साम्यता इतनी है कि किसी को भी हैरान कर सकती है . अपने तरीके से उसपर कुछ
सोचा -विचारा था . सोचा था कि इसे लेकर एक लेख लिखूंगा . लेकिन न लिख सका . इधर
मोतीलाल बनारसीदास गया तो सौन्दरनन्द को ढूँढ लाया . गीता तो सहज उपलब्ध हो गयी .
दोनों को आहिस्ता -आहिस्ता पढ़ा .लेख केलिए कुछ नोट्स बनाये . सोचा ,कुछ
मित्रों से भी साझा करूँ .
पहले गीता और
सौन्दरनन्द के तुलनात्मक स्वरूप पर विहंगम नज़र डालें . गीता हमारे राष्टीय धरोहर
महाभारत का एक अंश है ,जिसके कृतिकार कृष्ण द्वैपायन हैं . उन्हें वेदव्यास भी कहा
जाता है . गीता आकार में बहुत छोटी है .इस में अठारह अध्याय और 693 श्लोक
हैं . सौन्दरनन्द में भी अठारह सर्ग या अध्याय हैं ,लेकिन श्लोकों
की संख्या 1063 है . इसके रचयिता अश्वघोष हैं .
अब हम दोनों
के कथानक देखें .
सौन्दरनन्द की
कहानी इस प्रकार है . ज्ञान प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध कपिलवस्तु जाते हैं .
भिक्षाटन केलिए निकले बुद्ध अपने सौतेले भाई नन्द के घर पहुँचते है ; लेकिन
नन्द अपनी युवा पत्नी के श्रृंगार में लगा है . वह बुद्ध की आवाज़ नहीं सुन पाता .
जब उसे पता होता है कि उसके विश्रुत भाई उसके द्वार पर आये और खाली हाथ लौट गए ,तब
वह आत्मग्लानि से भर गया . बुद्ध के पास वह लज्जित भाव से जाता है . पत्नी को
वायदा कर गया है कि उसका विशेषक सूखने के पहले ही वह लौट आएगा . लेकिन बुद्ध का
प्रभामंडल देख वह आकर्षित हो जाता है और भिक्षु बन जाता है . लेकिन उसका मन
डांवाडोल है . वह दुविधाग्रस्त है . पत्नी को वह भूल ही नहीं पाता . बुद्ध उसे संसार
की निस्सारता का उपदेश देते हैं . स्थितप्रज्ञता का महत्व बतलाते हैं . सर्ग 10
और 11
में वह नन्द को स्वर्ग की भव्यता का दिग्दर्शन कराते हैं .अंततः उसकी भी निस्सारता
बतलाते हैं . 12 वे से 18 वे सर्ग तक ज्ञान ही ज्ञान है . दरअसल यह काव्य ग्रन्थ बुद्ध
के विचारों को काव्य रूप में पिरोने का एक खूबसूरत प्रयास है .
गीता की कहानी
,जैसा
कि आप सब परिचित हैं ,कुरुक्षेत्र की है . युद्ध केलिए सेनाएं सजी हैं . अर्जुन जो
कृष्ण का फुफेरा भाई है ,नन्द की तरह दुविधा ग्रस्त है . युद्ध करे या ना करे की
दुविधा में वह डोल रहा है . तीसरे अध्याय से अठारहवें अध्याय तक कृष्ण अर्जुन को
उपदेश देते हैं . संसार की निस्सारता ,ज्ञान और
कर्मयोग का महत्व बतलाते हैं . ग्यारहवें अध्याय में सौन्दरनन्द के स्वर्गदर्शन की
तरह विश्व या विराट दर्शन का नाटकीय रूप है . उसके बाद पुनः ज्ञानदान का सिलसिला .
आश्चर्य तो यह है कि दोनों के ज्ञान तत्व भी मिलते -जुलते हैं . गीता के ज्ञान पर
आस्तिकता का मुलम्मा है . कृष्ण सब कुछ छोड़ अपनी शरण में आने केलिए ,समर्पित
हो जाने केलिए अर्जुन से कहते है . अंततः अर्जुन तैयार हो जाता है . गीता एक
सांसारिक व्यक्ति को युद्ध में प्रवृत्त करता है . वह युद्ध को संसार से पृथक , धर्म
सिद्ध कर देते हैं .
सौन्दरनन्द
में कामासक्त नन्द को बुद्ध धम्म दीक्षा देते हैं . अपने नहीं ,धम्म
के शरण में आने की सीख देते हैं जिससे जीवन सक्रिय और प्रकाशमय हो सके . आस्तिकता
की जगह यहाँ विवेक है ,इसीलिए मेरी दृष्टि में गीता के मुकाबले सौन्दरनन्द में
श्रेष्ठ ज्ञान का प्रदर्शन अथवा चित्रण है .
अब हम
ऐतिहासिकता देखें . अश्वघोष का समय ईसा की पहली सदी लगभग मान्य है . इसलिए यह रचना
लगभग दो हज़ार वर्ष पुरानी है . लेकिन गीता के ऐतिहासिक साक्ष्य 500
से 1500
साल पुराने होने का है . महाभारत जिसका एक अंश गीता है ,कई
बार संशोधित -परिवर्धित हुआ . नाम भी बदलते गए . पहले यह 'जय
'
था , फिर ' भारत ' और अब जाकर महाभारत . गीता महाभारत के आरंभिक स्वरूप का
हिस्सा था ,इसमें संदेह है . संदेह का आधार भाषा है . वर्तमान गीता की जो
भाषा है वह इतनी प्रांजल और बोधगम्य है कि इसके जयदेव के इर्दगिर्द होने का अहसास
होता है . दरअसल बुद्ध के कुछ सौ साल बाद प्रतिनिधि बौद्धों ने पाली छोड़कर संस्कृत
अपना लिया था . बौद्धों ने संस्कृत को नए रूप में ढाला . इसे संकर संस्कृत कहते
हैं . यह कुछ -कुछ हिंदुस्तानी की तरह का प्रयोग था . इससे संस्कृत की रचनात्मकता
विकसित हुई . अनेक रचनाकारों पर संकर संस्कृत का प्रभाव है . गीता का संस्कृत संकर
संस्कृत है . इसीलिए वह सौन्दरनन्द की अपेक्षा अधिक प्रांजल और बोधगम्य है . इससे
प्रतीत होता है गीता सौन्दरनन्द से बहुत बाद की रचना है . यह उससे प्रभावित हो कर
लिखी गयी . पूर्ववर्ती रचनाकारों से प्रभावित होना बुरा नहीं है .यह स्वाभाविक है
. कालिदास पर अश्वघोष के प्रभाव हैं . लेकिन कालिदास निसंदेह अश्वघोष से बड़े
रचनाकार हैं . गीता पर सौन्दरनन्द का प्रभाव नहीं कहा जायेगा ,यह
तो नक़ल है . कथा योजना , शिल्प और विचार तक . भाषा के रूप में गीता निसंदेह सौन्दरनन्द
से आगे है ,लेकिन विचार में यह संभव नहीं हुआ . ऐसा होता तो यह एक
स्वतन्त्र उल्लेखनीय रचना हो सकती थी . ज्ञान पक्ष सौन्दरनन्द का गीता के मुकाबले
उत्कृष्ट है . इसपर विस्तार से फिर कभी .
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प्रेमकुमार
मणि
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prem kumar mani |
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