विद्या भूषण रावत
क्या विश्ववनाथ
प्रताप सिंह इस लायक भी नहीं के उन्हें मंडल कमीशन की सिफारिशे लागु करने के लिए
जिम्मेवार माना जाए. आज उनका जन्मदिन है लेकिन उनको याद करने वाले कम लोग है. बहुत
से उन्हें आज भी जी भर के पानी पी पी के कोसते है. सवर्णों की बहुत बड़ी तादाद
उन्हें आज भी अपने साथ हुए अन्याय के लिए कोसती है और जो मंडल का इतिहास लिख रहे
है वे भी उनलोगों का नाम क्रांतिकारियों में लिखते है जो मंडल के दौरान विपक्षी
कैंप में थे लेकिन वी पी को जान बूझकर भुला देते है. क्या मंडल की कोई व्याख्या वी
पी सिंह के योगदान के बगैर संभव है. हम शरद यादव को श्रेय देते है, रामविलास
पासवान को इसके लिए जिम्मेवार बताते है लेकिन वी पी सिंह को क्यों नहीं ?
विश्वनाथ प्रताप
भले ही शुरूआती दौर से सामाजिक न्याय के मोर्चे के व्यक्ति नहीं रहे हो लेकिन
उन्होंने ईमानदारी से अपने काम किये और उसके लिए ताउम्र सत्ता के हरेक ताकतवर
व्यक्ति से वो टकराए. अम्बानी से लेकर चंद्रास्वामी तक से उन्होंने लड़ा लेकिन
अंततः अकेले पड़ गए. उनकी अपनी बिरादरी वालो ने उन्हें दुश्मन बताया तो जिनके लिए
वो लडे वो भी उनको याद नहीं रख पाते.
दरअसल आज के दौर
में सामाजिक न्याय का मुद्दा सभी का प्रमुख सवाल होना चाहिए था लेकिन उसको भी
खांचो में बाँट दिया गया और नेताओं और उनकी पार्टियों के हिसाब से ही उसकी भी
व्याख्या हो रही है और समय पड़ने पर सभी समझौता करने के लिए भी तैयार बैठे है.
विश्वनाथ प्रताप
की राजनीती की ईमानदार समीक्षा करने का समय है. उनका कार्यकाल हालाँकि कम समय का
था लेकिन भारतीय राजनैतिक पटल पर उन्होंने बहुत असर डाला. आज भारतीय नेताओ को सबसे
आसानी से जिन लोगो ने गुलाम बनाया वो है बाबा ब्रिगेड और दलाल स्ट्रीट के जातिवादी
पूंजीपति. वी पी सिंह इन दोनों से बहुत दूर रहे और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में
उन्होंने इन्ही पूंजीपतियों पर हाथ डाला था जिसके कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री
राजीव गाँधी ने वित्त मंत्रालय से हटाकर रक्षा मंत्रालय में भेजा था. वहा पर भी वी
पी ने एच डी डब्ल्यू सबमरीन घोटाले की जांच के आदेश देकर सभी से दुश्मनी ले ली थी.
वी पी सिंह के
छोटे से कार्यकाल में न केवल मंडल रिपोर्ट लागु हुई अपितु उनकी सरकार अयोध्या में
बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि के प्रश्न पर संविधान की मर्यादाओं का पालन करते हुए
गिरी. भाजपा ने मंडल का सीधे तरीके से विरोध न कर उसको राम नाम की राजनीती से ख़त्म
करने की कोशिश की. वी पी की सरकार को गिरवाने ने कॉर्पोरेट से लेकर ब्राह्मणवादी
ताकते लग गयी क्योंकि सबको पता था के यदि वह सरकार दो साल भी और चल जाती तो देश की
राजनीती में बहुत बड़ा परिवर्तन स्थाई तौर पर हो जाता. दुर्भाग्य ऐसा नहीं हो पाया
क्योंकि राजनैतिक महत्वाकांक्षाओ के चलते उस सरकार को गिरवा दिया गया.
अपनी सरकार के
गिरने के बादभी वी पी कुछ समय तक सक्रिय रहे और उहोने जनता के सवालो पर सामाजिक
आन्दोलनों के साथ मिलकर कार्य किया.
वी पी सिंह की
राजनीती की आज आवश्यकता है क्योंकि मोदी जैसो को वो आसानी से पानी पिला सकते थे.
इसका कारण था उनका जनोन्मुखी राजनीती. वी पी ने हमेशा जनता से अपना संपर्क बनाए
रखा और देश के सभी राजनितिक लोगो से उनके अच्छे सम्बन्ध थे. तमिलनाडु में
करूणानिधि, आंध्र में एन टी रामाराव, और
वामपंथियों से उनके सम्बन्ध बहुत अच्छे थे. आज की राजनीती में ये बहुत आवश्यक है.
दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात, वी पी ने राजनीती में संसदी और पदों की
परवाह नहीं की जो कम से कम आज के दौर में तो देखने को नहीं मिलता. जब नेता आँख
नहीं खोल पा रहे हो लेकिन सांसदी होने का सुख छोड़ने को तैयार नहीं, वही
वी पी सिंह ने ये सब बहुत पहले ही छोड़ दिया. हकीकत यह है के उनका संसदीय कार्यकाल
कुल मिला जुला के १० वर्षो से कम का ही होगा लेकिन संसद पर उनके कार्यो का असर
भारत के किसी भी प्रधानमंत्री से कम नहीं होगा.
वी पी आज भी
हाशिये पे है. लेकिन हम उम्मीद करते है के जब भी देश में सामाजिक न्याय के लिए काम
करने वालो की बात होगी उन्हें जरुर याद किया जाएगा. उम्मीद है के उनकी राजनीती में
मंडल के अलावा उनके छोटे से कार्यकाल के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओ को याद करते हुए और
उनके प्रधानमंत्रिय कार्यकाल के बाद की महत्वपूर्ण घटनाओं पर उनका योगदान जरुर याद
किया जाएगा.
वी पी की
राजनीती जे पी की राजनीती से ज्यादा बड़ी है लेकिन जो वी पी के समय बड़े हुए वे जे
पी का नाम लेते है लेकिन ये नहीं बता पायेगे आखिर जे पी ने सामाजिक न्याय के लिए
किया क्या. शायद वी पी अकेली वो हस्ती है जिनके नाम पर इस देश में एक छोटी सा
मोहल्ला या गली तक नहीं है. वो व्यक्ति जिसने अपनी पूरी जमीन भूदान आन्दोलन को दे
दी और जिसकी बहुत सी जगहों पर आज भी लोग बिना किसी भय के रह रहे है, आज
राजनीती में चुपचाप बिसरा दिया गया है. ब्राह्मणवादी सेक्युलरो को वी पी से सख्त
नफरत है क्योंकि मंडल ने जो दर्द मनुवादियों के सीने में दिया है वो 'असहनीय'
है.
ऐसे में कुछ समय बाद आर एस एस, जिसके विरुद्ध उन्होंने संघर्ष किया और
बोला, उनको 'महान' बता दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
क्या तेजस्वी
यादव और अखिलेश इतनी हिम्मत जुटा पायेंगे के सामाजिक न्याय के इस योधा को याद कर
सके ?
२५ जून, २०१८
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