In the age of silence, who is the supporter of fascism and how?

चुप्पीयुग में, फासीवाद के समर्थक कौन और कैसे?

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(जन संस्कृति मंच के 16वें राष्ट्रीय सम्मेलन में पढ़ा गया भाषण)
डॉ. भीमराव आम्बेडकर भारत में गैरबराबरी के दो कारण मानते थे
एक मनुवाद तो दूसरा पूंजीवाद। यही दोनों जब सत्ता पक्ष में काबिज़ होकर मनमानी पर उतर आए तो उसे फासीवाद कहना ही उचित हैं। मनुवाद जिसमें वर्णव्यवस्था के आधार पर समाज को जातियों के आधार पर चार वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ) में बांटा गया। जो मेहनती पेशे जैसे- किसानी और मजदूरी के काम धंधे से जुड़े मूलनिवासी कहे जाते थे उनको सबसे निचले तबके में रखकर उनका जातिगत उत्पीड़न सदियों-सदियों किया जाता रहा। दूसरा फासीवाद (फ़ासिज़्म) जिसकी पृष्ठभूमि इटली में बेनितो मुसोलिनी द्वारा संगठित "फ़ासिओ डि कंबैटिमेंटो" का राजनीतिक आंदोलन रही जो मार्च 1919 में प्रारंभ हुआ। इसकी प्रेरणा और नाम सिसिली के 19वीं सदी के क्रांतिकारियों- "फासेज़" से ग्रहण किए गए। जो पूरी दुनिया में पूंजी के बल पर अधिनायकवाद से पूरे तंत्र को अपनी जकड़न में समेटकर अपना सपना बुनता है। व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए मीडिया और धर्म गुरुओं को ऊंचे दामों पर खरीदकर सत्ता के विजयगान और जातियों का गौरवगान उन्माद के स्तर पर गाया जाता है। इसके इतर सब देशद्रोही घोषित कर दिए जाते हैं और इसी आधार पर चलता है सत्ता का दमनचक्र।

इसके जरिए एक तो सरकारी संस्थानों को अपने नियंत्रण में लेना है, दूसरा धर्म-जातिभेद आधारित नीति को जिसके परिणाम स्वरूप निचले तबके का दोहरा शोषण कर लोकतंत्र को अपनी गिरफ्त में कर लेता है। इसको हमने 2014 से कलबुर्गी, पंसारे और गौरी लंकेश की निर्मम  हत्याओं के रूप में देखना शुरू कर दिया था जब अवॉर्ड वापसी का दौर चल रहा था ठीक उसी समय कुछ लोग इस अवसर की 'आपदा में अवसर' की तर्ज़ पर सम्मान प्राप्त करने में लगे हुए थे। उनकी पहचान न कर हम उन्हें बधाईयां देने उतर गए थे। 

ये कांवड़ को ढोने वाली उन्मादी भीड़ कभी नहीं समझ पायेंगी अपनी मानसिक गुलामी का कारण, ये भागीदारी के दावेदार बस अपने लिए आर्थिक सुरक्षा की दीवार चाहते हैं जो किसी भी कीमत पर क्यों न मिले। देश, समाज और लोकतंत्र के लिए वोट इनके लिए समझौतों का एक पड़ाव भर है, संविधान में दिए गए समता, बंधुता और न्याय से इनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है। ये वही लोग हैं जो हर युग में अवसर तलाशते रहे हैं। बलात्कार और हत्या इनके लिए किसी लॉटरी से कम नहीं है। इन्हें न्याय और स्वाभिमान से कुछ लेना-देना नहीं। पूंजी इनके सब तालों की चाबी बन गई है। ऐसे ही नहीं कोई गुलामी की देहरी पर बैठता। इसके पीछे यही मानसिकता काम करती है। इन्हें अपनी कीमत के आगे झुकना आता है और अवसर के आगे लपलपाना भी। इन्हें गुलामी के लिए लंबा जीवन चाहिए, स्वाभिमान इनके चरित्र पर फबता नहीं। यही हैं फासीवाद को पोसने वाले लोग, यही तो हथियार हैं सत्ता के हाथों में। इन्हें बस अपनी चुप्पी की कीमत चाहिए। ये सदियों तक मौन साधने के आदि हैं। यही फासीवाद की असल ताक़त है। इनके आंदोलन पूंजी की पोटली के नीचे दबकर दम तोड़ते आए हैं। इन्होंने ही फासीवाद के खिलाफ़ जूझने वालों को नागनाथ और सांपनाथ की संज्ञा देकर, जाति के बल पर जनांदोलन को कुचला है। इन्हें बेरोजगारी, महंगाई और अन्याय में रतिभर भी रुचि नहीं लेकिन बातें इन्हीं की करते दिखाई पड़ेंगे ताकि बहुजनों को झांसे में लिया जा सके। यह इनकी, बकरी दिखाकर सिंह पछाड़ने की पुरानी तरकीब है। हमने हाथी को गणेश में तब्दील होते हुए भी देखा है, यही नव ब्राह्मणवाद को जन्म देने वाली मानसिकता है। हमें इस असल दुश्मन की ओर अपनी तर्जनी को कसकर उठाने की ज़रूरत है। ये समय खुलकर बोलने का है लिहाज़ इन पर पर्दा डालने का काम करता है।

फासीवाद जिसमें एक रंग, एक धर्म और एक व्यक्ति के सिद्धांत का डंका पीटा जाता है विविधता का यहां कोई स्थान नहीं, लोकमत व हितों की कोई गुंजाइश नहीं, अभिव्यक्ति जहां देशद्रोह कहकर लताड़ी जाती है, भ्रष्टाचार जहां का मूलव्यवहार है, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जहां सिर्फ राजनीति के हंटर से हांके जाते हों, सच को जहां साम, दाम, दण्ड, भेद से नियंत्रित किया जाता हों, जहां धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देकर, मनुष्यता को दाव पर लगाकर, झूठ का प्रत्यारोपण किया जाता हो, रोजगार जहां सत्ता स्तुति का गान बन जाता हो, लालच और अवसर जहां चाटुकारिता को बढ़ावा देती हो, योग्यता जहां अपराध बना दी जाती हो। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज फासीवाद को दलितों के कंधों पर ढोया जा रहा है और दलित नेता इसको आपदा में अवसर की तरह लेकर चुप्पी साधे सबकुछ होते देख रहें हैं। पूंजी उनका ध्येय बन चुका है जिसके आधार पर वे बराबरी की कल्पना कर रहे हैं। जो आर्थिक आज़ादी के उलट महत्वकांक्षाओं की रस्सी पर चल रही है। यह आगे निकलने की होड़, समझौतों के बाज़ार में सरेआम बिकाऊ बनकर अपनी कीमत लगा रहे हैं। जब हाथरस की घटना हुई वे चुप रहे, लखिमपुर खीरी की घटनाओं पर वे चुप रहे, अल्पसंख्यकों पर ढाए गए अत्याचारों पर वे चुप रहे, वे चुप रहे संविधान की अवहेलना होने पर भी। इसके बदले में फासीवादी सत्ता की राह में फूल बरसाते रहे। उन्होंने मनुवाद के परशु को भी अपने हाथ में उठाया, उन्होंने सत्ता की चाभी के हासिल में आंबेडकरी सिद्धांतों को पीकदान दिखाए और जो जागे हुए हैं उनके पथ जेलों तक प्रशस्त करने में चुप्पी से समर्थन किया, उसके समर्थन को कमज़ोर व मनोबल को जातिगत समीकरण से प्रभावित किया है। बाबा साहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर के समय में भी ऐसे अवसरवादी उन्हें यह कहकर छोड़कर भाग खड़े हुए थे कि ब्राह्मणों का साथ हमें नागवारा है। लेकिन बाबा साहब ने ऐसे लोगों की परवाह नहीं की और वे अपने अभियान में शामिल हुए सभी साथियों का स्वागत किया और अपने आंदोलनों को आगे बढ़ाते रहे। यही नहीं उन्होंने अंतर्जातीय विवाह कर यह साबित भी किया था। 

अभी हाल ही में साल भर किसान आंदोलन के चलते लगभग 800 किसानों की शहादत हुई, सरकार उन्हें खालिस्तानी, आतंकी और आंदोलनजीवी कहती रही, कोरोना के दौरान गंगा में लाशें तैरती रही सरकार निष्क्रिय रही। आंकड़े प्रस्तुत करने में हलक सूक गए थे। जामिया, जेएनयू, एएमयू के छात्रों को बेरहमी से पीटा गया, ये हमारे से छुपी हुई घटनाएं नहीं है। शहीनबाग के आंदोलन को भाड़े पर चलाया गया साबित करने की कोशिश भी हम देख चुके हैं। दलितों की निष्क्रियता बता रही है कि आरएसएस और भाजपा दलित नेताओं और  बुद्धिजीवियों को  साधने में कामयाब हो गई है। क्योंकि अब लोग हाथरस की घटना को भी भुलाकर पद प्रतिष्ठा के मद में चूर होकर झूम रहे हैं। जिस सरकार ने दलित समाज की बेटी मनीषा की लाश तक परिवार को अंतिम संस्कार के लिए नहीं दी गई आज उन्हीं के गुणगान में सोशल मीडिया में यही समाज उनके साथ मिलकर आज़ादी का अमृत महोउत्सव मना रहे हैं।

समझना होगा कि दलित और मुसलमान इस देश में क्यों इन पिछले आठ सालों में अनापेक्षित करार देकर इसलिए सड़कों पर मारे दिए जा रहे हैं या जेलों में भर दिए जा रहे हैं क्योंकि वे यह दावा कर रहे हैं कि वे इस देश के नागरिक हैं, उन्हें भी अभिव्यक्ति का अधिकार है वरना गौतम नौलखा, सिद्धीकी कप्पन, हन्नी बाबू, साजिद गुल, शरजील ईमाम, गुलफिशा फातिमा, खालिद सैफी, मरीन हैदर, सैबाबा, उमर खालिद और आनंद तेलतुमड़े जैसे अनेक मुखर नागरिकों को जेल नहीं भेजा गया होता। दलित-मुस्लिम एकता और जनांदोलन से जुड़े लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा। उनके खिलाफ न्याय धार्मिक उन्मादी भीड़ और पुलिस के हाथों का हथकंडा बन गया। दूसरी तरफ नुपुर शर्मा अभी भी क्यों कानून की गिरफ्त में नहीं आ पाई? मुस्लिमों के खिलाफ दलितों को लगातार हिंदू होने पर गर्व करवाया जा रहा है। बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि दलितों के प्रतिनिधि भी आंबेडकर की लीक से हट गए हैं। और अपनी महत्वकाक्षाओं के आगे नतमस्तक होकर संविधान की उद्देशिका की धज्जियां उड़ते हुए देख रहे हैं। संविधान के साथ खिलवाड़ देश का हर एक नागरिक देख रहा है और सवाल पूछ रहा है कि क्या एक गांधी - आंबेडकर का भारत है? क्यों आज आज़ादी के 75 सालों बाद भी जाति-धर्म का उन्माद बलबलाता दिखाई पड़ रहा हैं यह लोकतंत्र पर प्रश्न चिन्ह लगा है।



- हीरालाल राजस्थानी
  संरक्षक, दलित लेखक संघ (दिल्ली)
  07 अक्टूबर 2022

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