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Pride of Tailik Samaj -- "Sant Maa Karma" The torch of revolution!

तैलिक समाज की गौरव -- "संत मां कर्मा" 
क्रांति की मशाल हैं !

रामलाल साहू (गुप्ता), रायपुर (छत्तीसगढ़)

हमारे तैलिक समाज में अनेकों महानायकों ने जन्म लिया है ।
Pride of Tailik Samaj -- "Sant Maa Karma"  The torch of revolution!

जिन्होंने समाज में होने वाले अन्याय और  अत्याचार का न सिर्फ विरोध किया बल्कि अपने हिम्मत और हौसले से अत्याचारियों को चुनौती भी दी । उनमें "संत मां कर्मा" का नाम प्रमुखता से लिया जाता है ।

ज्ञात इतिहास के अवलोकन से जो ऐतिहासिक जानकारियां छनकर आती हैं । उनसे यह तथ्य उभरकर आता है कि संत मां कर्मा का जन्म झांसी (उत्तरप्रदेश) के एक संपन्न तैलिक परिवार में हुआ था । जो तेल के व्यवसाय के अग्रणी व्यापारी थे । उनका तेल का व्यापार काफी वृहत्त स्तर पर फैला हुआ था ।

संत मां कर्मा बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि और तेजतर्रार थी । फलस्वरूप पिता के व्यवसाय में भी हाथ बंटाने लगी । परिणामस्वरूप पिताजी का व्यवसाय दिन दूनी रात चौगुनी गति से आगे बढ़ने लगा ।

विवाह योग्य होने पर संत मां कर्मा का विवाह नरवरगढ़ के एक प्रतिष्ठित व्यवसायी परिवार में संपन्न हुआ । नरवरगढ़ के तैलिक वर्ग अपने तेल के सफल व्यवसाय के कारण अत्यंत संपन्न अवस्था में थे । उनकी यह संपन्नता मनुवादी और सामंतवादी वर्ग को बहुत अखरती थी ।

नरवरगढ़ की मनुवादी व सामंतवादी वर्ग, तेली जाति के प्रति सदैव कोई न कोई समस्या खड़ी करते रहते थे ।  जिससे तैलिक वर्ग चिंतित होने के साथ सामंजस्य बनाए रखने का प्रयास भी करता रहा ।

लेकिन हद तो तब हो गई जब मनुवादियों और सामंतवादियों का षड्यंत्र चरम पर पहुंच गया ।

 घटना इस प्रकार है कि एक बार राजा का हाथी बीमार पड़ा । तेली जाति के विरोधी ईर्ष्यालु तत्वों ने राजा के वैद्य के साथ षड्यंत्र करके राजा के कान भरे कि, यदि हाथी को तेल के कुंड में नहलाया जाए, तो हाथी ठीक हो जाएगा । राजा ने चिंतित होकर कहा कि इतना तेल आएगा कहां से ?

जवाब में षड्यंत्री और धूर्त दरबारियों ने कहां की राज्य के तैलिक बहुत संपन्न है । वह आराम से और खुशी-खुशी राजा के हाथी के लिए एक कुंड तेल भर देंगे और इस कार्य से तेली समाज को प्रसन्नता का भी अनुभव होगा । कि हम तैलिक भी किसी रूप में अपने राजा के काम आए ।

इस तरह की उल्टे-सीधे तर्क देकर तैलिक जाति के ईर्ष्यालु और धूर्त दरबारियों ने राजा को रजामंद कर लिया और राजा के नाम से पूरे नगर में तैलिक समाज के नाम एक आदेश प्रसारित करवा दिया कि,

राजा के आदेशानुसार राजा के बीमार हाथी के लिए नगर भर के सभी तैलिक व्यापारी तेल के एक निर्धारित कुंड को भरेंगे और यह आदेश सभी तेल व्यापारियों के लिए राजा का अनिवार्य आदेश है ।

सामंतवादियों और मनुवादियों के इस षडयंत्र से तेली समाज अत्यंत आहत और चिंतित हो उठा । दरबारियों के षड्यंत्र के आगे तैलिक समाज को झुकना पड़ा और उन्होंने राजा के आदेश का पालन करते हुए तेल के निर्धारित कुंड को भर भी दिया ।

उसके बाद सभी तैलिकजन गंभीर चिंतन की मुद्रा में आ गए और फिर संत मां कर्मा के नेतृत्व में एक मीटिंग का आयोजन तैलिक समाज ने आयोजित की । जिसमें सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पास हुआ कि, अब कोई भी तैलिकजन इस अन्यायी राजा के राज में नहीं रहेगा ।

तत्कालीन परिस्थितियों भी तेली जाति चूंकि एक व्यवसाई और उत्पादक जाति थी । अपने तेल की व्यवसाय के कारण ही तैलिक समाज ने प्रगति और सामाजिक सम्मान के क्षेत्र में एक ऊंचाई प्राप्त की थी ।  उस समय और आज भी हमारी तैलिक जाति आक्रामक भूमिका में नहीं थी । फलस्वरुप वह मनुवादी और सामंतवादी षड्यंत्रकारियों का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं थी ।

अतएव संत मां कर्मा के नेतृत्व व  सलाह से समस्त तैलिक समाज ने अन्यायी व ईर्ष्यालु राज व्यवस्था नरवरगढ़ को त्यागना ही उचित समझा ।

झांसी चूंकि संत मां कर्मा का मायका था । सो सभी तैलिकजन संत मां कर्मा के नेतृत्व में नरवरगढ़ को छोड़कर झांसी आ बसे ।

झांसी में व्यवस्थित होने के बाद संत मां कर्मा लगभग सभी सामाजिक कार्यक्रमों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने लगीं । संत मां कर्मा की सामाजिक प्रतिष्ठा दिनों दिन बढ़ती ही रही ।

कालांतर में काफी समय बाद समाज के बड़े बुजुर्गों ने तीर्थांटन की इच्छा संत मां कर्मा के समक्ष व्यक्त की  । तीर्थांटन हेतु संत मां कर्मा के नेतृत्व में झांसी के अनेकों बड़े-बुजुर्ग तीर्थयात्रा पर निकल पड़े ।

तत्कालीन परिस्थितियों में यातायात का भारी अभाव था । फलस्वरुप सभी तीर्थयात्री न्यूनतम जरूरी सामान के साथ तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े  । उस समय सबसे आसान भोजन खिचड़ी ही था । जो एक ही बर्तन में बगैर किसी अन्य परिश्रम से आसानी से बन जाता था ।  चावल-दाल-नमक और न्यूनतम  छोटे-छोटे बर्तन पर्याप्त था । लगभग सभी तीर्थ यात्रियों का आसान और नियमित भोजन ऐसा ही था ।

अनेक दर्शनीय जगहों की यात्रा और तीर्थयात्रा करके संत मां कर्मा अंत में जगन्नाथपुरी पहुंची अपने अन्य सभी सहयोगी तीर्थयात्रियों के साथ ।

जगन्नाथपुरी मंदिर के पुजारी घोर मनुवादी, छुआछूतवादी, ऊंचनीचवादी और भेदभाववादी थे । वे पुजारी सिर्फ ऊंची जातियों को ही मंदिर प्रवेश करने देते थे ।  ब्राम्हण पुजारी पिछड़ी जातियों को मंदिर के अंदर तो क्या ऊपर सीढ़ियां भी चढ़ने नहीं देते थे । बाहर से ही उन्हें पूजा अर्चना का अधिकार था ।


जब यह बात संत मां कर्मा को पता चली तो उन्होंने इसका विरोध किया । पुजारी फिर भी नहीं माने ।  तो संत मां कर्मा ने वहां पधारे सभी पिछड़ी जाति के तीर्थ यात्रियों को इकट्ठा किया और उनके सामने इस भेदभाव के मुद्दे पर गंभीर चर्चा की ।

अंत में यह तय हुआ कि अमुक दिन और अमुक समय सभी पिछड़ी जाति के तीर्थयात्री और दर्शनार्थी अपने इस धार्मिक अधिकार के लिए एक साथ मंदिर प्रवेश करेंगे ।

जब संत मां कर्मा के नेतृत्व में भारी जनसमूह मंदिर प्रवेश करने लगा । तो ब्राम्हण पुजारियों ने सीढ़ी के पास प्रथम द्वार पर ही संत मां कर्मा को बहुत जोर का धक्का दे दिया । यात्रा से थकी मांदी कमजोर संत मां कर्मा का पुजारियों के जोरदार धक्के से वही प्रणांत हो गया ।


जब हालात् पुजारियों के नियंत्रण से बाहर हो गई । तो वे अंदर से कृष्ण की प्रतिमा लाकर संत मां कर्मा के पास रख दिया और यह अफवाह फैला दिया कि भगवान कृष्ण खुद चलकर आकर संत मां कर्मा को दर्शन दे रहे हैं ।

हमारा अज्ञानी समाज एक बार फिर पंडित पुजारियों के झांसे में आ गया ।

हमें संत मां कर्मा के जीवन संघर्ष से दो मुख्य बाते सीखनीं है । प्रथम-- अन्यायी राजा के राज्य को छोड़कर आपने अहिंसात्मक संघर्ष व विरोध का प्रदर्शन सार्वजनिक तौर से किया था ।

द्वितीय-- धार्मिक अधिकार के मुद्दे को लेकर उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से पुरजोर विरोध और  संघर्ष का रास्ता अपनाया । भले ही इसके लिए उन्हें अपना बलिदान भी देना पड़ा । लेकिन वे समाज के सम्मान और अधिकार के लिए एक संदेश छोड़ गई है कि अधिकार के लिए संघर्ष में जीवन का बलिदान भी देना पड़े तो हमें संघर्ष पीछे नहीं हटना चाहिए ।


खिचड़ी को संत मां कर्मा के प्रसाद के रूप में प्रचारित किया जाता है । दरअसल तत्कालीन परिस्थितियों में सीमित साधन सुविधा के कारण लगभग सभी तीर्थ यात्री न्यूनतम सामान और न्यूनतम खाद्य पदार्थ के साथ यात्रा करते थे । क्योंकि खिचड़ी सहज और न्यूनतम साधन सुविधा से उपलब्ध हो जाता था । खिचड़ी का कोई धार्मिक आधार नहीं है ।

यह लेख अंतिम नहीं समझा जावे । बल्कि अन्य सामाजिक लेखक भी अपनी लेखनी संत मां कर्मा के जीवनी पर चलाएं और उनके जीवन संघर्ष  से समाज को परिचित कराएं । 

सभी लेखकों के विचारों का स्वागत किया जाना चाहिए । धन्यवाद ।
Ramlal Sahu Gupta Raipur Chhattisgarh


लेखक--
 रामलाल साहू गुप्ता,
रायपुर (छत्तीसगढ़)
संपर्क मोबाइल 9407764442.

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