राष्ट्रीय
प्रत्रिका 'हंस` जून २०१० अंक पृष्ठ-८६
पुस्तक समीक्षा
पिछड़ा वर्ग की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण
-रमेश
प्रजापति
समाजशास्त्र की ज्यादातर पुस्तकें अंग्रेजी में ही उपलब्ध होती थी, परन्तु पिछले कुछ वर्षो से हिन्दी में समाजशास्त्र की पुस्तकों के आने से सामाजिक विज्ञान के छात्रों के लिए संभावनाओं का एक नया दरवाजा खुला है। साथ ही हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों को भारत की सामाजिक परम्परा से जुड़ने का अवसर भी प्राप्त हुआ है। आज इस श्रृंखला में एक कड़ी युवा समाजशास्त्री संजीव खुदशाह की पुस्तक
''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` भी जुड़ गई है। यह पुस्तक लेखक का एक शोधात्मक ग्रंथ है। पुस्तक के अंतर्गत लेखक ने उत्तर वैदिक काल से चली आ रही जाति प्रथा एवं वर्ण व्यवस्था को आधार बनाकर पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास-प्रक्रिया और उसकी वर्तमान दशा-दिशा का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया है।
आदि काल से भारत के
सामाजिक परिपे्रक्ष्य को देखे तो भारतीय समाज जाति एवं वर्ण व्यवस्था के व्दंद से
आज तक जूझ रहा है। समाज के चौथे वर्ण की स्थिति में अभी तक कोई मूलभूत अंतर नही हो
पाया है। आर्थिक कारणों के साथ-साथ इसके पीछे एक कारण सवर्णो की दोहरी मानसिकता भी
कही जा सकती है। पिछड़ा वर्ग जोकि चौथे वर्ण का ही एक बहुत बड़ा हिस्सा है। इस
वर्ग की सामाजिक स्थिति के संबंध में लेखक कहता है-''पिछड़ा
वग्र एक ऐसा कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है और
न ही अस्पृश्य या आदीवासी इसी बीच की स्थिति के कारण न तो इसे सवर्ण होने
का लाभ मिल सका है और न ही निम्न होने का फायदा मिला।`` पृ.१४ यह बात सत्य दिखाई देती है कि पिछड़ा वर्ग आज
तक समाज में अपना सही मुकाम हासिल नही कर पाया है। उसकी स्थिति ठीक प्रकार से
स्पष्ट नही हो पा रही है इसीलिए इस वर्ग की जातियॉं अपने अस्तित्व के बचाए रखने के
लिए संघर्ष कर रही है।
विवेच्य पुस्तक में अभी
तक की समस्त भ्रांतियों, मिथकों और पूर्वधारणाओं को तोड़ते हुए धर्म-ग्रंथों
से लेकर वैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर पिछड़े वर्ग की निर्माण प्रक्रिया को
विश्लेषित किया गया है। लेखक ने आवश्यकता पड़ने पर उदाहरणों के माध्यम से अपने
निष्कर्षो को मजबूत किया है। भारत की जनसंख्या का यह सबसे बड़ा वर्ग है जो वर्तमान
स्थितियों -परिस्थितियों के प्रति जागरूक न होने के कारण राजनीतिक, सामाजिक
और आर्थिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका नही निभा पा रहा है। इस वर्ग की
यथार्थ स्थिति के बारे में लेखक का मत है-''व्दितीय राष्टीय पिछड़ा
वर्ग आयोग की रिपोर्ट तथा रामजी महाजन की रिपोर्ट कहती है कि भारत वर्ष में इसकी
जनसंख्या ५२ प्रतिशत है, किन्तु विभिन्न संस्थाओं , प्रशासन
एवं राजनीति में इनकी भागीदारी नगण्य है। चेतना की कमी के करण यह समाज आज भी
कालिदास बना बैठा है।`` पृ. १४ गौरतलब है कि प्राचीन
काल से ही इस वर्ग की जातियॉं अपनी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के कारण सदैव
दोहन-शोषण का शिकार रही है। भूमंडलीकरण के आधुनिक समाज में इस वर्ग की स्थिति
ज्यो-कि-त्यों बनी हुई है। हम वैज्ञानिक युग में जी रहे है परन्तु आज भी अंध
विश्वास के कारण कुछ पिछड़ी जातियों का मुंह देखना अशुभ माना जाता है। जिसकी
पुष्टि लेखक के अपने इस वक्तव्य से की है-''आज भी सुबह-सुबह एक तेली
का मॅुह देखना अशुभ माना जाता है। वेदों-पुराणों में पिछड़ा वर्ग को व्दिज होने का
अधिकार नही है, हालाकि कई जातियॉं
अब खुद ही जनेउ पहनने लगी । धर्म-ग्रंथो ने इन शुद्रों को (आज यही शुद्र
पिछड़ा वर्ग में आते है) वेद मंत्रों को सुनने पर कानों में गर्म तेल डालने का
आदेश दिया है। पूरी हिन्दू सभ्यता में विभिन्न कर्मो के आधार पर इन्ही नामों से
पुकारे जाने वाली जाति जिन्हे हम शुद्र कहते है। ये ही पिछड़ा वर्ग कहलाती है।`` पृ. २३ इसी पिछड़ा वर्ग के उत्थान और सम्मान के
उद्देश्य से समय-समय पर महात्मा ज्योतिबा फूले, डा. अम्बेडकर, लोहिया, पेरियार, चौ.चरण
सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह आदि पिछड़े वर्ग के समाज
सुधारकों और राजनेताओं ने जीवनपर्यंत सतत् संघर्ष किए है। बावजूद इसके पिछड़ा वर्ग
आज तक इन समाज सुधारकों को उतना सम्मान नही दे पाया जितना कि उन्हे मिलना चाहिए
था।
पिछड़ी जातियों की
जॉंच-पड़ताल करते हुए उन्हे कार्यो के आधार पर वर्गीकृत करके इस वर्ग के अंदर आने
वाली जातियों का भी लेखक ने गहनता से अध्ययन किया है। लेखक ने इन्हे समाज की
मुख्यधारा से बाहर देखते हुए शूद्र को ही पिछड़ा वर्ग कहा है, जिसमें
अतिशूद्र शामिल नही है। इस कार्य हेतु लेखक ने पिछड़ा वर्ग की वेबसाईट का सहारा
लिया है, जिससे वह अपने तर्क को अधिक मजबूती से सामने रखने में
सफल हुआ है। पूर्व वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई अस्तित्व नही था वह उत्तर
वैदिक काल में सामने आई और इसी काल में विकसित भी हुई। आर्यो के पहले ब्राम्हण
ग्रथों में तीन ही वर्ण थे जबकि चौथे वर्ण शुद्र की पुष्टि स्मृतिकाल में आकर
हुर्ह है। शुद्र शब्द को लेखक ने कुछ इस तरह परिभाषित किया है- ''शुद्र
शब्द सुक धातु से बना है अत: सुक(दु:ख) द्रा (झपटना यानि घिरा होना) यानि जो दुखों
से घिरा हुआ है या तृषित है। तैत्तिरीय ब्राम्हण के अनुसार शूद्र जाति असुरों से
उत्पन्न हुई है। (देव्यों वै वर्णो ब्राम्हण:। असुर्य शुद्र:।) यजुर्वेद। ३०-५ के
अनुसार (तपसे शुद्रम) कठोर कर्म व्दारा जीविका चलाने वाला शूद्र है। यही गौतम धर्म
सुत्र (१०-६,९) के अनुसार अनार्य शुद्र है।`` पृ.-३७ मनुस्मृति के आधार पर अनुलोम एवं प्रतिलोम
सूची के अनुसार पिछड़ी जातियों की उत्पत्ति के संबंध में लेखक इस निष्कर्ष पर पहुंचा
है- ''अभी तक हम यह मान रहे थे कि समस्त पिछड़ी जातियॉं
शुद्र वर्ग से आती है, किन्तु यह सूची एक नही दिशा
दिखलाती है, क्योकि ऐसा न होता तो वैश्य पुरूष से शुद्र स्त्री के
संयोग से दर्जी का जन्म क्यों होता, जबकि हम दर्जी को भी
शुद्र मान रहे है। इस प्रकार शुद्र पुरूष या स्त्री से अन्य जाति के पुरूष-स्त्री
के संभोग से निषाद, उग्र, कर्ण, चांडाल, क्षतर, अयोगव
आदि जाति की संतान पैदा होती है। अत: इस बात की पूरी संभावना है कि अन्य कामगार
जातियों का अस्तित्व निश्चित रूप से अलग रहा है।`` पृ.-३० लेखक व्दारा दी गई पिछड़ी जातियों की निर्माण
प्रक्रिया हमारी पूर्व धारणाओं को तोड़कर आगे बढ़ती है। यदि शुद्रों का विभाजन
किया जाए तो हम देखते है कि पिछड़ी जातियॉं शुद्र वर्ण के अंतर्गत ही आती है।
शुद्र के विभाजन के संदर्भ में पेरियार ललई सिंह यादव का यह कथन देखा जा सकता है-''समाज
के तथाकथित ठेकेदारों व्दारा जान-बूझकर एक सोची-समझी साजिश के तहत शुद्रों के दो
वर्ग बना रखे है, एक सछूत शुद्र (पिछड़ा वर्ग) दूसरा अछूत शूद्र
(अनुसूचित जाति वर्ग)।``
आर्यो की वर्ण -व्यवस्था
से बाहर, इन कामगार जातियों के संबंध में लेखक 'सभी
पिछड़े वर्ग की कामगार जातियों को अनार्य` मानते है। समय-समय पर
भारत के विभिन्न हिस्सों में जाति व्यवस्था के अंतर्गत परिवर्तन हुए जिनसे पिछड़ा
वर्ग का तेजी से विस्तार हुआ। अपने काम-धंधों पर आश्रित ये जातियॉं अपनी आर्थिक
स्थिति के कारण देश के अति पिछड़े भू-भागों में निम्नतर जीवन जीने को विवश है।
लेखक ने सामाजिक समानता से दूर उनके इस पिछड़ेपन के कारणों की भी तलाश की है।
पुस्तक में पिछड़ा वर्ग को कार्य के आधार पर उत्पादक और गैर उत्पादक जातियों में
बांटा गया है।
यदि जातियों के इतिहास
में जाए तो हम देखते है कि भारत में वर्ण-व्यवस्था का आधार कार्य और पेशा रहा, परन्तु
कालान्तर में इसे जन्म पर आधारित मान लिया गया है। दरअसल भारत की जातीय संरचना से
कोई भी जाति पूर्ण रूप से संतुष्ट दिखाई नही देती और उनमें भी खासकर पिछड़ी
जातियॉं। जाति व्यवस्था को लेकर १९११ की जनगणना में यह असंतोष की भावना मुख्यत:
उभर कर सामने आई थी। उस समय अनेक जातियों की याचिकाऍं जनगणना अयोग की मिली, जिसमें
यह कहा गया था कि हमें सवर्णों की श्रेणी में रखा जाए। परिणामस्वरूप जनगणना के
आंकड़ो में ढेरों विसंगतियॉं और अन्तर्जातीय प्रतिव्दन्व्दिता उत्पन्न हो गई थी।
आज भी कायस्थ, मराठा भूमिहार और सूद सवर्ण जाति में आने के लिए संघर्षरत
है। ये जातियॉं अपने आप को सवर्ण मानती है परन्तु सवर्ण जातियॉं इन्हे अपने में
शामिल करने के बजाए इनसे किनारा किए हुए है। लेखक ने अपने अध्ययन में तथ्यों और
तर्को के आधार पर इन जातियों की वास्तविक सामाजिक स्थिति को चित्रित करने का
प्रयास किया है। यदि गौर से देखे तो आज भी पिछड़ा वर्ग का व्यक्ति अपनी स्थिति को
लेकर हीन भावना से ग्रस्त है। जबकि भारत के विभिन्न राज्यों की अन्य जातियॉं
आरक्षण लाभ उठाने की खातिर पिछड़े वर्ग में सम्मिलित होने के लिए संघर्ष कर रही
है। आधुनिक भारत में समय-समय पर जातियों के परिवर्तन करने से बहुत बड़े स्तर पर
सामाजिक विसंगतियॉं उत्पन्न होती रही है। पिछड़ा वर्ग को अपनी समाजिक और आर्थिक
स्थिति सुदृढ़ बनाने के लिए विचारों में बदलाव लाना अति आवश्यक है। जॉन मिल कहते
है,''विचार मूलभूत सत्य है। लोगो की
सोच में मूलभूत परिवर्तन होगा, तभी समाज में परिवर्तन
होगा।`` यदि यह वर्ग जॉन मिल के
इन शब्दों पर सदैव ध्यान देगा तो वह अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति स्थिति को उचित
दिशा देकर अवश्य आगे बढ़ सकेगा।
आज भी सवर्णो में गोत्र
प्रणाली विशिष्ट स्थान रखती है। प्राचीन काल से लेकर इस उत्तर आधुनिक समय में भी सगोत्र
विवाह का सदैव विरोध होता रहा है। इनको देखते हुए कुछ पिछड़ी जातियॉं भी ऐसे विवाह
संबंधो का विरोध करन लगी है। ताज़ा उदाहरण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग की
जाट जाति को लिया जा सकता है। जिसने हाल ही में समस्त कानून व्यवस्थाओं को ठेंगा
दिखाकर सगोत्र और प्रेम-विवाह का कड़ा विरोध किया है। जाट महासभा ने ऐसे विवाह के
विरोध में अपना फासीवादी कानून भी बना लिया है।
पिछड़े वर्ग में व्याप्त
देवी-देवताओं से संबंधित अनेक परम्परागत मान्यताओं और धारणाओं का भी लेखक द्वारा
गंभीरता से अध्ययन किया गया है। गौतम बुध्द की जातिगत भ्रातियों को लेखक ने सटीक
तथ्यों के माध्यम से तोड़कर उन्हे अनार्य घोषित किया है। बुध्द और नाग जातियों के
पारस्परिक संबंध को बताते हुए डॉ. नवल वियोगी के कथन से अपने तर्क की पुष्टि इस
संदर्भ में की है कि महात्मा बुध्द अनार्य अर्थात शुद्र थे, जिन्हे
बाद में क्षत्रिय माना गया-''बौध्द शासकों के पतन के बाद
स्मृति काल में ही बुध्द की जाति बदल कर क्षत्रिय की गई तथा उन्हे विष्णु का दशवॉं अवतार भी इसी काल
में बनाया गया।`` पृ.-७४
धार्मिक पाखंडो से
मुक्ति दिलाने और पिछड़ों के अंदर चेतना का संचार करके उनके उत्थान के लिए देश भर
के बहुत से समाज सुधारक साहित्यकारों व्दारा समय-समय पर सुधारवादी आंदोलन चलाए गए
है। इन साहित्यकारों के व्यक्तित्व और उनके सामाजिक कार्यो का लेखक ने बड़ी ही
शालीनता से अपनी इस पुस्तक में परिचय दिया है। इन संतों में प्रमुख है-संत नामदेव, सावता
माली, संत चोखामेला, गोरा कुम्हार, संत
गाडगे बाबा, कबीर, नानक, नानक, पेरियार, रैदास
आदि। मंडल आयोग की सिफारिशों और आरक्षण की व्यवस्था के विवादों की लेखक ने इस
पुस्तक में अच्छी चर्चा की है।
प्राचीन भारत की सामाजिक
व्यवस्था को लेकर आधुनिक भारतीय समाज में पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास
के साथ-साथ उनकी समस्याओं और उनके आंदोलनों का अध्ययन संजीव खुदशाह ने बड़ी
सतर्कता के साथ किया है। लेखक ने पिछड़ा वर्ग के इतिहास के कुछ अनछुए प्रसंगों पर
भी प्रकाश डाला है। संजीव खुदशाह ने धार्मिक ग्रंथो, सामाजिक संदर्भो और राजनीतिक
सूचनाओं का गहनता से अध्ययन करके आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग की वास्तविक सामाजिक
स्थिति को सहज-सरल भाषा में सामने रखने की कोशिश की है। कोशिश मै इस कारण से कह
रहा हूं कि लेखक ने इतने बड़े वर्ग के संघर्षो और संत्रासों को बहुत ही छोटे फलक
पर देखा है। लेखक का पूरा ध्यान इस वर्ग-विशेष के सामाजिक विश्लेषण पर तो रहा
परन्तु उनके शैक्षिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विश्लेषण पर नही के बराबर रहा
है। आधुनिक भारत में जिस पूंजीवाद ने समाज के इस वर्ग को अधिक प्रभावित किया है
उससे टकराए बिना लेखक बचकर निकल गया, यह इस पुस्तक का कमजोर
पक्ष कहा जा सकता है। फिर भी मै इस युवा समाजशास्त्री को बधाई जरूर दूंगा जिन्होने
बड़ी मेहनत और लगन से भारत के इतने बड़े वर्ग की स्थिति पर अपनी लेखनी चलाई है।
पुस्तक का नाम आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग
(पूर्वाग्रह, मिथक
एवं वास्तविकताएं)
लेखक -संजीव खुदशाह
ISBN
-97881899378
मूल्य - 200.00 रू.
संस्करण - 2010 पृष्ठ-142
प्रकाशक - शिल्पायन 10295, लेन नं.1
वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,
दिल्ली -110032
फोन-011-22821174
रमेश प्रजापति
डी-८, डी.डी.ए.
कालोनी
न्यू जाफराबाद, शाहदरा,
दिल्ली-११००३२
मोबाईल-०९८९१५९२६२५
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