समयांतर अक़्र्तुबर
२०१०
पुस्तक समीक्षा
''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` नवीन धारणाओं का शोधपूर्ण दस्तावेज।
जयप्रकाश वाल्मीकि
श्री संजीव खुदशाह दलित रचनाकार है। इस पर भी वे इस समुदाय पर एक शोधकर्ता रचनाकार के रूप में पहचाने जाते है। उनकी यह पहचान पूर्व में लिखी उनकी पुस्तक -'सफाई कामगार समुदाय` के कारण बनी। और अब यह पहचान और भी ज्यादा पुष्ठ हो गई हे। चुकि इस कड़ी में हाल ही में उनकी नवीन पुस्तक
''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` एक शोधपूर्ण आलेख (दस्तावेज) है। पिछड़े वर्ग को लेकर समाज में जो मिथक बने हुए थे लेखक ने उससे अलग हट कर वास्तविकताओं को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है।
पुस्तक की शुरूआत मानव
उत्पत्ति पर विचार करते हुए की गई है। श्री खुदशाह ने इस हेतु धर्मशास्त्रों में मानव
उत्पत्ति को लेकर की गई व्याख्यापित मान्यताओं को सम्मलित किया है। हिन्दूधर्म ग्रन्थों
के, ईसाई धर्म, (सृष्टि का वर्णन) मुस्लिमधर्म (सुरतुल बकरति, आयात सं.-३० से ३७)
को भी उद्घृत कर अंत में वैज्ञानिक मान्यताओं के अंतर्गत स्पष्ट किया है कि मानव उत्पत्ति
करोड़ो वर्ष के सतत विकास का परिणाम है। लेखक ने मानव उत्पत्ति की धर्मिक अवधारणाओं
के साथ-साथ पूर्व की वैज्ञानिक अवधारणाओं को भी तोड़ा है। जैसे कि डार्विन का मत था
कि माानव की उत्पत्ति वानर(बंन्दर) से हुई। हालाकि मानव उत्पत्ति से पहले अध्याय की
शुरूआत रोचक और ज्ञानवर्धक है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानव उत्पत्ति के प्रश्नों
को जिस तार्किक और तथ्यपूर्ण ढंग से लेखक ने पाठकों के समक्ष रखा है। वह विषय में पाठकों
को एक नई दृष्टि देते है। फिर भी ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` पुस्तक की शुरूआत अगर
मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को सुलझाते हुए नही भी की जाती तो भी पुस्तक का मूल उद्देश्य
प्रभावित नही होते। चुंकि भारत में जातिय प्रथा होने के कारण मानव का शोषक या शोषित
होना या शासक या शासित होना यहां की धार्मिक व सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण है। इसलिए
भी पुस्तक के विद्वान लेखक श्री संजीव खुदशाह ने पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए
हिन्दूधर्म शास्त्रों, स्मृतियों सहित कई विद्वान जनों के मतों को खंगाला और उसे उद्धृत
किया है।
चार अध्यायों में समाहित
श्री संजीव खुदशाह की यह पुस्तक पिछड़े वर्ग से संबंधित अब तक बनी हुई अवधारणाओं,
मिथक तथा पूर्वाग्रह
जो बने हुए है उनकी पड़ताल कर पाठकों के सामने तर्क संगत ढंग से मय तथ्यों के वास्तविकताएं रखती है। जैसे आज के पिछड़े वर्ग
हिन्दू धर्म के चौथे वर्ण ''शूद्र`` से संबंधित माना जाता है। किन्तु श्री संजीवजी के शोध प्रबंध
से स्पष्ट यह होता है कि आधुनिक भारत में पिछड़ा
वर्ग मूलरूप् से आर्य व्यवस्था से बाहर के लोग है। शूद्र वर्ण के नहीं। यह अलग बात
है कि बाद में इन्हे शूद्रों में समावेश कर लिया गया। विद्वान लेखक ने इसे स्पष्ट करने
से पूर्व शूद्र वर्ण की उत्पत्ति और उसके विकास को रेखांकित किया है। उनके अनुसार आर्यों
में पहले तीन ही वर्ण थे। लेखक ऋग्वेद, शतपथ ब्राम्हण और तैतरीय ब्राम्हण सहित डॉ.
अम्बेडकर के हवाले से कहा है कि यह तीनों ग्रन्थ आर्यो के पहले ग्रन्थ है और ये केवल
तीन वर्णो की ही पुष्टि करते है।(पृष्ठ-२६)
वैसे ऋग्वेद के अंतिम
दसवें मंडल के पुरूष सुक्त में चार वर्णो का वर्णन हे किन्तु उक्त दसवे मंडल को बाद
में जोड़ा हुआ माना गया। अधिकांश विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद की यह दसवा मंडल बाद
में जोड़ा गया। क्रिथ के अनुसार यह कार्य १०००-८००ई. वी. पूर्व में हुआ। भाषा विद्वानों
ने कहा -'इसकी भाषा, प्रयोग तथा व्याकरण पूर्व के मंडलों से सर्वथा भिन्न है।`
(पृष्ठ-३६)
शूद्रों के उद्भव पर
प्रकाश डालते हुए श्री खुदशाह ने दोहराया कि सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियां अनार्य
थी। जो आज हिन्दूधर्म की संस्कृति को संजाये हुए है। क्योकि कोई ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन
सूचियों में (अनुलोम (स्पर्शय) प्रतिलोम (अस्पर्शय) संतान की सूचियां, जिसे लेखक ने पृष्ठ
२८-२९ पर दी है) अवैध संतान घोषित नही किए गए है (पृष्ठ-३०) वे आगे लिखते है-''यहां ध्यान देने योग्य
बात यह है कि मनु ने शूद्र को उच्च वर्णो की सेवा करने का आदेश दिया है, किन्तु इन सेवाओं में ये पिछड़े वर्ग के कामगार नहीं आते। यानी पिछड़ा
वर्ग के कामगारों के कार्य उच्च वर्ग की प्रत्यक्ष कोई सेवा नहीं करते। जैसा कि मनु
ने कहा है। शूद्र उच्च वर्णो के दास होगे, यहां दास से सम्बंध उच्च वर्णो की प्रत्यक्ष सेवा से है।`` वे आगे लिखते है-''उक्त आधारों पर कहा
जा सकता है कि
१. ''शूद्र कौन और कैसे`` में दी गई व्याख्या
के अनुसार क्षत्रियों की दो शाखा सूर्यवंशी तथा चंन्द्रवंशी में से ''सूर्यवंशी``
अनार्य थे,
जिन्हे आर्यो द्वारा
धार्मिक, राजनीतिक समझौते द्वारा क्षत्रिय वर्ण में शामिल कर लिया गया।
२. बाद में इन्हीं सूर्यवंशीय क्षत्रियों का ब्राम्हणों
से संघर्ष हुआ ने इन्हे उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया। इन्ही संघर्ष के परिणाम से
नये वर्ग की उत्पत्ति हुई, जिन्हे शूद्र कहा गया। में ब्राम्हण वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत
आते थे यही से चातुर्वर्ण परम्परा की शुरूआत
हुई। शूद्रों में वे लोग भी सम्मलित थे जो युध्द में पराजित होकर दास बने फिर वे चाहे
आर्य ही क्यों न हो। अत: शूद्र वर्ण आर्य-अनार्य
जातियों का जमावड़ा बन गया (पृष्ठ, ३०-३३-३४) यह तो रहा शूद्रों का उद्भव व विकास।
शेष कामगार (पिछड़ा
वर्ग) जातिया कहां से आयी। इसका उत्तर निम्न बिन्दूवार दिया गया।
१. यह जातियां आर्यो के हमले से पूर्व से भारत में
विद्यमान थी, सिन्धुघाटी सभ्यता के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि उस समय लोहार, सोनार, कुम्हार जैसी कई कारीगर
जातियां विद्यमान थी।
२. आर्य हमले के प्रश्चात् इन कामगार पिछड़ेवर्ग की
जातियों को अपने समाज में स्वीकार करने की कोशिश की, क्योकि-
(अ) आर्यो को इनकी आवश्यकता थी क्योकि आर्यो के पास कामगार
नही थे।
(ब) आर्य युध्द, कृषि तथा पशुपालन के
सिवाय अन्य किसी विद्या में निपूण नही थे।
(स) आर्य इनका उपयोग आसानी से कर पाते थे, क्योकि ये जातियां
आर्यो का विरोध नही करती थी चुकि ये कामगार जातियां लड़ाकू न थी।
(द) दूसरी अन्य राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वी असुर,
डोम, चाण्डाल जैसी अनार्य
जातियां जो आर्यो का विरोध करती थी आर्यो द्वारा कोपभाजन का शिकार बनी तथा अछूत करार
दी गई।
३. चुंकि कामगार अनार्य जाति जो शूद्रों में गिनी
जाने लगी। इसलिए सूर्यवंशी अनार्य क्षत्रिय जातियों के साथ मिल कर शूद्रों में शामिल
हो गई। (पृष्ठ-३१-३२)
श्री संजीव खुदशाह
की यह पुस्तक स्पष्ट करती है कि शूद्र तथा आज का पिछड़ा वर्ग समुदाय आर्यो की चातुवर्णी
व्यवस्था के बाहर के अनार्य समुदाय के लोग थे।
अभी तक यह अवधारणा
थी कि शूद्र केवल शूद्र है, किन्तु आर्यो ने शूद्रों को भी दो भागों में विभाजित किया हुआ
थां एक अबहिष्कृत शूद्र, दूसरा बहिष्कृत शूद्र। पहले वर्ग में खेतीहर, पशुपालक, दस्तकारी, तेल निकालने वाले,
बढ़ई, पीतल, सोना-चांदी के जेवर
बनाने वाले, शिल्प, वस्त्र बुनाई, छपाई आदि का काम करने वाली जातियां थी। इन्होने आर्यो की दासता आसानी से स्वीकार कर ली।
जबकी बहिष्कृत शूद्रों में वे जातियां थी, जिन्होने आर्यो के सामने आसानी से घुटने नही
टेकें विद्वान ऐसा मानते है कि ये अनार्यो में शासक जातियों के रूप् में थी। आर्यो
के साथ हुए संघर्ष में पराजित हुई। इन्हे बहिष्कृत शूद्र जाति के रूप् में स्वीकार
किया गया। इन्हे ही आज अछूत (अतिशूद्र) जातियों में गिना जाता है। जैसे चमड़े का काम
करने वाली जाति, सफाई करने वाली जाति आदि (पृष्ठ ३८)
जिस तरह शूद्रों को
दो वर्गो में बांटा गया है। संजीवजी ने कामगार पिछड़े वर्ग (शूद्र) को भी दो भागों
में बांटा है-(१) उत्पादक जातियां (२) गैर उत्पादक जातियां। किन्तु पिछड़े वर्ग में
जिन जातियों को सम्मिलित किया गया है उसमें भले ही अतिशूद्र (बहुत ज्यादा अछूत) जातियां
का समावेश न हो किन्तु उत्पादक व गैर उत्पादक दोनो तरह की जातियों को पिछड़ा वर्ग माना
गया हैं। संजीव जी ने ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` के चौथे अध्याय (जाति
की पड़ताल एवं समाधान) में पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों की जो अधिकारिक सूची दी
है। उसमें भी यही तथ्य है। जैसे लोहार, बढ़ई, सुनार, ठठेरा, तेली(साहू) छीपा आदि
यह उत्पादक कामगार जातियां है। जबकी बैरागी (वैष्णव) (धार्मिक भिक्षावृत्ति करने वाली)
भाट, चारण (राजा के सम्मान में विरूदावली का गायन करने वाली) जैसी बहुंत सी गैर उत्पादक
जातियां है। पिछड़े वर्ग में उन जातियों को भी सम्मिलित किया गया है। जो हिन्दू धर्म
में अनुसूचित जाति के तहत आती होगी। किन्तु बाद में उन्होने ईसाई तथा मुस्लिम धर्म
स्वीकार कर लिया; लेकिन धर्मान्तरण के बाद भी उनका काम वही परंपरागत रहा। जैसे
शेख मेहतर(सफाई कामगार) आदि।
पुस्तक लेखक श्री संजीव
खुदशाह ने पिछड़े वर्ग की पहचान भारत के मूल निवासी अनार्यो के रूप में पहले अध्याय
में कर के यह भी स्पष्ट कर दिया था कि पिछड़े वर्ग को कैसे शूद्र वर्ण में तब्दील किया
गया था। इसके बाद भी वे पुस्तक के दूसरे अध्याय -''जाति एवं गोत्र विवाद
तथा हिन्दूकरण`` में पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति के बारे में स्मृतियों,
पुराणों के मत क्या
है, उसे पाठकों के सामने रखते है। क्योकि पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां अपने को क्षत्रिय
और ब्राम्हण होने का दावा करती रही है। लेखक ने उसके कुछ उदाहरण भी दिए है किन्तु हम
भी लोक जीवन में कई ऐसी जातियों को जानने लगे है। जिनका कार्य धार्मिक भिक्षावृत्ति
या ग्रह विशेष का दान ग्रहण करना रहा है। सीधे तौर पर अपने आप को ब्राम्हण बतलाती है
तथा शर्मा जैसे सरनेम ग्रहण कर चुकी है। आज वे पिछड़ा वर्ग की अधिकारिक सूची में दर्ज
है। जबकी हिन्दू स्मृतिया इन्हे वर्णसंकर घोषित करती है। और इन्ही वर्ण संकर संतति
में विभिन्न निम्न जातियों का उद्भव हुआ भी वे बताती है।
पिछड़े वर्ग की जो
जातियॉं स्वयं को क्षत्रिय या ब्राम्हण होने का दावा करती है। लेखक ने उनमें मराठा,
सूद और भूमिहार के
उदाहरण प्रस्तुत किये है। किन्तु उच्च जातियों ने इनके दावों को कभी भी स्वीकार नही
किया। यहां शिवाजी का उदाहरण ही पर्याप्त होगा। मुगलकाल में मराठा जाति के शिवाजी ने
अपनी विरता से जब पश्चिमी महाराष्ट्र के कई राज्यों को जीतकर उनपर अपना अधिकार जमा
लिया और राज तिलक कराने की सोची। तब ब्राम्हणों ने उनका राज्याभिषेक कराने से इंकार
कर दिया तथा तर्क दिया कि वे शूद्र है। इस अध्याय में गोत्र क्या है? तथा अनार्य वर्ग के
देव महादेव का कैसे हिन्दूकरण किया गया जाकर बिना धर्मान्तरण के अनार्यो को हिन्दू
धर्म की परिधि में लाया गया की विद्वतापूर्ण विवेचना की गई है। इस अध्याय में बुध्द
के क्षत्रिय होने का जो मिथक अबतक बना हुआ था, वह भी टूटा है और यह
वास्तविकता सामने आई की वे शाक्य थे और शाक्य भारत में एक हमलावर के रूप में आये। बाद
में ये जाति भारतीयों के साथ मिल गई और यह जाति शूद्रों में शुमार होती थी। (देखे पृष्ठ-७१,७२)
अध्याय-तीन ''विकास यात्रा के विभिन्न
सोपान`` में लेखक ने उच्चवर्गो के आरक्षण को रेखांकित किया तथा पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने
की पृष्ठभूमि को भी वर्णित करते हुए लिखा है कि- जब हमारा संविधान बन रहा था तो हमारे
पास इतना समय नही था कि दलित वर्ग में आने वाली सभी जातियों की शिनाख्त की जा सकती
ओर उन्हे सूचीबध्द किया जाता। अन्य दलित जातियों (पिछड़ा वर्ग की जातियां) की पहचान
और उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए संविधान में एक आयोग बनाने की व्यवस्था
की गई। उसी अनुसरण में २९ जनवरी १९५३ में काका कालेलकर आयोग बनाया गया। यह प्रथम पिछड़ा
वर्ग आयोग का गठन था। किन्तु इस आयोग ने इन जातियों की भलाई की अनुशंसा करने के बजाय
ब्राम्हणवादी मानसिकता प्रकट की जिससे पिछड़ों का आरक्षण खटाई में पड़ गया। बाद में
१९७८ को मण्डल आयोग बना जिसे लागू करने का
श्रेय वी.पी.सिंह को गया। मण्डल आयोग ने एक खास बात अपनी रिपोर्ट में शामिल की। वह
यह थी कि कुछ जातियां गांव में अछूतपन की शिकार है इन्हे अनुसूचित जाति में शामिल करने
की अनुशंसा की।
संजीवजी ने पिछड़े
वर्ग को आरक्षण देने के विषय और उसके विरोध की व्यापक चर्चा की है। तथा उन संतों तथा
महापुरूषों का भी उल्लेख किया है। जिन्होने पिछड़े वर्ग में सामाजिक चेतना का अलख जगाया।
चाल अध्याय और १४१
पृष्ठों में समाहित यह पुस्तक वास्तव में एक ऐसा शोध है जो आम आदमी के पूर्वाग्रह एवं
उसकी पहले से बनी अवधारणाओं को बदल कर पिछड़े वर्ग की वास्तविकताओं को सामने लाती है।
लेखक ने इसे लिखने से पहले काफी शोध किया है। कई प्रश्न वे ऐसे खड़े करते है जिनका
उत्तर जात्याभिमानी लोगों को देना कठिन है। इस अनुपम कृति के लिए संजीव खुदशाह बधाई
के पात्र है। यदि पिछड़ी जाति समुदाय के लोग अभी भी पूर्वाग्रह को त्याग कर इस पुस्तक
में खुदशाह जी द्वारा रखी वास्तविकताओं को स्वीकार कर अपना उत्थान करने के लिए आगे
आतीं है तो उनका परिश्रम सफल होगा।
जयप्रकाश वाल्मीकि
१४, वाल्मीकि कालोनी,
द्वारिकापुरी के पास,
शास्त्री नगर,
जयपुर-३०२०१६(राजस्थान)
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