एक
बेहद कमजोर एवं लचर किताब
अनंत
विजय
पिछले
कुछ महीनों से ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर हो रहे हमलों और भारतीय मीडिया में
हो रही कवरेज से एक बार फिर से नस्लभेद पर एक बहस छिड़ गई है। कुछ विद्वान दलित विचारकों
ने नस्लभेद को जातिवाद से जोड़कर पूरी बहस को एक नई दिशा में मोड़ने की कोशिश की है।
उनका तर्क है कि भारत में भी लंबे समय से ऊंची जाति के लोग निचली जातियों पर हमले करते
रहे हैं। इन दलीलों के बाद एक सवाल शिद्दत के साथ खड़ा हो गया है कि क्या जातिवाद और
नस्लवाद एक ऐसी अवधारणा है जो जैविक, आनुवांशिकता
और शारीरिक बनावट के आधार पर तय होता है जबकि जातिवाद तो सिर्फ एक सामाजिक अवधारणा
है,
इसका कोई आधार नहीं है। पोट्रैट ऑफ व्हाइट रैसिज्म में डेविड
विलमैन ने भी लिखा है कि नस्लभेद एक सांस्कृतिक मान्यता है जो जातीय अल्पसंख्यकों की
सामाजिक स्थित की वजह से गोरे लोगों को समाज में उच्च स्थान प्रदान करती है।
लेकिन
संजीव खुदशाह की आगामी दिनों में प्रकाशित होनेवाली किताबμआधुनिक भारत में पिछड़ा वर्गμपूर्वग्रह, मिथक और वास्तविकताएँμमें आंद्रे बेते की उपरोक्त अवधारणा को निगेट किया गया है। संजीव की ये किताब शिल्पायन, दिल्ली से प्रकाशित हो रही है। लेखक का दावा है कि इसमें जाति उत्पत्ति के संबंध
में कुछ धर्मग्रंथों के संदर्भ लिए गए हैं, उनके
श्लोकों का विवरण दिया गया है...प्रत्येक जाति दूसरी जाति से ऊंची अथवा नीची है। समानता
के लिए यहां कोई स्थान नहीं है...मेरा अध्ययन परिणाम यह बतलाता है कि नस्लवादी, वंशवादी और टोटम परंपरा पर ही वर्तमान जाति-प्रथा आधारित है। लेखक के इन दावों
पर अगर हम गंभीरता से विचार करें और इस विषय पर पूर्व प्रकाशित लेखों और पुस्तकों का
संदर्भ लें और उसे संजीव के शोध परिणाम के बरक्स रखें तो संजीव के तर्क और स्थापनाएं
थोड़ी कमजोर प्रतीत होती हैं। ये तो माना जा सकता है कि भारतीय समाज मूलतः जाति व्यवस्था
पर आधारित है लेकिन यहां हमें जाति व्यवस्था और नस्लभेद का फर्क देखना पड़ेगा। जिस तरह
आंद्रे बेते और अन्य समाज शास्त्रिायों ने इन दोनों अवधारणाओं को परिभाषित किया है
वो ज्यादा तार्किक और वैज्ञानिक प्रतीत होता है। इस पुस्तक के दूसरे अध्याय में विवादित
जातियों और रक्त के सम्मिश्रण पर विस्तार से लिखा गया है। विवादित जातियों में लेखक
ने कायस्थ,
मराठा, भूमिहार
और सूद को शामिल किया है और उनकी उत्पत्ति के बारे में लेखों और पुराने धर्मग्रंथों
के आधार पर निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयत्न किया है। लेकिन यहां भी तर्क बेहद लचर और
कमजोर हैं। इस पूरे शोध प्रबंध में लेखक ने श्रमपूर्वक सामग्री तो जुटाई है लेकिन उसे
विश्लेषित कर एक तार्किक और वैज्ञानिक निष्कर्ष तक पहुंचाने में नाकाम रहे हैं। लेखक
को जाति व्यवस्था पर लिखने के पहले एक नजर प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा की पुस्तकμशूद्रों का इतिहास जरूर देखना या पढ़ना चाहिए था।
321-बी, शिप्रा सनसिटी,
इंदिरापुरम, गाजियाबाद
(उ.प्र.)-201014 मो. 9871697248
अधुनिक
भारत में पिछड़ा वर्ग/ संजीव खुदशाह/
शिल्पायन, 10295, लेन नं. 1,
वैस्ट गोरखपार्क,
शाहदरा, दिल्ली-32/
संभावित प्रकाशन माह:
सितंबर, 2009
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