Mahatma Buddha, the pioneer of world peace

 

विश्व शांति के अग्रदूत महात्मा बुद्ध

रश्मि वर्मा

विश्व में कुछ ऐसे महापुरुष रहे हैं जिन्होंने अपने जीवन से समस्त मानव जाति को एक नई राह दिखाई है। उन्हीं में से एक महान विभूति गौतम बुद्ध थे, जिन्हें महात्मा बुद्ध के नाम से जाना जाता है। दुनिया को अपने विचारों से नया मार्ग दिखाने वाले महात्मा बुद्ध भारत के एक महान दार्शनिक, समाज सुधारक और बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। भारतीय वैदिक परंपरा में धीरे-धीरे जो कुरीतियाँ 

bhagvan buddhaपनप गईं थी, उन्हें पहली बार ठोस चुनौती महात्मा बुद्ध ने ही दी थी। बुद्ध ने वैदिक परंपरा के कर्मकांडों पर कड़ी चोट की । मध्यकाल में कबीर दास जैसे क्रांतिकारी विचारक पर महात्मा बुद्ध के विचारों का गहरा प्रभाव दिखता है। डॉ अंबेडकर ने भी वर्ष 1956 में अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले बौद्ध धर्म अपना लिया था और तर्कों के आधार पर स्पष्ट किया था कि क्यों उन्हें महात्मा बुद्ध शेष धर्म-प्रवर्तकों की तुलना में ज़्यादा लोकतांत्रिक नज़र आते हैं। आधुनिक काल में राहुल सांकृत्यायन जैसे वामपंथी साहित्यकार ने भी बुद्ध से प्रभावित होकर जीवन का लंबा समय बुद्ध को पढ़ने में व्यतीत किया। इस आलेख में बुद्ध के जीवन वृत्तांत, उनके दर्शन के सकारात्मक व नकारात्मक पहलूओं तथा बुद्ध की शिक्षाओं की प्रासंगिकता पर विमर्श किया जाएगा। महात्मा बुद्ध का जन्म नेपाल की तराइयों में स्थित लुम्बिनी में 563 ईसा पूर्व में वैशाख पूर्णिमा के दिन हुआ था। यह सर्वविदित है कि युवावस्था में उन्होंने मानव जीवन के दुखों को देखा जैसे रोगी व्यक्ति, वृद्धावस्था एवं मृत्यु। इसके विपरीत एक प्रसन्नचित्त संन्यासी से प्रभावित होकर बुद्ध 29 वर्ष की अवस्था में सांसारिक जीवन को त्याग कर सत्य की खोज में निकल पड़े।  

महात्मा बुद्ध ने 528 ईसा पूर्व में वैशाख पूर्णिमा के दिन बोधगया में एक पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए आत्म बोध प्राप्त किया।   वैशाख पूर्णिमा के दिन ही 483 ईसा पूर्व में कुशीनारा नामक स्थान पर महात्मा बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शिष्यों ने राजगृह में एक परिषद का आह्वान किया, जहाँ बौद्ध धर्म की मुख्य शिक्षाओं को संहिताबद्ध किया गया। इन शिक्षाओं को पिटकों के रूप में समानुक्रमित करने के लिये चार बौद्ध संगीतियों का आयोजन किया गया जिसके पश्चात् तीन मुख्य पिटक बने।  विनय पिटक (बौद्ध मतावंलबियों के लिये व्यवस्था के नियम), सुत पिटक (बुद्ध के उपदेश सिद्धांत) तथा अभिधम्म पिटक (बौद्धदर्शन), जिन्हें संयुक्त रूप से त्रिपिटक कहा जाता है। इन सब को पाली भाषा में लिखा गया है। ध्यातव्य है कि बुद्ध के दर्शन का सबसे महत्त्वपूर्ण विचार ‘आत्म दीपो भवः’ अर्थात ‘अपने दीपक स्वयं बनो। इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति को अपने जीवन का उद्देश्य या नैतिक-अनैतिक प्रश्न का निर्णय स्वयं करना चाहिये। यह विचार इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह ज्ञान और नैतिकता के क्षेत्र में एक छोटे से बुद्धिजीवी वर्ग के एकाधिकार को चुनौती देकर हर व्यक्ति को उसमें प्रविष्ट होने का अवसर प्रदान करता है। बुद्ध के दर्शन का दूसरा प्रमुख विचार मध्यम मार्गके नाम से जाना जाता है। सूक्ष्म दार्शनिक स्तर पर तो इसका अर्थ कुछ भिन्न है, किंतु लौकिकता के स्तर पर इसका अभिप्राय सिर्फ इतना है कि किसी भी प्रकार के अतिवादी व्यवहार से बचना चाहिये।  बुद्ध दर्शन का तीसरा प्रमुख विचार संवेदनशीलताहै। यहाँ संवेदनशीलता का अर्थ है दूसरों के दुखों को अनुभव करने की क्षमता। वर्तमान में मनोविज्ञान जिसे समानुभूति कहता है, वह प्रायः वही है जिसे भारत में संवेदनशीलता कहा जाता रहा है। बुद्ध दर्शन का चौथा प्रमुख विचार यह है कि वे परलोकवाद की बजाय इहलोकवाद पर अधिक बल देते हैं। गौरतलब है कि बुद्ध के समय प्रचलित दर्शनों में चार्वाक के अलावा लगभग सभी दर्शन परलोक पर अधिक ध्यान दे रहे थे। उनके विचारों का सार यह था कि इहलोक मिथ्या है और परलोक ही वास्तविक सत्य है। इससे निरर्थक कर्मकांडों तथा अनुष्ठानों को बढ़ावा मिलता था। बुद्ध ने जानबूझकर अधिकांश पारलौकिक धारणाओं को खारिज किया। बुद्ध दर्शन का पाँचवा प्रमुख विचार यह है कि वे व्यक्ति को अहंकार से मुक्त होने की सलाह देते हैं। अहंकार का अर्थ है मैंकी भावना। यह मैंही अधिकांश झगड़ों की जड़ है। इसलिये व्यक्तित्व पर अहंकार करना एकदम निरर्थक है।बुद्ध दर्शन का छठा प्रमुख विचार ह्रदय परिवर्तन के विश्वास से संबंधित है। बुद्ध को इस बात पर अत्यधिक विश्वास था कि हर व्यक्ति के भीतर अच्छा बनने की संभावनाएँ होती हैं, ज़रूरी यह है की उस पर विश्वास किया जाए और उसे समुचित परिस्थितियाँ प्रदान की जाएँ। बुद्ध का सबसे कमज़ोर विचार उनका यह विश्वास है कि संपूर्ण जीवन दुखमय है।

उन्होंने जो चार आर्य सत्य बताए हैं, उनमें से पहला सर्वम दुखमहै अर्थात सबकुछ दुखमय है। इस बिंदु पर बुद्ध एकतरफा झुके हुए नज़र आते हैं जबकि जीवन को न तो सिर्फ दुखमय कहा जा सकता है और न ही सिर्फ सुखमय। सत्य तो यह है कि सुखों की अभिलाषा ही वे प्रेरणाएँ है जो व्यक्ति को जीवन के प्रति उत्साहित करती है। बुद्ध के विचारों में एक अन्य महत्त्वपूर्ण खामी नारियों के अधिकारों के संदर्भ में दिखती है। जैसे महिलाओं को शुरूआत में संघ में प्रवेश नहीं देना। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने अपने शिष्य आनंद से कहा था कि अगर संघ में महिलाओं का प्रवेश न होता तो यह धर्म एक हजार वर्ष तक चलता पर अब यह 500 वर्ष ही चल पाएगा। जबकि वर्तमान में हम देखते हैं कि महिलाएँ हर क्षेत्र में पुरुषों से कंधे से कंधा मिला कर चलने में सक्षम हैं। महात्मा बुद्ध भारतीय विरासत के एक महान विभूति हैं। उन्होंने संपूर्ण मानव सभ्यता को एक नयी राह दिखाई। उनके विचार, उनकी मृत्यु के लगभग 2500 वर्षों के पश्चात् आज भी हमारे समाज के लिये प्रासंगिक बने हुए हैं।  वर्तमान समय में बुद्ध के स्व निर्णय के विचार का महत्त्व बढ़ जाता है दरअसल आज व्यक्ति अपने घर, ऑफिस, कॉलेज आदि जगहों पर अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण फैसले भी स्वयं न लेकर दूसरे की सलाह पर लेता है अतः वह वस्तु बन जाता है। बुद्ध का अप्‍प दीपो भवःका सिद्धांत व्यक्ति को व्यक्ति बनने पर बल देता है। बुद्ध का मध्यम मार्ग सिद्धांत आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना बुद्ध के समय था। उनके इन विचारों की पुष्टि इस कथन से होती है कि वीणा के तार को उतना नहीं खींचना चाहिये कि वह टूट ही जाए या फिर उतना भी उसे ढीला नहीं छोड़ा जाना चाहिये कि उससे स्वर ध्वनि ही न निकले। दरअसल आज दुनिया में तमाम तरह के झगड़े हैं जैसे- सांप्रदायिकता, आतंकवाद, नक्सलवाद, नस्लवाद तथा जातिवाद इत्यादि। इन सारे झगड़ों के मूल में बुनियादी दार्शनिक समस्या यही है कि कोई भी व्यक्ति देश या संस्था अपने दृष्टिकोण से पीछे हटने को तैयार नहीं है। इस दृष्टि से इस्लामिक स्टेट जैसे अतिवादी समूह हो या मॉब लिंचिंग विचारधारा को कट्टर रूप में स्वीकार करने वाला कोई समूह हो या अन्य समूह सभी के साथ मूल समस्या नज़रिये की ही है।

महात्मा बुद्ध के मध्यम मार्ग सिद्धांत को स्वीकार करते ही हमारा नैतिक दृष्टिकोण बेहतर हो जाता है। हम यह मानने लगते हैं कि कोई भी चीज का अति होना घातक होता है। यह विचार हमें विभिन्न दृष्टिकोणों के मेल-मिलाप तथा आम सहमति प्राप्त करने की ओर ले जाता है। महात्मा बुद्ध का यह विचार की दुःखों का मूल कारण इच्छाएँ हैं, आज के उपभोक्तावादी समाज के लिये प्रासंगिक प्रतीत होता है। दरअसल प्रत्येक इच्छाओं की संतुष्टि के लिये प्राकृतिक या सामाजिक संसधानों की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे में अगर सभी व्यक्तियों के भीतर इच्छाओं की प्रबलता बढ़ जाए तो प्राकृतिक संसाधन नष्ट होने लगेंगे, साथ ही सामजिक संबंधों में तनाव उत्पन्न हो जाएगा। ऐसे में अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना समाज और नैतिकता के लिये अनिवार्य हो जाता है। इस बात की पुष्टि हाल ही में अर्थ आवर शूट डेके रिपोर्ट से होती है जिससे यह पता चलता है कि जो संसाधन वर्ष भर चलना चाहिये था वह आठ माह में ही समाप्त हो गया।

प्रत्येक विचारक की तरह बुद्ध कुछ बिंदुओं पर आकर्षित करते है तो कुछ बिंदुओं पर नहीं कर पाते हैं। विवेकशीलता का लक्षण यही है कि हम अपने काम की बातें चुन लें और जो अनुपयोगी हैं, उन्हें त्याग दें। बुद्ध से जो सीखा जाना चाहिये, वह यह है कि जीवन का सार संतुलन में है, उसे किसी भी अतिवाद के रास्ते पर ले जाना गलत है। हर व्यक्ति के भीतर सृजनात्मक संभावनाएँ होती हैं, इसलिये व्यक्ति को अंधानुकरण करने के बजाय स्वयं अपना रास्ता बनाना चाहिये।


रश्मि वर्मा

सामाजिक कार्यकर्ता

मो. 88174 94455

(लेखक के स्वतंत्र विचार है)

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