इस
पुस्तक के बहाने वाल्मीकि कौम पर बहस
संजीव
खुदशाह
यह
किताब ‘वाल्मीकि कौम मूलनिवासी एक दस्तावेज की दृष्टिकोण’2021 जिसके लेखक शंबूक अनमोल है, भगवान दास की किताब ‘मैं भंगी
हूं’ समेत अन्य किताब को केंद्रित करके आलोचनात्मक दृष्टिकोण
से लिखी गई है। इसमें लेखक का कहना है कि भगवान दास ने अपनी किताबों में ‘वाल्मीकि शब्द का प्रयोग जाति के रूप में 1925 के
बाद में किया जाने लगा’ लिखा है। इसके कारण लोगों में यह
भ्रम फैल गया की वाल्मीकि जाति जो कि पहले चूहड़ा नाम से जानी जाती थी। उन्हें
सिर्फ हिंदू बनाए रखने के लिए वाल्मीकि नाम जाति से जोड़ा गया। जबकि यह सच्चाई
नहीं थी। सच यह है कि वाल्मीकि नाम पहले से इस जाति के साथ में जुड़ा हुआ है। लेखक
यहां पर तथ्य देते हैं कि 1883 मे भी जाति के रूप में
वाल्मीकि शब्द का प्रयोग होता है। वे इसके लिए 1881 की
जनगणना का हवाला देते हैं। तथा भगवान दास को एक साजिश कर्ता के रूप में पेश करते
हैं। वे कहते हैं कि चूहड़ा को भगवान वाल्मीकि से अलग करने के लिए ऐसा किया गया और
एडवोकेट भगवान दास के इस झूठ को आगे संजीव खुदशाह ‘सफाई
कामगार समुदाय’ में ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘सफाई देवता’ में और सुशीला टांकभंवरे ने अपनी किताब
में इसे तथ्य के रूप में पेश किया।
लेखक
इस किताब में यह भी बताते हैं कि लालबेग शब्द उर्दू लिपि के कारण आया। उर्दू में
बाल्मीकि और लालबेग शब्द एक जैसे ही लिखे जाते हैं। किसी लेखक ने उर्दू में वाल्मीकि
लिखा तो दूसरे ने इसे लालबेग पढ़ लिया। लेखक मैं भंगी हूं किताब के हवाले से लिखते
है कि यह भी हो सकता है कि वाल्मीकि किसी
निचली जाति से संबंधित रहे हो और शायद इसी कारण एक ब्राह्मण कवि (तुलसीदास) को
दोबारा रामकथा लिखनी पड़ी (पृष्ठ 28) यहां पर यह
बताना आवश्यक है कि हिंदू धर्म ग्रंथो में वाल्मीकि को ब्रह्मा के मानस पुत्र
प्रचेता का पुत्र बताया गया है।
इस
किताब की प्रस्तावना में दर्शन रत्न रावण के द्वारा पेरियार
को ब्राह्मण बताया गया और यह कहा गया है कि वह ब्राह्मण है इसके बावजूद दलित
लेखकों ने उन्हें स्वीकार किया।(पृष्ठ 10)
लेकिन वाल्मीकि एक नीची जाति के हैं इसके बावजूद दलित और नव बौद्ध इन्हें स्वीकार
नहीं करते हैं। यह एक दोगलापन है। इस किताब में लेखक अनमोल , दर्शन रत्न रावण आधास प्रमुख से पूरी तरह प्रभावित दिखते है। इसी पृष्ठ
में दर्शन रावण डॉं अंबेडकर के हवाले से लिखते है कि इस विशाल क्षेत्र के लोग जब
तक तुलसी दास की जगह वाल्मीकि को नहीं लाएंगे वे पिछड़े और अज्ञानी ही बने रहेगे।
किताब
से यह तथ्य तो सामने निकल कर आता है कि वाल्मीकि शब्द का प्रयोग जाति के रूप में 1925 के भी पहले किया जाता रहा है जो कि भगवान दास द्वारा दिए गए तथ्य के
विपरीत है। यानी भगवान दास से यहां पर तथ्य को पेश करने में त्रुटि हुई है और इसी
त्रुटि को आगे के लेखकों ने तथ्य के रूप में पेश किया
है। लेखक यहां पर यह बात भी कहते हैं कि एडवोकेट भगवान
दास ने मैं भंगी हूं किताब, दलित जाति में होने वाले आरक्षण
वर्गीकरण के खिलाफ लिखी है। जिस समय (1976) वे यह किताब लिख रहे थे उसी समय पंजाब
और हरियाणा में आरक्षण वर्गीकरण की मुहिम चल रही थी और वाल्मीकि जाति को अलग से
आरक्षण दिया गया।
यहां
पर इस किताब को पढ़ने के बाद दो-तीन प्रश्न खड़े होते हैं
(1) यह की लेखक
वाल्मीकि ऋषि को वाल्मीकि जाति का सिद्ध करके क्या साबित करना चाहता है?
जिनको आज वाल्मीकि जाति
के नाम से जाना जाता है इन्हें चूहड़ा कहकर पुकारा जाता था। यह अपमानजनक नाम से
बचने के लिए हो सकता है कि लोग दूसरे नाम की तलाश में वाल्मीकि नाम को अपनाएं
होंगे। 18वी 19वीं सदी में ऐसी बहुत सारी जातियों का जिक्र
मिलता है जिन्होंने अपने नए नाम को तलाशा और उसे अपनाया। जैसे बंगाल में चांडाल
जाति के दलितों ने नमो शूद्र नाम अपनाया। चमार से रविदास, जाटव
बने कहीं पर सतनामी रामनामी सूर्यवंशी बने।
(2) लेखक शंबूक
अनमोल एक तरफ तो अपने आप को अंबेडकरवादी बताते हैं दूसरी तरफ वह आदि हिंदू
वाल्मीकि बने रहने के लिए अपने समाज को मजबूर करते हैं यह कैसे संभव है?
(3) अपने इस
किताब में लेखक कहीं पर भी वाल्मीकियों को गंदे पेशे से छुटकारा देने वाली कोई बात
नहीं करते। क्यों पूरे देश में वाल्मीकि समाज का मतलब है गंदे पेशे को अपनाने वाला
व्यक्ति माना जाता है। यदि वाल्मीकि बड़ा लेखक था उन्होंने रामायण लिखी तो उनके
वंशज गटर साफ करने वाले कैसे बन गए? इसका जवाब उन्होंने इस
किताब में नहीं दिया है?
समस्या
यही है कि अपने आप जब तक आत्म परीक्षण नहीं करेंगे। अपनी गलतियों को डायग्नोज नहीं
करेंगे। तब तक उसका इलाज संभव नहीं है। वाल्मीकि समाज आज अपनी गलतियों को समझ रहा
है। इसलिए आगे बढ़ रहा है। लेकिन लगता है कि लेखक अपने समाज को पीछे की तरफ ले जाना
चाहते हैं। वे समाज को अंबेडकरवाद के बजाय धर्म की अफीम में सुलाना चाहते हैं।
ताकि वे इसी प्रकार गटर साफ करते रहें और वाल्मीकि की जै का उद्घोष करते रहें। यह
प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि भगवान वाल्मीकि ने अपने समाज के लिए क्या किया? क्यों उन्होंने अपने समाज को मैला ढोने जैसी निकृष्ट व्यवस्था दी और उससे
बाहर निकलने नहीं दिया। अगर भगवान वाल्मीकि ने रामायण की रचना की है तो उनके वंशज कैसे
मैला ढोने वाले बन गए? इसका जवाब ढूंढना होगा। यह भी सोचना
होगा कि मैला ढोने वाली व्यवस्था से किसने बाहर निकाला और कौन है जो की इस समाज का
उद्धारक है।
अपनी
सामाजिक राजनीति के तहत कुछ ऐसे लोग हैं जो की वाल्मीकि को वाल्मीकि बनाए रखना
चाहते हैं वह नहीं चाहते हैं कि लोग पढ़ें, आगे बढ़े और
ऊंचे मुकाम पर पहुंचे, अपना गंदा पेशा छोड़ें। अगर आप
एडवोकेट भगवान दास की इस तथ्यात्मक गलती को उजागर कर भी देते हैं तो आपको बहुत कुछ
हासिल होने वाला नहीं है। क्योंकि भगवान दास का मुख्य उद्देश्य यही था कि किस
प्रकार से यह कौम गंदे पेशे से छुटकारा लेकर आगे बढ़े। अपने शोषकों और उद्धारकों
में फर्क जान पाए। यही मकसद ओमप्रकाश वाल्मीकि, संजीव खुदशाह
और सुशीला टांकभंवरे का भी था और है। जिनकी आलोचना इस किताब में की गई है।
अनमोल संबूक कि यह बात चलो मान भी लें की चूहड़ा जाति को वाल्मीकि नाम 1925 में नहीं बल्कि 1881 के पहले मिला था। यह भी मान लें की वाल्मीकि ऋषि कोई मिथक पात्र नहीं ऐतिहासिक है। इसके बावजूद क्या होना है? आखिर इससे किसको फायदा होने वाला है? क्या इससे वाल्मीकि समाज में क्रांति आ जायेगी? अपने शोषकों और उद्धारको में फर्क जानने के लिए इतना ही काफी है? गलीज और गंदे पेशे में छुटकारा क्या इतने से ही मिल जाएगा। वर्षो से वाल्मीकि जाति नाम और आराधना के बावजूद, यह
खुदशाह जी, अप साहित्यकार हो, पर क्या आप बता सकते हो कि वाल्मीकि कौम पर षंडयंत्रकारी साहित्य लिखने वाले भगवान दास का क्या Motive रहा होगा झूठ पर झूठ लिखने का?
ReplyDeleteयहां तक आपका स्वाल है कि हम क्या साबित करना चाहते हैं वह हमने तथ्यों से साबित कर दिया है कि आप जैसे लोग कैसे झूठ का प्राचार कर रहे हैं🙏🏻
शम्बूक अनमोल
94637-63463
कया यह पुस्तक मुझे उपलब्ध करा सकते हैं
ReplyDeleteराकेश मैसी
डब्ल्यू जैड-8ए/के-96, गली नम्बर-7बी, पूरन नगर, पालम कालोनी, नई दिल्ली 110077