एक नाकारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
योगेश प्रसाद
यह सन 2003 की बात है जब लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस ने बहुमत पाया और सरकार बनाने का उसे मौका मिला। क्योंकि कांग्रेस की सर्वे सर्वा सोनिया गांधी थी इसलिए यह माना जा रहा था कि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनेगी। किंतु सुषमा स्वराज समेत भारतीय जनता पार्टी के अन्य नेता विदेशी मूल का होने के कारण सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने का विरोध कर रहे थे। इसीलिए सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नहीं बन सकी। सुषमा स्वराज ने तो यहां तक कहा कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनेगी तो मैं सार्वजनिक रूप से अपना मुंडन करवाऊंगी।
चुनाव जीतने के बाद सोनिया गांधी ने यह निर्णय लेने में करीब 10 दिन का समय लिया कि अपने स्थान पर किसे प्रधानमंत्री बनाया जाए। सोनिया गांधी के सामने दो ऑप्शन थे उस वक्त। पहला प्रणब मुखर्जी दूसरा मनमोहन सिंह दोनों को सोनिया गांधी का करीबी भी कहा जाता था। सोनिया गांधी के पास तीसरा ऑप्शन और था। वह अपने बेटे राहुल को भी प्रधानमंत्री बना सकती थी। लेकिन राहुल उस वक्त काफी छोटे थे। शायद इस कारण उन्हें उन्होंने प्रधानमंत्री बनाना सही नहीं समझा। बहरहाल दो लोगों की रेस में मनमोहन सिंह प्रथम आए और उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया गया। मनमोहन सिंह को अर्थशास्त्री से लेकर न जाने किन-किन उपमाओं से अलंकृत किया जाता रहा है। यह सही हो सकता है कि वह एक अच्छे अर्थशास्त्री थे लेकिन राजनीति के रूप में उनकी पकड़ वैसी नहीं थी। जैसा कि उनके दिवंगत होने के बाद कहा जा रहा है।
दरअसल कांग्रेस की उल्टी गिनती 2003 से ही शुरू हो गई जब मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया। मनमोहन सिंह आम जनता के बीच में बिल्कुल भी लोकप्रिय नहीं थे। न ही उनके चेहरे को सामने रखकर चुनाव लड़ा गया था। चुनाव दरअसल सोनिया गांधी को सामने रखकर लड़ा गया था और जनता ने उन्हें अपना वोट दिया। अपेक्षा थी कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनने के बाद में आम जनता से संवाद जारी रखेंगे। लोकप्रिय हो जाएंगे। लेकिन वह मौनी बाबा साबित हुए। सोनिया गांधी को सुप्रीम प्राइम मिनिस्टर कहां जाने लगा और यह सही भी था की सरकार में सोनिया की ही चलती थी।
2008 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस फिर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। लोगों को आशा थी कि इस बार प्रधानमंत्री सोनिया गांधी बनेगी या कोई सक्रिय व्यक्ति को प्रधानमंत्री की कुर्सी में बिठाया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ दोबारा फिर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया गया। ऐसा पहली बार हुआ जब किसी गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर दो कार्यकाल मिला। इस समय 2G घोटाला, कोयला घोटाला की चर्चा होनी शुरू हो गई। केंद्र के कुछ मंत्री और उनके रिश्तेदार जेल गए। अन्ना का आंदोलन भी इसी वक्त शुरू हुआ। जन लोकपाल की मांग होने लगी। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इन सारी चीजों को कंट्रोल नहीं कर पाए। न ही उन्होंने जनता से कोई संवाद किया। न ही सरकार का पक्ष रखा। जब वह प्रेस कॉन्फ्रेंस लेते थे तो उनकी ज्यादातर प्रेस कॉन्फ्रेंस इंग्लिश में होती थी। आम जनता को उनकी बातें समझने में कठिनाई आती थी। एक दो प्रेस कॉन्फ्रेंस उन्होंने हिंदी में ली लेकिन वह टूटी फूटी हिंदी भी जनता नहीं समझ पाती थी। इस कारण जिन घोटाले को मीडिया ने सर पर उठा कर रखा था। उस घोटाले के बारे में सच्चाई प्रधानमंत्री आम जनता को नहीं बता सके। हालांकि उनकी सरकार के कई साल बाद सारे आरोपी दोष मुक्त हो गए और घोटाला झूठा साबित हुआ। मनमोहन सिंह का दूसरा कार्यकाल पूरे भारत को निराशा की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया। ऐसा लगने लगा मानो पूरा देश भ्रष्टाचार की आग में जल रहा है। सारे बड़े नेताओं और अफसरों पर आरोप लग रहा था। मीडिया खुलकर सरकार के विरोध में आ गई। अन्ना आंदोलन ने इस वक्त खास भूमि का निभाई। यह तय हो सका हो चुका था कि कांग्रेस अब सरकार में नहीं आएगी। इसका पूरा फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिला। यहां यह बताना बेहद जरूरी है कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में दो ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए जो भारत के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुए। पहले था सूचना के अधिकार दूसरा था मनरेगा। इन दोनों उपलब्धियों को भी कांग्रेस पार्टी ने नहीं भुनाया।
आंतरिक राजनैतिक परिस्थितियों के अलावा विश्व स्तर पर भी मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का मकसद IMF और विश्व बैंक की नीतियों को लागू करवाना भी एक विशेष मकसद था । इसी तरह देश की अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने की भूमिका में जो खेल खेला गया, उसकी वजह से ही दक्षिणपंथी पार्टी सत्ता में आ गई यह सही है ।
मेरा विवेक यह कहता है कि आज की जो सरकार है और बहुमत में काम कर रही है इसके पीछे मनमोहन सिंह की नाकामी है। सोनिया गांधी का वह निर्णय, जब उन्होंने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनने के लिए निश्चय किया। मनमोहन सिंह फेल साबित हुए। जनता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन्होंने अपनी प्रधानमंत्रित्व काल में कोई संपत्ति नहीं बनाई। जनता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके पास सिर्फ मारुति 800 कार थी। जनता को काम चाहिए और जनता एक ऐसा राजनेता देखना चाहती है जिससे वह संवाद कर सके, आम जनता का हित सुरक्षित कर सके।
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