पुस्तक समीक्षा
पिछड़े
वर्ग के परिप्रेक्ष्य में कई सवाल करती कृति
डा.
सुधीर सागर
भारतीय समाज आज भी छोटे-छोटे जातीय समुदायों एवं वर्गो में बंटा है। किसी भी समाज का शोधात्मक, विष्लेषणात्मक, खोजपरख अध्ययन एवं मुल्यांकन का उद्देश्य समाजिक उत्थान ही होता है। जातीय एवं वर्गात्मक संरचना के अध्ययन के लिए ऐतीहासिक एवं धार्मिक ग्रन्थों के मूल में जाकर वर्ग की स्थिति की पड़ताल गौण
विषय है। प्राचीनकाल से ही भारत में जातिगत व्यवस्था को लेकर अनेक विवादास्पद प्रश्न खड़े है या किये जाते रहे है। इतिहासकारों एवं विद्वानों में एक लम्बी बहस की प्रक्रिया जातीय संरचना एवं वर्ग को लेकर जारी है। समाज एवं सभ्यता के विकास के समांनातर वर्गो के वर्गीकरण की प्रक्रिया चलती रही हैं जो कि परिस्थिति अनुसार वर्तमान स्थिति को रेखांकित भी करती है।
संजीव खुदशाह की पुस्तक ‘‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग -पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं’’ चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की मीमांसा करती है। पुस्तक में वर्ग की जांच पड़ताल डा. अंबेडकर के वैचारिकी को केन्द्र में रख कर लिखा गया है। जबकि लेखक ने स्वयं लिखा है कि शोध प्रकल्प के रूप में काफी संदर्भ सामग्री एकत्रित की है। वेद, स्मृति ग्रेथो, इतिहासकारों एवं विचाराको के मान्यताए शामिल है।
पुस्तक मुख्य रूप से चार अध्याय में पिछड़ेवर्ग की स्थिति की पड़ताल करती है जिसमें प्रथम अध्याय में पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति और इस वर्ग का वर्गीकरण किया गया है। इस अध्याय में लेखक पिछड़े वर्ग की खोज की शुरूआत मानव उत्पत्तिकाल से करता है। आगे इसकी व्याख्या वैज्ञानिक तथ्यो से लेकर धार्मिक मान्याताओं तक की गई है। मानव उद्भव, सभयता एवं विकास की प्रक्रियाओं से गुजरते हुये छोटे-छोटे कबीलों, जातीय समुदायों एवं वर्ग के वर्गीकरण के अध्ययन को डा. अम्बेडकर के विचारों के परिप्रेक्ष्य में कर संपूर्ण पिछड़े वर्ग को चौथे वर्ण में शामिल करता है। जातीय वर्गीकरण का आधार उत्पादक व अनुत्पादक जातियों के आधार पर किया गया है। उनके उत्पादक मूल्यों के आधार पर वर्ण व्यवस्था में उन्हे अस्पृश्य एवं स्पृश्य माना गया है। पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति, स्थिति एवं वर्गीकरण करते वक्त लेखक ने धार्मिक एवं वैज्ञानिक मान्यता को आधार बनाया। एक प्रश्न हम सभी के सामने है। कौन है ये पिछड़ी जातियॉं ? ‘‘हिन्दु धर्म में से यदि ब्राम्हण, क्षत्रिय एवं वैश्य को निकाल दे तो शेष वर्ण शूद्र को हम पिछड़ा वर्ग कह सकते है। इसमें अतिशूद्र शामिल नही है।’’ (पृष्ठ 22) ‘‘पूरी हिन्दू सभ्यता में विभिन्न कर्मो के आधार पर उन्ही नामों से पुकारे जाने वाली जाति जिन्हे हम शूद्र भी कहते है ये पिछड़ा वर्ग कहलाती है।’’(पृष्ठ 23) स्पर्षय एवं अस्पर्शय सन्तान की चर्चा कर लेखक डा. अम्बेडकर व्दारा प्रतिस्थापित सिर्फ तीन वर्णो को मान्यता देते हुए सम्पूर्ण पिछड़े समाज को चौथे वर्ण में रखकर वर्गीकृत करता है।
प्रथम
अध्याय में पिछड़े वर्ग के उद्भव की वृहद चर्चा करने के उपरांत द्वितीय अध्याय को लेखक
ने जाति एवं गोत्र विवाद तथा हिन्दुकरण पर केन्द्रित किया है। शोध के दौरान इन जातियों
के ग्रन्थ,
स्मरणिका लेखों में उंची जाति होने के दावे को धर्मग्रन्थों
को मान्यता देते हुए पिछड़े वर्ग की अवैध सन्तति मानता है। ‘‘भारत में जातीय संरचना
इतनी घृणास्पद है कि प्रत्येक जाति अपनी हीन भावना के बोध से नही उबर पाती है। उसे
अपने से छोटी जाति को देखकर उतना गुमान नही होता, जितना
कि अपने से बड़ी जाति को देखकर क्षोभ(शर्मिन्दगी) होता है। ’’(पृष्ठ 45) उंची जाति होने के दावे एवं कृत्यों के सामाजिक परिणाम क्या हुए यह तथ्य विचारणीय
है ? विवादि जातियो में कायस्थ, मराठा, मूमिहार, सूद प्रमुख तौर पर शोध संदर्भ में रहे है। गोत्र क्या है? समाजषास्त्रीय दृष्टिकोण पर आधारित टोटम का नाम, पिता
का नाम, पूर्वज का नाम एवं नगर या शहर का नाम के स्त्रोतो को वर्णित करते है लेकिन पिछड़े
वर्ग के गोत्र अगड़ी जातियों के समान है। जातिगत विवेचना के तहत बुध्द की जाति को खंगालने
का प्रयास लेखक ने किया है। गोत्र के आधार पर उच्च वर्ग में शामिल किये जाने पर प्रष्नचिन्ह
लगाते है। पिछड़े वर्ग की विकास यात्रा के विभिन्न सोपान महत्वपूर्ण है। आरक्षण व्यवस्था
के मुद्दों पर मनुस्मृति को ही आधार बनाते हुऐ सामाजिक संरचना को विश्लेषित करते हुऐ
लंदन में गोलमेज कान्फ्रेन्स मे हुई घोषणा की चर्चा करते है। इस कांफ्रेस में डा. अम्बेडकर
ने दलितों के पृथक निर्वाचन मण्डल की मांग की। बस यहीं से जाति आधारित आरक्षण को तोड़ने की नीव पड़ी। यही निर्णय
कम्युनल अवार्ड के नाम से जाना जाता है। पूना पैक्ट की टीस दलित समुदाय में आज भी मौजूद
है। पुस्तक में पुनः उसका जिक्र कर गांधीयन दृष्टिकोण को कटघरे में खड़ा किया गया। आरक्षण
भारत में नही अपितु विदेषों में भी है। काका कालेलकर आयोग का गठन, मण्डल आयोग की सिफारिशों की वृहद चर्चा करते हुए आरक्षण से उपजे विवाद पर सवर्णो
से कुछ सवाल किये है। जैसे ‘‘क्या ये मैला साफ करने की नौकरी में दलितों के आरक्षण
का विरोध कर सकते है?
अर्थात् सवर्ण इसमें आरक्षण की मांग क्यों नही करते? दूसरा सवाल देष के तमाम पुरानी एवं प्रसिध्द मंदिरों में पुजारी का पद सिर्फ एक
जाति के लिए आरक्षित क्यों है?’’ विचारणीय है। क्या इन प्रश्नों
के जवाब कभी मिलेगें?
अंधविश्वास, पाखंड, छलप्रपंच के चक्रव्युह में पिछड़ावर्ग न फंसे उसके लिए आहवान करते है। लेखक यह प्रष्न
उठाते है। संतकबीर,
संतसेन, महात्मा फुले, पेरियार,
एवं संतनामदेव जैसे समाज सुधारकों के बावजूद यह वर्ग पिछड़ा क्यों
है?
संजीव खुदशाह अपनी पुस्तक में आरक्षण व्यवस्था की पड़ताल करते हुये विभिन्न जातियों की अधीकृत सूची के साथ ही इस सूची में शामिल होने को आतुर जातियों की भी चर्चा करते है।
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(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)
लेखक संजीव खुदशाह
ISBN 97881899378
मूल्य 200.00 रू.
संस्करण 2010 पृष्ठ-142
प्रकाशक
शिल्पायन 10295,
लेन नं.1
वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,
दिल्ली -110032 फोन-011-22821174