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पुणे में मेहतर वाल्मीकि समाज चिंतन विषय पर परिसंवाद आयोजित


पुणे शहर के मेहतर वाल्मीकि समाज तथा माणुसकी ने विगत ३० अक्तुबर २०१० शाम ५ बजे मेहतर वाल्मीकि समाज चिंतन पर परिसंवाद का आयोजन किया । इस कार्यक्रम में वक्ता के रूप में चर्चित किताब ''सफाई कामगार समुदाय`` के प्रसिध्द दलित लेखक एवं चितंक रायपुर के संजीव खुदशाह को आमंत्रित किया गया। श्री खुदशाहजी ने अपने उद्बोधन में कहा की ''सफाई कामगार समाज को आज दलित आंदोलन से जुड़ने कि आवश्यकता है तभी यह समाज प्रगति कर पायेगा। और दलित आंदोलन को जानने के लिए डॉ आंबेडकर को जनना आवश्यक है। हमारा यह समाज डॉ आबेडकर के द्वारा प्रदत संविधान के सारे लाभ तो जरूर उठाता है किन्तु उनकों मानने से कतराता है। यह बात बाबा साहेब के साथ बेईमानी जैसा है। यही कारण है आज भी यह समाज टुकड़ियों में बटा हुआ १९३० की स्थिति में गुजर बसर कर रहा है। जिन दलित जातियों ने अपने आपको दलित आंदोलन से जोड़ा वे सब आज तरक्की पर है।`` उन्होने आगे कहा की डॉ बाबा साहेब की किताब 'शूद्र कौन और कैसे?` पढ़कर उनकी पूरी जिन्दगी बदल गई। श्री विलास वाघ जो प्रसिध्द अंबेडकर वादी चिन्तक तथा दैनिक बहुजन महाराष्ट्र के संम्पादक है ने इस कार्यक्रम में कहा की इस समाज को जाति आधारित काम से विरक्त होना चाहिए साथ ही ब्राम्हण वादी चक्रव्यू से मुक्त होना भी जरूरी है। इस समाज का व्यक्ति पढ़ लिख कर ब्राम्हणवाद की गिरफ्त में आसानी से आ जाता है। अनिल कुडिया, बाबूलाल बेद तथा माणुसकी के प्रियदर्शी तैलंग ने भी अपने विचार व्यक्त किये। मौलाना अबुल कलाम आजाद समागृह में आयोजित इस कार्यक्रम में वाल्मीकि समाज के अनेक मान्यवर उपस्थित थे।

अमित गोयल
नागपूर  महाराष्ट्र

- संजीव खुदशाहनवंबर 2008 में एक एनजीओ के बुलावे पर मैं पुणे गया। वहां का कार्यक्रम सफाई कामगारों के उत्थान के लिए समर्पित था, किन्तु वहां के सफाई कामगारों की बस्तियों में घुमना तथा अपने पाठकों से मिलना बेहद रोमांचक यादगार पल था। पाठकों का मेरे प्रति प्रेम सम्मान एवं अपनापन के बीच मुझे पुणे में नया जैसा कुछ भी नहीं लग रहा था। पूणे की आबो-हवा एवं वहां के लोगों का बर्ताव बेहद सरल है। पुणे की एक विशेषता मुझे अच्छी लगी वह यह की यहां एक भी भिखारी नहीं है। लोग कहते है पूना बुद्धिमानों का शहर है, भिखारी के भेष में अमीरी की उसे परख है, शायद इसलिए यहां भीख देने का रिवाज नहीं है।
यहां सफाई कामगार बहुत बड़ी संख्या में रहते है। इनकी लगभग 20 से 25 बस्तियां है। ज्यादातर कामगार गुजराती तथा राजस्थानी मूल है, कुछेक यूपी से भी आये है। इनका रहन सहन का स्तर (पुणे के बारे में जैसा माना जाता है) तुलनात्मक अच्छा नहीं है, लेकिन गुजरात जैसे राज्य के बनिस्पत ठीक है। इसीलिए गुजरात से आये कुछ मानव-अधिकार कार्यकर्ताओं को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि यहां के सफाई कामगार अच्छी स्थिति में रह रहे है।
दरअसल गुजरात जैसे कट्टरपंथी एवं परंपरावादी राज्य में, जहां सफाई कामगार आज भी नरक सी सामाजिक स्थिति में जीवन-यापन कर रहे हैं, पर नवसृजन नाम का एक एनजीओ कार्य कर रहा है। ऐसी असामान्य स्थिति में काम करना अपने आपमें एक साहस का कार्य है। जब वहां के कार्यकर्ताओं ने पहली बार यहां के कामगारों की स्थिति देखी तो उनका आत्मविश्वास ठहर सा गया। उन्होंने यह स्वीकार किया कि वहां और ताकत से कार्य किये जाने की जरूरत है। चूंकि मैं मध्यभारत के अन्य शहरों में जाकर इनकी स्थिति से परिचित था, इसलिए मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी।
असल में इन कामगारों का आर्थिक स्तर तो सुधरा है, लेकिन सामाजिक स्तर (जिसे सामाजिक चेतना भी कहते है) वहीं का वहीं है। आर्थिक स्थिति ठीक होने के बाद भी लोग सफाई पेशा छोडऩे को तैयार नहीं हैं।
मैंने इनके सदस्यों से मुलाकात की। यह आत्मीय मुलाकात सचमुच अविस्मरणिय है इनकी यहां स्थानीय पंचायत भी है। इसी पंचायत के प्रबंध सदस्य श्री खेमचंद बाबू साउके ने गोगापीर के बारे में जानकारी मिथक के रूप में दी। वे बड़े ही रोचक ढंग से बताते हैं कि गोगापीर नाथसंप्रदाय के गुरू श्री गोरखनाथ के शिष्य थे। मैं यहां पर जानकारी देना आवश्यक समझता हूं कि बौद्ध धर्म के पतन के समय जब हीनयांन-महायान की उत्पत्ति हो चुकी थी, उसी समय कुछ पंथ भी तैयार हुए। ये पंथ बौद्ध भिक्षुओं से ही टूटकर बने थे। इन्ही में एक पंथ नाथ सम्प्रदाय था, जिसमें बौध्द धर्म के अवशेष नाम-मात्र के थे। भंगी जाति के लोग यह मानते हैं कि गोगापीर चुहड़ा जाति के हंै लेकिन सच्चाई कुछ और है।
ऐसा कहा जाता है कि मारवाड़ क्षेत्र में एक राजपूत राजा थे, जिनका नाम जेवर तथा उनकी रानी का नाम बाचल था। रानी लंबे समय से संतानहीनता का दंश झेल रही थी। इन्हें एक साधु ने आर्शीवाद के साथ गोगल (सर्प के जहर से बना लुगदीनुमा मणी जैसा) भी दिया। उस रानी ने इस गोगल के पांच भाग किये तथा चार भाग अपनी सेविकाओं को भी दे दिया जो संतानहीन थीं। उनमें से एक भाग मेहतरानी (चुहड़ी) को तथा एक टुकड़ा घोड़ी को भी दिया। एक भाग स्वयं रानी ने भी खाया। रानी से जो पुत्र पैदा हुआ वह गोगापीर कहलाये। कहीं कहीं इन्हें गोगावीर भी कहते हैं। जो पुत्र मेहतरानी से हुआ वे रत्नाजी चावरिया कहलाये चूंकि गोगल के रिश्ते से दोनों भाई थे, इसलिए चूहड़ा समाज के लोगों ने इन पर विशेष श्रध्दा दिखाई। कहा जाता है कि गोगापीर विशेष चमत्कारी व्यक्तित्व के थे। इनके मानने वाले कहीं कहीं कालबेलिया भी कहलाते है।
जैसा कि अन्य चमत्कारियों के हाथ पांव सफाई कामगीरों को उबारने के मामले में ठंडे पड़ जाते हैं, उसी प्रकार गोगापीर की भी चमत्कारिक शक्तियां अपने गोगली भाईयों को मैला ढोने की संस्कृति से निजात दिलाने के मामले में जवाब दे बैठी।
लेकिन ये सफाई करने वाली जातियां जोर-शोर से इनकी रैलियां निकालती हंै। वे उसे भगवान मानते हैं। उनके शिष्यों के आगमन पर पुणे में भव्य स्वागत किया जाता है। ऐसा नहीं है कि सभी लोग दलित चेतना से विमुख हंै। कुछ लोग तो हंै, लेकिन उन्हें उंगलियों में गिना जा सकता है। अम्बेडकरी धारा में आने के सम्बन्ध में उनका कहना है कि नये ब्राम्हणों ने भी हमारा खूब शोषण किया है। उनका सभी दलित संस्थाओं में कब्जा है। अपने शोषकों के साथ हम कैसे हो सकते हैं।
यहां की बहुसंख्यक दलित जाति के बारे में वे राय रखते हैं कि हमें मिलने वाली सभी सुविधाएं ये ले लेते है और हमसे छुआछूत बरतते हैं। ऐसे में दलित चेतना गंजे के सिर में पानी डालने जैसा है। जब तक यहां की बहुसंख्यक संगठित जातियां हमसे समानता का व्यवहार नहीं करेंगी, तब तक हम कैसे इनके साथ दलित चेतना से जुड़ पायेंगे। माणुस्कि जैसे कुछ एनजीओ के कार्यकर्ता ऐसा प्रयास कर रहे है जो सराहनीय हैं, इसलिए कुछेक व्यक्तियों का रूझान दलित चेतना की ओर हुआ है, किन्तु बैठकों में भंगी-भंगी की पुकार एवं अलग से पहचान करवाये जाने के कारण वे कुण्ठा के शिकार हो जाते हैं। कुछ तो इस दंश के कारण वापस आने से भी परहेज करते हैं। दरअसल दलित संस्थानों में सफाई कामगारों को वाल्मीकि पुकारना भी एक अटपटा अनुभव है। आखिर कब तक सभी दलित जातियां अपने दासत्व बोधी नाम से छुटकारा पायेंगी?
जब दलित आंदोलन से जुड़े लोग भी ऐसा करते है तो दुख होता है। क्या ऐसी दिशाहीन संस्थाएं समाज को दिशा दिखा सकेंगी?

सफाई कामगार: इतिहास के प्रसंग - जयप्रकाश वाल्मीकि

पुस्तक समीक्षा समयांतर अक्टुबर २००५
सफाई कामगार: इतिहास के प्रसंग
संजीव खुदशाह ने सफाई कामगार समुदाय की उत्पत्ति और इतिहास पर काफी खोजबीन की है। इस खोजबीन में उन्होने वेद, पुराणों, मनुस्मृति सहित कई अन्य स्मृतियों को भी खंगाला है। लेखक ने वर्ण और जाति व्यवस्था पर केंद्रित कई विद्वान लेखकों की पुस्तकों का भी अध्ययन किया और इस समुदाय के कई लोगांे के साक्षात्कार भी लिये हैं। बड़े अध्ययन और परिश्रम से लिखी गई उनकी यह पुस्तक पांच खंडो में विभाजित है। प्रथम खंड में लेखक ने शूद्र, अछूत, अछूपन का प्रारंभ, परिस्थिति पर प्रकाश डाला है। उन्होने, शूद्र कोैन है? पर अम्बेडकर के मत को सही माना कि आर्यों में पहले तीन वर्ण थे चौथा शूद्र वर्ण ब्राम्हण और क्षत्रियों के संघर्ष का परिणाम है। ब्राम्हण ने क्षत्रियों राजाओं के उपनयन संस्कार बंद कर दिए जिससे वे सामाजिक दृष्टि से तिरस्कृत हो गए एवं वैश्यों से नीचे की स्थिति में आ गए। इस प्रकार चतुर्थ वर्ण की उत्पत्ति हुई। (पृष्ठ-२१) लेखक अछूतों को शूद्र नही मानते बल्कि अतिशूद्र मानते है। (पृष्ठ-२५) लेखक प्रश्न है: 'अतिशूद्र को अवर्ण क्यों रखा गया है?` इसके लिए उन्होंने चार कराण होने की संभावना प्रकट की। इनमें से पहली दो संभवनाओं से असहमत नहीं हुआ जा सकता। लेकिन तीन में लेखक का यह अनुमान ठीक है कि अस्पृश्य भारत के मूल निवासी हैं, जिन्हें पुराणों में अनार्य, दास, नाग, राक्षसों आदि के नाम से पुकारा गया। (पृष्ठ सं. २८) लेखक जब उनके अनार्य होने की संभावनाओं को प्रकट करते हैं तो उनका यह कहना भी घृणा का कारण केवल राजनैतिक नहीं है। धार्मिक कारण ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। लेखक ने हालांकि अछूतों के पुरातन धर्म का उल्लेख नहीं किया लेकिन जनगणना कमीशन के व्यक्तव्य (१९१०) से यह अवश्य बतला दिया कि अछूतों का वैदिक; ब्राम्हण धर्म, जिसे हिंदू धर्म भी कहते हैं, उनका धर्म कतई नहीं हैं।
खंड दो में लेखक ने सफाई पेशे के इतिहास पर रोशनी डालने का प्रयास किया है और इसके लिए उन्होंने तीन परिकल्पनाऍं प्रस्तुत तो की, लेकिन स्वयं अपना कोई मत स्पष्ट रूप से नहीं दिया। काश, लेखक तीनों परिकल्पनाओं को जोड़कर यह बताते कि अतिशूद्रों में (जैसा कि लेखक ने इस के प्रारंभ में पेज नं. २ में कहा है कि सफाई कामगार इसी अतिशूद्र वर्ग में आते है।)पृ. ४१ में में आर्यों के व्दारा बहिष्कृत कर दिए गए लोग इन्हीं अनार्यों अर्थात शूद्रों में मिल गए। विवशता में सफाई कार्य करने लगे। इससे पूर्व यह घृणित कार्य अनार्य लोग करते थे।
लेकिन उनका कार्य बाहरी क्षेत्रों का कूड़ा-करकट साफ करना था। जैसा कि ''सुणीत भंगी`` के उल्लेख से ज्ञात होता है। लेकिन बाद में मुसलमान शासकों के समय सिर पर मैला उठाने का कार्य प्रारंभ हुआ। सफाई पेशे में लगे लोगों के साथ बादशाहों ने बंदीगृह में बंद हिंदू क्षत्रिय सैनिकों को भी जबरन इस कार्य में लगा दिया। अत: सफाई कामगार समुदाय भिन्न-भिन्न जातियों का जमावड़ा बन कर रह गया। अगर ओमप्रकाश वाल्मीकि के साक्षात्कार को सही मानें कि ''जिन पंच लोगों को जैन धर्म में प्रवेश की मनाही है, उनमें एक भंगी भी है(पृ.४३)`` तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि पुरातन काल में सफाई पेशे में केवल अतिशूद्रों, जो आर्यो की वर्ण व्यवस्था से बाहर के लोग हैं को आर्यों ने बलपूर्वक लगाया। बुध्द के समय तक ये लोग केवल मार्गों की सफाई करते थे, जिसका उदाहरण... ''सुणीत भंगी`` है। हालाकि पुस्तक में भी यही बात है, पर अगर लेखक इसे क्रमबध्द ढंग और सरलतम रूप में पाठकों के सामने रखते तो ज्यादा सुविधाजनक हो सकता था।
मूल सफाई कामगारे की उत्पत्ति पर खंड तीन महत्वपूर्ण है। इसमें खुदशाह ने ''श्वपच, चांडाल और डोम`` जाति का विश्लेषण किया है। लेकिन इस विश्लेषण में यह तथ्य पूर्णरूप से उभर कर नही आ पाया कि इनमें से सफाई पेशे में सर्वप्रथम कौन-सी जाति का पदापर्ण हुआ। लेखक के अनुसार:
(१) चांडाल: चांडाल की उत्पत्ति शूद्र व्दारा ब्राम्हण स्त्री से समागम करने से हुई। चांडाल की उपमा उन लोगों को भी दी गई जो अपनी परंपराओं से डिगे। ऋग्वेद आर्यों का सबसे पुराना ग्रंथ है, पर उसमें भी चांडाल की चर्चा नहीं । आर्थात यह चांडाल अनार्य लोग है।
(२) श्वपच: चांडाल व वैश्य कन्या से उत्पन्न संतान को ''श्वपच`` कहा गया है। लेकिन जाति से बहिष्कृत लोग भी ''श्वपच`` कहलाए। तथा बौध्द धर्म के श्रमणों (साधुओं) को भी घृणा से ''श्वपच`` कहा गया।
(३) डोम: डोम को पुराणों में चांडाल भी कहा गया है (पृ. ८०)। लेखक का डोमों के प्रति भी यही मानना है कि डोम भी चांडाल, श्वपच की भांति आर्यों की वर्ण-व्यवस्था से बाहर के लोग है और अनार्य है। अर्थात अतिशूद्र हैं।
इन तीनों के नाम से अलग-अलग पहचान होने पर भी इनके काम-काज, रहन-सहन बहुत मिलते-जुलते हैं। लेखक ने भी ऐसा ही दर्शाया है (पृ. ७४,७८,८०)। इसे देखते हुए स्पष्ट होता है कि ''चांडाल, श्वपच और डोम`` एक-दूसरे के प्रतिरूप है और इनमें चांडाल ही ज्यादा पुरातन लगता है। जैसे चांडाल और वैश्य कन्या से उत्पन्न संतान ''श्वपच`` कहलाई तथा ''डोम`` को भी पुराणों में चांडाल कहा गया।
सफाई जैसा घृणित कार्य एक जाति-विशेष या समुदाय के लोग कब से और कैसे करने लगे, संजीव खुदशाह ने इसे स्पष्ट करने के लिए तीन परिकल्पनाएं प्रस्तुत की है:
परिकल्पना-एक, मुगल शासन काल में हिन्दू क्षत्रिय सैनिक बंदियों से जबरन सफाई कार्य करवाया गया। परिकल्पना-दो, आर्यो ने अनार्यो का इतना दमन किया कि इन्हें मजबूरन सफाई कार्य अपनाना पड़ा। परिकल्पना-तीन, समाज में दंडित लोगों को सफाई पेशा अपनाने की बात कही गई। तीनों परिकल्पनाएं अपनी जगह ठीक हैं। और यह भी युक्तियुक्त है कि सर्वप्रथम इस पेशे में आनें वाले भारत के मूल निवासी अनार्य ही थे, जिन्हें नाग, दानव, दास, असुर, कहा गया। बाद में इस समुदाय में हिन्दू क्षत्रिय और हिन्दू धर्म की उच्च जाति के लोग भी आ मिले। लेखक का मानना है कि सफाई कामगारों में जो क्षत्रिय गोत्र मिलते हैं, उसका कारण भी यही है। लेखक के इस मन्तव्य से असहमती तो प्रकट नहीं की जा सकती, लेकिन दूसरा एक पहलू यह भी है कि राजा-महाराजाओं के शासन काल में दासों को भी दहेज में दिया जाता था। दहेज में जहां वे जाते थे, वहां उनकी पहचान अपने पूर्व के राजा के निवास और गोत्र के रूप में हुआ करती थी।
भंगी शब्द की परिभाषा अब तक स्थापित मान्यताओं का ही दोहराव है। लेकिन ''भंगी`` के रूप में सफाई कामगारों की पहचान बनाने के पीछे कथित उच्च जातियों का इस समुदाय के प्रति उनकी घृणा का भाव ही रहा है। वे इन्हे ''भंगी`` कह कर समाज में इस मानसिकता का विकास करने में सफल रहे कि इनकी प्रारंभिक उत्पत्ति पापपूर्ण ढंग से भग द्वार (योनि भाग) में हुई। जबकि बा्रम्हणों की उत्पत्ति ब्रह्मा के पवित्र मुख मार्ग से हुई। हालांकि शास्त्रकारों ने इसके लिए कोई शास्त्रीय आधार तो स्थापित नहीं किया। लेकिन समाज में इस मानसिकता का विकास इन्हे ''भंगी`` कह कर अवश्य कर दिया।
बहुत-सी ऐसी बातें है जिनका पता लगाने के लिए इस समुदाय के धार्मिक सामाजिक रीति-रिवाजों और परंपराओं का अध्ययन परम आवश्यक है, लेकिन लेखक ने स्वीकारा है कि उन्होंने इस समुदाय के सामाजिक परिवेश पर ज्यादा न ध्यान देकर केवल उत्पत्ति और इतिहास पर ज्यादा ध्यान दिया है। (लेखकीय व्यक्तव्य,पृ.११)
खैर, इस पुस्तक को पढ़ने से इतना तो हम तय कर सकते है कि सफाई कामगार का पुरातन स्वरूप ''चांडाल, श्वपच और डोम`` का है। यह तीन रूप में व्याख्यायित होने से पहले विशुध्द अनार्य अर्थात नागवंशियों के रूप में था तथा जैन और बौध्द धर्म से पहले से ही सफाई पेशे में अनुरूक्त हो गया। बाद में महात्मा बुध्द ने इन्हें उठाने के प्रयास किए। जैसा कि भगवान बुध्द केे ''सुणीत भंगी`` को धर्म दीक्षा देने का विवरण मिलता है। इनकी सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि ये चांडाल से श्वपच, डोम में बंटते चले गए और इसके बाद इन्ही में से मेहतर, हलालखोर, चूहड़ा आदि का आर्विभाव हुआ तथा इनमें विभिन्न जातियों का भी समावेश होता गया। बहिस्कृत स्त्रियों और उनकी संतानों को भी इसी समुदाय में स्थान मिलता रहा।
राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र सहित कई जगह सफाई कामगार भले ही कहीं मेहतर, चूहड़ा, वाल्मीकि बने हुए हों, लेकिन वे जाति और समाज के तौर पर अपने को एक मानते हैं क्यांकि इनके आपस में गोत्र एक-दूसरे से मिलते हैं। रीति-रिवाज एक-से हैं तथा उनमें रोटी-बेटी का व्यवहार होता है। यह लोग झाड़ू लगाने से लेकर सिर पर मैला ढोने तक का काम करते हैं। गांवों में यह लोग खेतिहर मजदूर है। बांस की टोकरियां बनाते हैं। सुअर पालन तो यह करते ही हैं तथा सफाई कामगारांे में यह समुदाय बहुसंख्यक रूप में है। यही सही है कि सफाई कामगार समुदाय में कुछ ऐसी जातियां भी है, जो इनसे अपने को पृथक मानती हैं। परंतु जब वे बहुसंख्यक वर्ग के क्षेत्रों में आते हैं तो सहजता से इनमें रच बस जाते हैं। आंध्रप्रदेश में ''मादिका`` नाम की जाति है, ये लोग भंगी का काम करते हैं। सफाई कार्य भंगी का पर्याय है। अगर ये लोग अपनी सरकारी गैर सरकारी सेवाओं के तहत सफाई कर्मचारी बतौर हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में आ जाएं तो इन्हे वाल्मीकि, मेहतर, हलालखोर, लालबेगी, चूहड़ा कहे जाने वालों के यहां ही रहने-बसने की जगह मिलेगी। मादिका जाति का व्यक्ति (मादिका जाति के व्यक्ति को सफाई कार्य करते देखकर उसकी जाति वैसे ही नही पूछी जाएगी) तो उसी आधार पर वाल्मीकि, मेहतर कहे जाने वाले सफाई कामगार समुदाय में गोत्रों की कोई निश्चित संख्या नहीं है, जिससे वे आगंतुक के गोत्र का मिलान अपनी जाति की गोत्र सूची से कर सकें।
राजस्थान में ''डिया`` नामक जाति है, संभव है ''डिया`` ''डोम`` का ही अपभं्रश हो। यह जाति वाल्मीकि मेहतरों की ही भांति सफाई का कार्य करती है। गांवो में अनाज साफ कर छाजला बनाती हैं। अब उनका वाल्मीकि मेहतरों में समावेश हो रहा है। संजीव खुदशाह की पुस्तक में भले ही इन बातों की जानकारी न हो, इसके बाद भी संभवत: उनकी यह पुस्तक ऐसी पहली पुस्तक है जिसमें सफाई कामगार समुदाय को केंद्र में रख कर एकत्रित की गई ज्ञानवर्धक तथा खोजपूर्ण जानकारियों का विपुल भंडार है। खासकर मुगलकाल में सफाई कामगारों का मेहतर, शेखड़ा, लालबेगी, हलालखोर, मलकाना आदि बनने की प्रक्रिया पर महत्वपूर्ण जानकारी है। लेखक का लगन से किया गया परिश्रम जगह-जगह छलकता है, जिसके लिए वह धन्यवाद के पात्र हैं। सफाई कामगार समुदाय के शोध को आगे बढ़ाने में अन्य लेखकों के लिए भी यह पुस्तक उपयोगी होगी। साज-सज्जा साफ-सुथरी और सादी है। यदि पुस्तक का मूल्य कुछ कम होता तो यह उस समुदाय के लिए अच्छा होता जिसकेा केंद्र में रख कर इस अनुपम कृति की रचना की गई है।
  • जयप्रकाश वाल्मीकि

भंगियों का जीवन आज भी त्रासदीयों से भरा है--संजीव खुदशाह

सत्य कड़वा होता है, यह एक अनुभव का विषय है। यह कितना कड़वा होता है इसका अन्दाजा तभी लगाया जा सकता है, जब इससे सामना होता है। आज हम चाहें जितना भी कहे कि हम विश्व की महाशक्ति बनने जा रहे हैं या हम विश्व शान्ति के प्रतीक हंै। किन्तु सफाई कामगारों के प्रति हमारी मानसिकता समस्त दावांे को खोखला साबित कर रही है। आज भी लगभग ५० विभिन्न जातियों का समूह, भंगी समुदाय के लोग १९३१ वाली सामाजिक स्थिति में जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। सरकारी आंकड़े चाहे जो दावे प्रस्तुत करते रहे हांे किन्तु सामाजिक बदलाव अभी भी कोसों दूर है जबकि इन्हंे सामाजिक समता दिलवाने के उद्देश्य से ही आरक्षण तथा अन्य कानूनी सुविधाए मुहैया कराई गई थीं। लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि ये सारी कार्यवाहियाँ कथनों तक ही सीमित रहीं। इसका प्रमुख कारण इन सुविधाओं को उपलब्ध कराने वाले तंत्र की खानापूर्ति एवं उपेक्षा पूर्ण रवैया रहा। यह तंत्र अपने आपको सिर्फ इसी काम के लिए व्यस्त रखता की किस प्रकार इन सुविधाओं को पहुचाने तथा उन्हे मुहैया कराने से वंचित करने के लिए कानूनी दंाव पेच अथवा टालमटोल किया जा सके। हालांकि सरकार की मंशा इन्हे घ्पर उठाने की रही। इसका सबसे बड़ा सबूत है भंगियों की भारत में आज भी नारकीय जीवन जीने की बाध्यता। आज भी सिर पर मैला ढोते मानव को देखा जा सकता है। संदर्भ देखे (आंध्रप्रदेश की रिपोर्ट बुक) । आज भी परिस्थितियॉं बनाई जाती है कि वे इसी अमानवीय कार्य को करते रहे। गोहना, झज्जर, तथा चकवाड़ा काण्ड इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। ऐसा कौन मानव होगा जो स्वेच्छा से दूसरे मानव का मल-मूत्र साफ करने का कार्य करना चाहेगा या पुश्तैनी सफाई कार्य करना चाहेगा। कई बार वरिष्ठ समाज सेवियों व्दारा यह कहते सुना जा सकता है कि ये लोग अपने पतन के लिए खुद जिम्मेदार हैं क्योंकि इन्हे दूसरा काम पसंद ही नहीं आता। जबकि सत्य यह है कि ऐसे कई प्रयास सरकारी तथा गैर सरकारी तौर पर किये गये हंै कि यदि भंगी, भंगी (सफाई) का कार्य छोड़ें तो उसे दंण्डित किया जाये उदाहरण देखें (संदर्भ-) ''१९१६ के संयुघ् प्रान्त नगरपालिका अधिनियम-११ की धारा २०१ में यह व्यवस्था थी कि यदि कोई जमादार (मेहतर), जिसका किसी घर या भवन में घरेलू सफाई का प्रथागत अधिकार है, सफाई का काम करने से मना करता है, तो मजिस्टघ्ेट को अधिकार है कि वह ऐसे जमादार पर दस रूपये तक का जुर्माना कर सकता है। ऐसा ही कानून १९११ के पंजाब नगर पालिका की धारा १६५ में था कि सफाई का काम बंद करने वाले जमादार पर दस रूपये का जुर्माना और जब्ती का आदेश भी दिया जा सकता है। और धारा १६५ के तहत उसकी अगली बड़ी अदालत में अपील नहीं की जा सकती।`` आप खुद ही अंदाजा लगा सकते है कि उस वघ् दस रूपये की की्रमत क्या होगी जब इन कामगारों की महीने भर कि कमाई दस रूपये से भी कम थी। ऐसे में कोई भंगी भला कैसे अपने समाजिक एवं आर्थिक पिछड़े पन से उबर पाता।
इस बारे में गांधी जी ने भी कहा है कि ''आप अपना काम इमानदारी से करें तभी तुम्हारा अगला जन्म उच्च कुल में होगा।`` दूसरी ओर डॉ. अम्बेडकर जी ने कहा-कि ''उच्च कुल का आदमी मरते मर जायेगा किन्तु ऐसा गंदा काम वो हरगिज़ नहीं करेगा। तो तुम्हारे पास क्या मजबूरी है? सबसे पहले इस गंदे पेशे से छुटकारा पाओ तभी तुम्हारा भविष्य उज्जवल होगा।`` गांधी जी का उघ् ब्यान हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म का एक ऐसा पासंग है कि आज इस पासंग से शीघ्र मुघ् होने की आवश्यकता है। क्यांेकि यह एक ऐसा झुनझुना है जिसके द्वारा जनता को बहलाकर हम अपने सामाजिक दायित्व बोध से मुघ् होना चाहते है तथा निर्दोष होने का चोला पहनना चाहते हैं। संदर्भ देखें । आज हम चांद पर पहॅंुच चुके है पर न जाने कब हम अपनी रूढ़ियों से निजात पायेंगे। हम अपनी रूढ़ियों के प्रति इतने जड़ हो जाते हैं कि हम इसे दूर करने के बजाय इसे संस्कृति का एक हिस्सा बताने लगते हैं तथा संस्कृति बचाओ की दुहाई देकर इन रूढ़ियों को और पुष्ट करने का ही प्रयास करते हंै। आश्चर्य तब और ज्यादा होता है जब इस समुदाय के लोग, जिन्होने दलित आंदोलनो का लाभ पाकर घ्ॅंचे मुकाम हासिल किये हैं वे भी इन्ही सवर्णों के पद चिन्हों में चलते हुऐ इन्ही रूढ़ियों (कथित संस्कृति) का समर्थन कर अपनी जड़े स्वयं कमजोर करते देखे जाते है।
दैनिक अखबारों में आये दिन दलित प्रताड़ना की खबरंे आती रहती हैं। आज भी सवर्णों द्वारा एक अछूत स्त्री को निरवस्त्र घुमाना कोई अपराध नहीं समझा जाता। एक दलित महिला को केवल इसलिए नंगी करके गांव में घुमाया फिर जला दिया गया, क्योंकि वह दलित जाति की होने के बावजूद सरपंच चुनाव में पर्चा भरने की जुर्रत की थी। एक दलित जाति के आदमी को सरे आम सिर्फ इसलिए पीटा गया क्योकि उसने एक ठाकुर से खाट में बैठे-बैठे बात की थी। सवर्णों द्वारा दलित प्रताड़ना कि ताजी फेहरिस्त इतनी लम्बी है कि यदि इस पर लिखा जाय तो एक अलग ग्रंथ तैयार हो जाये। हम अपने ही जैसे मानव को एक पालतु जानवर तक का दर्जा देने को तैयार नहीं है और वहीं दूसरी ओर विदेशी मामलों में ''अतिथि देवोभव:`` का उद्घोष कर रहे हैं। यह बड़ा ही हास्यास्पद तथ्य है की हम अपने ही देश के लोगों को मनुष्य का दर्जा नहीं दे पा रहे है वहीं दूसरी ओर विदेशियों को भगवान का दर्जा देने की मुहिम जारी हैै। यह सच नकार नहीं जा सकता है।
ठेकेदारी करण - हांलाकि इस मामले में सेफ्टी-टैंक पैखाना की शुरूआत तथा खाटाउ (कन्टघी) पैखाने का बंद होना अपने आप में एक अच्छा संकेत रहा है। साथ ही सरकारी सफाई कार्यों का ठेकेदारीकरण एक प्रकार से शोषण ही है। क्योंकि ठेकेदारी या सरकारी दोनों मामलों में सफाई कामगार तो भंगी जाति के ही होते हैं। जबकि उन्हें सरकारी नौकरी में आजीवन सुरक्षा तथा अच्छा वेतन अन्य शासकीय सेवा की सुविधाएं प्राप्त हो जाती थी। किन्तु ठेकेदारी करण होने के कारण सारी मलाई ठेकेदार उड़ा लेता और भंगी जो ठेकादार की नौकरी करता है, वह पक्की नौकरी, वेतन तथा अन्य सुविधाओं से वंचित रह जाता है। जो सुविधांए वह स्थिर सरकारी नौकरी से उठा रहा था, अब ठेकेदारीकरण होने के कारण उल्टे आर्थिक तंगी एवं पतन की ओर तेजी से बढ़ रहा है। सफाई कार्य के ठेकेदारीकरण में भंगियों का हित कभी नहीं देखा गया केवल घ्ंचे मूल्य में ठेका देने तक की जिम्मेदारी उठाई जाती है किन्तु इससे एक सफाई कामगार का क्या शोषण हो रहा है इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। ऐसा ही एक तथ्य अखिल भारतीय सफाई मजदूर कांग्रेस (टेघ्ड युनियन) की राष्टघीय कार्यकारिणी की बैठक के सामाचार (संदर्भ देखें) में सामने आया जिसमें कहा गया कि सफाई कामगार आयोग में जिन सदस्यों को मनोनित किया गया है वे सफाई कामगार समाज से संबंधित नहीं है न ही इस जाति के हंै। इस प्रकार अंजादा लगाया जा सकता है कि वे इनके हित एवं अहित के बारे क्या निर्णय लेते होगें ?
वर्तमान में कई सफल एवं प्रतिष्ठित पदों पर इस समुदाय (इनकी संख्या समाजिक औसत के हिसाब से बहुत ही कम है।) के लोग राष्टघ् को अपनी सेवाएं दे रहे है जैसे सांसद, मंत्री, राज्यपाल, विधायक, महापौर, सभापति, आय.ए.एस अधिकारी आदि। इतने घ्पर पहुचने के बावजूद इनमें अपनी जातिगत पहचान से बचने की कसक अवश्य दिखाई पड़ती है इसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला - शिखर पर पहॅुचने के बावजूद इनमें समाज का सामना करने तथा समाजिक व्यवस्था को झकझोर देने वाली आत्मविश्वास की कमी है। दूसरा- यह है कि गैर सफाई कामगार समुदाय की इनके प्रति अस्वस्थ मानसिकता है। जो इन्हें जातिगत हीन भावना तथा गुलामी के बोध से उबरने नहीं देती। एक राज्यपाल जो भंगी जाति के थे, मैंने खुद उनके बारे में लोगों को जाति नाम का आक्षेप लागते देखा। इससे अन्य उच्च पदों के व्यघ्यिों के प्रति सवर्णों (गैर दलित) के दृष्टिकोण का अंदाजा लगाया जा सकता है।
यह कहा जा सकता है कि सफाई कामगार में यह चेतना आनी आवश्यक है कि वे इस काम से निजात (छुटकारा) लेकर समान नागरिकता-बोध खुद में पैदा करें। क्योंकि कार्य (पेशा) से समाजिक प्रतिष्ठा प्रभावित होती है। इतिहास गवाह है जिन्होने भी इस गंदे पेशे केा छोड़ा है, उनका जीवन-स्तर उठा है, इसके लिए समाजिक बुराई जैसे अशिक्षा, शराब बंदी भी आवश्यक है। इस दिशा में सरकारी स्वीपर पदों पर सवर्णों के आरक्षण की नीति भी अपने आप में उल्लेखनीय है। रेल्वे एवं नगर निगम में कई सवर्ण इस पद में पदस्थ हुए हंै, इससे निश्चित रूप से इस पेशे को महत्व मिलेगा। दूसरी ओर यह देखा गया है कि गैर भंगी इस पेशे में आरक्षण का लाभ लेकर स्वीपर की सरकारी नौकरी तो जरूर पा जाते है किन्तु वे सफाई का कार्य नहीं करते बल्कि किसी भंगी सेे ही बेगारी या मजदूरी में यह कार्य कराते है। कुछ लोगों का कहना है कि यह सर्वणों की चाल है। सरकारी नौकरी में प्रवेश पाने के बाद ये लोग अन्य अच्छे विभागों में अपना स्थानांतरण करवा लेते है चूकि उनके अफसर सवर्ण ही होते है वे इनकी मिली भगत से ऐसे कार्य को अंजाम देते है।
सनद रहे हमारी यह लापरवाही और दलितों के प्रति हमारी ये उपेक्षा राष्टघ् की प्रगती तथा तथाकथित उत्थान के दावों को झूठा न साबित कर दे। क्योकि कोई लेाकतंत्र, लोक की उपेक्षा के आधार पर कायम नहीं रह सकता। इसके लिए आवश्यक है कि उस नीव को मजबूत किया जाय जिससे राष्टघ् को स्थाई मजबूती प्राप्त हो सके। अत: अजादी के बाद से भंगीयों/दलितों की समाजिक समानता के लिए जिन कार्यों की उपेक्षा की गई, उनकी भरपाई की जानी चाहिए। इनमें दो दिशा में कार्य किया जाना आवश्यक है पहला आर्थिक उत्थान दूसरा सामाजिक सम्मान। मैने सर्वेक्षण में पाया है कि ज्य़ादातर गैर सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) इनकी सामाजिक चेतना (सम्मान) पर न ध्यान देकर केवल समाजिक संरक्षण पर ही ध्यान देते हैं सरकार का भी प्रयास इसी दिशा में ज्य़ादा होता है। यह एक अस्थाई विकास का उदाहरण है। स्थाई विकास एवं समाजिक चेतना के लिए आवश्यक है कि इनके विकास पर कार्य करने के लिए बने संगठन में इसी समाज के सक्रिय सदस्यों का भी सहयोग ऐसे कामों में लिया जाय। ताकि देश का सबसे आखरी सदस्य भी विकास की दौड़ में पीछे न रह जाये।
(संजीव खुदशाह) मोबाईल नं 09977082331

दलित चेतना और भंगी समुदाय--संजीव खुदशाह


भारत के दलितों में सफाई कामगारों की बहुत बड़ी संख्या होने के बावजूद ये जाति दलित चेतना से दूर रहीं। यह बात अम्बेडकर वादियों के लिए जितनी दुखदाई है उससे कहीं ज्यादा विस्मयकारक भी कि आखिर क्यू ये जातियां डा. अम्बेडकर के अस्पृश्यता आंदोलन और विचार धारा से नही जुड़ सकीं। यह प्रश्न गम्भीरता से मनन करने के लिए बाध्य करता है की आखिर क्या कारण है कि ये जातियां दलित आंदोलनों से लगभग अछूती रहीं ? इसके अध्ययन को निम्न तीन बिन्दुओं में बांटा जा सकता-
Ø डा. अम्बेडकर के बारे में भ्रमित जानकारी
Ø सामंन्तवादियों से इनकी नजदीकियां
Ø अन्य संभ्रात दलित जातियों व्दारा घृणा।
सामान्यत: इस समुदाय के बुध्दिजीवी एवं नेताओं से बात करने पर (जो परम्परावादी विचार धारा के है) यह शिकायत मिलती है कि डा. अम्बेडकर ने हमारे लिए क्या किया। उन्होने तो सारा कुछ महारों और चमारों के लिए किया। प्रथम दृष्टया देखे तो यह बात सच प्रतित होती है। किन्तु डा. अम्बेडकर के कार्य और संधर्ष का अध्ययन करें तो पाते है कि डा. अम्बेडकर ने सफाई कामगारों के लिए ही नही बनिस्पत सभी दलितों के लिए इतना काम किया है जितना आज तक किसी ने भी नही किया होगा। यदि उनके व्दारा सफाई कामगारों के लिए किये गये कार्य की बात करें तो पाते है की उनका योगदान सराहनीय एवं अमूल्य रहा।
बाबा साहब डा. अम्बेडकर की इच्छा थी की सफाई कामगारों की एक शक्तिशाली देश व्यापी संस्था कायम की जाय जो न केवल सफाई कामगारों की हालत सुधारने का कार्य करे बल्कि उनमें शिक्षा का प्रसार, सामाजिक सुधार शराब, तम्बाकु सिगरेट, बीड़ी और नशों से छुटकारा व फिजूल खर्च अथवा कर्ज से निजात के लिए कुछ काम कर सके। इसी तारतम्य में बाबा साहब ने राजा राम भोले और श्री पी.टी. बोराले को समूचे भारत में सफाई कामगारों की समस्याओं, कठिनाइयों तथा जरूरतों का अध्ययन करने और रिर्पोट पेश करने का काम सौपा। इसी उद्देश्य से उन्होने देश का भ्रमण किया। डॅा.पी.टी. बोराले बाद में सिध्दार्थ कालेज से बतौर प्रिंसिपल रिटायर हुए और साइमोन बंबई में रहते है। श्री भोले हाई कोर्ट में जज रहे बाद में वे लोकसभा के सदस्य थे इनका देहांत हो चुका है। बाबा साहेब डा. अंम्बेडकर ने श्री भोले को १९४५ में अंतराष्ट्रीय मजदूर कांग्रेस में सफाई कर्मचारियों का प्रतिनीधि बनाकर भेजा था। ताकि वे अंतराष्ट्रीय मंच में सफाई कामगारों की समस्या को उठा सके।
बाबा साहेब डा. अम्बेडकर ने भंगीयों के लिए एक बहुत ही अच्छा काम यह किया कि उन्होने ऐसे कानून जो भंगीयों के शोषण के लिए बनाये गये थे उन्हे समाप्त करवा दिया। जैसे बहुत से नगर निगमों, म्युनिस्पल कारपोरेशन में सफाई काम से मना करने पर दण्ड का प्रावधान था। ये दण्ड आर्थिक एवं शारीरिक दोनो हो सकता था। साथ ही साथ धारा १६५ के तहत उपर अपील करने की भी गुन्जाईश नही थी। एक कानून ऐसा था जिसमें तीन दिन गैर हाजिर हाने पर १५ दिनों तक जेल की सजा हो सकती थी। जब डा. अम्बेडकर कानून मंत्री थे उन्होने समूचे भारत के नगर निगमों आदि से ऐसे कानून समाप्त करने के लिए कदम उठाया था। जिससे सफाई कामगारों का शोषण खत्म हो जाये। आज भी कई नगर निगमों, कैन्टो में , बोर्डो आदि में ऐसे कानून है जिनमें सफाई कामगारों को कड़ी से कड़ी सजा देने के प्रावधान है। परन्तु वोट की राजनीति उन्हे ऐसे कानून का प्रयोग करने से रोकती है। अनुच्छेद १३ में डा. अम्बेडकर व्दारा यह प्रावधान किया गया की जो कानून नये संविधान में दिये गये अधिकारों के विरूध्द है वह वैध नही माने जायेगें।


उस समय जितने भी बुध्दिजीवी जो सफाई कामगारों से ताल्लुख रखते थे तथा डा. अम्बेडकर साहब के मुहिम के समर्थक थे ने उनके साथ १९५६ को बौधधर्म ग्रहण कर लिया तथा हिन्दू धर्म का त्याग कर दिया। ऐ संख्या महार तथा अन्य अछूत जाति के वनिस्पत कम थी क्योकि उस वक्त दलित आंदोलन भंगी बस्तियों में नही पहुच पाया था। खुद नागपूर (जहां दीक्षा ली गई) के सफाई कामगार जिनकी यहां बहुत बड़ी संख्या है इस आंदोलन से अछूते रहे ।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कुछ सामंतवादियों की दृष्टि इस समाज पर पड़ी । गांधीजी ने इन्हे हरिजन का नाम दिया तथा सहानुभूमि दिखाई। सहानुभूति भी ऐसी थी कि इन्हे इस पुश्तैनी कामों के लिए ही प्रेरित करती, वे कहते ''यह पुरूषार्थ का काम है इसे मत छोड़ो । यदि तुम इस जन्म में अपनी जाति का काम ठीक तरह से सेवा भावना से करते हो तो तुम्हारा अगला जन्म उॅंची जाति में हो सकता है।`` उनका ऐसा कहने के पीछे क्या उद्देश्य था, ये एक अलग विषय है किन्तु उनके इस कथन का यह असर हुआ की यह समुदाय कभी इस गंदे पेशे से निजात पाने के बारे में नही सोच सका। तथा मानव मल को सिर पर ढोना ही अपनी नियती (धर्म) समझने लगा। दूसरी ओर इस बारे में डा. अम्बेडकर ने कहा ''एक ब्राम्हण या किसी भी अन्य जाति का व्यक्ति भूखों मरते भी भंगी का काम नही करता। इस गंदे काम को छोड़ देने में ही इज्जत है।`` उन्होने आगे कहा ''हिन्दू कहते है यह गंदे पेशे पुरूषार्थ के काम है। मै कहता हू हमने बहुत पुरूषार्थ का काम कर लिया हम छोड़े देते है अब तुम पुरूषार्थ कमा लो।``
आजादी के बाद गांधी जी कुछ दिनों दिल्ली के एक भंगी मुहल्ले में रहे, लेकिन भंगियों का दिया कुछ भी नही खाते थे। भोजन तो दूर वे दूध फल वैगरह भी नही स्वीकारते थे। वे साथ में एक बकरी भी रखते थे तथा भंगी अनुयाईयों से कहते-'' ये फल दूध इस बकरी को दे दो इससे जो दूध बनेगा मै उसे पी लूगां।`` इस पासंग में पूरा का पूरा दलित समाज आ गया और महात्माजी को सिर आंखो पर बिठाने लगा, उन्हे लगा की उनकी मुक्ति ऐसे ही होगी। किन्तु बाद में परिस्थिति जस की तस रही तथा उची जातियों व्दारा शोषण बढ़ता ही गया, कही वाल्मीकि बस्तियां जलाई जाने लगी, कही इन्हे जाति के नाम पर प्रताड़ित किया जाने लगा, गोहना, झज्जर, चकवाड़ा काण्ड से अब वे परिचित हो गये। तब कही जाकर इन कामगारों का झुकाव दलित चेतना की ओर जाने लगा।
आजादी के पूर्व सफाई कामगारों ने बड़ी भारी मात्रा इसाई धर्म स्वीकार किया तथा उचे-उचे पदों पर जाने लगे। साथ ही गंदे कामों को करने से भी इनकार कर दिया तो सामन्तवादियों के कान खड़े हो गये उन्होने मेहत्तर को मेहत्तर बनाए रखने के लिएं बड़ी मश्क्कत की उन्होने प्रचार किया तुम हिन्दु हो ये काम तुम्हारा धर्म है तुम्हे ऐ काम नही छोड़ना चाहिए। उन्होने हरियाण-पंजाब के लालबेगीयों (सफाई कामगारों का एक वर्ग) को गोमांस न खाने के लिए राजी किया। तथा अपने खर्चे से लाल बेग के बौध्द स्तूपों की तरह ढाई ईट से बने ''थानो`` की जगह मंदिर बनाये जाने लगे। इनके बीच मुफ्त में रामायण वितरीत कि जाने लगी एवं नियमित पाठ की प्रेरणा दि जाने लगी। होशियार पुर के एक ब्राम्हण व्दारा लिखी आरती 'ओम जय जगदीश हरे` गाई जाने लगी। इसी हिन्दूकरण को मजबूती देने के लिए पंजाब के श्री अमीचंद शर्मा ने एक पुस्तक 'वाल्मीकि प्रकाश` लिखी जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि भंगी या चूहड़ा वाल्मीकि वंशज नही अनुयायी है। पुस्तक को इन लोगों के बीच बांटा गया। इस काम में गांधी जी का पूरा आर्शीवाद मिला।
इसी तर्ज में उत्तर भारत, मध्यभारत महाराष्ट्र तथा बंगाल के सफाई कामगारो ने भी अपने अपने संत खोज निकाले उनके इस कामों में सामंतवादीयों ने पूरा साथ दिया। इस प्रकार मांतग ऋषि के नाम पर मांतग समाज, सुदर्शन ऋषि के नाम पर सुदर्शन समाज, चरक ऋषि के नाम पर चरक समाज, धानुक मुनि के नाम पर धानुक समाज, देवक डोम के नाम पर देवक समाज का निर्माण होता गया यह प्रक्रिया अभी भी जारी है। वाल्मीकियों की तरह ये भी अपने-अपने चयनित संत की जयंती बड़े धूम धाम से मनाते है, और खूब धन और समय खर्च करते है। जो शक्तियां इन्हे अपने शिक्षा-दीक्षा तथा सामाजिक बुराई को दूर करने में खर्च करनी चाहिऐ थी ये लोग व्यर्थ कर्म काण्डो मे खर्च कर रहे है।
चूकि भारत में प्रत्येक जाति दूसरी जाति के प्रति अछूत सा व्यवहार करती है। सम्भवत: ऐसे गुणो सुसज्जीत अम्बेडकरवादी कुछ अगड़ी अछूत जातियों ने भी भंगी को उसी सामंतवादी नजरिये से देखा। जहां वे एक ओर सवर्णो पर समानता का दबाव बना रहे थे वही दूसरी ओर वे भंगीयो से वही रूखा व्यवहार करने में कोई गूरेज नही कर रहे थे। इसका परिणाम यह हुआ भंगी अछूतों में अछूत हो गये। कई भंगी समुदाय के बुध्दजीवी दलित आंदोलन में शामिल हुए किन्तु अन्य अगड़े अछूत जातियों के जातिगत प्रश्न पर उन्हे भी बगले झांकने के लिए मजबूर होना पड़ता, इस तरह वे भी ज्यादा समय तक आंदोलन की मुख्यधारा में नही ठहर पाये। आम कामगारों की बात क्या करे।
इस मामले में दलितोत्थान के केंन्द्र कहे जाने वाले नागपूर का जिक्र करना प्रासंगिक है। यहां दलित आंदोलन में महार जाति के लोगो ने आपार सफलता अर्जित की है। यही पर डा.अम्बेडकर ने काम किया है तथा धर्म परिर्वतन जैसा बड़ा आंदोलन यही छेड़ा था। बावजूद इसके नागपूर के कतिपय भंगी जाति के लोगों को नजरअंदाज कर दे तो इन भंगी जाति के लोगों में अम्बेडकर के आन्दोलन का जूं तक नही रेंगता उल्टे वे यदा कदा यह कहते देखे जाते है कि, वे तो महार थे उन्होने महारों के लिए किया हमारे लिए क्या किया। किन्तु इसका दुखद पहलु यह है कि यह समाज डा.अम्बेडकर के व्दारा प्रदत्त सुविधा जैसे समानता का अधिकार तथा आरक्षण का अधिकार का भरपूर उपयोग करता है। इससे भी ज्यादा सोचनीय तथ्य यह है कि ऐसा सिर्फ अनपढ़ लोग ही नही करते बल्कि पढ़े लिखे तथा उची पदो में आने वाले लोग भी ऐसा ही करते पाये जाते है।
इस आन्दोलन में रूकावट डालने वाली वे ताकते बीच-बीच में सक्रिय हो जाति है जो इन्हे संस्कृति के नाम पर, अंधविश्वास के नाम पर, दूसरे जन्म के नाम पर गुमराह करती रहती है। साथ ही इन्हे अपने बारे में, भविष्य के बारे में तथा अपने अस्तित्व के बारे में सोचने के संबध्ंा में कमजोर ही बनाती है। निश्चय ही इसका कारण इन जातियों में चेतना की कमी से है। वे अभी भी शोषक एवं उद्धारक में फर्क नही कर पा रहे है। इसके लिए इस समुदाय के व्यक्तियों मे अध्ययन की प्रवृत्ति पैदा हेानी जरूरी है क्योकि बिना अध्ययन के ज्ञान आना संभव नही है और अध्ययन के बाद ही अपने अस्तित्व के प्रति चेतनाशील हुआ जा सकता है, वैसे भी बिना ज्ञान के किसी क्रांतिकारी परिर्वतन की आशा नही की जा सकती। दलित आंन्दोलन को उनके घरों तक ले जाने की आवश्यकता है इस मामले में इस आन्दोलन को कुछ सफलता मिली है। कुछ दलित संगठनो, जिन्होने इस समाज के कई दलित विचारधारा वाले कार्यकार्ताओं का हूजूम तैयार किया है। जो इस समाज की जागृति के लिए काम कर रहे है। अब इस समाज के चेतनाशील दलित युवकों की यह जिम्मेदारी है की वे अपने समुदाय को दलित आंदोलन की मुख्य धारा में लायंे तथा इस प्राचीन भारत की प्राचीन सभ्यता की 'सिर पर मैला ढोने' वाली संस्कृति से उन्हे निजात दिलायें तथा दलित चेतना की इस मुहीम में इन्हे शामिल करें। तभी दलित आंदोलन के इतिहास में सफाई कामगारों के विकास की ये मुहीम रेखाकित की जा सकेगी।