पुस्तक समीक्षा समयांतर अक्टुबर २००५
सफाई कामगार: इतिहास के प्रसंग
संजीव खुदशाह ने सफाई कामगार समुदाय की उत्पत्ति और इतिहास पर काफी खोजबीन की है। इस खोजबीन में उन्होने वेद, पुराणों, मनुस्मृति सहित कई अन्य स्मृतियों को भी खंगाला है। लेखक ने वर्ण और जाति व्यवस्था पर केंद्रित कई विद्वान लेखकों की पुस्तकों का भी अध्ययन किया और इस समुदाय के कई लोगांे के साक्षात्कार भी लिये हैं। बड़े अध्ययन और परिश्रम से लिखी गई उनकी यह पुस्तक पांच खंडो में विभाजित है। प्रथम खंड में लेखक ने शूद्र, अछूत, अछूपन का प्रारंभ, परिस्थिति पर प्रकाश डाला है। उन्होने, शूद्र कोैन है? पर अम्बेडकर के मत को सही माना कि आर्यों में पहले तीन वर्ण थे चौथा शूद्र वर्ण ब्राम्हण और क्षत्रियों के संघर्ष का परिणाम है। ब्राम्हण ने क्षत्रियों राजाओं के उपनयन संस्कार बंद कर दिए जिससे वे सामाजिक दृष्टि से तिरस्कृत हो गए एवं वैश्यों से नीचे की स्थिति में आ गए। इस प्रकार चतुर्थ वर्ण की उत्पत्ति हुई। (पृष्ठ-२१) लेखक अछूतों को शूद्र नही मानते बल्कि अतिशूद्र मानते है। (पृष्ठ-२५) लेखक प्रश्न है: 'अतिशूद्र को अवर्ण क्यों रखा गया है?` इसके लिए उन्होंने चार कराण होने की संभावना प्रकट की। इनमें से पहली दो संभवनाओं से असहमत नहीं हुआ जा सकता। लेकिन तीन में लेखक का यह अनुमान ठीक है कि अस्पृश्य भारत के मूल निवासी हैं, जिन्हें पुराणों में अनार्य, दास, नाग, राक्षसों आदि के नाम से पुकारा गया। (पृष्ठ सं. २८) लेखक जब उनके अनार्य होने की संभावनाओं को प्रकट करते हैं तो उनका यह कहना भी घृणा का कारण केवल राजनैतिक नहीं है। धार्मिक कारण ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। लेखक ने हालांकि अछूतों के पुरातन धर्म का उल्लेख नहीं किया लेकिन जनगणना कमीशन के व्यक्तव्य (१९१०) से यह अवश्य बतला दिया कि अछूतों का वैदिक; ब्राम्हण धर्म, जिसे हिंदू धर्म भी कहते हैं, उनका धर्म कतई नहीं हैं।
खंड दो में लेखक ने सफाई पेशे के इतिहास पर रोशनी डालने का प्रयास किया है और इसके लिए उन्होंने तीन परिकल्पनाऍं प्रस्तुत तो की, लेकिन स्वयं अपना कोई मत स्पष्ट रूप से नहीं दिया। काश, लेखक तीनों परिकल्पनाओं को जोड़कर यह बताते कि अतिशूद्रों में (जैसा कि लेखक ने इस के प्रारंभ में पेज नं. २ में कहा है कि सफाई कामगार इसी अतिशूद्र वर्ग में आते है।)पृ. ४१ में में आर्यों के व्दारा बहिष्कृत कर दिए गए लोग इन्हीं अनार्यों अर्थात शूद्रों में मिल गए। विवशता में सफाई कार्य करने लगे। इससे पूर्व यह घृणित कार्य अनार्य लोग करते थे।
लेकिन उनका कार्य बाहरी क्षेत्रों का कूड़ा-करकट साफ करना था। जैसा कि ''सुणीत भंगी`` के उल्लेख से ज्ञात होता है। लेकिन बाद में मुसलमान शासकों के समय सिर पर मैला उठाने का कार्य प्रारंभ हुआ। सफाई पेशे में लगे लोगों के साथ बादशाहों ने बंदीगृह में बंद हिंदू क्षत्रिय सैनिकों को भी जबरन इस कार्य में लगा दिया। अत: सफाई कामगार समुदाय भिन्न-भिन्न जातियों का जमावड़ा बन कर रह गया। अगर ओमप्रकाश वाल्मीकि के साक्षात्कार को सही मानें कि ''जिन पंच लोगों को जैन धर्म में प्रवेश की मनाही है, उनमें एक भंगी भी है(पृ.४३)`` तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि पुरातन काल में सफाई पेशे में केवल अतिशूद्रों, जो आर्यो की वर्ण व्यवस्था से बाहर के लोग हैं को आर्यों ने बलपूर्वक लगाया। बुध्द के समय तक ये लोग केवल मार्गों की सफाई करते थे, जिसका उदाहरण... ''सुणीत भंगी`` है। हालाकि पुस्तक में भी यही बात है, पर अगर लेखक इसे क्रमबध्द ढंग और सरलतम रूप में पाठकों के सामने रखते तो ज्यादा सुविधाजनक हो सकता था।
मूल सफाई कामगारे की उत्पत्ति पर खंड तीन महत्वपूर्ण है। इसमें खुदशाह ने ''श्वपच, चांडाल और डोम`` जाति का विश्लेषण किया है। लेकिन इस विश्लेषण में यह तथ्य पूर्णरूप से उभर कर नही आ पाया कि इनमें से सफाई पेशे में सर्वप्रथम कौन-सी जाति का पदापर्ण हुआ। लेखक के अनुसार:
(१) चांडाल: चांडाल की उत्पत्ति शूद्र व्दारा ब्राम्हण स्त्री से समागम करने से हुई। चांडाल की उपमा उन लोगों को भी दी गई जो अपनी परंपराओं से डिगे। ऋग्वेद आर्यों का सबसे पुराना ग्रंथ है, पर उसमें भी चांडाल की चर्चा नहीं । आर्थात यह चांडाल अनार्य लोग है।
(२) श्वपच: चांडाल व वैश्य कन्या से उत्पन्न संतान को ''श्वपच`` कहा गया है। लेकिन जाति से बहिष्कृत लोग भी ''श्वपच`` कहलाए। तथा बौध्द धर्म के श्रमणों (साधुओं) को भी घृणा से ''श्वपच`` कहा गया।
(३) डोम: डोम को पुराणों में चांडाल भी कहा गया है (पृ. ८०)। लेखक का डोमों के प्रति भी यही मानना है कि डोम भी चांडाल, श्वपच की भांति आर्यों की वर्ण-व्यवस्था से बाहर के लोग है और अनार्य है। अर्थात अतिशूद्र हैं।
इन तीनों के नाम से अलग-अलग पहचान होने पर भी इनके काम-काज, रहन-सहन बहुत मिलते-जुलते हैं। लेखक ने भी ऐसा ही दर्शाया है (पृ. ७४,७८,८०)। इसे देखते हुए स्पष्ट होता है कि ''चांडाल, श्वपच और डोम`` एक-दूसरे के प्रतिरूप है और इनमें चांडाल ही ज्यादा पुरातन लगता है। जैसे चांडाल और वैश्य कन्या से उत्पन्न संतान ''श्वपच`` कहलाई तथा ''डोम`` को भी पुराणों में चांडाल कहा गया।
सफाई जैसा घृणित कार्य एक जाति-विशेष या समुदाय के लोग कब से और कैसे करने लगे, संजीव खुदशाह ने इसे स्पष्ट करने के लिए तीन परिकल्पनाएं प्रस्तुत की है:
परिकल्पना-एक, मुगल शासन काल में हिन्दू क्षत्रिय सैनिक बंदियों से जबरन सफाई कार्य करवाया गया। परिकल्पना-दो, आर्यो ने अनार्यो का इतना दमन किया कि इन्हें मजबूरन सफाई कार्य अपनाना पड़ा। परिकल्पना-तीन, समाज में दंडित लोगों को सफाई पेशा अपनाने की बात कही गई। तीनों परिकल्पनाएं अपनी जगह ठीक हैं। और यह भी युक्तियुक्त है कि सर्वप्रथम इस पेशे में आनें वाले भारत के मूल निवासी अनार्य ही थे, जिन्हें नाग, दानव, दास, असुर, कहा गया। बाद में इस समुदाय में हिन्दू क्षत्रिय और हिन्दू धर्म की उच्च जाति के लोग भी आ मिले। लेखक का मानना है कि सफाई कामगारों में जो क्षत्रिय गोत्र मिलते हैं, उसका कारण भी यही है। लेखक के इस मन्तव्य से असहमती तो प्रकट नहीं की जा सकती, लेकिन दूसरा एक पहलू यह भी है कि राजा-महाराजाओं के शासन काल में दासों को भी दहेज में दिया जाता था। दहेज में जहां वे जाते थे, वहां उनकी पहचान अपने पूर्व के राजा के निवास और गोत्र के रूप में हुआ करती थी।
भंगी शब्द की परिभाषा अब तक स्थापित मान्यताओं का ही दोहराव है। लेकिन ''भंगी`` के रूप में सफाई कामगारों की पहचान बनाने के पीछे कथित उच्च जातियों का इस समुदाय के प्रति उनकी घृणा का भाव ही रहा है। वे इन्हे ''भंगी`` कह कर समाज में इस मानसिकता का विकास करने में सफल रहे कि इनकी प्रारंभिक उत्पत्ति पापपूर्ण ढंग से भग द्वार (योनि भाग) में हुई। जबकि बा्रम्हणों की उत्पत्ति ब्रह्मा के पवित्र मुख मार्ग से हुई। हालांकि शास्त्रकारों ने इसके लिए कोई शास्त्रीय आधार तो स्थापित नहीं किया। लेकिन समाज में इस मानसिकता का विकास इन्हे ''भंगी`` कह कर अवश्य कर दिया।
बहुत-सी ऐसी बातें है जिनका पता लगाने के लिए इस समुदाय के धार्मिक सामाजिक रीति-रिवाजों और परंपराओं का अध्ययन परम आवश्यक है, लेकिन लेखक ने स्वीकारा है कि उन्होंने इस समुदाय के सामाजिक परिवेश पर ज्यादा न ध्यान देकर केवल उत्पत्ति और इतिहास पर ज्यादा ध्यान दिया है। (लेखकीय व्यक्तव्य,पृ.११)
खैर, इस पुस्तक को पढ़ने से इतना तो हम तय कर सकते है कि सफाई कामगार का पुरातन स्वरूप ''चांडाल, श्वपच और डोम`` का है। यह तीन रूप में व्याख्यायित होने से पहले विशुध्द अनार्य अर्थात नागवंशियों के रूप में था तथा जैन और बौध्द धर्म से पहले से ही सफाई पेशे में अनुरूक्त हो गया। बाद में महात्मा बुध्द ने इन्हें उठाने के प्रयास किए। जैसा कि भगवान बुध्द केे ''सुणीत भंगी`` को धर्म दीक्षा देने का विवरण मिलता है। इनकी सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि ये चांडाल से श्वपच, डोम में बंटते चले गए और इसके बाद इन्ही में से मेहतर, हलालखोर, चूहड़ा आदि का आर्विभाव हुआ तथा इनमें विभिन्न जातियों का भी समावेश होता गया। बहिस्कृत स्त्रियों और उनकी संतानों को भी इसी समुदाय में स्थान मिलता रहा।
राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र सहित कई जगह सफाई कामगार भले ही कहीं मेहतर, चूहड़ा, वाल्मीकि बने हुए हों, लेकिन वे जाति और समाज के तौर पर अपने को एक मानते हैं क्यांकि इनके आपस में गोत्र एक-दूसरे से मिलते हैं। रीति-रिवाज एक-से हैं तथा उनमें रोटी-बेटी का व्यवहार होता है। यह लोग झाड़ू लगाने से लेकर सिर पर मैला ढोने तक का काम करते हैं। गांवों में यह लोग खेतिहर मजदूर है। बांस की टोकरियां बनाते हैं। सुअर पालन तो यह करते ही हैं तथा सफाई कामगारांे में यह समुदाय बहुसंख्यक रूप में है। यही सही है कि सफाई कामगार समुदाय में कुछ ऐसी जातियां भी है, जो इनसे अपने को पृथक मानती हैं। परंतु जब वे बहुसंख्यक वर्ग के क्षेत्रों में आते हैं तो सहजता से इनमें रच बस जाते हैं। आंध्रप्रदेश में ''मादिका`` नाम की जाति है, ये लोग भंगी का काम करते हैं। सफाई कार्य भंगी का पर्याय है। अगर ये लोग अपनी सरकारी गैर सरकारी सेवाओं के तहत सफाई कर्मचारी बतौर हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में आ जाएं तो इन्हे वाल्मीकि, मेहतर, हलालखोर, लालबेगी, चूहड़ा कहे जाने वालों के यहां ही रहने-बसने की जगह मिलेगी। मादिका जाति का व्यक्ति (मादिका जाति के व्यक्ति को सफाई कार्य करते देखकर उसकी जाति वैसे ही नही पूछी जाएगी) तो उसी आधार पर वाल्मीकि, मेहतर कहे जाने वाले सफाई कामगार समुदाय में गोत्रों की कोई निश्चित संख्या नहीं है, जिससे वे आगंतुक के गोत्र का मिलान अपनी जाति की गोत्र सूची से कर सकें।
राजस्थान में ''डिया`` नामक जाति है, संभव है ''डिया`` ''डोम`` का ही अपभं्रश हो। यह जाति वाल्मीकि मेहतरों की ही भांति सफाई का कार्य करती है। गांवो में अनाज साफ कर छाजला बनाती हैं। अब उनका वाल्मीकि मेहतरों में समावेश हो रहा है। संजीव खुदशाह की पुस्तक में भले ही इन बातों की जानकारी न हो, इसके बाद भी संभवत: उनकी यह पुस्तक ऐसी पहली पुस्तक है जिसमें सफाई कामगार समुदाय को केंद्र में रख कर एकत्रित की गई ज्ञानवर्धक तथा खोजपूर्ण जानकारियों का विपुल भंडार है। खासकर मुगलकाल में सफाई कामगारों का मेहतर, शेखड़ा, लालबेगी, हलालखोर, मलकाना आदि बनने की प्रक्रिया पर महत्वपूर्ण जानकारी है। लेखक का लगन से किया गया परिश्रम जगह-जगह छलकता है, जिसके लिए वह धन्यवाद के पात्र हैं। सफाई कामगार समुदाय के शोध को आगे बढ़ाने में अन्य लेखकों के लिए भी यह पुस्तक उपयोगी होगी। साज-सज्जा साफ-सुथरी और सादी है। यदि पुस्तक का मूल्य कुछ कम होता तो यह उस समुदाय के लिए अच्छा होता जिसकेा केंद्र में रख कर इस अनुपम कृति की रचना की गई है।