Showing posts with label सुनो ब्राम्हण. Show all posts
Showing posts with label सुनो ब्राम्हण. Show all posts

Dalit poet malkhan singh is no more


हिंदी साहित्य के लिए अपूरणीय क्षति है कवि मलखान सिंह का जाना

संजीव खुदशाह

जब हम शुरुआती तौर पर दलित साहित्य पढ़ रहे थे यह ऐसा वक्त था जब दलित साहित्य से हमारा दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। ऐसे समय में दो किताबें मेरे सामने आई जो पहले से चर्चित थी जिस के नामों को हमने सुन रखा था। उनमें से एक किताब थी मलखान सिंह की कविता संग्रह सुनो ब्राह्मण। जब आप सुनो ब्राम्हण कविता को पढ़ते हैं और यह कविता ब्राह्मणवाद को ललकारती है और उन्हें दलितों की जमीनी हकीकत से रूबरू कराती है। इन कविताओं को जब आप पढ़ते हैं तो आप तथाकथित मुख्‍यधारा के साहित्य को भूल जाते हैं आप भूल जाते हैं मुख्‍यधारा के साहित्य का सौंदर्यशास्त्र। आपको तमाम मेंनस्ट्रीम के कवियों की कविताएं खोखली लगने लगती है।
हम शुरुआती दिनों में एडवोकेट भगवानदास कि "मैं भंगी हूं", डॉक्टर अंबेडकर की किताब "शूद्र कौन थे" और "अछूत कौन और कैसे" और मलखान सिंह की कविताएं पढ़कर आगे बढ़ रहे थे। सच कहूं तो मलखान सिंह की कविताएं आज भी जेहन में रमी हुई है बसी हुई है। आज जब उनके जाने का समाचार मिलता है। तो लगता है कि कुछ अधूरा रह गया। क्यों मैं उनसे नहीं मिल सका। उनसे बात ना कर सका। इतने वरिष्‍ठ होने के बावजूद वे मुझे व्हाट्सएप पर संदेश भेजा करते थे और बेहद सक्रिय थे सोशल मीडिया में। वे कवि के साथ-साथ एक क्रांतिकारी किसान नेता भी थे और अपनी बातों को खुलकर कहते थे। बहुत कम ऐसे कवि रहे हैं जोकि किताबों तक सीमित रहने के बजाय अपनी कही हुई बातों को जमीन में भी हकीकत का अमलीजामा पहनाते हैं।
उनकी कविताओं की सबसे बड़ी खूबी यह रही है कि उनकी सभी कविताएं मौलिक ढंग से लिखी गई थी या कहें किसी और कविताओं से या शैली से प्रभावित नहीं है। बल्कि मै दावे के साथ यह कह सकता हूं कि उनकी कविताओं से प्रभावित होकर के लोगों ने कविता लिखना प्रारंभ किया। आज दलित साहित्य में बहुत सारे किताबें हैं जानकारियां हैं। जिनके आधार पर आप पढ़ सकते हैं आगे लिख सकते हैं। लेकिन शुरुआती दिनों में दलित साहित्य कांसेप्ट नहीं था ना ही उस पर किताबें थी। लोग अपनी पीड़ाओं को आत्मकथा और कविताओं ने निबंधों में में लिखने से शर्माते थे ।  उसे मुख्यधारा का साहित्य नहीं माना जाता था। प्रकाशक कूड़े में फेंक दिया करते थे। ऐसे समय शुरुआती दिनों में मलखान सिंह जैसे कवि आए और उनकी कविताएं जन कविताएं बन गई। उनकी किताबें हाथो हाथ बिकने लगी।
आज वह नहीं है उनका जाना ना केवल दलित साहित्य के लिए बल्कि हिंदी साहित्य के लिए भी अपूर्ण क्षति है। जिसकी भरपाई आसान नहीं है। जाते जाते उनकी यह कविता आपकी नजर करता हूं।

सुनो ब्राह्मण!
हमारे पसीने से बू आती है तुम्हें
फिर ऐसा करो
एक दिन अपनी जनानी को
हमारी जनानी के साथ मैला कमाने भेजो
तुम ! मेरे साथ आओ
चमड़ा पकाएँगे दोनो मिल बैठकर
मेरे बेटे के साथ तुम्हारे बेटे को भेजो
दिहाड़ी की खोज में
और अपनी बिटिया को
हमारी बिटिया के साथ
भेजो कटाई करने
मुखिया के खेत में……
(कवि :- मालखन सिंह)