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Dalits divided into two camps due to division in reservation?

 आरक्षण में बटवारा दो खेमे में बटा दलित ?

संजीव खुदशाह

१ अगस्त २०२४ को आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के सात सदस्‍यीय पीठ के द्वारा देविन्‍दर सिंह विरूध पंजाब के बारे में फैसला आने के बाद अगड़ा दलित और पिछड़ा दलित के बीच द्वंद छि‍ड़ गया है। दोनो ओर से अपने अपने तर्क दिये जा रहे है। आज यह बहस राष्‍ट्रीय पटल पर हो रही है। अगड़े दलित उनको माना जाता है जो आजादी के बाद से लगातार नौकरी पेशा में आ रहे हैं और इस जाति में काफी मात्रा में लोग आरक्षण का लाभ लेकर उच्च पदों तक पहुंचे हैं समृद्ध साली हुए हैं। जैसे चमार, महार, अहिरवार, सतनामी, जाटव आदि आदि। वहीं दूसरे ओर पिछड़े दलित उन्हें माना जाता है जिन्हें  परिस्थितिवश या उनके अति पिछड़ापन होने के कारण उन्हें आरक्षण का लाभ उस तरह से नहीं मिल पाया जिस तरह से अगड़े दलितों को मिला है। जैसे वाल्मीकि, लालबेगी, मेहतर, डोमार, बंसोर, चुहड़ा, घसियादेवार आदि आदि। अगड़े दलितों में सबसे ज्यादा संख्या चमारों की है जो की अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग नामों से जानी जाती है। वहीं पिछड़े दलित वे हैं जो सफाई काम से जुड़े हुए हैं। यह भी अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग जाति के नाम से जाने जाते हैं। दोनों दलित बहुत बड़ी संख्या में हैं। लेकिन प्रतिनिधित्व का बटवारा बेहद असमान है। पिछड़ी दलित जाति के लोग कहते हैं कि अगड़े दलितों ने उनका हक सदियों से छीना है। उनके साथ भेदभाव किया है। उनके साथ छुआछूत बरतते हैं। वैवाहिक संबंध तो दूर उनके साथ बैठने उठने से भी कतराते हैं। उनका कहना है कि जो भेद दलितों में आज हुआ है। यह भेद पहले से ही कायम है। इस भेद को मिटाने के लिए अगड़े दलितों ने कभी कोई प्रयास नहीं किया। सिर्फ पिछड़े दलितों के हकों को मारते रहे हैं।

वही अगड़े दलितों के नेताओं का कहना है कि पिछड़े दलित लोग भ्रमित हो गए हैं। वह समझ रहे हैं कि उन्हें फायदा मिलने वाला है। लेकिन इसका फायदा गवर्नमेंट उनको नहीं देगी। सिर्फ उन्हें बहलाया जा रहा है। हमारे बीच फूट डालो राज करो की नीति का प्रयास किया जा रहा है। ताकि दलित समाज में जो एकता बनी है। वह धराशायी हो जाए। उनका कहना है कि दरअसल आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी दलित एकता से घबराई हुई है। 

यहां यह बताना जरूरी है कि याचिका कर्ता डॉक्टर ओपी शुक्ला जो की वाल्‍मीकि समाज से आते हैं, उनका कहना है कि आजादी के बाद से सफाई कामगार समाज का शोषण हुआ है। उनका प्रतिनिधित्व कहां गया ? आखिर किसने उनका प्रतिनिधित्व खाया है? यह बता दें। वह कहते हैं कि मैंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका इसीलिए डाली ताकि संविधान के अनुसार जो सबसे अंतिम व्यक्ति है। उसे इसका फायदा मिल सके। बहुत सारी ऐसी जातियां आज भी हैं जिन्हें सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। इन्हें हिस्सेदारी देने के लिए अगड़े दलितों ने कभी भी कोई प्रयास नहीं किया है। छत्‍तीसगढ़ में देवार जाति काफी पिछड़ी है।

आरोप है कि पिछड़े दलित हिंदूवादी विचारधारा के हैं इसीलिए उन्हें फायदा पहुचाने की कोशिश की जा रही है । ताकि उनका वोट बैंक समृद्ध बना रहे। यह आश्चर्य की बात है कि अगड़े दलितों के बुद्धिजीवी लेखक पत्रकार से लेकर नेता तक पिछड़े दलितों के ऊपर यह आरोप लगातार लगा रहे हैं कि अगड़े दलित बुद्धिस्ट हैं, अंबेडकरवादी हैं, अपने हक अधिकार के प्रति जागरुक हैं। लेकिन पिछड़े दलित अंबेडकर को नहीं मानते हैं और न ही वे बुद्धिज्‍म को मानते हैं। इसीलिए आज की हिंदूवादी सरकार उन्हें फायदा देकर अगड़े दलितों अंबेडकरवादी, बौद्धों को नुकसान पहुंचाना चाहती है क्योंकि इस सरकार को यह लगता है कि अगड़े दलित उन्हें वोट नहीं देते हैं।

यह भी एक सच्चाई है कि महार समाज से लेकर बाकी अगड़े दलितों की बात की जाए तो कोई भी ऐसी दलित जाति नहीं है जो की 100% बुद्धिस्ट हो। सभी जातियों में बुद्धिस्टों की संख्या औसत 30% के आसपास होगी। जो यह दावा करते हैं कि वह अंबेडकरवादी हैं और बुद्धिस्ट हैं। और यदि बात करें संघ और बीजेपी के शरण में जाने की जैसा आरोप सफाई कामगार जैसी पिछड़ी जातियों पर लगाया जाता है। तो यह भी गलत आरोप है क्योंकि अगड़ी दलित जाति के बड़े-बड़े नेता लेखक कवि नामदेव ढसाल, रामदास अठावले, उदित राज, मायावती यह ऐसे बड़े नेता है जो अगड़ी जाति के हैं। लेकिन इन्होंने अपने फायदे के लिए अंबेडकरवाद से कई कई बार समझौता किया है, संघ भाजपा के शरण में गए। बावजूद इसके आरोप सिर्फ पिछड़े दलित जातियों पर लगाया जाता है।



यहां पर दलित लेखक कंवल भारती अगड़े दलितों का पक्ष लेते हुऐ वाल्‍मीकि समुदाय 99 प्रतिशत आर एस एस और भाजपा का पिछलग्‍गू है। वे सारा आरोप पिछड़ा दलित (वाल्‍मीकि समाज) पर मढ़ रहे है। वे कहते है कि अब यह समुदाय समझ रहा है कि यह वर्गीकरण उनको एक दम आकाश में पहुंचा देगा। वह इस सच्चाई से बिल्कुल अनजान है कि आरएसएस और भाजपा उसे सिर्फ सफ़ाई कर्मचारी समुदाय ही बनाए रखना चाहता है। इससे ज्यादा कुछ नहीं।

 



 

 

वहीं समाजिक कार्यकर्ता चंदनलाल वाल्‍मीकि पिछड़ा दलित जातियों की एक प्रेस कांन्‍फ्रेस कर स्‍टेटमेंट दे रहे है कि राज्‍य सरकारें सुप्रीम कोर्ट के फैसले को शीध्र लागू करे।

 

 कई समय पूर्व से अगड़े दलित जाति के लोग यह आरोप लगाते रहे हैं कि हिंदूवाद के शरण में जाने के कारण पिछड़े दलित जातियां पीछे रह गई वे अंधी आस्था में लगी रही। उन्होंने पढ़ाई नहीं किया। जबकि यह पूरा सत्‍य नहीं है। पिछड़ी जाति के वे लोग जिन्होंने पढ़ाई किया और आगे बढ़े हुए अंबेडकरवाद के करीब पहुंचे है। क्योंकि जब आप शिक्षित हो जाते है तो अपने शोषकों और उद्धारकों में फर्क जान जाते हैं आप निश्चित रूप से उन महापुरुषों के करीब आ जाते हैं जिन्होंने आपको उठाने में अपना योगदान दिया है। चाहे वह डॉक्टर अंबेडकर हो, पेरियार हो, महात्मा फुले हो या और कोई। आजादी के बाद से ऐसे बहुत सारे बड़े लेखक बुद्धिजीवी पिछड़े दलित समाज से सामने आए हैं जिन्होंने दलित आंदोलन, साहित्‍य, अंबेडकर वाद को एक नई दिशा दी है। एडवोकेट भगवान दास, ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे बहुत सारे नाम है। तुलना करे तो पाते है कि इनका योगदान आंबेडकरिजम और बुद्धिज्‍म में कुछ कम नही रहा है।



 

इस प्रकरण में दिलीप मंडल पूरी तरह से पिछड़ा दलित के खिलाफ पोस्‍ट डाल रहे है। वे इस फेसबुक पोस्‍ट में लिखते हे कि व‍कील नितिन मेश्राम के द्वारा इस पर रिव्‍यू पिटीशन दायर हो गई । बता दू नितिन मेश्राम भी यहां अगड़ी दलित जाति का प्रतिनिधीत्‍व करते है।

 



 

इसी प्रकार एक आदिवासी कार्यकता डॉं जितेन्‍द्र मीणा लिखते है। सुप्रीम कोर्ट का ST SC सूची में वर्गीकरण, क्रीमिलेयर तक मामला नहीं रुकेगा यह अंततः राजनैतिक आरक्षण को भी ख़त्म करेगा।

ST, SC के जो नेता चुप है उन्हें समझना होगा कि RSS आपको ख़त्म करना चाहता है।

 

इन दिग्‍गजो के फेसबुक पोस्‍ट देखने के बाद सहसा कम्‍युनल एवार्ड की याद आती है। जब डॉं अंबेडकर ने अछूतों के लिए कम्‍युनल एवार्ड दिलवाया था। यही भाषा उस समय सवर्णों की थी। वे भी कह रहे थे अंग्रेज फूट डालो राज करो नीति अपना रहा है। हमारा हिन्‍दू धर्म में फूट डाला जा रहा है। अछूतों को कुछ फायदा नहीं होगा।

ये बात तो तय है कि दलित आदिवासियों में बहुतायत जाति आज भी बहुत पिछड़ी है उन तक देश के संसाधन सुविधाएं नहीं पहुची है। इसमें उनकी पुश्‍तैनी पेशे की समस्‍या है जो विकराल है आईये जानने की कोशिश करते है।

पुश्तैनी पेशे की समस्या



अगड़े दलित कहते हैं कि यह फैसला विधि सम्‍मत नहीं है। यह फूट डालो राज करो जैसा है। इस फैसले से दलितों में दो फाड़ हो जायेगा, वैमनस्य बढ़ेगा। वे कहते है कि उन्होंने अपना गंदा पुश्तैनी पेशा बहुत पहले छोड़ दिया था। लेकिन पिछड़े दलित जाति के लोगों ने अपना गंदा पुश्तैनी पेशा नहीं छोड़ा। जबकि डॉ अंबेडकर ने १९३० में यह आह्वान किया था कि अछूत अपना गंदा पेशा छोड़ दें। पिछड़े दलित जातियों में बहुत बड़ी संख्या सफाई कामगार जातियों की हैं। यह सत्य है कि इन्होंने अपना पुश्‍तैनी गंदा पेशा नहीं छोड़ा। इसके कारण इनमें उत्थान नहीं हो पाया। यह थोड़ा बहुत जागरूक हुई तो भी इन्होंने उस गंदे पेशे में अधिक वेतन और सुविधा की मांग करने लगे। कई जगह ऐसा भी देखने मिला की वे इन पेशों में 100% आरक्षण की मांग करने लगे। ऐसे भी उदाहरण हैं जबकि इन पिछड़े दलित जातियों के कुछ लोगों ने अपने गंदे पेशे को छोड़कर अच्छे पेशे को अपनाया और वह आगे तरक्की कर गये।

         दलितों के पिछड़े होने का कारण

1 दलितों के पिछड़ेपन के लिए सरकार जिम्मेदार है-

 आज सुप्रीम कोर्ट का जो वर्डिक्ट आया है सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि यह दलित पिछड़ा है इनका अधिकार मिलना चाहिए। अलग से आरक्षण मिलना चाहिए। लेकिन यह क्यों पिछड़े रहे गए हैं इसका खुलासा सुप्रीम कोर्ट के द्वारा नहीं किया गया है। दरअसल इन पिछड़े रह गए दलितों के लिए सरकार को कई योजनाएं चलानी चाहिए थी। जैसे कि उनके लिए अलग से कोचिंग संस्थान खोला जाता। अलग से शिक्षा संस्थान शुरू किए जाते। उनके लिए अलग से हॉस्टल की व्यवस्था की जाती। ताकि यह लोग पढ़ते, आगे बढ़ते और इनको विदेश भेजने की भी योजनाएं बनाई जाती। यह कानून लाया जाता की इन अमानवीय पेशा को कड़ाइ्र से बंद किया जाय। तो निश्चित रूप से यह दलित बहुत आगे बढ़ते और बाकी लोगों के समकक्ष आ सकते थे। लेकिन सरकार ने इन सफाई कामगार दलितों के और अन्य अति पिछड़े दलित जो की काफी पिछड़े रह गए हैं उनके उत्थान के लिए अलग से कोई भी योजना या कोई भी कार्यक्रम नहीं चलाया। इसलिए यह दलित पिछड़े रह गए। यहां तक की सफाई कामगार आयोग बनने के बावजूद इन आयोग ने भी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया। न ही ऐसे कदम उठाने की उन्होंने सरकार से सिफारिश की। जिससे कि यह लोग आगे बढ़ सकते थे। इन दलितों के पिछड़ा होने का सबसे बड़ा कारण स्वयं सरकार है।

2 दलितों में दलित बने रहने के लिए यह स्वयं जिम्मेदार हैं।

इन पिछड़े दलितों के बदहाली के पीछे यह स्वयं जिम्मेदार हैं। इन्हें चाहिए तो यह था कि यह डॉ अंबेडकर और दूसरे महापुरुषों के आह्वान को मानते और अपने गंदे पेशे को छोड़ देते। लेकिन जितने दलित पिछड़े रह गए हैं इन लोगों ने अपना पुश्तैनी घिनौना पेशा को बनाए रखा। उसे नहीं छोड़ा और न ही यह लोग शिक्षा की तरफ आगे आएन ही अपने जायज मांगों के लिए इन्होंने कोई संघर्ष किया। आज इन दलितों में पढ़े-लिखे उम्मीदवार ढूंढना बहुत मुश्किल है। यदि आप इन दलितों को देखेंगे तो उनकी पढ़ाई का एवरेज आठवीं क्लास के आसपास आता है। ऐसे में अगर इन्हें अलग से रिजर्वेशन दे भी दिया जाएगा। तो भला यह कैसे कोई पद को पाने के या उसे रिजर्व शीट में बैठने की योग्य हो पाएंगे? क्योंकि शिक्षा का स्तर इन लोगों ने बिल्कुल भी नहीं बढ़ाया। यह पिछड़े दलित किसी न किसी प्रकार से ऋषियों के फेर में रहे, वाल्मीकि सुदर्शन, मातंग, देवक ऋषि गोगा पीर आदि आदि। इन लोगों ने शिक्षा का हथियार ढूंढने के बजाय ऋषियों मुनियों में अपना उद्धारक ढूंढने की कोशिश किया। उन्हीं के फेर में यह पड़े रहे। आज भी यही कर रहे है। जिसके लिए यह स्वयं जिम्मेदार है। इनके बीच के नेताओ की भी इसकी जिम्मेदारी बनती है। जिन्होंने अपने समाज को अंधविश्वास में धकेल दिया डॉ अंबेडकर पेरियार फूले जैसे वंचितों के उधारकों से इस समाज को दूर रखा और उन्हें बताया कि यह समाज सेवक उनके नहीं चमारों के है। इस कारण यह दलित जैसे-जैसे समय बढ़ता गया और भी बदहाली में चले गए। जिसके लिए यह समाज स्वयं जिम्मेदार है।

3 अगड़ी दलित जातियों की जिम्मेदारी

अगड़ी दलित जातियों ने डॉ अंबेडकर के ज्यादा बातों को माना। सबसे पहले उन्होंने डॉक्टर अंबेडकर के आह्वान पर अपने गंदे पेशों को त्यागा। इसके कारण उनके ऊपर जुल्म हुए। कई दलित मारे गए। पुश्तैनी पेशे को इनकार करने की वजह से इनको अपनी संपत्ति, अपना घर द्वार सब छोड़ना पड़ा। इन्होंने पलायन किया और यहां पर भूखे प्यासे रहकर उन्होंने अपने बच्चों को पढ़ाया आगे बढ़ाया। संघर्ष किया डॉ अंबेडकर के बताए मार्ग पर चला। इन्होंने संघर्ष करके एक मुकाम हासिल किया और आज वह ऐसी स्थिति में है कि वह ज्ञान के क्षेत्र में सवर्ण को भी टक्कर देते हैं। भले ही यह आर्थिक रूप से ज्यादा संपन्न नहीं हो पाए हैं। लेकिन इन दलितों की यह जिम्मेदारी थी कि वह बाकी दलित भाइयों के बीच में जाते। उनके बीच में जाकर शिक्षा का प्रचार करते। उन्हें स्कूल जाने के लिए प्रेरित करते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ यह दलित अपना स्वयं का ही उत्थान करने में लगे रहे। और पेबैक टू सोसाइटी नहीं किया या उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को केवल अपनी जाति और अपने परिवार तक ही सीमित रखा। जबकि उन्हें पूरे वंचित समाज के बीच जाकर के काम करना चाहिए था। उन्होंने नहीं किया सिर्फ यह बात नहीं है बल्कि उनके साथ में उन्होंने भेदभाव रखा और रोटी बेटी का भी संबंध उनसे नहीं बनाया।

सुप्रीम कोर्ट को इसके साथ साथ निम्नलिखित निर्णय लेना चाहिए था।

पहला

सरकार को कटघरे में खड़ा करती की आजादी के 75 साल बाद भी इन लोगों को पिछड़ा क्यों रखा गया है? क्यों उनके उत्थान के लिए कोई योजनाएं नहीं चलाई गई है?

दूसरा

गंदे पेशे से छुटकारा देने के लिए सरकार को निर्देशित किया जाना चाहिए था। क्योंकि अपमानजनक (अमानवीय) पेशे का भारत में किया जाना पूरे भारतवर्ष के लिए शर्म की बात है और संविधान के भी विरुद्ध है। सरकार को यह निर्देश देना चाहिए था कि जल्द से जल्द इन पेशे में लगे लोगों को हटाया जाए और मानव की जगह मशीन का उपयोग किया जाए । साथ-साथ इन सफाई कामगारों का और गंदे पेशे वालों का पुनर्वास किया जाए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कोई निर्देश जारी नहीं किया।

तीसरा

माननीय सुप्रीम कोर्ट से यह अपेक्षा थी कि अजा अजजा में जो आरक्षण दिया जाता है वह आरक्षण बहुत मात्रा में नॉट फाउंड सूटेबल  कहकर जनरल पोस्ट भर दिए जाते हैं। कई कई साल तक बैकलॉग की भर्तियां नहीं निकाली जाती है। निर्देश दिया जाना चाहिए था कि बैकलॉग की भर्तियां तुरंत करें और नॉट फाउंड सूटेबल को सामान्‍य में समायोजित न करके अगली भर्ती में उसकी वैकेंसी फिर से उसी केटेगरी में निकाली जाए।

जाहिर है की सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पिछड़े तबके में खुशी का माहौल है। वहीं अगड़े दलितों में से कुछ इसके विरूध में 21 अगस्‍त को भारत बंद का ऐलान कर रहे है। पिछड़े दलितों आदिवासियों को मुख्‍य धारा में लाने के लिए हमें बहुत सारे कदम उठाने पड़ेगें सिर्फ आरक्षण से काम नहीं चलेगा तभी हमारे देश में कोई पीछे नहीं रह जायेगा। न ही किसी को अपने विकास के लिए गुहार लगाने की जरूरत पड़ेगी। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के इस पहल का स्‍वागत किया जाना चाहिए।

 


"Backward Classes in Modern India" researched document of new concepts.

समयांतर अक़्र्तुबर २०१०

पुस्तक समीक्षा

''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` नवीन धारणाओं का शोधपूर्ण दस्तावेज।

जयप्रकाश वाल्मीकि

श्री संजीव खुदशाह दलित रचनाकार है। इस पर भी वे इस समुदाय पर एक शोधकर्ता रचनाकार के रूप में पहचाने जाते है। उनकी यह पहचान पूर्व में लिखी उनकी पुस्तक -'सफाई कामगार समुदाय` के कारण बनी। और अब यह पहचान और भी ज्यादा पुष्ठ हो गई हे। चुकि इस कड़ी में हाल ही में उनकी नवीन पुस्तक


''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` एक शोधपूर्ण आलेख (दस्तावेज) है। पिछड़े वर्ग को लेकर समाज में जो मिथक बने हुए थे लेखक ने उससे अलग हट कर वास्तविकताओं को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है।

पुस्तक की शुरूआत मानव उत्पत्ति पर विचार करते हुए की गई है। श्री खुदशाह ने इस हेतु धर्मशास्त्रों में मानव उत्पत्ति को लेकर की गई व्याख्यापित मान्यताओं को सम्मलित किया है। हिन्दूधर्म ग्रन्थों के, ईसाई धर्म, (सृष्टि का वर्णन) मुस्लिमधर्म (सुरतुल बकरति, आयात सं.-३० से ३७) को भी उद्घृत कर अंत में वैज्ञानिक मान्यताओं के अंतर्गत स्पष्ट किया है कि मानव उत्पत्ति करोड़ो वर्ष के सतत विकास का परिणाम है। लेखक ने मानव उत्पत्ति की धर्मिक अवधारणाओं के साथ-साथ पूर्व की वैज्ञानिक अवधारणाओं को भी तोड़ा है। जैसे कि डार्विन का मत था कि माानव की उत्पत्ति वानर(बंन्दर) से हुई। हालाकि मानव उत्पत्ति से पहले अध्याय की शुरूआत रोचक और ज्ञानवर्धक है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को जिस तार्किक और तथ्यपूर्ण ढंग से लेखक ने पाठकों के समक्ष रखा है। वह विषय में पाठकों को एक नई दृष्टि देते है। फिर भी ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` पुस्तक की शुरूआत अगर मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को सुलझाते हुए नही भी की जाती तो भी पुस्तक का मूल उद्देश्य प्रभावित नही होते। चुंकि भारत में जातिय प्रथा होने के कारण मानव का शोषक या शोषित होना या शासक या शासित होना यहां की धार्मिक व सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण है। इसलिए भी पुस्तक के विद्वान लेखक श्री संजीव खुदशाह ने पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए हिन्दूधर्म शास्त्रों, स्मृतियों सहित कई विद्वान जनों के मतों को खंगाला और उसे उद्धृत किया है।

चार अध्यायों में समाहित श्री संजीव खुदशाह की यह पुस्तक पिछड़े वर्ग से संबंधित अब तक बनी हुई अवधारणाओं, मिथक तथा पूर्वाग्रह जो बने हुए है उनकी पड़ताल कर पाठकों के सामने तर्क संगत ढंग से मय तथ्यों  के वास्तविकताएं रखती है। जैसे आज के पिछड़े वर्ग हिन्दू धर्म के चौथे वर्ण ''शूद्र`` से संबंधित माना जाता है। किन्तु श्री संजीवजी के शोध प्रबंध से स्पष्ट यह  होता है कि आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग मूलरूप् से आर्य व्यवस्था से बाहर के लोग है। शूद्र वर्ण के नहीं। यह अलग बात है कि बाद में इन्हे शूद्रों में समावेश कर लिया गया। विद्वान लेखक ने इसे स्पष्ट करने से पूर्व शूद्र वर्ण की उत्पत्ति और उसके विकास को रेखांकित किया है। उनके अनुसार आर्यों में पहले तीन ही वर्ण थे। लेखक ऋग्वेद, शतपथ ब्राम्हण और तैतरीय ब्राम्हण सहित डॉ. अम्बेडकर के हवाले से कहा है कि यह तीनों ग्रन्थ आर्यो के पहले ग्रन्थ है और ये केवल तीन वर्णो की ही पुष्टि करते है।(पृष्ठ-२६)

वैसे ऋग्वेद के अंतिम दसवें मंडल के पुरूष सुक्त में चार वर्णो का वर्णन हे किन्तु उक्त दसवे मंडल को बाद में जोड़ा हुआ माना गया। अधिकांश विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद की यह दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया। क्रिथ के अनुसार यह कार्य १०००-८००ई. वी. पूर्व में हुआ। भाषा विद्वानों ने कहा -'इसकी भाषा, प्रयोग तथा व्याकरण पूर्व के मंडलों से सर्वथा भिन्न है।` (पृष्ठ-३६)

शूद्रों के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए श्री खुदशाह ने दोहराया कि सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियां अनार्य थी। जो आज हिन्दूधर्म की संस्कृति को संजाये हुए है। क्योकि कोई ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन सूचियों में (अनुलोम (स्पर्शय) प्रतिलोम (अस्पर्शय) संतान की सूचियां, जिसे लेखक ने पृष्ठ २८-२९ पर दी है) अवैध संतान घोषित नही किए गए है (पृष्ठ-३०) वे आगे लिखते है-''यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि मनु ने शूद्र को उच्च वर्णो की सेवा करने का आदेश दिया है, किन्तु इन सेवाओं में  ये पिछड़े वर्ग के कामगार नहीं आते। यानी पिछड़ा वर्ग के कामगारों के कार्य उच्च वर्ग की प्रत्यक्ष कोई सेवा नहीं करते। जैसा कि मनु ने कहा है। शूद्र उच्च वर्णो के दास होगे, यहां दास से सम्बंध उच्च वर्णो  की प्रत्यक्ष सेवा से है।`` वे आगे लिखते है-''उक्त आधारों पर कहा जा सकता है कि

१.    ''शूद्र कौन और कैसे`` में दी गई व्याख्या के अनुसार क्षत्रियों की दो शाखा सूर्यवंशी तथा चंन्द्रवंशी में से ''सूर्यवंशी`` अनार्य थे, जिन्हे आर्यो द्वारा धार्मिक, राजनीतिक समझौते द्वारा क्षत्रिय वर्ण में शामिल कर लिया गया।

२.    बाद में इन्हीं सूर्यवंशीय क्षत्रियों का ब्राम्हणों से संघर्ष हुआ ने इन्हे उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया। इन्ही संघर्ष के परिणाम से नये वर्ग की उत्पत्ति हुई, जिन्हे शूद्र कहा गया। में ब्राम्हण वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत आते थे यही से चातुर्वर्ण  परम्परा की शुरूआत हुई। शूद्रों में वे लोग भी सम्मलित थे जो युध्द में पराजित होकर दास बने फिर वे चाहे आर्य ही क्यों न हो।  अत: शूद्र वर्ण आर्य-अनार्य जातियों का जमावड़ा बन गया (पृष्ठ, ३०-३३-३४) यह तो रहा शूद्रों का उद्भव व विकास।

 

शेष कामगार (पिछड़ा वर्ग) जातिया कहां से आयी। इसका उत्तर निम्न बिन्दूवार दिया गया।

१.    यह जातियां आर्यो के हमले से पूर्व से भारत में विद्यमान थी, सिन्धुघाटी सभ्यता के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि उस समय लोहार, सोनार, कुम्हार जैसी कई कारीगर जातियां विद्यमान थी।

२.    आर्य हमले के प्रश्चात् इन कामगार पिछड़ेवर्ग की जातियों को अपने समाज में स्वीकार करने की कोशिश की, क्योकि-

(अ)   आर्यो को इनकी आवश्यकता थी क्योकि आर्यो के पास कामगार नही थे।

(ब)    आर्य युध्द, कृषि तथा पशुपालन के सिवाय अन्य किसी विद्या में निपूण नही थे।

(स)   आर्य इनका उपयोग आसानी से कर पाते थे, क्योकि ये जातियां आर्यो का विरोध नही करती थी चुकि ये कामगार जातियां लड़ाकू न थी।

(द)    दूसरी अन्य राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वी असुर, डोम, चाण्डाल जैसी अनार्य जातियां जो आर्यो का विरोध करती थी आर्यो द्वारा कोपभाजन का शिकार बनी तथा अछूत करार दी गई।

३.    चुंकि कामगार अनार्य जाति जो शूद्रों में गिनी जाने लगी। इसलिए सूर्यवंशी अनार्य क्षत्रिय जातियों के साथ मिल कर शूद्रों में शामिल हो गई। (पृष्ठ-३१-३२)

श्री संजीव खुदशाह की यह पुस्तक स्पष्ट करती है कि शूद्र तथा आज का पिछड़ा वर्ग समुदाय आर्यो की चातुवर्णी व्यवस्था के बाहर के अनार्य समुदाय के लोग थे।

अभी तक यह अवधारणा थी कि शूद्र केवल शूद्र है, किन्तु आर्यो ने शूद्रों को भी दो भागों में विभाजित किया हुआ थां एक अबहिष्कृत शूद्र, दूसरा बहिष्कृत शूद्र। पहले वर्ग में खेतीहर, पशुपालक, दस्तकारी, तेल निकालने वाले, बढ़ई, पीतल, सोना-चांदी के जेवर बनाने वाले, शिल्प, वस्त्र बुनाई, छपाई आदि का काम करने वाली जातियां थी।  इन्होने आर्यो की दासता आसानी से स्वीकार कर ली। जबकी बहिष्कृत शूद्रों में वे जातियां थी, जिन्होने आर्यो के सामने आसानी से घुटने नही टेकें विद्वान ऐसा मानते है कि ये अनार्यो में शासक जातियों के रूप् में थी। आर्यो के साथ हुए संघर्ष में पराजित हुई। इन्हे बहिष्कृत शूद्र जाति के रूप् में स्वीकार किया गया। इन्हे ही आज अछूत (अतिशूद्र) जातियों में गिना जाता है। जैसे चमड़े का काम करने वाली जाति, सफाई करने वाली जाति आदि (पृष्ठ ३८)

जिस तरह शूद्रों को दो वर्गो में बांटा गया है। संजीवजी ने कामगार पिछड़े वर्ग (शूद्र) को भी दो भागों में बांटा है-(१) उत्पादक जातियां (२) गैर उत्पादक जातियां। किन्तु पिछड़े वर्ग में जिन जातियों को सम्मिलित किया गया है उसमें भले ही अतिशूद्र (बहुत ज्यादा अछूत) जातियां का समावेश न हो किन्तु उत्पादक व गैर उत्पादक दोनो तरह की जातियों को पिछड़ा वर्ग माना गया हैं। संजीव जी ने ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` के चौथे अध्याय (जाति की पड़ताल एवं समाधान) में पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों की जो अधिकारिक सूची दी है। उसमें भी यही तथ्य है। जैसे लोहार, बढ़ई, सुनार, ठठेरा, तेली(साहू) छीपा आदि यह उत्पादक कामगार जातियां है। जबकी बैरागी (वैष्णव) (धार्मिक भिक्षावृत्ति करने वाली) भाट, चारण (राजा के सम्मान में विरूदावली का गायन करने वाली) जैसी बहुंत सी गैर उत्पादक जातियां है। पिछड़े वर्ग में उन जातियों को भी सम्मिलित किया गया है। जो हिन्दू धर्म में अनुसूचित जाति के तहत आती होगी। किन्तु बाद में उन्होने ईसाई तथा मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया; लेकिन धर्मान्तरण के बाद भी उनका काम वही परंपरागत रहा। जैसे शेख मेहतर(सफाई कामगार) आदि।

पुस्तक लेखक श्री संजीव खुदशाह ने पिछड़े वर्ग की पहचान भारत के मूल निवासी अनार्यो के रूप में पहले अध्याय में कर के यह भी स्पष्ट कर दिया था कि पिछड़े वर्ग को कैसे शूद्र वर्ण में तब्दील किया गया था। इसके बाद भी वे पुस्तक के दूसरे अध्याय -''जाति एवं गोत्र विवाद तथा हिन्दूकरण`` में पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति के बारे में स्मृतियों, पुराणों के मत क्या है, उसे पाठकों के सामने रखते है। क्योकि पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां अपने को क्षत्रिय और ब्राम्हण होने का दावा करती रही है। लेखक ने उसके कुछ उदाहरण भी दिए है किन्तु हम भी लोक जीवन में कई ऐसी जातियों को जानने लगे है। जिनका कार्य धार्मिक भिक्षावृत्ति या ग्रह विशेष का दान ग्रहण करना रहा है। सीधे तौर पर अपने आप को ब्राम्हण बतलाती है तथा शर्मा जैसे सरनेम ग्रहण कर चुकी है। आज वे पिछड़ा वर्ग की अधिकारिक सूची में दर्ज है। जबकी हिन्दू स्मृतिया इन्हे वर्णसंकर घोषित करती है। और इन्ही वर्ण संकर संतति में विभिन्न निम्न जातियों का उद्भव हुआ भी वे बताती है।

पिछड़े वर्ग की जो जातियॉं स्वयं को क्षत्रिय या ब्राम्हण होने का दावा करती है। लेखक ने उनमें मराठा, सूद और भूमिहार के उदाहरण प्रस्तुत किये है। किन्तु उच्च जातियों ने इनके दावों को कभी भी स्वीकार नही किया। यहां शिवाजी का उदाहरण ही पर्याप्त होगा। मुगलकाल में मराठा जाति के शिवाजी ने अपनी विरता से जब पश्चिमी महाराष्ट्र के कई राज्यों को जीतकर उनपर अपना अधिकार जमा लिया और राज तिलक कराने की सोची। तब ब्राम्हणों ने उनका राज्याभिषेक कराने से इंकार कर दिया तथा तर्क दिया कि वे शूद्र है। इस अध्याय में गोत्र क्या है? तथा अनार्य वर्ग के देव महादेव का कैसे हिन्दूकरण किया गया जाकर बिना धर्मान्तरण के अनार्यो को हिन्दू धर्म की परिधि में लाया गया की विद्वतापूर्ण विवेचना की गई है। इस अध्याय में बुध्द के क्षत्रिय होने का जो मिथक अबतक बना हुआ था, वह भी टूटा है और यह वास्तविकता सामने आई की वे शाक्य थे और शाक्य भारत में एक हमलावर के रूप में आये। बाद में ये जाति भारतीयों के साथ मिल गई और यह जाति शूद्रों में शुमार होती थी। (देखे पृष्ठ-७१,७२)

अध्याय-तीन ''विकास यात्रा के विभिन्न सोपान`` में लेखक ने उच्चवर्गो के आरक्षण को रेखांकित किया तथा पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की पृष्ठभूमि को भी वर्णित करते हुए लिखा है कि- जब हमारा संविधान बन रहा था तो हमारे पास इतना समय नही था कि दलित वर्ग में आने वाली सभी जातियों की शिनाख्त की जा सकती ओर उन्हे सूचीबध्द किया जाता। अन्य दलित जातियों (पिछड़ा वर्ग की जातियां) की पहचान और उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए संविधान में एक आयोग बनाने की व्यवस्था की गई। उसी अनुसरण में २९ जनवरी १९५३ में काका कालेलकर आयोग बनाया गया। यह प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन था। किन्तु इस आयोग ने इन जातियों की भलाई की अनुशंसा करने के बजाय ब्राम्हणवादी मानसिकता प्रकट की जिससे पिछड़ों का आरक्षण खटाई में पड़ गया। बाद में १९७८ को  मण्डल आयोग बना जिसे लागू करने का श्रेय वी.पी.सिंह को गया। मण्डल आयोग ने एक खास बात अपनी रिपोर्ट में शामिल की। वह यह थी कि कुछ जातियां गांव में अछूतपन की शिकार है इन्हे अनुसूचित जाति में शामिल करने की अनुशंसा की।

संजीवजी ने पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने के विषय और उसके विरोध की व्यापक चर्चा की है। तथा उन संतों तथा महापुरूषों का भी उल्लेख किया है। जिन्होने पिछड़े वर्ग में सामाजिक चेतना का अलख जगाया।

चाल अध्याय और १४१ पृष्ठों में समाहित यह पुस्तक वास्तव में एक ऐसा शोध है जो आम आदमी के पूर्वाग्रह एवं उसकी पहले से बनी अवधारणाओं को बदल कर पिछड़े वर्ग की वास्तविकताओं को सामने लाती है। लेखक ने इसे लिखने से पहले काफी शोध किया है। कई प्रश्न वे ऐसे खड़े करते है जिनका उत्तर जात्याभिमानी लोगों को देना कठिन है। इस अनुपम कृति के लिए संजीव खुदशाह बधाई के पात्र है। यदि पिछड़ी जाति समुदाय के लोग अभी भी पूर्वाग्रह को त्याग कर इस पुस्तक में खुदशाह जी द्वारा रखी वास्तविकताओं को स्वीकार कर अपना उत्थान करने के लिए आगे आतीं है तो उनका परिश्रम सफल होगा।

 

जयप्रकाश वाल्मीकि

१४, वाल्मीकि कालोनी,

द्वारिकापुरी के पास,

शास्त्री नगर,

जयपुर-३०२०१६(राजस्थान)

 


Ignorant social reformers in Dalit society is more danger

दलित समाज में अज्ञानी समाज सुधारकों से है ज्यादा खतरा

संजीव खुदशाह

आमतौर पर दो प्रकार के डॉक्टर होते हैं। पढ़े-लिखे एमबीबीएस डिग्री धारी डॉक्टर और अशिक्षित झोलाछाप डॉक्टर। मूर्ख या अज्ञानी के लिए यह दोनों डॉक्टर एक समान है। इन्हें इनमें अंतर ढूंढने की क्षमता नहीं होती है। लेकिन झोलाछाप डॉक्टर एक

मरीज के लिए खतरनाक होता है। सर्दी खांसी बुखार तक तो ठीक है। लेकिन किसी गंभीर बीमारी से इलाज कराना अक्सर जान को जोखिम में डालने जैसा होता है। बीमारी या तो बढ़ जाती है या मरीज की मौत हो जाती है।

ठीक इसी प्रकार दलित समाज में दो प्रकार के समाज सुधारक या सामाजिक कार्यकर्ता होते हैं। एक वे जिन्हें समाज उत्थान का ज्ञान हैं, अनुभव है, दृष्टि है, लक्ष्य है, तो दूसरी ओर अज्ञानी समाज सुधारक/ सामाजिक कार्यकर्ता जिन्हें ना अनुभव है, ना उन्होंने ठीक से पढ़ाई लिखाई की है, ना ही कुछ सीखना चाहते हैं।

झोलाछाप डॉक्टरों से अज्ञानी समाज सेवक, ज्यादा खतरनाक होता है। झोलाछाप डॉक्टर तो कुछ लोगों का जान को जोखिम में डालता है। लेकिन यदि अज्ञानी समाज सेवक समाज का सिरमौर बन गया तो पूरे समाज का बेड़ा गर्क कर सकता है। पूरे समाज को लक्ष्य से भटका सकता है। कई साल पीछे धकेल सकता है।

आइए इस प्रकार के समाज सेवकों को कुछ उदाहरणों से समझते हैं।

(1)                 ऐसे ही एक समाज सेवक हैं जो डॉक्टर अंबेडकर के भक्त हैं सफाई कामगार समाज से आते हैं और इसी समाज पर केन्द्रित अध्यक्ष पद धारण किए हुए हैं। डॉक्टर अंबेडकर को मानते तो जरूर है। लेकिन डॉक्टर अंबेडकर की नहीं मानते हैं। बात बात में जय भीम का नारा लगाते हैं। डॉक्टर अंबेडकर ने दलितों के लिए दो बातें कही थी। पहला अपना गंदा पेशा छोड़ दो, दूसरा गंदी बस्ती या शोषणकारी गांव से बाहर निकल जाओ। लेकिन यह महाराज रोज दलितों के लिए सफाई कामगार की स्थाई नौकरी का ज्ञापन देते फिरते हैं। ठेका प्रथा का विरोध करते रहते हैं। गंदे पेशे से मुक्ति तो दूर उस पेशे पर एकाधिकार की वकालत करते रहते हैं। ठीक इसी प्रकार गंदी बस्तियों से मुक्ति के लिए भी महाशय विरोध करते हैं। ताकि उनकी राजनीतिक रोटियां सिकती रहे। भले खुद बस्ती से बाहर निवास करते हों। लेकिन इस समाज को एक जगह इकट्ठा रहने पर जोर डालते हैं। ताकि जातीय पहचान और घृणा बरकरार रहे। बस अपनी बात को मनवाने के लिए बात बात पर जय भीम का नारा लगाते रहते हैं। मानो इनसे बड़ा अंबेडकरवादी कोई नहीं। अब आप ही बताइए है ना ये समाज सुधारक जान के दुश्मन ?

 

(2)              ऐसे ही एक और समाज सेवक की आपसे मुलाकात करवाता हूं। यह भाई साहब किसी ऊंचे पद से रिटायर हुए हैं। पद रहने के दौरान तो समाज की किसी व्यक्ति को पहचानते तक ना थे। अब जब बच्चे जवान हो गए शादी-ब्याह, सेटल करने का ख्याल सताने लगा। तो यह लगे समाज सेवा करने। बाबा साहब की एक दो किताबें आधी अधूरी पढ़ ली है। और लगे ज्ञान बांटने। बात बात में समाज को नीचा दिखाने, विरोधियों को ठिकाने लगाना, इनका मुख्य कार्य हो गया है। ऐसे लोग पद के पीछे ऐसे लपकते हैं। जैसे अंगूर के पीछे लोमड़ी  लपकती है। समाज के मुखिया बन जाने के बाद देखिये इनके ठाठ बाट। चंदे का हिसाब ना देना, किसी बड़े नेता की लल्लू चप्पू करना, अपने बच्चों को स्थापित करना, इनका मुख्य उद्देश हो जाता है। अंबेडकरी होने के बावजूद ऐसे लोग मनुवादी होते हैं। अंबेडकर और बुध्‍द  को कहीं ना कहीं चमत्कार, अलौकिकता से जोड़ते हैं। समाज को गुमराह करने में अपना अहम योगदान देते रहते हैं।

(3)              आइए अब मैं एक ऐसे समाज सुधारक से आपका परिचय करवाता हूं। यह भाई साहब सरकारी सेवा से रिटायर हुए है। इनका मकसद है कि समाज गंदे जाति नाम छुटकारा पा जाए। इसके लिए वह नए जाति नाम सुझाते है। रात दिन उसी की माला जपते हैं। उन्हें लगता है कि समाज के जाति का नाम बदलने मात्र से करिश्माई परिवर्तन हो जाएगा। रात दिन सुदर्शन समाज सुदर्शन समाज की जाप करते हैं। कभी बांस कला की बात करते हैं, तो कभी टुकनी सुपा की बात करते हैं। यह पुश्तैनी व्यवसाय को लेकर इतना मोहित हैं। कि कई साल पीछे समाज को ढकने के लिए आमादा हैं। जिस कारण इन्हें सरकारी नौकरी मिली, समानता का अधिकार मिला, इससे इनको कोई वास्ता नहीं। समाज कैसे शिक्षित हो, आगे बढ़े, इससे उनको कोई मतलब नहीं। बस जाति नाम बदल जाए गंदे नामों से छुटकारा मिल जाए।

(4)             अब मैं आपको ऐसे समाज सेवक से मुलाकात करवाता हूं जिनको यह मालूम है कि समाज सेवक करना है। लेकिन यह नहीं मालूम कि करना क्या है? इनको लगता है कि समाज के लोगो को इकट्ठा कर लो, बड़ा सम्मेलन कर लो, भीड़ दिखाकर पार्षद, विधायक आदि का टिकट हासिल कर लो। या किसी अनुसूचित जाति आयोग, सफाई कामगार आयोग में स्थान पा जाऊं। यही इनका मुख्य मकसद होता है। वैसा करने के लिए समाज का बेड़ा गर्क करने में लगे होते हैं। ऐसे लोगों को यह नहीं मालूम कि समाज सेवा और राजनीति एक अलग चीज है। यह समाज सेवा का नाम तो लेते हैं। लेकिन वे दरअसल राजनीति करते हैं। इसके कारण समाज भ्रमित रहता है।

तो समाज सेवा के एक्‍सपर्ट डॉक्टर कैसे बने ? आइए जानने की कोशिश करते हैं

पिछले उदाहरणों से आप समझ गए होंगे कि समाज के झोलाछाप समाज सुधारक कितने खतरनाक होते हैं। अब मैं संक्षिप्त में बताऊंगा कि यदि आप एक शिक्षित समाज सेवक बनना चाहते हैं तो क्या करें।

i     अपना लक्ष्य प्लान करें। सबसे पहले समाज को क्या मदद देना चाहते हैं उसे तय करें। लक्ष्य निर्धारित करें। यह मदद आर्थिक है या बौद्धिक है या समय की मदद है। किस अवस्था को समाज की तरक्की आप समझते हैं यह भी निर्धारित करें। यदि आप अंबेडकरवादी हैं तो विज्ञान और तर्क का साथ कभी ना छोड़े। चाहे समाज का विरोध आपको झेलना पड़े।

 

ii    कुछ वंचित जातियां कैसे तरक्की कर गई इसका अध्ययन करें। उन्होंने क्या त्याग किया ? कैसे शिक्षा पर खर्च किया ? अंबेडकर के निर्देशों का पालन किस प्रकार किया ? यह जानने की कोशिश करें ? इसके लिए आपको अध्‍ययन करना पड़ेगा।

 

iii    पढ़ने की प्रवृत्ति बढ़ाएं, अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ें। अंग्रेजी में किताब पढ़ने की कोशिश करें। दलितों के लिए अंग्रेजी सीखना बहुत जरूरी है। यदि आप अंग्रेजी नहीं जानते तो बहुत सारी चीजें आप नहीं समझ सकते।

 

iv    अपने उद्धारक और शोषणकर्ता में फर्क करना सीखें। यह भी बिना पढ़े नहीं सीख सकते हैं। किताबे तो आपको पढ़नी होगी इसका कोई शॉर्टकट नहीं है।


v    सामाजिक कार्यकर्ता के लिए एक दृष्टि होने बेहद जरूरी है। आपके पास एक वैज्ञानिक तर्कशील जिसे मै अंबेडकर वादी दृष्टि कहता हूँ, बहुत जरूरी है। आप अंधविश्वास के पक्ष में रहना चाहते हैं या विज्ञान के पक्ष में, तय कर लें। समाज को पीछे की ओर ले जाना चाहते हैं या आगे की ओर, यह तय कर लें। समाज को लाभ देना चाहते हैं या खुद लाभ उठाना चाहते हैं। यह भी तय कर ले।


vi    तय करें आप राजनीति करना चाहते हैं या समाज सेवा दोनों में फर्क है।


vii   जिन सिद्धांतों की आप बात करते हैं। उनका पालन आप पहले स्वयं करें। एक मिसाल कायम करें। तभी उन सिद्धांतों की बात आप करें।

कुछ बातों का ध्यान अगर आप देंगे। तो लोग आपके साथ जुड़ेंगे और आप किसी लक्ष्य के साथ आगे बढ़ पाएंगे। उन लोगों का जरूर साथ लें जो जानकार हैं, शिक्षित हैं, लक्ष्य को समझते हैं।

याद रखें अज्ञानी समाज सुधारक, समाज के लिए खासकर दलित और आदिवासी समाज के लिए मानव बम की तरह है। आप एक शिक्षित समाज सुधारक बनने की मिसाल कायम करें। जागरूक करने के लिए जरूरी नहीं है कि आप घर घर जाएं या कोई सम्मेलन करें। सोशल मीडिया के माध्यम से भी आप समाज को जानकारी विश्लेषण और अपना पक्ष बता सकते हैं।