समाज की एकता के लिए अम्बेडकरी आंदोलन को वंचित समाज के अधिकारों के लिए आगे आना होगा

 

समाज की एकता के लिए अम्बेडकरी आंदोलन को वंचित समाज के अधिकारों के लिए आगे आना होगा

विद्याभूषण रावत की अम्बेडकरी साहित्यकार संजीव खुदशाह से बातचीत



(समाज वीकली)- संजीव खुदशाह का जन्म 12 फरवरी 1973 को बिलासपुर छत्तीसगढ़ में हुआ। आप देश में चोटी के दलित लेखकों में शुमार किए जाते है। उनकी रचनाएं  देश की लगभग सभी अग्रणी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है।संजीव जी की  “सफाई कामगार समुदाय” राधाकृष्‍ण प्रकाशन से एवं “आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग” शिल्‍पायन से, “दलित चेतना और कुछ जरुरी सवाल” शिल्‍पायन से इनकी चर्चित कृतियों मे शामिल है। संजीव खुदशाह यू ट्यूब चैनल DMAindia online के प्रधान संपादक है। वर्तमान में संजीव जर्नलिज्म डिपार्मेंट से पीएचडी कर रहे हैं। वह कानून की पढ़ाई भी कर चुके हैं और महत्वपूर्ण बात ये की वंचित समूहों मे सबसे भी भी सबसे वंचित समाज से आते हैं और इसलिए उनके दिल की बात और भी महत्वपूर्ण हो जाती हैं। वर्षों पूर्व अम्बेडकरी आंदोलन से जुडने के बाद और लेखन के जरिए सम्पूर्ण दलित समाज को जगाने की बात कहने वाले संजीव आज आहत हैं क्योंकि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट मे अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण के फैसले का स्वागत किया। इस बातचीत मे हम संजीव खुदशाह के संघर्षों और वर्गीकरण के इस सवाल से पैदा हुई सामाजिक स्थिति पर बात करेंगे।

आप तो अम्बेडकरी आंदोलन का अभिन्न अंग रहे हैं और हमेशा से बाबा साहब के मिशन को लेकर सक्रिय भी रहे। आपने अपने मंचों पर और दूसरों के मंचों पर भी दलित एकता की बाते कही हैं लेकिन आज आप पर हमला हो रहा है क्योंकि आपने अति दलित जातियों के आरक्षण के संदर्भ मे सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का समर्थन किया है। सर्वप्रथम तो हमे ये बताए कि आखिर आप पर किस प्रकार का हमला हो रहा है और कौन लोग कर रहे हैं ?

संजीव : दरअसल मैं अति दलित का समर्थन नहीं कर रहा हूं मैं उन लोगों का समर्थन कर रहा हूं जो वास्तव में वंचित हैं और इस समय पिछड़ा दलित जिसे महादलित अति दलित भी कह सकते हैं। वह वास्तव में बहुत ही पीछे है और शासन संसाधन की सुविधा उस तक अभी नहीं पहुंची है। इस समय मेरी यह जिम्मेदारी है कि एक विचारक और बुद्धिजीवी होने के नाते मैं अपने विचार पर अडिग रहूं और मैंने वह किया। मैं विभिन्न मंचों पर यह कह रहा हूं कि अगड़ी दलित और पिछड़े दलित दोनों जातियों को आपस में बैठकर बातचीत करनी चाहिए। पिछड़ापन क्यों है? इस पर विचार करना चाहिए। क्योंकि इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि एक बहुत बड़ी संख्या में दलित जातियां पिछड़ेपन का शिकार हैं। मुझे नासमझ बताया जा रहा है यह कहा जा रहा है कि मैं आरएसएस या बीजेपी का एजेंट हूं। मेरी समझ पर भी प्रश्न चिन्ह उठाया जा रहा है और उन लोगों के द्वारा उठाए जा रहा है जो मेरे काफी करीब है। जिनके साथ मैंने आंदोलनों में हिस्सा लिया है। इस कारण में दुखी भी हूं क्योंकि वह मेरी बात को समझने के लिए, सुनने के लिए तैयार नहीं है।

इतने वर्षों तक सक्रिय रहने के बाद क्या आपको लगता है कि हमारे नेता और बुद्धिजीवी अपनी जातियों के ढांचे या खांचे से आगे नहीं निकल पाए हैं ?

संजीव : अभी के 21 अगस्त वाले आंदोलन से यह बात छनकर आती है कि दलित आंदोलन दरअसल कुछ जातियों का आंदोलन है। इन जातियों को सिर्फ अपने स्वार्थ की चिंता है। बाकी दलित जातियों के बारे में यह सोचने और सुनने को भी तैयार नहीं है। इसका उदाहरण अगर आपको देखना है तो अंबेडकर जयंती के प्रोग्राम में आप देख सकते हैं। लिखा होता है सार्वजनिक अंबेडकर जयंती समारोह लेकिन उसके अध्यक्ष से लेकर सारे पदाधिकारी एक ही जाति समाज से होते हैं। शासन से मिलने वाले रकम का यह लोग बंदर बांट करते हैं। इसमें भी किसी और को हिस्सेदारी नहीं देते हैं और आज यही लोग बड़ी-बड़ी बात कर रहे हैं कि दलितों को बाटा हुआ है। दरअसल बांटने वाले यह खुद हैं। यही हाल-चाल देश भर के बुद्ध विहारों का भी है जो की सिर्फ बुद्ध विहार नहीं बल्कि जाति पंचायत का अड्डा है।

आपने बुद्ध विहारों को जाति पंचायत का अड्डा करार दे दिया है। क्या ये कुछ अधिक नहीं हो गया ? आज तो देश भर मे न केवल दलित समुदाय अपितु पिछड़े वर्ग के लोग भी बौद्धह धम्म मे आ रहे हैं और भानते लोग और भिखु लोग भी विभिन्न समुदायों से निकल रहे हैं। आखिर आपको ऐसा क्यों लगा कि वे जाति पंचायत का अड्डा बन गए हैं।

संजीव : बुध विहार डॉक्टर अंबेडकर के ड्रीम प्रोजेक्ट का हिस्सा होना चाहिए था । डॉक्टर अंबेडकर ने कई सपने देखे हैं लेकिन उनके दो सपने को उनका ड्रीम प्रोजेक्ट कहा जाता है। पहला जाति का उन्मूलन दूसरा सबको प्रतिनिधित्व। बुद्ध विहार में आकर लोग जाति का उन्मूलन करना बंद कर दिये और गैरों के लिए बुध विहार में ताले जड़ दिए गए। बुध विहार को देखकर आप यह आसानी से बता सकते हैं की कौन सा बुध विहार किस जाति का है।

जब आपकी आलोचना हो रही थी तो क्या आपको लगा कि आपके द्वारा उठाए गए प्रश्न वाजिब हैं ?

संजीव : मै इन आलोचनाओं को समझने की कोशिश कर रहा हूं और उनका चिंतन मनन करता हूं तो मुझे यह समझ में आता है कि मैंने जो प्रश्न उठाए हैं या मैंने जो स्टैंड लिया है वह बिल्कुल सही है।

सुप्रीम कोर्ट के वर्गीकरण के प्रश्न पर दिए आदेश पर आपकी राय ?

संजीव : सुप्रीम कोर्ट में दो मुद्दे उठाएं गए पहले क्रीमी लेयर का मुद्दा दूसरा वर्गीकरण का मुद्दा। क्रीमी लेयर के मुद्दे से में सहमत नहीं हूं क्योंकि दलित की परेशानी भेदभाव छुआछूत से ताल्लुक रखती है। आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है यह प्रतिनिधित्व है जो की जब तक गैर बराबरी है तब तक चलनी चाहिए।

लेकिन वर्गीकरण को मैं सकारात्मक नजरिए से देखता हूं। मैं खुद डोमार जैसी अति पिछड़े दलित जाति से ताल्लुक रखता हूं और मैं यह देख रहा हूं कि वाल्मीकि समेत अन्य सफाई कामगार जातियां आज भी विपरीत परिस्थिति में काम कर रही है। जीवन यापन कर रही हैं और दलित आरक्षण में इनका बहुत बड़ा हिस्सा है। लेकिन उस हिस्से की नौकरियां इन्हें नहीं मिल रही है। निश्चित रूप से आरक्षण के वर्गीकरण से पीछे रह गई जातियों को फायदा मिलेगा। अगड़े दलित जो आरोप लगा रहे हैं की इससे दलित बट जाएंगे या आप में कोई नयापन नहीं है। यही बात कम्युनल अवार्ड आने पर अगड़ी जाति (सवर्ण) भी कहती रही है।

 आज दलित आंदोलन या अम्बेडकरी आंदोलन इस विषय पर पूरी तरह से विभाजित दिखता है। जो लोग सुप्रीम कोर्ट के आदेश की आलोचना कर रहे हैं वे आरोप लगा रहे हैं कि उनकी जातियों पर हकमारी का आरोप लगाया जा रहा है जो गलत है लेकिन ये भी कोई समझदारी नहीं कि अपने अन्य भाई बहिनों की अस्मिताओ के प्रश्न को बिल्कुल ही इग्नोर कर दिया जाए। क्या आपको कभी ये महसूस हुआ कि इन समुदायों की बैट अम्बेडकरी राजनीति और दर्शन का हिस्सा नहीं बन पा रही हैं क्योंकि आप तो सभी मुखधारा के कार्यक्रमों से जुड़े रहे हैं। 

संजीव : यह बात सही है कि हक मारा जा रहा है या कोई आपका हक छीन रहा है यह कहना गलत है। लेकिन इन जातियों के पिछड़ेपन से इनकार नहीं किया जा सकता। जैसे पहले अछूत पिछड़े थे आरक्षण आने के बाद वे आगे बढ़े हैं। इसी प्रकार पिछड़े अछूत को अलग से आरक्षण मिलेगा तो वह भी आगे बढ़ेंगे।

आश्चर्य की बात है कि अगड़े दलित अपने से कमजोर वंचितों की आवाज सुनने तक को तैयार नहीं है, मनना तो दूर की बात है। यह किसी भी हाल में अंबेडकरवादी नहीं हो सकते संविधान वादी नहीं हो सकते यह संविधान विरोधी है। क्योंकि संविधान कहता है की सबसे अंतिम व्यक्ति को उसका लाभ मिले। जिस पर यह रोड़ा लगा रहे हैं। यह बात सही है कि पिछड़े दलितों की मांगे, उनकी समस्याएं अंबेडकर राजनीति और उसके दर्शन का हिस्सा नहीं बन पा रही है। क्योंकि यहां पर भी वह इग्नोर होते हैं। उपेक्षित किए जाते हैं। भेदभाव का शिकार होते हैं। बहुजन समाज पार्टी ने सीवर में काम करने वाले लोगों की समस्याओं को कभी नहीं उठाया।

आप एक साहित्यकार हैं जिसके बारे मे कहते हैं कि वह समाज को नई दिशा देता है और भीड़ के बीच मे भी न्याय के साथ खड़ा रहता है चाहे अकेले ही क्यों न हो। क्या साहित्य अब जाति के ढांचे को नहीं तोड़ पा रहा है। ऐसा कहते हैं कि बुद्धिजीवी अपने आंदोलन और राजनीति को दिशा देता है लेकिन आज वह शायद पार्टियों और आंदोलनों के पीछे अनुसरण की भूमिका मे होकर उनका ‘वर्णन’ कर रहा है, उन्हे दिशा नहीं दे रहा। 

संजीव : मुझे लगता है कि इस समय मेरी जिम्मेदारी यह है कि मैं वंचितों के हित के लिए खड़ा हूं चले चाहे मुझे अकेला कर दिया जाए। वंचित दलित में भी बहुत सारे लोग अगड़े दलितों के बातों में गुमराह हो रहे हैं और उन्हें लगता है कि उनके साथ रहना चाहिए। इमोशनल ब्लैकमेलिंग का भी वे शिकार हो रहे हैं। अगड़े दलित भी हमारे आंदोलन के साथी हैं हम खुद भी उनके इस रुख से परेशान और चिंतित हैं। वे पिछड़े दलितों के खिलाफ इस प्रकार आंदोलन करेंगे आज भी यकीन नहीं होता है।

 आपने तो वर्षों पूर्व स्वच्छकार समाज की जातियों को लेकर एक पुस्तक लिखी। क्या आपसे पहले कम से कम इस दौर मे किसी ने इन समाजों के हालात पर कुछ लिखा ? यदि नहीं तो क्यों ?

संजीव : समस्या यही है दलित आंदोलन में इन लोगों ने सफाई कामगार समुदाय की समस्याओं को न तो पढ़ने की कोशिश की न जानने की कोशिश की। इन पर लिखना तो बहुत दूर की बात है। इसीलिए आज भी यह उन समस्याओं से अनभिज्ञ है और न जानना चाहते हैं। पिछड़े दलितों के खिलाफ आंदोलन करना इसका बहुत बड़ा उदाहरण है।

इन्होंने स्वच्छकार समुदाय पर इसलिए नहीं लिखा क्योंकि इन दोनों वर्गों में भेद बहुत पहले से है।  सुप्रीम कोर्ट ने इन भेदो को सिर्फ रेखांकित किया है। बुद्ध विहार, अंबेडकर जयंती के कार्यक्रमों में यह भेद स्पष्ट रूप से दिखता है।

 ये आरोप लगाए जा रहे हैं कि स्वच्छकार समाज बाबा साहब अंबेडकर के साथ नहीं आए। बहुत से लोग ये कह रहे हैं की ये तो हिन्दू हैं और भाजपा को वोट देते हैं इसलिए इन्हे अनुसूचित जातियों के आरक्षण से बाहर कर ई डब्ल्यू एस मे डाल दिया जाए । ऐसे प्रश्नों का आप कैसे जवाब देंगे। 

संजीव : जिन लोगों ने डॉक्टर अंबेडकर को नहीं पढ़ा है वही ऐसी बात कह सकते हैं कि यह समाज अंबेडकर के साथ नहीं आए आप रामरतन जानोरकर की बात कीजिए आप एडवोकेट भगवान दास की बात कीजिए। ऐसे बहुत सारे नाम है। यह सब ऐसे लोग हैं जिन्होंने शुरुआत से बाबा साहब के साथ कदम ताल मिलाकर चला है। इसके लिए इन्हें एडवोकेट भगवान दास की किताब बाबा साहब और भंगी जातियां पढ़ना चाहिए।

यदि आप भेदभाव करेंगे अपने भाई से, अपने भाई को नीचा दिखाएंगे तो मजबूर होकर वह भाई उनके पास जाएगा जो उनके साथ भेदभाव नहीं करते हैं। उन्हें प्यार से दुलारते हैं। आरएसएस के लोगों ने उन तक अपनी पहुंच बनाई है और उनकी समस्याओं को समझने का प्रयास किया है। भले ही उनका मकसद कुछ और रहा हो लेकिन अगड़े दलित ने अपने इन वंचित भाइयों के लिए क्या किया? शिवाय उनके खिलाफ आंदोलन करने के। 21 तारीख के आंदोलन ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया है।

आरएसएस और भाजपा को वोट देने की बात करना बहुत गलत है। कौन किसको वोट देता है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि आरएसएस और भाजपा के सांसद जो अनुसूचित जाति आरक्षित सीट से आए हैं उनकी जाति आप देख लीजिए। वह सब अगड़ी दलित जाति के हैं न की वंचित दलित जातियों के।

इतने लंबे समय तक अम्बेडकरी आंदोलन से जुड़े रहने के बाद क्या आपको लगता है कि बुद्धिजीवियों ने एक बहुत बड़ा अवसर खो दिया जिससे पूरे दलित समाज को एक किया जा सकता था।

संजीव : बिल्कुल सही कहा आपने अगड़े दलित बुद्धिजीवियों ने एक बहुत बड़ा अवसर खो दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस वर्डिक्ट के आने के बाद उन्हें पिछड़े दलित जातियों के प्रतिनिधियों से बुद्धिजीवियों से बातचीत करनी चाहिए थी। उन्हें विश्वास में लेना था लेकिन उन्होंने यह अवसर खो दिया। सोशल मीडिया में वंचित दलित जातियों को इतनी गालियां दी जा रही हैं इतना अपमानित किया जा रहा है कि उतना अपमान सवर्ण जातियां भी नहीं करती हैं। रमेश भंगी की फेसबुक पोस्ट में देखें किस प्रकार गालियां दी जा रही है क्या ये एट्रोसिटी नहीं है।

क्या आपको लगता है कि सोशल मीडिया के इस दौर मे बहुत से लोगों ने इसे ‘आपदा मे अवसर’ मानकर समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ाया क्योंकि दो विभिन्न समुदायों को एक साथ लाने की बजाए पूरी बहस आरक्षण खत्म करने की बात पर या गई जबकि 1990 के बाद से आरक्षण पर हमला है लेकिन इनमे से अधिकांश उस समय से चुप थे और कुछ तो निजीकरण को अच्छा भी बता रहे थे। 

संजीव : इसका फायदा सवर्ण समाज ने उठाया है और दोनों समुदायों के बीच वह वैमनस्य बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया है। इस काम में अगड़े दलितों ने आग में घी का काम किया है।

 आपका अपना जीवन भी मुश्किल हालातों से निकला है। आप हमे अपनी पारिवारिक पृष्टभूमि के विषय मे बताएं। 

संजीव : क्योंकि हम और हमारा परिवार जातिय पहचान के साथ जी रहा था। इसीलिए भेदभाव बचपन से झेलना पड़ा। गरीबी लाचारी से जीवन आगे बढ़ा। शिक्षा ने उभरने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। खास तौर पर डॉक्टर अंबेडकर से प्रेरणा मिलने के बाद अपने शोषकों और उद्धारकों में फर्क करना आ गया और इसके बाद हम लोगों को बाबा साहब से परिचय करवाने में अपना जीवन लगा दिए।

अम्बेडकरवाद के संपर्क मे आप कैसे और कब आए। 

संजीव : मेरे मामा प्रमोद खुरशैल जी कांशीराम साहब के साथ काम करते थे।  जब उन्होंने बामसेफ का गठन किया था मामा जी ने ही एक किताब लाकर दी जिसमें डॉक्टर अंबेडकर की जीवनी थी तब मेरी उम्र 10, 12 साल की रही होगी। वे घोर अंबेडकरवादी थे। मेरे पिताजी भी ने बताया की डॉक्टर अंबेडकर की वजह से आज हम थोड़ी बहुत सुख सुविधा उठा रहे हैं। लेकिन जीवनी पढ़ने के बाद में मेरे भीतर बदलाव हुए और मुझे भी बाबा साहब जैसा शिक्षित होने की प्रेरणा मिली‌। शिक्षा के सहारे मैं आगे बढ़ता गया।

 वर्तमान के हालातों मे जब विभिन्न समुदायों के मध्य दूरिया बढ़ चुकी हैं, उसे कैसे पाटेंगे।  इसकी पहल कौन करेगा और क्यों ?

संजीव : खाई पाटने का एक ही तरीका है। “बात” मैं मानता हूं की “बात करेंगे तो बात बनेगी” एक दूसरे के बीच में कन्वर्सेशन चलते रहना चाहिए। तभी दूरी खत्म होगी और यह खाई पाटी जा सकती है। अगड़े दलितों की जिम्मेदारी है कि वह पिछड़े दलितों की समस्याओं को समझें और उसे दूर करने का प्रयास करें। इसमें उन्हें अपने स्वार्थ को भुलाना होगा।

 क्या इस दौर मे कभी आपको ये लगा कि आप गलत जगह पर थे क्योंकि जब जातीय हितों का प्रश्न उठा तो सबसे हासिए के लोगों के साथ खड़े होने के बजाए लोग उन्हे ही कोसने लग गए। 

संजीव : बिल्कुल मैं सहमत हूं जब ऐसा मौका आया की हासिए पर खड़े पिछड़े दलित के साथ होना चाहिए था। तब तथा कथित अंबेडकरवादी अगड़े दलित उन्हें मदद करने के बजाय कोसने में लग गए। क्योंकि उनका जातिय हित टकरा रहा था। अंबेडकर वाद और संविधान यह नहीं सिखाता। संविधान कहता है की सबसे अंतिम व्यक्ति को संसाधन, सुविधाएं और न्याय मिलनी चाहिए।

क्या आरक्षण का वर्गीकरण करना जातियों को बांटना है?

संजीव : मैं इस बात से असहमत हूं डॉ अंबेडकर ने जाति का वर्गीकरण पहले भी किया था। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग। क्या उन्होंने इन्हें बांटने का काम किया? बात गलत है। दरअसल वर्गीकरण करने से यह पता चलता है कि किस पर कितना काम करने की जरूरत है। यदि कोई समाज अपने आप को काबिल समझता है तो इस वर्गीकरण का समर्थन करना चाहिए ना कि घबराना चाहिए। यदि वर्गीकरण गलत था तो डॉक्टर अंबेडकर को भी गलत ठहराएंगे आप?

अम्बेडकरी आंदोलन के साथियों विशेषकर बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों से क्या कहेंगे आप ?

अंबेडकर आंदोलन के साथी बुद्धिजीवी और साहित्यकार से मैं यही आशा करूंगा कि वह ऐसे विकट समय में एक दूसरे का साथ ना छोड़े। एक दूसरे का अपमान न करें। वंचित दलितों की समस्याओं को समझें और उनके पक्ष में खड़े रहे। मतभेद जरूर हो लेकिन मन भेद न हो।

अभी-अभी खबर आई है कि भीम आर्मी के लोगों ने वाल्मीकि जाति के कुछ सदस्यों से मारपीट की है सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को लेकर। ऐसे समय में वैमनस्यता को कम करने के लिए अंबेडकरवादियों और बुद्धिजीवी को सामने आना होगा।

Pali language is The Mother of Sanskrit, Evolution of Indian language and script, पाली संस्कृत भाषा

आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की जननी है। लेकिन नई खोज और पुरातात्विक सबूत बताते हैं की संस्कृत का जन्म पाली भाषा से हुआ है। और भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत नहीं बल्कि पाली भाषा है। यही नहीं ब्राह्मी लिपि ने भारत की तमाम लिपियां को जन्म दिया है। इस वीडियो में देखिए भारतीय भाषाओं का विकास कैसे हुआ।

The journey from a Devdasi to Lata Mangeshkar

 

एक देवदासी से लता मंगेशकर तक का सफर

संजीव खुदशाह

लता मंगेशकर एक देवदासी परिवार से आती थी। आप समझ सकते हैं कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में उन्हें कितना संघर्ष करना पड़ा होगा। मेंस्ट्रीम मीडिया में किसी खास जाति का कब्जा रहा है। यह लोग अति प्रसिद्ध लोगों को उची जाति का या उससे संबंधित बताने की साजिश करते रहे हैं। यह साजिश आज की नहीं है बुध्‍द, कबीर, रैदास, अंबेडकर के साथ भी ऐसी ही कोशिश की गई। आइए मैं बताता हूं कि लता मंगेशकर दरअसल किस परिवार से ताल्लुक रखती थी। क्योंकि मैं लता के उस गांव तक गया हूं एवं उस मंदिर भी मेरा जाना हुआ है जहां लता का परिवार, उसकी दादी देवदासी थी। पिता उस मंदिर में बाजा बजाया करते थे।

Devdasi Lata Mangeshkar


लता मंगेशकर के दादा गणेश गोवा के मंगेश नाम के गांव में रहा करते थे। वही एक मंदिर है जिसका नाम मंगेश नाथ मंदिर है। गणेश जी यही मंदिर में बाजा बजाया करते थे। यह बात मंगेश गांव के लोग एवं उनके पुजारी आज भी बताते हैं। जाहिर है बाजा बजाने वाले लोग ब्राह्मण नहीं होते। गणेश ने इसी मंदिर की देवदासी येसूबाई से शादी की। जैसा कि जगजाहिर है। देवदासियों का पुजारियों द्वारा यौन उत्पीड़न किया जाता रहा है। इसलिए किसी भी पुरुष का देवदासी के साथ विवाह अच्छा नहीं माना जाता है। यदि गणेश ब्राह्मण होते तो उन्हें बहिष्कृत कर दिया जाता है। लेकिन उन्हें एवं उनके देवदासी पुत्र दीनानाथ को मंदिर में बाजा बजाने का काम करने दिया गया।

गरीबी परिस्‍थति होने के कारण बाद में दीनानाथ इंदौर आ गए। चूकिं देवदासी परिवार अपने नाम के साथ उस मंदिर का नाम जोड़ते हैं। जिस मंदिर में उन्होंने काम किया है। उसी परंपरा के अनुसार दीनानाथ ने अपने नाम के साथ मंदिर का नाम मंगेशकर जोड़ लिया। उन्होंने यहां भी जीविका उपार्जन के लिए गाने बजाने का काम शुरू किया। यदि वे उची जाति के होते तो कतई ऐसा नहीं करते, क्योंकि उस जमाने में यह काम नीची जाति के लोग ही किया करते थे। वे नाटक किया करते थे। ज्यादातर महिलाओं के पात्र निभाते थे। दीनानाथ मंगेशकर ने पहली शादी नर्मदा से कि उन्हें एक पुत्री लतिका प्राप्त हुई। मां बेटी का देहांत जल्द हो गया। बाद में दीनानाथ ने नर्मदा की बहन सेवंती से विवाह किया। जिनसे उन्हें लता, मीणा, आशा, उषा नामक पुत्रियों एवं हृदयनाथ नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई।

देवदासी पर किताब लिखने वाले अनिल चावला पृष्ठ क्रमांक 6 पर लिखते हैं कि The contribution of devadasis to music is also significant. MS Subbulakshmi, Lata Mangeshkar and her sister Asha Bhonsle (the three most renowned women singers of India) trace their lineage to devadasi community. Devadasis, as a community, developed distinct customs, practices and traditions that were best suited to enable them to live as artists without suppressing their physical and emotional needs. This professional community was controlled by women and was matriarchal.   एमएस सुब्बुलक्ष्मी लता मंगेशकर और उनकी बहन आशा भोंसले भारत की 3 सबसे प्रसिद्ध महिला गायिकाएं देवदासी वंश समुदाय से आती हैं। देवदासियों ने एक अलग सामुदायिक पहचान रीति रिवाज प्रथाओं परंपराओं को विकसित किया। जो उनकी शारीरिक और भावनात्मक जरूरतों को दबाए बिना कलाकारों के रूप में सक्षम बनाने के लिए सबसे उपयुक्त है। यह पेशेवर समुदाय महिलाओं द्वारा नियंत्रित था और मातृसत्तात्मक था।[1]

लता मंगेशकर अपने एक इंटरव्यू में बताती है कि उन्हें पहले हृदया के नाम से जाना जाता था। लेकिन उनके पिता एक नाटक में लतिका का किरदार निभाते थे जो काफी प्रसिद्ध हुआ। इसलिए उन्हें लता नाम से बाद में पुकारा जाने लगा। दीनानाथ की पहली पुत्री का नाम भी लतिका था।

शास्त्रों के हिसाब से लता ब्राह्मण नहीं है

यदि सनातन शास्त्रों, मनुस्मृति की मानें तो दीनानाथ ब्राह्मण नहीं है। यदि थोड़ी देर के लिए दीनानाथ के पिता गणेश को ब्राह्मण मान भी लिया जाए। तो उनकी शादी देवदास जी यानी नीची जाति की स्त्री से होने के कारण मनुस्मृति के अध्याय 10 के अनुसार यह अनुलोम संतान है। जिसे वर्णसंकर संतान बताया गया है। इस अध्याय के श्लोक संख्या 11-50 के अनुसार दीनानाथ की जाती चांडाल यानी शूद्र[2] होती है। अतः किसी भी हाल में लता की जाति ब्राह्मण नहीं है। जैसा कि बताया जा रहा है।

लता को लता रहने दिया जाए उसे जाति के चश्मे से देखना गलत है

लता निर्विवाद रूप से एक महान गायिका है। वह जीते जी किवदंती बन चुकी थी। हमें गर्व है कि हमने उस काल में सांसे ली है। जब लता भी इस हवा में सांस ले रही थी। उनके संघर्षपूर्ण जीवन से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए। जिस प्रकार से मीडिया उन्‍हे जाति के चश्‍में से देख रहा है और किसी खास जाति का महिमामंडन किया जा रहा है वह गलत है।

आज जो समाज उन्हें ब्राह्मण बताने पर तुला है। वही समाज सालों पहले लता के परिवार पर कई जुल्म ढाए। उन्हें काम के लिए दर-दर भटकना पड़ा। उनके परिवार को पलायन करना पड़ा। पेट पालने के लिए नाच गाना करना पडा। लता को उनकी पतली आवाज किसी काम की नहीं कहकर मजाक उड़ाया गया। चारों पांचों भाई बहन की जिम्मेदारी लता के कंधों पर आ गई। इस कारण उन्हें आजीवन अविवाहित रहना पड़ा। उनके पिता को बहिष्कृत सा जीवन जीना पड़ा।

लता जी का फिल्मी करियर एवं विवाद

लता जीते जी संगीत का पर्याय बन चुकी थी। निसंदेह महान गायिका थी। लेकिन विवादों से उनका चोली दामन का साथ रहा है। मोहम्मद रफी के साथ उनका विवाद रॉयल्टी को लेकर था। मोहम्मद रफी का कहना था कि जब हम गाने की पूरी फीस ले लेते हैं तो रॉयल्टी पर हमारा कोई अधिकार नहीं। लेकिन लता चाहती थी कि उन्हें गाने की रॉयल्टी भविष्य में भी मिलती रहे। दोनों ने 4 साल तक कोई गीत साथ में नहीं गाया अनबन बनी रही।

उसी प्रकार एै मेरे वतन के लोगों गीत के संबंध में आशा जी कहती हैं कि 15 दिन इस गीत को मैंने रिहर्सल किया। यह एक डूयेट गीत था जिसे लता आशा दोनो का गाना था। लता ने इसे अकेले गाने की शर्त रखी और लताजी ने मुझसे यह गीत छीन लिया।

बता दूं कि बहन उषा एवं लता की आवाज काफी मिलती है। जय संतोषी माँ फिल्म के सारे गाने उषा मंगेशकर ने गाए हैं। उषा मंगेशकर टीवी पर दिए एक साक्षात्कार में यह आरोप लगाती है कि लता के कारण उनका गायन करियर चौपट हो गया। साठ के दशक में जब लता अपने जीवन की ऊंचाइयों में थी। तब वह गायन, निर्देशन, शब्दों के चयन से लेकर कई मामलों में हस्तक्षेप करने लगी। कोई प्रोड्यूसर या संगीतकार उन्हें नाराज नहीं करना चाहता था। नाराज करने का सीधा मतलब था। फिल्‍में प्‍लाप होना। क्योंकि लता के गीत फिल्‍म सफलता की गारंटी माने जाते थे। यानी उस समय बिना लता के गाने के फिल्म की कल्पना करना मुश्किल था।

इसी समय लता से हूबहू मिलती जुलती आवाज सुमन कल्याणपुर की आई उन्हें लता रफी के साथ अनबन के दौरान खूब गीत मिले। लेकिन वह भी लता के आभामंडल के सामने टिक नहीं पाई। लता के आलोचक कहते हैं कि जिस प्रकार पुरुष पार्श्व गायन में आवाज की वैरायटी दिखती है। वैसी वैरायटी स्त्री पार्श्व गायन में नहीं मिलती। हिरोइन के आवाज की पर्याय लता की आवाज बन गई। नई गायीका भी लता की ही नकल करती। क्योंकि लता ना केवल गायिका थी वह एक अच्छी राजनीतिज्ञ की भी थी। उन्होंने कई गायिकाओं को इंडस्ट्री से बाहर करवा दिया।

केवल आशा कुछ समय तक टिकी रही। उसका कारण था ओ पी नैयर से लता की तल्‍खी तथा राहुल देव वर्मन से आशा की शादी होना। शारदा, अनुराधा पौडवाल, उर्मिला, सुमन कल्याणपुर जैसी सुरीली आवाज वाली गायिका लता के आभामंडल के सामने टिक नहीं पाई। जबकि पुरुष गायन के एल सहगल, मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, मुकेश, मन्ना डे, शैलेंद्र सिंह, सुरेश वाडेकर नई सतरंगी छटा बिखेरी। इसी प्रकार कवीता कृष्‍ण मूर्ति बताती है की किस प्रकार लता मंगेशकर ने उन्‍हे पार्श्‍व गायन का मौका दिलवाया।

एक समय तब वह विवादों में आए जब उन्होंने अपने घर के सामने बनने वाले पुल का विरोध किया और धमकी दी कि यदि पुल बनता है तो वह मुंबई छोड़ देगी।

 लता मंगेशकर का राजनीतिक जीवन

लता मंगेशकर कभी भी सक्रीय राजनीति का हिस्‍सा नही रही लेकिन वह कभी भी जनता के तरफ नही खड़ी हुई। उनकी पूरी लड़ाई व्‍यक्तिगत हितो पर केन्‍द्रीत थी। चाहे मामला रायल्टी का हो या ओवर ब्रिज का, किसान आंदोलन के दौरान वे किसानों के खिलाफ खड़ी दिखी। व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा हो लेकिन उसके विचार ही उसे जीवित रखाते है। इस मामले में लता मंगेशकर का पक्ष कमजोर था। आखिरी समय में लता कट्टरवाद की ओर खड़ी दिखती है। खास तौर पर दक्षिणपंथी विचारधारा के पक्ष में थी। जब बाल ठाकरे परिवार पावर में थे। तब उनके साथ दिखती। वह बाल ठाकरे एवं नरेन्द्र मोदी के पैर छूते देखी जाती। वह खुलेआम वीर सावरकर को महान बताती और उनकी स्तुति करती थी। ऐसा भी कहा जाता है कि डॉक्टर अंबेडकर के ऊपर लिखे गए गीत को उन्होंने गाने से मना कर दिया। उन्होंने उन देवदासियों के पक्ष में कभी आवाज़ नहीं उठाया जिस परिवार से वे आती थी। वह इतनी जल्दी कैसे भूल गई की उनकी दादी येसूबाई कभी मंगेश मंदिर में देवदासी थी? देवदासियों के प्रति उनकी एक आवाज लाखो देवदासियों की नरक जैसी जिन्‍दगी को बहाल कर देती।

 



[1] Page no 5 Devadasis- sinners or sinned against (An attempt to look at the myth and reality of history and present status of Devadasis) by Anil Chawla www.samarthbharat.com

[2] मनुस्‍मृति अध्‍याय 10 श्‍लोक क्रमांक 11-15

Kanshiram Rare Video, part 2, bahujan samaj party Vishnu Baghel DMAindia Online

सन 1995 में बहुजन समाज पार्टी का एक बड़ा आयोजन डॉ खूबचंद बघेल की पुण्यतिथि के अवसर रायपुर छत्तीसगढ़ में किया गया। इस कार्यक्रम का आयोजन तत्कालीन जिला अध्यक्ष बहुजन समाज पार्टी रायपुर के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता विष्णु बघेल द्वारा किया गया। करीब 30 वर्ष पुराना यह दुर्लभ वीडियो आपके लिए पेश है जिसमें कांशीराम समेत तमाम दूसरे राष्ट्रीय स्तर के नेता अपनी बात रख रहे हैं। दाऊराम रत्‍नाकार, भीमसिंह पटेल रीवा सांसद, देखिए इस श्रृंखला का दुसरा भाग।

दाऊराम रत्नाकर, भीम सिंह पटेल रीवा के सांसद, सोने लाल पटेल, महासचिव, बहुजन समाज पार्टी

Kanshiram Rare Video, part 1, bahujan samaj party Vishnu Baghel DMAindia Online

 

सन 1995 में बहुजन समाज पार्टी का एक बड़ा आयोजन डॉ खूबचंद बघेल की पुण्यतिथि के अवसर रायपुर छत्तीसगढ़ में किया गया। इस कार्यक्रम का आयोजन तत्कालीन जिला अध्यक्ष बहुजन समाज पार्टी रायपुर के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता विष्णु बघेल द्वारा किया गया। करीब 30 वर्ष पुराना यह दुर्लभ वीडियो आपके लिए पेश है जिसमें कांशीराम समेत तमाम दूसरे राष्ट्रीय स्तर के नेता अपनी बात रख रहे हैं। देखिए इस श्रृंखला का पहला भाग।


Mahatma Buddha, the pioneer of world peace

 

विश्व शांति के अग्रदूत महात्मा बुद्ध

रश्मि वर्मा

विश्व में कुछ ऐसे महापुरुष रहे हैं जिन्होंने अपने जीवन से समस्त मानव जाति को एक नई राह दिखाई है। उन्हीं में से एक महान विभूति गौतम बुद्ध थे, जिन्हें महात्मा बुद्ध के नाम से जाना जाता है। दुनिया को अपने विचारों से नया मार्ग दिखाने वाले महात्मा बुद्ध भारत के एक महान दार्शनिक, समाज सुधारक और बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। भारतीय वैदिक परंपरा में धीरे-धीरे जो कुरीतियाँ 

bhagvan buddhaपनप गईं थी, उन्हें पहली बार ठोस चुनौती महात्मा बुद्ध ने ही दी थी। बुद्ध ने वैदिक परंपरा के कर्मकांडों पर कड़ी चोट की । मध्यकाल में कबीर दास जैसे क्रांतिकारी विचारक पर महात्मा बुद्ध के विचारों का गहरा प्रभाव दिखता है। डॉ अंबेडकर ने भी वर्ष 1956 में अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले बौद्ध धर्म अपना लिया था और तर्कों के आधार पर स्पष्ट किया था कि क्यों उन्हें महात्मा बुद्ध शेष धर्म-प्रवर्तकों की तुलना में ज़्यादा लोकतांत्रिक नज़र आते हैं। आधुनिक काल में राहुल सांकृत्यायन जैसे वामपंथी साहित्यकार ने भी बुद्ध से प्रभावित होकर जीवन का लंबा समय बुद्ध को पढ़ने में व्यतीत किया। इस आलेख में बुद्ध के जीवन वृत्तांत, उनके दर्शन के सकारात्मक व नकारात्मक पहलूओं तथा बुद्ध की शिक्षाओं की प्रासंगिकता पर विमर्श किया जाएगा। महात्मा बुद्ध का जन्म नेपाल की तराइयों में स्थित लुम्बिनी में 563 ईसा पूर्व में वैशाख पूर्णिमा के दिन हुआ था। यह सर्वविदित है कि युवावस्था में उन्होंने मानव जीवन के दुखों को देखा जैसे रोगी व्यक्ति, वृद्धावस्था एवं मृत्यु। इसके विपरीत एक प्रसन्नचित्त संन्यासी से प्रभावित होकर बुद्ध 29 वर्ष की अवस्था में सांसारिक जीवन को त्याग कर सत्य की खोज में निकल पड़े।  

महात्मा बुद्ध ने 528 ईसा पूर्व में वैशाख पूर्णिमा के दिन बोधगया में एक पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए आत्म बोध प्राप्त किया।   वैशाख पूर्णिमा के दिन ही 483 ईसा पूर्व में कुशीनारा नामक स्थान पर महात्मा बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शिष्यों ने राजगृह में एक परिषद का आह्वान किया, जहाँ बौद्ध धर्म की मुख्य शिक्षाओं को संहिताबद्ध किया गया। इन शिक्षाओं को पिटकों के रूप में समानुक्रमित करने के लिये चार बौद्ध संगीतियों का आयोजन किया गया जिसके पश्चात् तीन मुख्य पिटक बने।  विनय पिटक (बौद्ध मतावंलबियों के लिये व्यवस्था के नियम), सुत पिटक (बुद्ध के उपदेश सिद्धांत) तथा अभिधम्म पिटक (बौद्धदर्शन), जिन्हें संयुक्त रूप से त्रिपिटक कहा जाता है। इन सब को पाली भाषा में लिखा गया है। ध्यातव्य है कि बुद्ध के दर्शन का सबसे महत्त्वपूर्ण विचार ‘आत्म दीपो भवः’ अर्थात ‘अपने दीपक स्वयं बनो। इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति को अपने जीवन का उद्देश्य या नैतिक-अनैतिक प्रश्न का निर्णय स्वयं करना चाहिये। यह विचार इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह ज्ञान और नैतिकता के क्षेत्र में एक छोटे से बुद्धिजीवी वर्ग के एकाधिकार को चुनौती देकर हर व्यक्ति को उसमें प्रविष्ट होने का अवसर प्रदान करता है। बुद्ध के दर्शन का दूसरा प्रमुख विचार मध्यम मार्गके नाम से जाना जाता है। सूक्ष्म दार्शनिक स्तर पर तो इसका अर्थ कुछ भिन्न है, किंतु लौकिकता के स्तर पर इसका अभिप्राय सिर्फ इतना है कि किसी भी प्रकार के अतिवादी व्यवहार से बचना चाहिये।  बुद्ध दर्शन का तीसरा प्रमुख विचार संवेदनशीलताहै। यहाँ संवेदनशीलता का अर्थ है दूसरों के दुखों को अनुभव करने की क्षमता। वर्तमान में मनोविज्ञान जिसे समानुभूति कहता है, वह प्रायः वही है जिसे भारत में संवेदनशीलता कहा जाता रहा है। बुद्ध दर्शन का चौथा प्रमुख विचार यह है कि वे परलोकवाद की बजाय इहलोकवाद पर अधिक बल देते हैं। गौरतलब है कि बुद्ध के समय प्रचलित दर्शनों में चार्वाक के अलावा लगभग सभी दर्शन परलोक पर अधिक ध्यान दे रहे थे। उनके विचारों का सार यह था कि इहलोक मिथ्या है और परलोक ही वास्तविक सत्य है। इससे निरर्थक कर्मकांडों तथा अनुष्ठानों को बढ़ावा मिलता था। बुद्ध ने जानबूझकर अधिकांश पारलौकिक धारणाओं को खारिज किया। बुद्ध दर्शन का पाँचवा प्रमुख विचार यह है कि वे व्यक्ति को अहंकार से मुक्त होने की सलाह देते हैं। अहंकार का अर्थ है मैंकी भावना। यह मैंही अधिकांश झगड़ों की जड़ है। इसलिये व्यक्तित्व पर अहंकार करना एकदम निरर्थक है।बुद्ध दर्शन का छठा प्रमुख विचार ह्रदय परिवर्तन के विश्वास से संबंधित है। बुद्ध को इस बात पर अत्यधिक विश्वास था कि हर व्यक्ति के भीतर अच्छा बनने की संभावनाएँ होती हैं, ज़रूरी यह है की उस पर विश्वास किया जाए और उसे समुचित परिस्थितियाँ प्रदान की जाएँ। बुद्ध का सबसे कमज़ोर विचार उनका यह विश्वास है कि संपूर्ण जीवन दुखमय है।

उन्होंने जो चार आर्य सत्य बताए हैं, उनमें से पहला सर्वम दुखमहै अर्थात सबकुछ दुखमय है। इस बिंदु पर बुद्ध एकतरफा झुके हुए नज़र आते हैं जबकि जीवन को न तो सिर्फ दुखमय कहा जा सकता है और न ही सिर्फ सुखमय। सत्य तो यह है कि सुखों की अभिलाषा ही वे प्रेरणाएँ है जो व्यक्ति को जीवन के प्रति उत्साहित करती है। बुद्ध के विचारों में एक अन्य महत्त्वपूर्ण खामी नारियों के अधिकारों के संदर्भ में दिखती है। जैसे महिलाओं को शुरूआत में संघ में प्रवेश नहीं देना। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने अपने शिष्य आनंद से कहा था कि अगर संघ में महिलाओं का प्रवेश न होता तो यह धर्म एक हजार वर्ष तक चलता पर अब यह 500 वर्ष ही चल पाएगा। जबकि वर्तमान में हम देखते हैं कि महिलाएँ हर क्षेत्र में पुरुषों से कंधे से कंधा मिला कर चलने में सक्षम हैं। महात्मा बुद्ध भारतीय विरासत के एक महान विभूति हैं। उन्होंने संपूर्ण मानव सभ्यता को एक नयी राह दिखाई। उनके विचार, उनकी मृत्यु के लगभग 2500 वर्षों के पश्चात् आज भी हमारे समाज के लिये प्रासंगिक बने हुए हैं।  वर्तमान समय में बुद्ध के स्व निर्णय के विचार का महत्त्व बढ़ जाता है दरअसल आज व्यक्ति अपने घर, ऑफिस, कॉलेज आदि जगहों पर अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण फैसले भी स्वयं न लेकर दूसरे की सलाह पर लेता है अतः वह वस्तु बन जाता है। बुद्ध का अप्‍प दीपो भवःका सिद्धांत व्यक्ति को व्यक्ति बनने पर बल देता है। बुद्ध का मध्यम मार्ग सिद्धांत आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना बुद्ध के समय था। उनके इन विचारों की पुष्टि इस कथन से होती है कि वीणा के तार को उतना नहीं खींचना चाहिये कि वह टूट ही जाए या फिर उतना भी उसे ढीला नहीं छोड़ा जाना चाहिये कि उससे स्वर ध्वनि ही न निकले। दरअसल आज दुनिया में तमाम तरह के झगड़े हैं जैसे- सांप्रदायिकता, आतंकवाद, नक्सलवाद, नस्लवाद तथा जातिवाद इत्यादि। इन सारे झगड़ों के मूल में बुनियादी दार्शनिक समस्या यही है कि कोई भी व्यक्ति देश या संस्था अपने दृष्टिकोण से पीछे हटने को तैयार नहीं है। इस दृष्टि से इस्लामिक स्टेट जैसे अतिवादी समूह हो या मॉब लिंचिंग विचारधारा को कट्टर रूप में स्वीकार करने वाला कोई समूह हो या अन्य समूह सभी के साथ मूल समस्या नज़रिये की ही है।

महात्मा बुद्ध के मध्यम मार्ग सिद्धांत को स्वीकार करते ही हमारा नैतिक दृष्टिकोण बेहतर हो जाता है। हम यह मानने लगते हैं कि कोई भी चीज का अति होना घातक होता है। यह विचार हमें विभिन्न दृष्टिकोणों के मेल-मिलाप तथा आम सहमति प्राप्त करने की ओर ले जाता है। महात्मा बुद्ध का यह विचार की दुःखों का मूल कारण इच्छाएँ हैं, आज के उपभोक्तावादी समाज के लिये प्रासंगिक प्रतीत होता है। दरअसल प्रत्येक इच्छाओं की संतुष्टि के लिये प्राकृतिक या सामाजिक संसधानों की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे में अगर सभी व्यक्तियों के भीतर इच्छाओं की प्रबलता बढ़ जाए तो प्राकृतिक संसाधन नष्ट होने लगेंगे, साथ ही सामजिक संबंधों में तनाव उत्पन्न हो जाएगा। ऐसे में अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना समाज और नैतिकता के लिये अनिवार्य हो जाता है। इस बात की पुष्टि हाल ही में अर्थ आवर शूट डेके रिपोर्ट से होती है जिससे यह पता चलता है कि जो संसाधन वर्ष भर चलना चाहिये था वह आठ माह में ही समाप्त हो गया।

प्रत्येक विचारक की तरह बुद्ध कुछ बिंदुओं पर आकर्षित करते है तो कुछ बिंदुओं पर नहीं कर पाते हैं। विवेकशीलता का लक्षण यही है कि हम अपने काम की बातें चुन लें और जो अनुपयोगी हैं, उन्हें त्याग दें। बुद्ध से जो सीखा जाना चाहिये, वह यह है कि जीवन का सार संतुलन में है, उसे किसी भी अतिवाद के रास्ते पर ले जाना गलत है। हर व्यक्ति के भीतर सृजनात्मक संभावनाएँ होती हैं, इसलिये व्यक्ति को अंधानुकरण करने के बजाय स्वयं अपना रास्ता बनाना चाहिये।


रश्मि वर्मा

सामाजिक कार्यकर्ता

मो. 88174 94455

(लेखक के स्वतंत्र विचार है)

“Khoob Chand Baghel was not only a dreamer of Chhattisgarh but he was also a great leader of social change.

 "खूब चंद बघेल न सिर्फ छत्तीसगढ़ के स्वप्न दृष्टा थे बल्कि वे सामाजिक परिवर्तन के महानायक भी थे !"

साहु रामलाल गुप्ता

                खूब चंद बघेल जी का जन्म 19 जुलाई 1900 को छत्तीसगढ़ रायपुर के पास पथरी ग्राम में हुआ था ।

            आप प्रारंभ से ही सामाजिक राजनीतिक जागरूकता से ओतप्रोत थे । अपनी मेडिकल शिक्षा के दौरान आपने पढ़ाई छोड़कर तत्कालीन स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े और कई बार जेल भी गए । आजादी मिलने के बाद भी आप


अपने जीवन के अंतिम समय तक विभिन्न राजनीतिक मंचों के साथ एवम् सामाजिक क्षेत्र में भी पूरी मजबूती के साथ अपनी उपस्थिति को आपने बनाए रखा ।

                सामाजिक असमानता, छुआछूत, और जाति भेदभाव के विरुद्ध आपने "हरिजन सेवक संघ" के मंत्री के तौर भी पूरी तन्मयता के साथ जुड़े रहे ।

"अपमानजनक परंपरा पर करारा प्रहार"

                तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में अनुसूचित जाति के लोगों का बाल नाई लोग नहीं काटते थे । इस सामाजिक असमानता के विरुद्ध आपने श्री अनंत राम बर्छिहा (भविष्य में विधायक) के साथ मिलकर एक सशक्त आंदोलन चलाया । जिसमें आपको पर्याप्त सफलता भी मिली । इस आंदोलन के कारण आपको सामाजिक बहिष्कार का दंश भी झेलना पड़ा ।

                इस मुद्दे पर अपने नाटक लिखकर जन-जन के बीच जाकर उसका सफल मंचन भी किया । जिसके लिए आपको सराहा भी गया ।

"उपजाति बंधन को तोड़ा"

                    आपने स्वयं उपजाति बंधन तोड़कर अपनी द्वितीय पुत्री की शादी दिल्लीवार कुर्मी समाज में किया । समाज ने पुनः इस मुद्दे को आधार बनाकर आपको सामाजिक बहिष्कृत का दंड दिया । आपने हिम्मत नहीं हारी और आपने अपनी तृतीय पुत्री की शादी भी "काका कालेलकर  आयोग" के सदस्य श्री रामेश्वर पटेल, बिहार (भविष्य में सांसद) से संपन्न कराई । आप सामाजिक रूढ़ियों पर सदैव करारा प्रहार करते रहे ।

"राष्ट्रीय कुर्मी महासम्मेलन"

                आपने अखिल भारतीय कुर्मी महासभा के दो-दो राष्ट्रीय अधिवेशन की अध्यक्षता भी की । प्रथम 1948 कानपुर में और द्वितीय 1966 नागपुर में । आपने राष्ट्रीय अधिवेशन में भारतीय हिंदू समाज में व्याप्त शाखाभेद, उपजातिभेद एवं जाति व्यवस्था के कारण, जो ऊंच-नीच, छुआछूत आदि असमानतावादी व्यवस्था थी । उसे समाज एवं राष्ट्रीय विरोधी करार देते हुए उसे दूर करने का आह्वान किया, ताकि राष्ट्रीय एकजुटता कायम की जा सके ।

                    "राष्ट्रीय अधिवेशन को संबोधित करते हुए आगे आपने कहा कि उपजातियां से भेदभाव मिटाना इस युग का छोटे से छोटा, हल्के से हल्का कदम होगा । सही मायने में तो हमको और आपको समस्त मानव जाति के अंदर रहने वाली ब्राह्मणवादी जाति-पांति की सड़ी एवं खड़ी व्यवस्था को ही पहले दूर करना होगा । वर्ण व्यवस्था रूपी शरीर में जाति व्यवस्था एक कोढ़ है । जो समस्त भारतीय समाज को नष्ट कर रहा है ।

"पंक्ति तोड़ो आंदोलन"

                    उसे समय छत्तीसगढ़ में शादी वगैरह के कार्यक्रम में हर जाति के लोगों को अलग-अलग पंक्ति में भोजन के लिए बैठाया जाता था । जिसे आपने "पंक्ति तोड़ो आंदोलन" चलाकर इस असामाजिक प्रथा को समाप्त करवाया । जो आगे चलकर सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में "मील का पत्थर" साबित हुआ ।

"किसबिन नाचा बंद करवाया"

                    उस समय जाति विशेष में अपने ही परिवार की बहन बेटियों से नाच-गाना आदि खुलेआम करवाया जाता था । इस तथाकथित "किसबिन नाच" को आपने कठिन प्रयास से बंद करवाया । आपने समाज से बेरोजगारी दूर करने के लिए "ग्राम उद्योग संघ" की भी स्थापना की । आपने गांव-गांव में विभिन्न प्रकार के ग्रामीण उद्योगों की स्थापना की । इस अभियान में तेल पेराई उद्योग , घानी निर्माण, हथकरघा, धान कुटाई, साबुन आदि के उद्योग स्थापित किए एवं मार्केटिंग भी करवाए ।

"शिक्षा के क्षेत्र में प्रयास"

                सन् 1958 -59 में आपने सिलियरी में जनता हाई स्कूल की स्थापना की । जिससे ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों को भी शिक्षा का अवसर मिला । आज वही स्कूल "खूबचंद बघेल शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय" के नाम से जाना जाता है ।

"विभिन्न सामाजिक राजनीतिक कार्य"

                सन् 1931 से 1969 तक आप आजीवन सामाजिक एवं राजनीतिक संघर्ष में पूरी तनमयता के साथ मशगूल रहे । सन्  1946 की अंतरिम सरकार में अपने संसदीय सचिव का दायित्व भी संभाला था ।

                आप आप रवि शंकर शुक्ल की जन विरोधी नीतियों से असहमति व्यक्त करते हुए आचार्य कृपलानी और जयप्रकाश जी के समाजवादी आंदोलन से जुड़ गए । सन 52 और 57 में आप विधायक भी निर्वाचित हुए । सन् 54 के बाद अपने समाजवादी आंदोलन की बागडोर भी छत्तीसगढ़ में संभाली । समाजवादी आंदोलन में आपके प्रमुख साथी ठाकुर प्यारेलाल सिंह, विश्वनाथ यादव एवं तामस्कर जी एडवोकेट रहे, ये सभी गांधीवादी थे ।

"जनहित के मुद्दों पर संघर्ष से आप कभी भी पीछे नहीं रहे"

                    आप आप जनहित के मुद्दे पर सदैव संघर्षरत रहे । चाहे छुई-खदान तहसील का गोली चालान कांड रहा हो या 1961 में आदिवासियों पर लोहांडीगुड़ा में गोली चालन कांड रहा हो या तकाबी के माध्यम से किसानों को लूटने का मुद्दा रहा हो । इन सभी मुद्दों पर आपने सरकारी षडयंत्र के विरुद्ध खुलकर पूरी ताकत से अपनी आवाज उठाई ।

                   कैलाश नाथ काटजू के मुख्यमंत्रित्व काल में भी आप जनहित के मुद्दे पर सदैव सरकार से टकराते रहे। चाहे सायना बांध घपला कांड हो या 1961 में धान निर्यात पर प्रतिबंध का मुद्दा रहा हो । इन सभी मुद्दों पर आपने बृजलाल वर्मा एवम् हरि प्रेम बघेल आदि के सहयोग से "धान सत्याग्रह आंदोलन" चलाया ।

"बस्तर का बहुचर्चित कांड"

                   1966 में आदिवासी राजा एवम् बस्तर नरेश प्रवीरचंद्र भंजदेव सहित 300 आदिवासी जनों की हत्या के विरोध में अपने द्वारिका प्रसाद मिश्र से खुला विरोध व्यक्त किया था ।

"किसानों को उनका हक दिलवाया"

                    भिलाई स्टील प्लांट की स्थापना के समय जिन किसानों की जमीन गई थी । उन्हें अनिवार्य रूप से नौकरी न देने पर आपने आंदोलन चलाकर किसानों को उनका हक दिलाया । इसी तरह हीराकुंड  बांध, रायगढ़ में भी किसानों को उनका हक दिलाने तक आपने संघर्ष किया ।

"छत्तीसगढ़ राज्य की परिकल्पना एवम् उनका संघर्ष"

                सन 1946 में ही आपने कांग्रेस की बैठक में छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव की चर्चा की थी । छत्तीसगढ़ के विकास के मुद्दे को लेकर अपने सन् 1948 में शुक्ला मंत्रिमंडल से त्यागपत्र भी दे दिया था ।

                छत्तीसगढ़ के मुद्दों को लेकर "क्षुब्ध छत्तीसगढ़" शीर्षक से लेख लिखकर "राष्ट्र बंधु" पेपर में छपवाया भी था । जिसमें छत्तीसगढ़ की उपेक्षा का मुद्दा मजबूती के साथ आपने उठाया था ।

                उनका कहना था कि छत्तीसगढ़ के सोए स्वाभिमान को जगाना, एवं उसके गौरव गरिमा को उजागर करना, उसे शोषण, अन्याय और दमन से मुक्त कराना ही उनका लक्ष्य है ।

                 वे विभिन्न सभाओं एवं बैठकों एवं लेखों के माध्यम से छत्तीसगढ़ की अस्मिता और उसके मुद्दे को उठाते रहे ।

                1956 में छत्तीसगढ़ राज्य की कल्पना को साकार रूप देने के लिए जुझारू एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं का एक सम्मेलन राजनांदगांव में आयोजित भी किया गया । सम्मेलन में छत्तीसगढ़ी महासभा का गठन भी किया गया । सम्मेलन में छत्तीसगढ़ राज्य का प्रस्ताव भी पारित किया गया ।

                25 सितंबर 1967 को रायपुर में छत्तीसगढ़ महासभा को पुनर्गठित किया गया । सर्वसम्मत से छत्तीसगढ़ महासभा का नाम बदलकर "छत्तीसगढ़ भातृ संघ" स्वीकार किया गया । परसराम यदु,  रेशमलाल जांगड़े, हरि ठाकुर, रामाधार चंद्रवंशी आदि सामाजिक राजनीतिक नेतृत्वकर्ताओं ने आपकी आवाज को अपनी भी आवाज दी । इस लक्ष्य में आपको बृजलाल वर्मा एवं राजा नरेश चंद्र सिंह का भी समर्थन एवं सहयोग मिला ।

                इस आंदोलन के बढ़ते प्रभाव से घबराकर तत्कालीन मुख्यमंत्री श्यामा चरण शुक्ल ने इस संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया था ।

"छत्तीसगढ़िया के मुद्दे पर उनका दृष्टिकोण"

रवि शंकर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति को अपने छत्तीसगढ़िया की परिभाषा को स्पष्ट करते हुए बताया था कि, 

                "जो छत्तीसगढ़ के हित में अपना हित समझता है और छत्तीसगढ़ के मान सम्मान को अपना मान सम्मान समझता है एवम् छत्तीसगढ़ के अपमान को अपना अपमान समझता है, वह छत्तीसगढ़ी है, चाहे वह किसी भी धर्म, भाषा, प्रांत या जाति का हो ।"

                    आजादी मिलने के बाद ही उन्हें तत्कालीन सरकार के रवैए से छत्तीसगढ़ की उपेक्षा का एहसास हो गया था । उन्होंने देखा कि शासक वर्ग छत्तीसगढ़ के शोषक वर्ग को सहयोग के साथ बढ़ावा भी दे रहा है एवं छत्तीसगढ़ की शोषित पीड़ित जनता को पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया है ।

                वरिष्ठ पत्रकार मधुकर खेर आपके बारे में लिखते हैं कि, प्रचारतंत्र का स्वतंत्र जाल न होने के कारण डॉक्टर बघेल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को वह सम्मानजनक स्थान नहीं मिल पाया जिसके कि वे हकदार थे ।"

                1965 में भीषण अकाल के समय "टाइम्स पत्रिका" की अमेरिकी महिला पत्रकार लिखती हैं कि, मेरे दो घंटे तक डॉक्टर बघेल का साक्षात्कार लेने के बाद, छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े क्षेत्र में भी ऐसे जुझारू कर्मठ नेतृत्व हो सकते हैं, इस बात पर मुझे आश्चर्य हुआ ।

                22 फरवरी 1969 को आप अपनी विशाल सामाजिक, राजनीतिक विरासत छोड़कर हम सबसे विदा हो गए ।

                छत्तीसगढ़ सरकार आज प्रतिवर्ष 2 लाख का पुरस्कार अपने छत्तीसगढ़ के माटी पुत्र डॉक्टर खूबचंद बघेल के नाम पर प्रदान करती है ।

                सच तो यह है कि आज अर्द्ध शताब्दी के बाद भी समाज के इस संघर्षशील, त्यागी, जागरूक, समाज समर्पित व्यक्तित्व का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है । उन्हें सिर्फ "छत्तीसगढ़ का स्वप्न दृष्टा" कहना उनका सही मूल्यांकन नहीं होगा । वह एक ओर जहां समर्पित व्यक्तित्व के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, वहीं इन दोनों अलंकरणों से हटकर आप सर्वप्रथम "सामाजिक न्याय को प्रतिबद्ध एक सामाजिक योद्धा" भी थे, जो इनकी वास्तविक विरासत मनाई जानी चाहिए ।

                आपके यशस्वी पौत्र चार्टर्ड अकाउंटेंट  विष्णु दत्त बघेल जी आपके आंदोलन और संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए पूरी तरह से संकल्पित है एवं उनकी विचारधारा को आगे बढ़ाने में आप सतत प्रयासरत भी हैं ।


लेखक-

साहु रामलाल गुप्ता,

मोबाइल 94077 64442.