Dalits divided into two camps due to division in reservation?

 आरक्षण में बटवारा दो खेमे में बटा दलित ?

संजीव खुदशाह

१ अगस्त २०२४ को आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के सात सदस्‍यीय पीठ के द्वारा देविन्‍दर सिंह विरूध पंजाब के बारे में फैसला आने के बाद अगड़ा दलित और पिछड़ा दलित के बीच द्वंद छि‍ड़ गया है। दोनो ओर से अपने अपने तर्क दिये जा रहे है। आज यह बहस राष्‍ट्रीय पटल पर हो रही है। अगड़े दलित उनको माना जाता है जो आजादी के बाद से लगातार नौकरी पेशा में आ रहे हैं और इस जाति में काफी मात्रा में लोग आरक्षण का लाभ लेकर उच्च पदों तक पहुंचे हैं समृद्ध साली हुए हैं। जैसे चमार, महार, अहिरवार, सतनामी, जाटव आदि आदि। वहीं दूसरे ओर पिछड़े दलित उन्हें माना जाता है जिन्हें  परिस्थितिवश या उनके अति पिछड़ापन होने के कारण उन्हें आरक्षण का लाभ उस तरह से नहीं मिल पाया जिस तरह से अगड़े दलितों को मिला है। जैसे वाल्मीकि, लालबेगी, मेहतर, डोमार, बंसोर, चुहड़ा, घसियादेवार आदि आदि। अगड़े दलितों में सबसे ज्यादा संख्या चमारों की है जो की अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग नामों से जानी जाती है। वहीं पिछड़े दलित वे हैं जो सफाई काम से जुड़े हुए हैं। यह भी अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग जाति के नाम से जाने जाते हैं। दोनों दलित बहुत बड़ी संख्या में हैं। लेकिन प्रतिनिधित्व का बटवारा बेहद असमान है। पिछड़ी दलित जाति के लोग कहते हैं कि अगड़े दलितों ने उनका हक सदियों से छीना है। उनके साथ भेदभाव किया है। उनके साथ छुआछूत बरतते हैं। वैवाहिक संबंध तो दूर उनके साथ बैठने उठने से भी कतराते हैं। उनका कहना है कि जो भेद दलितों में आज हुआ है। यह भेद पहले से ही कायम है। इस भेद को मिटाने के लिए अगड़े दलितों ने कभी कोई प्रयास नहीं किया। सिर्फ पिछड़े दलितों के हकों को मारते रहे हैं।

वही अगड़े दलितों के नेताओं का कहना है कि पिछड़े दलित लोग भ्रमित हो गए हैं। वह समझ रहे हैं कि उन्हें फायदा मिलने वाला है। लेकिन इसका फायदा गवर्नमेंट उनको नहीं देगी। सिर्फ उन्हें बहलाया जा रहा है। हमारे बीच फूट डालो राज करो की नीति का प्रयास किया जा रहा है। ताकि दलित समाज में जो एकता बनी है। वह धराशायी हो जाए। उनका कहना है कि दरअसल आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी दलित एकता से घबराई हुई है। 

यहां यह बताना जरूरी है कि याचिका कर्ता डॉक्टर ओपी शुक्ला जो की वाल्‍मीकि समाज से आते हैं, उनका कहना है कि आजादी के बाद से सफाई कामगार समाज का शोषण हुआ है। उनका प्रतिनिधित्व कहां गया ? आखिर किसने उनका प्रतिनिधित्व खाया है? यह बता दें। वह कहते हैं कि मैंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका इसीलिए डाली ताकि संविधान के अनुसार जो सबसे अंतिम व्यक्ति है। उसे इसका फायदा मिल सके। बहुत सारी ऐसी जातियां आज भी हैं जिन्हें सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। इन्हें हिस्सेदारी देने के लिए अगड़े दलितों ने कभी भी कोई प्रयास नहीं किया है। छत्‍तीसगढ़ में देवार जाति काफी पिछड़ी है।

आरोप है कि पिछड़े दलित हिंदूवादी विचारधारा के हैं इसीलिए उन्हें फायदा पहुचाने की कोशिश की जा रही है । ताकि उनका वोट बैंक समृद्ध बना रहे। यह आश्चर्य की बात है कि अगड़े दलितों के बुद्धिजीवी लेखक पत्रकार से लेकर नेता तक पिछड़े दलितों के ऊपर यह आरोप लगातार लगा रहे हैं कि अगड़े दलित बुद्धिस्ट हैं, अंबेडकरवादी हैं, अपने हक अधिकार के प्रति जागरुक हैं। लेकिन पिछड़े दलित अंबेडकर को नहीं मानते हैं और न ही वे बुद्धिज्‍म को मानते हैं। इसीलिए आज की हिंदूवादी सरकार उन्हें फायदा देकर अगड़े दलितों अंबेडकरवादी, बौद्धों को नुकसान पहुंचाना चाहती है क्योंकि इस सरकार को यह लगता है कि अगड़े दलित उन्हें वोट नहीं देते हैं।

यह भी एक सच्चाई है कि महार समाज से लेकर बाकी अगड़े दलितों की बात की जाए तो कोई भी ऐसी दलित जाति नहीं है जो की 100% बुद्धिस्ट हो। सभी जातियों में बुद्धिस्टों की संख्या औसत 30% के आसपास होगी। जो यह दावा करते हैं कि वह अंबेडकरवादी हैं और बुद्धिस्ट हैं। और यदि बात करें संघ और बीजेपी के शरण में जाने की जैसा आरोप सफाई कामगार जैसी पिछड़ी जातियों पर लगाया जाता है। तो यह भी गलत आरोप है क्योंकि अगड़ी दलित जाति के बड़े-बड़े नेता लेखक कवि नामदेव ढसाल, रामदास अठावले, उदित राज, मायावती यह ऐसे बड़े नेता है जो अगड़ी जाति के हैं। लेकिन इन्होंने अपने फायदे के लिए अंबेडकरवाद से कई कई बार समझौता किया है, संघ भाजपा के शरण में गए। बावजूद इसके आरोप सिर्फ पिछड़े दलित जातियों पर लगाया जाता है।



यहां पर दलित लेखक कंवल भारती अगड़े दलितों का पक्ष लेते हुऐ वाल्‍मीकि समुदाय 99 प्रतिशत आर एस एस और भाजपा का पिछलग्‍गू है। वे सारा आरोप पिछड़ा दलित (वाल्‍मीकि समाज) पर मढ़ रहे है। वे कहते है कि अब यह समुदाय समझ रहा है कि यह वर्गीकरण उनको एक दम आकाश में पहुंचा देगा। वह इस सच्चाई से बिल्कुल अनजान है कि आरएसएस और भाजपा उसे सिर्फ सफ़ाई कर्मचारी समुदाय ही बनाए रखना चाहता है। इससे ज्यादा कुछ नहीं।

 



 

 

वहीं समाजिक कार्यकर्ता चंदनलाल वाल्‍मीकि पिछड़ा दलित जातियों की एक प्रेस कांन्‍फ्रेस कर स्‍टेटमेंट दे रहे है कि राज्‍य सरकारें सुप्रीम कोर्ट के फैसले को शीध्र लागू करे।

 

 कई समय पूर्व से अगड़े दलित जाति के लोग यह आरोप लगाते रहे हैं कि हिंदूवाद के शरण में जाने के कारण पिछड़े दलित जातियां पीछे रह गई वे अंधी आस्था में लगी रही। उन्होंने पढ़ाई नहीं किया। जबकि यह पूरा सत्‍य नहीं है। पिछड़ी जाति के वे लोग जिन्होंने पढ़ाई किया और आगे बढ़े हुए अंबेडकरवाद के करीब पहुंचे है। क्योंकि जब आप शिक्षित हो जाते है तो अपने शोषकों और उद्धारकों में फर्क जान जाते हैं आप निश्चित रूप से उन महापुरुषों के करीब आ जाते हैं जिन्होंने आपको उठाने में अपना योगदान दिया है। चाहे वह डॉक्टर अंबेडकर हो, पेरियार हो, महात्मा फुले हो या और कोई। आजादी के बाद से ऐसे बहुत सारे बड़े लेखक बुद्धिजीवी पिछड़े दलित समाज से सामने आए हैं जिन्होंने दलित आंदोलन, साहित्‍य, अंबेडकर वाद को एक नई दिशा दी है। एडवोकेट भगवान दास, ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे बहुत सारे नाम है। तुलना करे तो पाते है कि इनका योगदान आंबेडकरिजम और बुद्धिज्‍म में कुछ कम नही रहा है।



 

इस प्रकरण में दिलीप मंडल पूरी तरह से पिछड़ा दलित के खिलाफ पोस्‍ट डाल रहे है। वे इस फेसबुक पोस्‍ट में लिखते हे कि व‍कील नितिन मेश्राम के द्वारा इस पर रिव्‍यू पिटीशन दायर हो गई । बता दू नितिन मेश्राम भी यहां अगड़ी दलित जाति का प्रतिनिधीत्‍व करते है।

 



 

इसी प्रकार एक आदिवासी कार्यकता डॉं जितेन्‍द्र मीणा लिखते है। सुप्रीम कोर्ट का ST SC सूची में वर्गीकरण, क्रीमिलेयर तक मामला नहीं रुकेगा यह अंततः राजनैतिक आरक्षण को भी ख़त्म करेगा।

ST, SC के जो नेता चुप है उन्हें समझना होगा कि RSS आपको ख़त्म करना चाहता है।

 

इन दिग्‍गजो के फेसबुक पोस्‍ट देखने के बाद सहसा कम्‍युनल एवार्ड की याद आती है। जब डॉं अंबेडकर ने अछूतों के लिए कम्‍युनल एवार्ड दिलवाया था। यही भाषा उस समय सवर्णों की थी। वे भी कह रहे थे अंग्रेज फूट डालो राज करो नीति अपना रहा है। हमारा हिन्‍दू धर्म में फूट डाला जा रहा है। अछूतों को कुछ फायदा नहीं होगा।

ये बात तो तय है कि दलित आदिवासियों में बहुतायत जाति आज भी बहुत पिछड़ी है उन तक देश के संसाधन सुविधाएं नहीं पहुची है। इसमें उनकी पुश्‍तैनी पेशे की समस्‍या है जो विकराल है आईये जानने की कोशिश करते है।

पुश्तैनी पेशे की समस्या



अगड़े दलित कहते हैं कि यह फैसला विधि सम्‍मत नहीं है। यह फूट डालो राज करो जैसा है। इस फैसले से दलितों में दो फाड़ हो जायेगा, वैमनस्य बढ़ेगा। वे कहते है कि उन्होंने अपना गंदा पुश्तैनी पेशा बहुत पहले छोड़ दिया था। लेकिन पिछड़े दलित जाति के लोगों ने अपना गंदा पुश्तैनी पेशा नहीं छोड़ा। जबकि डॉ अंबेडकर ने १९३० में यह आह्वान किया था कि अछूत अपना गंदा पेशा छोड़ दें। पिछड़े दलित जातियों में बहुत बड़ी संख्या सफाई कामगार जातियों की हैं। यह सत्य है कि इन्होंने अपना पुश्‍तैनी गंदा पेशा नहीं छोड़ा। इसके कारण इनमें उत्थान नहीं हो पाया। यह थोड़ा बहुत जागरूक हुई तो भी इन्होंने उस गंदे पेशे में अधिक वेतन और सुविधा की मांग करने लगे। कई जगह ऐसा भी देखने मिला की वे इन पेशों में 100% आरक्षण की मांग करने लगे। ऐसे भी उदाहरण हैं जबकि इन पिछड़े दलित जातियों के कुछ लोगों ने अपने गंदे पेशे को छोड़कर अच्छे पेशे को अपनाया और वह आगे तरक्की कर गये।

         दलितों के पिछड़े होने का कारण

1 दलितों के पिछड़ेपन के लिए सरकार जिम्मेदार है-

 आज सुप्रीम कोर्ट का जो वर्डिक्ट आया है सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि यह दलित पिछड़ा है इनका अधिकार मिलना चाहिए। अलग से आरक्षण मिलना चाहिए। लेकिन यह क्यों पिछड़े रहे गए हैं इसका खुलासा सुप्रीम कोर्ट के द्वारा नहीं किया गया है। दरअसल इन पिछड़े रह गए दलितों के लिए सरकार को कई योजनाएं चलानी चाहिए थी। जैसे कि उनके लिए अलग से कोचिंग संस्थान खोला जाता। अलग से शिक्षा संस्थान शुरू किए जाते। उनके लिए अलग से हॉस्टल की व्यवस्था की जाती। ताकि यह लोग पढ़ते, आगे बढ़ते और इनको विदेश भेजने की भी योजनाएं बनाई जाती। यह कानून लाया जाता की इन अमानवीय पेशा को कड़ाइ्र से बंद किया जाय। तो निश्चित रूप से यह दलित बहुत आगे बढ़ते और बाकी लोगों के समकक्ष आ सकते थे। लेकिन सरकार ने इन सफाई कामगार दलितों के और अन्य अति पिछड़े दलित जो की काफी पिछड़े रह गए हैं उनके उत्थान के लिए अलग से कोई भी योजना या कोई भी कार्यक्रम नहीं चलाया। इसलिए यह दलित पिछड़े रह गए। यहां तक की सफाई कामगार आयोग बनने के बावजूद इन आयोग ने भी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया। न ही ऐसे कदम उठाने की उन्होंने सरकार से सिफारिश की। जिससे कि यह लोग आगे बढ़ सकते थे। इन दलितों के पिछड़ा होने का सबसे बड़ा कारण स्वयं सरकार है।

2 दलितों में दलित बने रहने के लिए यह स्वयं जिम्मेदार हैं।

इन पिछड़े दलितों के बदहाली के पीछे यह स्वयं जिम्मेदार हैं। इन्हें चाहिए तो यह था कि यह डॉ अंबेडकर और दूसरे महापुरुषों के आह्वान को मानते और अपने गंदे पेशे को छोड़ देते। लेकिन जितने दलित पिछड़े रह गए हैं इन लोगों ने अपना पुश्तैनी घिनौना पेशा को बनाए रखा। उसे नहीं छोड़ा और न ही यह लोग शिक्षा की तरफ आगे आएन ही अपने जायज मांगों के लिए इन्होंने कोई संघर्ष किया। आज इन दलितों में पढ़े-लिखे उम्मीदवार ढूंढना बहुत मुश्किल है। यदि आप इन दलितों को देखेंगे तो उनकी पढ़ाई का एवरेज आठवीं क्लास के आसपास आता है। ऐसे में अगर इन्हें अलग से रिजर्वेशन दे भी दिया जाएगा। तो भला यह कैसे कोई पद को पाने के या उसे रिजर्व शीट में बैठने की योग्य हो पाएंगे? क्योंकि शिक्षा का स्तर इन लोगों ने बिल्कुल भी नहीं बढ़ाया। यह पिछड़े दलित किसी न किसी प्रकार से ऋषियों के फेर में रहे, वाल्मीकि सुदर्शन, मातंग, देवक ऋषि गोगा पीर आदि आदि। इन लोगों ने शिक्षा का हथियार ढूंढने के बजाय ऋषियों मुनियों में अपना उद्धारक ढूंढने की कोशिश किया। उन्हीं के फेर में यह पड़े रहे। आज भी यही कर रहे है। जिसके लिए यह स्वयं जिम्मेदार है। इनके बीच के नेताओ की भी इसकी जिम्मेदारी बनती है। जिन्होंने अपने समाज को अंधविश्वास में धकेल दिया डॉ अंबेडकर पेरियार फूले जैसे वंचितों के उधारकों से इस समाज को दूर रखा और उन्हें बताया कि यह समाज सेवक उनके नहीं चमारों के है। इस कारण यह दलित जैसे-जैसे समय बढ़ता गया और भी बदहाली में चले गए। जिसके लिए यह समाज स्वयं जिम्मेदार है।

3 अगड़ी दलित जातियों की जिम्मेदारी

अगड़ी दलित जातियों ने डॉ अंबेडकर के ज्यादा बातों को माना। सबसे पहले उन्होंने डॉक्टर अंबेडकर के आह्वान पर अपने गंदे पेशों को त्यागा। इसके कारण उनके ऊपर जुल्म हुए। कई दलित मारे गए। पुश्तैनी पेशे को इनकार करने की वजह से इनको अपनी संपत्ति, अपना घर द्वार सब छोड़ना पड़ा। इन्होंने पलायन किया और यहां पर भूखे प्यासे रहकर उन्होंने अपने बच्चों को पढ़ाया आगे बढ़ाया। संघर्ष किया डॉ अंबेडकर के बताए मार्ग पर चला। इन्होंने संघर्ष करके एक मुकाम हासिल किया और आज वह ऐसी स्थिति में है कि वह ज्ञान के क्षेत्र में सवर्ण को भी टक्कर देते हैं। भले ही यह आर्थिक रूप से ज्यादा संपन्न नहीं हो पाए हैं। लेकिन इन दलितों की यह जिम्मेदारी थी कि वह बाकी दलित भाइयों के बीच में जाते। उनके बीच में जाकर शिक्षा का प्रचार करते। उन्हें स्कूल जाने के लिए प्रेरित करते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ यह दलित अपना स्वयं का ही उत्थान करने में लगे रहे। और पेबैक टू सोसाइटी नहीं किया या उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को केवल अपनी जाति और अपने परिवार तक ही सीमित रखा। जबकि उन्हें पूरे वंचित समाज के बीच जाकर के काम करना चाहिए था। उन्होंने नहीं किया सिर्फ यह बात नहीं है बल्कि उनके साथ में उन्होंने भेदभाव रखा और रोटी बेटी का भी संबंध उनसे नहीं बनाया।

सुप्रीम कोर्ट को इसके साथ साथ निम्नलिखित निर्णय लेना चाहिए था।

पहला

सरकार को कटघरे में खड़ा करती की आजादी के 75 साल बाद भी इन लोगों को पिछड़ा क्यों रखा गया है? क्यों उनके उत्थान के लिए कोई योजनाएं नहीं चलाई गई है?

दूसरा

गंदे पेशे से छुटकारा देने के लिए सरकार को निर्देशित किया जाना चाहिए था। क्योंकि अपमानजनक (अमानवीय) पेशे का भारत में किया जाना पूरे भारतवर्ष के लिए शर्म की बात है और संविधान के भी विरुद्ध है। सरकार को यह निर्देश देना चाहिए था कि जल्द से जल्द इन पेशे में लगे लोगों को हटाया जाए और मानव की जगह मशीन का उपयोग किया जाए । साथ-साथ इन सफाई कामगारों का और गंदे पेशे वालों का पुनर्वास किया जाए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कोई निर्देश जारी नहीं किया।

तीसरा

माननीय सुप्रीम कोर्ट से यह अपेक्षा थी कि अजा अजजा में जो आरक्षण दिया जाता है वह आरक्षण बहुत मात्रा में नॉट फाउंड सूटेबल  कहकर जनरल पोस्ट भर दिए जाते हैं। कई कई साल तक बैकलॉग की भर्तियां नहीं निकाली जाती है। निर्देश दिया जाना चाहिए था कि बैकलॉग की भर्तियां तुरंत करें और नॉट फाउंड सूटेबल को सामान्‍य में समायोजित न करके अगली भर्ती में उसकी वैकेंसी फिर से उसी केटेगरी में निकाली जाए।

जाहिर है की सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पिछड़े तबके में खुशी का माहौल है। वहीं अगड़े दलितों में से कुछ इसके विरूध में 21 अगस्‍त को भारत बंद का ऐलान कर रहे है। पिछड़े दलितों आदिवासियों को मुख्‍य धारा में लाने के लिए हमें बहुत सारे कदम उठाने पड़ेगें सिर्फ आरक्षण से काम नहीं चलेगा तभी हमारे देश में कोई पीछे नहीं रह जायेगा। न ही किसी को अपने विकास के लिए गुहार लगाने की जरूरत पड़ेगी। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के इस पहल का स्‍वागत किया जाना चाहिए।

 


समाज की एकता के लिए अम्बेडकरी आंदोलन को वंचित समाज के अधिकारों के लिए आगे आना होगा

 

समाज की एकता के लिए अम्बेडकरी आंदोलन को वंचित समाज के अधिकारों के लिए आगे आना होगा

विद्याभूषण रावत की अम्बेडकरी साहित्यकार संजीव खुदशाह से बातचीत



(समाज वीकली)- संजीव खुदशाह का जन्म 12 फरवरी 1973 को बिलासपुर छत्तीसगढ़ में हुआ। आप देश में चोटी के दलित लेखकों में शुमार किए जाते है। उनकी रचनाएं  देश की लगभग सभी अग्रणी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है।संजीव जी की  “सफाई कामगार समुदाय” राधाकृष्‍ण प्रकाशन से एवं “आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग” शिल्‍पायन से, “दलित चेतना और कुछ जरुरी सवाल” शिल्‍पायन से इनकी चर्चित कृतियों मे शामिल है। संजीव खुदशाह यू ट्यूब चैनल DMAindia online के प्रधान संपादक है। वर्तमान में संजीव जर्नलिज्म डिपार्मेंट से पीएचडी कर रहे हैं। वह कानून की पढ़ाई भी कर चुके हैं और महत्वपूर्ण बात ये की वंचित समूहों मे सबसे भी भी सबसे वंचित समाज से आते हैं और इसलिए उनके दिल की बात और भी महत्वपूर्ण हो जाती हैं। वर्षों पूर्व अम्बेडकरी आंदोलन से जुडने के बाद और लेखन के जरिए सम्पूर्ण दलित समाज को जगाने की बात कहने वाले संजीव आज आहत हैं क्योंकि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट मे अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण के फैसले का स्वागत किया। इस बातचीत मे हम संजीव खुदशाह के संघर्षों और वर्गीकरण के इस सवाल से पैदा हुई सामाजिक स्थिति पर बात करेंगे।

आप तो अम्बेडकरी आंदोलन का अभिन्न अंग रहे हैं और हमेशा से बाबा साहब के मिशन को लेकर सक्रिय भी रहे। आपने अपने मंचों पर और दूसरों के मंचों पर भी दलित एकता की बाते कही हैं लेकिन आज आप पर हमला हो रहा है क्योंकि आपने अति दलित जातियों के आरक्षण के संदर्भ मे सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का समर्थन किया है। सर्वप्रथम तो हमे ये बताए कि आखिर आप पर किस प्रकार का हमला हो रहा है और कौन लोग कर रहे हैं ?

संजीव : दरअसल मैं अति दलित का समर्थन नहीं कर रहा हूं मैं उन लोगों का समर्थन कर रहा हूं जो वास्तव में वंचित हैं और इस समय पिछड़ा दलित जिसे महादलित अति दलित भी कह सकते हैं। वह वास्तव में बहुत ही पीछे है और शासन संसाधन की सुविधा उस तक अभी नहीं पहुंची है। इस समय मेरी यह जिम्मेदारी है कि एक विचारक और बुद्धिजीवी होने के नाते मैं अपने विचार पर अडिग रहूं और मैंने वह किया। मैं विभिन्न मंचों पर यह कह रहा हूं कि अगड़ी दलित और पिछड़े दलित दोनों जातियों को आपस में बैठकर बातचीत करनी चाहिए। पिछड़ापन क्यों है? इस पर विचार करना चाहिए। क्योंकि इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि एक बहुत बड़ी संख्या में दलित जातियां पिछड़ेपन का शिकार हैं। मुझे नासमझ बताया जा रहा है यह कहा जा रहा है कि मैं आरएसएस या बीजेपी का एजेंट हूं। मेरी समझ पर भी प्रश्न चिन्ह उठाया जा रहा है और उन लोगों के द्वारा उठाए जा रहा है जो मेरे काफी करीब है। जिनके साथ मैंने आंदोलनों में हिस्सा लिया है। इस कारण में दुखी भी हूं क्योंकि वह मेरी बात को समझने के लिए, सुनने के लिए तैयार नहीं है।

इतने वर्षों तक सक्रिय रहने के बाद क्या आपको लगता है कि हमारे नेता और बुद्धिजीवी अपनी जातियों के ढांचे या खांचे से आगे नहीं निकल पाए हैं ?

संजीव : अभी के 21 अगस्त वाले आंदोलन से यह बात छनकर आती है कि दलित आंदोलन दरअसल कुछ जातियों का आंदोलन है। इन जातियों को सिर्फ अपने स्वार्थ की चिंता है। बाकी दलित जातियों के बारे में यह सोचने और सुनने को भी तैयार नहीं है। इसका उदाहरण अगर आपको देखना है तो अंबेडकर जयंती के प्रोग्राम में आप देख सकते हैं। लिखा होता है सार्वजनिक अंबेडकर जयंती समारोह लेकिन उसके अध्यक्ष से लेकर सारे पदाधिकारी एक ही जाति समाज से होते हैं। शासन से मिलने वाले रकम का यह लोग बंदर बांट करते हैं। इसमें भी किसी और को हिस्सेदारी नहीं देते हैं और आज यही लोग बड़ी-बड़ी बात कर रहे हैं कि दलितों को बाटा हुआ है। दरअसल बांटने वाले यह खुद हैं। यही हाल-चाल देश भर के बुद्ध विहारों का भी है जो की सिर्फ बुद्ध विहार नहीं बल्कि जाति पंचायत का अड्डा है।

आपने बुद्ध विहारों को जाति पंचायत का अड्डा करार दे दिया है। क्या ये कुछ अधिक नहीं हो गया ? आज तो देश भर मे न केवल दलित समुदाय अपितु पिछड़े वर्ग के लोग भी बौद्धह धम्म मे आ रहे हैं और भानते लोग और भिखु लोग भी विभिन्न समुदायों से निकल रहे हैं। आखिर आपको ऐसा क्यों लगा कि वे जाति पंचायत का अड्डा बन गए हैं।

संजीव : बुध विहार डॉक्टर अंबेडकर के ड्रीम प्रोजेक्ट का हिस्सा होना चाहिए था । डॉक्टर अंबेडकर ने कई सपने देखे हैं लेकिन उनके दो सपने को उनका ड्रीम प्रोजेक्ट कहा जाता है। पहला जाति का उन्मूलन दूसरा सबको प्रतिनिधित्व। बुद्ध विहार में आकर लोग जाति का उन्मूलन करना बंद कर दिये और गैरों के लिए बुध विहार में ताले जड़ दिए गए। बुध विहार को देखकर आप यह आसानी से बता सकते हैं की कौन सा बुध विहार किस जाति का है।

जब आपकी आलोचना हो रही थी तो क्या आपको लगा कि आपके द्वारा उठाए गए प्रश्न वाजिब हैं ?

संजीव : मै इन आलोचनाओं को समझने की कोशिश कर रहा हूं और उनका चिंतन मनन करता हूं तो मुझे यह समझ में आता है कि मैंने जो प्रश्न उठाए हैं या मैंने जो स्टैंड लिया है वह बिल्कुल सही है।

सुप्रीम कोर्ट के वर्गीकरण के प्रश्न पर दिए आदेश पर आपकी राय ?

संजीव : सुप्रीम कोर्ट में दो मुद्दे उठाएं गए पहले क्रीमी लेयर का मुद्दा दूसरा वर्गीकरण का मुद्दा। क्रीमी लेयर के मुद्दे से में सहमत नहीं हूं क्योंकि दलित की परेशानी भेदभाव छुआछूत से ताल्लुक रखती है। आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है यह प्रतिनिधित्व है जो की जब तक गैर बराबरी है तब तक चलनी चाहिए।

लेकिन वर्गीकरण को मैं सकारात्मक नजरिए से देखता हूं। मैं खुद डोमार जैसी अति पिछड़े दलित जाति से ताल्लुक रखता हूं और मैं यह देख रहा हूं कि वाल्मीकि समेत अन्य सफाई कामगार जातियां आज भी विपरीत परिस्थिति में काम कर रही है। जीवन यापन कर रही हैं और दलित आरक्षण में इनका बहुत बड़ा हिस्सा है। लेकिन उस हिस्से की नौकरियां इन्हें नहीं मिल रही है। निश्चित रूप से आरक्षण के वर्गीकरण से पीछे रह गई जातियों को फायदा मिलेगा। अगड़े दलित जो आरोप लगा रहे हैं की इससे दलित बट जाएंगे या आप में कोई नयापन नहीं है। यही बात कम्युनल अवार्ड आने पर अगड़ी जाति (सवर्ण) भी कहती रही है।

 आज दलित आंदोलन या अम्बेडकरी आंदोलन इस विषय पर पूरी तरह से विभाजित दिखता है। जो लोग सुप्रीम कोर्ट के आदेश की आलोचना कर रहे हैं वे आरोप लगा रहे हैं कि उनकी जातियों पर हकमारी का आरोप लगाया जा रहा है जो गलत है लेकिन ये भी कोई समझदारी नहीं कि अपने अन्य भाई बहिनों की अस्मिताओ के प्रश्न को बिल्कुल ही इग्नोर कर दिया जाए। क्या आपको कभी ये महसूस हुआ कि इन समुदायों की बैट अम्बेडकरी राजनीति और दर्शन का हिस्सा नहीं बन पा रही हैं क्योंकि आप तो सभी मुखधारा के कार्यक्रमों से जुड़े रहे हैं। 

संजीव : यह बात सही है कि हक मारा जा रहा है या कोई आपका हक छीन रहा है यह कहना गलत है। लेकिन इन जातियों के पिछड़ेपन से इनकार नहीं किया जा सकता। जैसे पहले अछूत पिछड़े थे आरक्षण आने के बाद वे आगे बढ़े हैं। इसी प्रकार पिछड़े अछूत को अलग से आरक्षण मिलेगा तो वह भी आगे बढ़ेंगे।

आश्चर्य की बात है कि अगड़े दलित अपने से कमजोर वंचितों की आवाज सुनने तक को तैयार नहीं है, मनना तो दूर की बात है। यह किसी भी हाल में अंबेडकरवादी नहीं हो सकते संविधान वादी नहीं हो सकते यह संविधान विरोधी है। क्योंकि संविधान कहता है की सबसे अंतिम व्यक्ति को उसका लाभ मिले। जिस पर यह रोड़ा लगा रहे हैं। यह बात सही है कि पिछड़े दलितों की मांगे, उनकी समस्याएं अंबेडकर राजनीति और उसके दर्शन का हिस्सा नहीं बन पा रही है। क्योंकि यहां पर भी वह इग्नोर होते हैं। उपेक्षित किए जाते हैं। भेदभाव का शिकार होते हैं। बहुजन समाज पार्टी ने सीवर में काम करने वाले लोगों की समस्याओं को कभी नहीं उठाया।

आप एक साहित्यकार हैं जिसके बारे मे कहते हैं कि वह समाज को नई दिशा देता है और भीड़ के बीच मे भी न्याय के साथ खड़ा रहता है चाहे अकेले ही क्यों न हो। क्या साहित्य अब जाति के ढांचे को नहीं तोड़ पा रहा है। ऐसा कहते हैं कि बुद्धिजीवी अपने आंदोलन और राजनीति को दिशा देता है लेकिन आज वह शायद पार्टियों और आंदोलनों के पीछे अनुसरण की भूमिका मे होकर उनका ‘वर्णन’ कर रहा है, उन्हे दिशा नहीं दे रहा। 

संजीव : मुझे लगता है कि इस समय मेरी जिम्मेदारी यह है कि मैं वंचितों के हित के लिए खड़ा हूं चले चाहे मुझे अकेला कर दिया जाए। वंचित दलित में भी बहुत सारे लोग अगड़े दलितों के बातों में गुमराह हो रहे हैं और उन्हें लगता है कि उनके साथ रहना चाहिए। इमोशनल ब्लैकमेलिंग का भी वे शिकार हो रहे हैं। अगड़े दलित भी हमारे आंदोलन के साथी हैं हम खुद भी उनके इस रुख से परेशान और चिंतित हैं। वे पिछड़े दलितों के खिलाफ इस प्रकार आंदोलन करेंगे आज भी यकीन नहीं होता है।

 आपने तो वर्षों पूर्व स्वच्छकार समाज की जातियों को लेकर एक पुस्तक लिखी। क्या आपसे पहले कम से कम इस दौर मे किसी ने इन समाजों के हालात पर कुछ लिखा ? यदि नहीं तो क्यों ?

संजीव : समस्या यही है दलित आंदोलन में इन लोगों ने सफाई कामगार समुदाय की समस्याओं को न तो पढ़ने की कोशिश की न जानने की कोशिश की। इन पर लिखना तो बहुत दूर की बात है। इसीलिए आज भी यह उन समस्याओं से अनभिज्ञ है और न जानना चाहते हैं। पिछड़े दलितों के खिलाफ आंदोलन करना इसका बहुत बड़ा उदाहरण है।

इन्होंने स्वच्छकार समुदाय पर इसलिए नहीं लिखा क्योंकि इन दोनों वर्गों में भेद बहुत पहले से है।  सुप्रीम कोर्ट ने इन भेदो को सिर्फ रेखांकित किया है। बुद्ध विहार, अंबेडकर जयंती के कार्यक्रमों में यह भेद स्पष्ट रूप से दिखता है।

 ये आरोप लगाए जा रहे हैं कि स्वच्छकार समाज बाबा साहब अंबेडकर के साथ नहीं आए। बहुत से लोग ये कह रहे हैं की ये तो हिन्दू हैं और भाजपा को वोट देते हैं इसलिए इन्हे अनुसूचित जातियों के आरक्षण से बाहर कर ई डब्ल्यू एस मे डाल दिया जाए । ऐसे प्रश्नों का आप कैसे जवाब देंगे। 

संजीव : जिन लोगों ने डॉक्टर अंबेडकर को नहीं पढ़ा है वही ऐसी बात कह सकते हैं कि यह समाज अंबेडकर के साथ नहीं आए आप रामरतन जानोरकर की बात कीजिए आप एडवोकेट भगवान दास की बात कीजिए। ऐसे बहुत सारे नाम है। यह सब ऐसे लोग हैं जिन्होंने शुरुआत से बाबा साहब के साथ कदम ताल मिलाकर चला है। इसके लिए इन्हें एडवोकेट भगवान दास की किताब बाबा साहब और भंगी जातियां पढ़ना चाहिए।

यदि आप भेदभाव करेंगे अपने भाई से, अपने भाई को नीचा दिखाएंगे तो मजबूर होकर वह भाई उनके पास जाएगा जो उनके साथ भेदभाव नहीं करते हैं। उन्हें प्यार से दुलारते हैं। आरएसएस के लोगों ने उन तक अपनी पहुंच बनाई है और उनकी समस्याओं को समझने का प्रयास किया है। भले ही उनका मकसद कुछ और रहा हो लेकिन अगड़े दलित ने अपने इन वंचित भाइयों के लिए क्या किया? शिवाय उनके खिलाफ आंदोलन करने के। 21 तारीख के आंदोलन ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया है।

आरएसएस और भाजपा को वोट देने की बात करना बहुत गलत है। कौन किसको वोट देता है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि आरएसएस और भाजपा के सांसद जो अनुसूचित जाति आरक्षित सीट से आए हैं उनकी जाति आप देख लीजिए। वह सब अगड़ी दलित जाति के हैं न की वंचित दलित जातियों के।

इतने लंबे समय तक अम्बेडकरी आंदोलन से जुड़े रहने के बाद क्या आपको लगता है कि बुद्धिजीवियों ने एक बहुत बड़ा अवसर खो दिया जिससे पूरे दलित समाज को एक किया जा सकता था।

संजीव : बिल्कुल सही कहा आपने अगड़े दलित बुद्धिजीवियों ने एक बहुत बड़ा अवसर खो दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस वर्डिक्ट के आने के बाद उन्हें पिछड़े दलित जातियों के प्रतिनिधियों से बुद्धिजीवियों से बातचीत करनी चाहिए थी। उन्हें विश्वास में लेना था लेकिन उन्होंने यह अवसर खो दिया। सोशल मीडिया में वंचित दलित जातियों को इतनी गालियां दी जा रही हैं इतना अपमानित किया जा रहा है कि उतना अपमान सवर्ण जातियां भी नहीं करती हैं। रमेश भंगी की फेसबुक पोस्ट में देखें किस प्रकार गालियां दी जा रही है क्या ये एट्रोसिटी नहीं है।

क्या आपको लगता है कि सोशल मीडिया के इस दौर मे बहुत से लोगों ने इसे ‘आपदा मे अवसर’ मानकर समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ाया क्योंकि दो विभिन्न समुदायों को एक साथ लाने की बजाए पूरी बहस आरक्षण खत्म करने की बात पर या गई जबकि 1990 के बाद से आरक्षण पर हमला है लेकिन इनमे से अधिकांश उस समय से चुप थे और कुछ तो निजीकरण को अच्छा भी बता रहे थे। 

संजीव : इसका फायदा सवर्ण समाज ने उठाया है और दोनों समुदायों के बीच वह वैमनस्य बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया है। इस काम में अगड़े दलितों ने आग में घी का काम किया है।

 आपका अपना जीवन भी मुश्किल हालातों से निकला है। आप हमे अपनी पारिवारिक पृष्टभूमि के विषय मे बताएं। 

संजीव : क्योंकि हम और हमारा परिवार जातिय पहचान के साथ जी रहा था। इसीलिए भेदभाव बचपन से झेलना पड़ा। गरीबी लाचारी से जीवन आगे बढ़ा। शिक्षा ने उभरने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। खास तौर पर डॉक्टर अंबेडकर से प्रेरणा मिलने के बाद अपने शोषकों और उद्धारकों में फर्क करना आ गया और इसके बाद हम लोगों को बाबा साहब से परिचय करवाने में अपना जीवन लगा दिए।

अम्बेडकरवाद के संपर्क मे आप कैसे और कब आए। 

संजीव : मेरे मामा प्रमोद खुरशैल जी कांशीराम साहब के साथ काम करते थे।  जब उन्होंने बामसेफ का गठन किया था मामा जी ने ही एक किताब लाकर दी जिसमें डॉक्टर अंबेडकर की जीवनी थी तब मेरी उम्र 10, 12 साल की रही होगी। वे घोर अंबेडकरवादी थे। मेरे पिताजी भी ने बताया की डॉक्टर अंबेडकर की वजह से आज हम थोड़ी बहुत सुख सुविधा उठा रहे हैं। लेकिन जीवनी पढ़ने के बाद में मेरे भीतर बदलाव हुए और मुझे भी बाबा साहब जैसा शिक्षित होने की प्रेरणा मिली‌। शिक्षा के सहारे मैं आगे बढ़ता गया।

 वर्तमान के हालातों मे जब विभिन्न समुदायों के मध्य दूरिया बढ़ चुकी हैं, उसे कैसे पाटेंगे।  इसकी पहल कौन करेगा और क्यों ?

संजीव : खाई पाटने का एक ही तरीका है। “बात” मैं मानता हूं की “बात करेंगे तो बात बनेगी” एक दूसरे के बीच में कन्वर्सेशन चलते रहना चाहिए। तभी दूरी खत्म होगी और यह खाई पाटी जा सकती है। अगड़े दलितों की जिम्मेदारी है कि वह पिछड़े दलितों की समस्याओं को समझें और उसे दूर करने का प्रयास करें। इसमें उन्हें अपने स्वार्थ को भुलाना होगा।

 क्या इस दौर मे कभी आपको ये लगा कि आप गलत जगह पर थे क्योंकि जब जातीय हितों का प्रश्न उठा तो सबसे हासिए के लोगों के साथ खड़े होने के बजाए लोग उन्हे ही कोसने लग गए। 

संजीव : बिल्कुल मैं सहमत हूं जब ऐसा मौका आया की हासिए पर खड़े पिछड़े दलित के साथ होना चाहिए था। तब तथा कथित अंबेडकरवादी अगड़े दलित उन्हें मदद करने के बजाय कोसने में लग गए। क्योंकि उनका जातिय हित टकरा रहा था। अंबेडकर वाद और संविधान यह नहीं सिखाता। संविधान कहता है की सबसे अंतिम व्यक्ति को संसाधन, सुविधाएं और न्याय मिलनी चाहिए।

क्या आरक्षण का वर्गीकरण करना जातियों को बांटना है?

संजीव : मैं इस बात से असहमत हूं डॉ अंबेडकर ने जाति का वर्गीकरण पहले भी किया था। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग। क्या उन्होंने इन्हें बांटने का काम किया? बात गलत है। दरअसल वर्गीकरण करने से यह पता चलता है कि किस पर कितना काम करने की जरूरत है। यदि कोई समाज अपने आप को काबिल समझता है तो इस वर्गीकरण का समर्थन करना चाहिए ना कि घबराना चाहिए। यदि वर्गीकरण गलत था तो डॉक्टर अंबेडकर को भी गलत ठहराएंगे आप?

अम्बेडकरी आंदोलन के साथियों विशेषकर बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों से क्या कहेंगे आप ?

अंबेडकर आंदोलन के साथी बुद्धिजीवी और साहित्यकार से मैं यही आशा करूंगा कि वह ऐसे विकट समय में एक दूसरे का साथ ना छोड़े। एक दूसरे का अपमान न करें। वंचित दलितों की समस्याओं को समझें और उनके पक्ष में खड़े रहे। मतभेद जरूर हो लेकिन मन भेद न हो।

अभी-अभी खबर आई है कि भीम आर्मी के लोगों ने वाल्मीकि जाति के कुछ सदस्यों से मारपीट की है सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को लेकर। ऐसे समय में वैमनस्यता को कम करने के लिए अंबेडकरवादियों और बुद्धिजीवी को सामने आना होगा।

Pali language is The Mother of Sanskrit, Evolution of Indian language and script, पाली संस्कृत भाषा

आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की जननी है। लेकिन नई खोज और पुरातात्विक सबूत बताते हैं की संस्कृत का जन्म पाली भाषा से हुआ है। और भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत नहीं बल्कि पाली भाषा है। यही नहीं ब्राह्मी लिपि ने भारत की तमाम लिपियां को जन्म दिया है। इस वीडियो में देखिए भारतीय भाषाओं का विकास कैसे हुआ।

The journey from a Devdasi to Lata Mangeshkar

 

एक देवदासी से लता मंगेशकर तक का सफर

संजीव खुदशाह

लता मंगेशकर एक देवदासी परिवार से आती थी। आप समझ सकते हैं कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में उन्हें कितना संघर्ष करना पड़ा होगा। मेंस्ट्रीम मीडिया में किसी खास जाति का कब्जा रहा है। यह लोग अति प्रसिद्ध लोगों को उची जाति का या उससे संबंधित बताने की साजिश करते रहे हैं। यह साजिश आज की नहीं है बुध्‍द, कबीर, रैदास, अंबेडकर के साथ भी ऐसी ही कोशिश की गई। आइए मैं बताता हूं कि लता मंगेशकर दरअसल किस परिवार से ताल्लुक रखती थी। क्योंकि मैं लता के उस गांव तक गया हूं एवं उस मंदिर भी मेरा जाना हुआ है जहां लता का परिवार, उसकी दादी देवदासी थी। पिता उस मंदिर में बाजा बजाया करते थे।

Devdasi Lata Mangeshkar


लता मंगेशकर के दादा गणेश गोवा के मंगेश नाम के गांव में रहा करते थे। वही एक मंदिर है जिसका नाम मंगेश नाथ मंदिर है। गणेश जी यही मंदिर में बाजा बजाया करते थे। यह बात मंगेश गांव के लोग एवं उनके पुजारी आज भी बताते हैं। जाहिर है बाजा बजाने वाले लोग ब्राह्मण नहीं होते। गणेश ने इसी मंदिर की देवदासी येसूबाई से शादी की। जैसा कि जगजाहिर है। देवदासियों का पुजारियों द्वारा यौन उत्पीड़न किया जाता रहा है। इसलिए किसी भी पुरुष का देवदासी के साथ विवाह अच्छा नहीं माना जाता है। यदि गणेश ब्राह्मण होते तो उन्हें बहिष्कृत कर दिया जाता है। लेकिन उन्हें एवं उनके देवदासी पुत्र दीनानाथ को मंदिर में बाजा बजाने का काम करने दिया गया।

गरीबी परिस्‍थति होने के कारण बाद में दीनानाथ इंदौर आ गए। चूकिं देवदासी परिवार अपने नाम के साथ उस मंदिर का नाम जोड़ते हैं। जिस मंदिर में उन्होंने काम किया है। उसी परंपरा के अनुसार दीनानाथ ने अपने नाम के साथ मंदिर का नाम मंगेशकर जोड़ लिया। उन्होंने यहां भी जीविका उपार्जन के लिए गाने बजाने का काम शुरू किया। यदि वे उची जाति के होते तो कतई ऐसा नहीं करते, क्योंकि उस जमाने में यह काम नीची जाति के लोग ही किया करते थे। वे नाटक किया करते थे। ज्यादातर महिलाओं के पात्र निभाते थे। दीनानाथ मंगेशकर ने पहली शादी नर्मदा से कि उन्हें एक पुत्री लतिका प्राप्त हुई। मां बेटी का देहांत जल्द हो गया। बाद में दीनानाथ ने नर्मदा की बहन सेवंती से विवाह किया। जिनसे उन्हें लता, मीणा, आशा, उषा नामक पुत्रियों एवं हृदयनाथ नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई।

देवदासी पर किताब लिखने वाले अनिल चावला पृष्ठ क्रमांक 6 पर लिखते हैं कि The contribution of devadasis to music is also significant. MS Subbulakshmi, Lata Mangeshkar and her sister Asha Bhonsle (the three most renowned women singers of India) trace their lineage to devadasi community. Devadasis, as a community, developed distinct customs, practices and traditions that were best suited to enable them to live as artists without suppressing their physical and emotional needs. This professional community was controlled by women and was matriarchal.   एमएस सुब्बुलक्ष्मी लता मंगेशकर और उनकी बहन आशा भोंसले भारत की 3 सबसे प्रसिद्ध महिला गायिकाएं देवदासी वंश समुदाय से आती हैं। देवदासियों ने एक अलग सामुदायिक पहचान रीति रिवाज प्रथाओं परंपराओं को विकसित किया। जो उनकी शारीरिक और भावनात्मक जरूरतों को दबाए बिना कलाकारों के रूप में सक्षम बनाने के लिए सबसे उपयुक्त है। यह पेशेवर समुदाय महिलाओं द्वारा नियंत्रित था और मातृसत्तात्मक था।[1]

लता मंगेशकर अपने एक इंटरव्यू में बताती है कि उन्हें पहले हृदया के नाम से जाना जाता था। लेकिन उनके पिता एक नाटक में लतिका का किरदार निभाते थे जो काफी प्रसिद्ध हुआ। इसलिए उन्हें लता नाम से बाद में पुकारा जाने लगा। दीनानाथ की पहली पुत्री का नाम भी लतिका था।

शास्त्रों के हिसाब से लता ब्राह्मण नहीं है

यदि सनातन शास्त्रों, मनुस्मृति की मानें तो दीनानाथ ब्राह्मण नहीं है। यदि थोड़ी देर के लिए दीनानाथ के पिता गणेश को ब्राह्मण मान भी लिया जाए। तो उनकी शादी देवदास जी यानी नीची जाति की स्त्री से होने के कारण मनुस्मृति के अध्याय 10 के अनुसार यह अनुलोम संतान है। जिसे वर्णसंकर संतान बताया गया है। इस अध्याय के श्लोक संख्या 11-50 के अनुसार दीनानाथ की जाती चांडाल यानी शूद्र[2] होती है। अतः किसी भी हाल में लता की जाति ब्राह्मण नहीं है। जैसा कि बताया जा रहा है।

लता को लता रहने दिया जाए उसे जाति के चश्मे से देखना गलत है

लता निर्विवाद रूप से एक महान गायिका है। वह जीते जी किवदंती बन चुकी थी। हमें गर्व है कि हमने उस काल में सांसे ली है। जब लता भी इस हवा में सांस ले रही थी। उनके संघर्षपूर्ण जीवन से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए। जिस प्रकार से मीडिया उन्‍हे जाति के चश्‍में से देख रहा है और किसी खास जाति का महिमामंडन किया जा रहा है वह गलत है।

आज जो समाज उन्हें ब्राह्मण बताने पर तुला है। वही समाज सालों पहले लता के परिवार पर कई जुल्म ढाए। उन्हें काम के लिए दर-दर भटकना पड़ा। उनके परिवार को पलायन करना पड़ा। पेट पालने के लिए नाच गाना करना पडा। लता को उनकी पतली आवाज किसी काम की नहीं कहकर मजाक उड़ाया गया। चारों पांचों भाई बहन की जिम्मेदारी लता के कंधों पर आ गई। इस कारण उन्हें आजीवन अविवाहित रहना पड़ा। उनके पिता को बहिष्कृत सा जीवन जीना पड़ा।

लता जी का फिल्मी करियर एवं विवाद

लता जीते जी संगीत का पर्याय बन चुकी थी। निसंदेह महान गायिका थी। लेकिन विवादों से उनका चोली दामन का साथ रहा है। मोहम्मद रफी के साथ उनका विवाद रॉयल्टी को लेकर था। मोहम्मद रफी का कहना था कि जब हम गाने की पूरी फीस ले लेते हैं तो रॉयल्टी पर हमारा कोई अधिकार नहीं। लेकिन लता चाहती थी कि उन्हें गाने की रॉयल्टी भविष्य में भी मिलती रहे। दोनों ने 4 साल तक कोई गीत साथ में नहीं गाया अनबन बनी रही।

उसी प्रकार एै मेरे वतन के लोगों गीत के संबंध में आशा जी कहती हैं कि 15 दिन इस गीत को मैंने रिहर्सल किया। यह एक डूयेट गीत था जिसे लता आशा दोनो का गाना था। लता ने इसे अकेले गाने की शर्त रखी और लताजी ने मुझसे यह गीत छीन लिया।

बता दूं कि बहन उषा एवं लता की आवाज काफी मिलती है। जय संतोषी माँ फिल्म के सारे गाने उषा मंगेशकर ने गाए हैं। उषा मंगेशकर टीवी पर दिए एक साक्षात्कार में यह आरोप लगाती है कि लता के कारण उनका गायन करियर चौपट हो गया। साठ के दशक में जब लता अपने जीवन की ऊंचाइयों में थी। तब वह गायन, निर्देशन, शब्दों के चयन से लेकर कई मामलों में हस्तक्षेप करने लगी। कोई प्रोड्यूसर या संगीतकार उन्हें नाराज नहीं करना चाहता था। नाराज करने का सीधा मतलब था। फिल्‍में प्‍लाप होना। क्योंकि लता के गीत फिल्‍म सफलता की गारंटी माने जाते थे। यानी उस समय बिना लता के गाने के फिल्म की कल्पना करना मुश्किल था।

इसी समय लता से हूबहू मिलती जुलती आवाज सुमन कल्याणपुर की आई उन्हें लता रफी के साथ अनबन के दौरान खूब गीत मिले। लेकिन वह भी लता के आभामंडल के सामने टिक नहीं पाई। लता के आलोचक कहते हैं कि जिस प्रकार पुरुष पार्श्व गायन में आवाज की वैरायटी दिखती है। वैसी वैरायटी स्त्री पार्श्व गायन में नहीं मिलती। हिरोइन के आवाज की पर्याय लता की आवाज बन गई। नई गायीका भी लता की ही नकल करती। क्योंकि लता ना केवल गायिका थी वह एक अच्छी राजनीतिज्ञ की भी थी। उन्होंने कई गायिकाओं को इंडस्ट्री से बाहर करवा दिया।

केवल आशा कुछ समय तक टिकी रही। उसका कारण था ओ पी नैयर से लता की तल्‍खी तथा राहुल देव वर्मन से आशा की शादी होना। शारदा, अनुराधा पौडवाल, उर्मिला, सुमन कल्याणपुर जैसी सुरीली आवाज वाली गायिका लता के आभामंडल के सामने टिक नहीं पाई। जबकि पुरुष गायन के एल सहगल, मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, मुकेश, मन्ना डे, शैलेंद्र सिंह, सुरेश वाडेकर नई सतरंगी छटा बिखेरी। इसी प्रकार कवीता कृष्‍ण मूर्ति बताती है की किस प्रकार लता मंगेशकर ने उन्‍हे पार्श्‍व गायन का मौका दिलवाया।

एक समय तब वह विवादों में आए जब उन्होंने अपने घर के सामने बनने वाले पुल का विरोध किया और धमकी दी कि यदि पुल बनता है तो वह मुंबई छोड़ देगी।

 लता मंगेशकर का राजनीतिक जीवन

लता मंगेशकर कभी भी सक्रीय राजनीति का हिस्‍सा नही रही लेकिन वह कभी भी जनता के तरफ नही खड़ी हुई। उनकी पूरी लड़ाई व्‍यक्तिगत हितो पर केन्‍द्रीत थी। चाहे मामला रायल्टी का हो या ओवर ब्रिज का, किसान आंदोलन के दौरान वे किसानों के खिलाफ खड़ी दिखी। व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा हो लेकिन उसके विचार ही उसे जीवित रखाते है। इस मामले में लता मंगेशकर का पक्ष कमजोर था। आखिरी समय में लता कट्टरवाद की ओर खड़ी दिखती है। खास तौर पर दक्षिणपंथी विचारधारा के पक्ष में थी। जब बाल ठाकरे परिवार पावर में थे। तब उनके साथ दिखती। वह बाल ठाकरे एवं नरेन्द्र मोदी के पैर छूते देखी जाती। वह खुलेआम वीर सावरकर को महान बताती और उनकी स्तुति करती थी। ऐसा भी कहा जाता है कि डॉक्टर अंबेडकर के ऊपर लिखे गए गीत को उन्होंने गाने से मना कर दिया। उन्होंने उन देवदासियों के पक्ष में कभी आवाज़ नहीं उठाया जिस परिवार से वे आती थी। वह इतनी जल्दी कैसे भूल गई की उनकी दादी येसूबाई कभी मंगेश मंदिर में देवदासी थी? देवदासियों के प्रति उनकी एक आवाज लाखो देवदासियों की नरक जैसी जिन्‍दगी को बहाल कर देती।

 



[1] Page no 5 Devadasis- sinners or sinned against (An attempt to look at the myth and reality of history and present status of Devadasis) by Anil Chawla www.samarthbharat.com

[2] मनुस्‍मृति अध्‍याय 10 श्‍लोक क्रमांक 11-15