आदिवासियों को सही विकल्प चाहिए ?

रमणिका गुप्ता से बातचीत

आदिवासियों को सही विकल्प चाहिए ?

· साक्षात्कार कर्ता - रमेशचंद्र मीणा

(झारखंड हाउस में मेरा दूसरी बार जाना हुआ। पहली बार पिछले वर्ष अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के दौरान गया था। तब यहाँ पर रामदयाल मुंडा और वाहरु सोनवणे से बात-चीत हुई। रमणिका जी से भी मिलने के लिए १५ फरवरी की दोपहर को पहुचा। अस्सी वर्षीय काया में कहीं नहीं लगता कि थकान जैसा कुछ हो। गुप्ता जी को प्रबंधक डिक्टेट करती हुई दिखाई देती है। महाराष्ट्र में फोन लगा रही हैं। दस मिनट तक सिऱ्फ पता ही लिखवा पा रही हैं, पर किसी तरह की निराशा बिलकुल भी नहीं है। अभी रांची के सम्मान समारोह से लौटी हैं और पुन: किसी कार्यक्रम की तैयारी में बाहर जा रही है। इस मुलाक़ात में उनसे बहुत मुद्दों पर बात करने का मौका मिला, कुछ आदिवासी सवालों के साथ युद्धरत आम आदमी की संपादिका रमणिका जी के विचारों के इस साक्षात् में आप भी शामिल हों।)

आदिवासियों के बीच जाने की शुरूआत कब और कैसे हुई?

हम जब १९६० में धनबाद आये तब मेरे पति श्रम मंत्राालय में सहायक श्रमायुक्त थे। कोयला खदानों की वजह से धनबाद में बाहर के मैदानी लोग अधिक हंै। मैदानी लोगों के आने से स्थानीय लोगों का शोषण बढ़ा है। बाहर से आने वालांे का उद्देश्य येन केन प्रकारेण धिन कमाना ही होता है। यहाँ कोलरियों में झाड़ू लगाने के लिये भी मज़दूर राजस्थान से लाये जाते रहे हैं। किसी भी प्रदेश से आने वाला यहाँ आकर धनवान हुआ है। यहाँ मज़दूरी का काम भी अधिकतर बाहर वालों को ही मिलता है, झारखंडियों को नहीं हाँ, अनस्किल्ड (अकुशल) काम या अस्थाई (कैजुअ़ल) काम स्थानीयों से लिया जाता रहा है। स्थायी कामगर बाहरी मज़दूर ही रखे जाते रहे हैं। अकाल पड़ने पर सखुआ के फूल खाकर गुज़र करते हैं। यहां के लोग-खासकर आदिवासी। सखुआ का पेड़ आदिवासी की ज़िंदगी बचाने वाला पेड़ माना जाता है। जब मैं धनबाद आई तब मैंं एक गृहिणी थी। तब मेरी रुचि कविता, संगीत, नाटक, रंगमंच और नृत्य में रही। धनबाद में रहते हुए मैंने संथालियों को देखा। उनकी वेश-भूषा को देख कर मैं शुरूआत से ही उनकी ओर आकर्षित रही।

'भारत सेवक समाज` से जुड़कर मैंने धनबाद में स्कूल, बालबाड़ी केंद्र और औरतों को पढ़ाने के केन्द्र खोले। इन स्कूलों और बालबाड़ी केंद्रों में क्षेत्रा के सभी वर्ग के बच्चे और औरतंे आते थे। १९६१ में इन केन्द्रों में हमने बच्चों और औरतों को पढ़ाने व औरतों को मशीन से सिलाई सिखाने के कार्य की शुरूआत की थी। मैंने सक्रिय राजनैतिक आंदोलन की शुरूआत भी धनबाद से ही की। कांग्रेसी उम्मीद्वार के विधान सभा चुनाव प्रचार में मैंने १९६७-६८ में सक्रिय रूप से भाग लिया। उन दिनों बोकारो स्टील कारखाने के लिए गाँव के गाँव खाली करवाये जा रहे थे। भारी मात्राा में ज़मीनें अधिकृत की जा रही थीं। उसके विरोध में विस्थापन के सवाल पर मैंने कुर्मी व संतालियों के नेतृत्व को साथ लेकर आंदोलन किया। बाद में तो फिर आन्दोलनों का सिलसिला ही चल निकला। विस्थापन और पुनर्वास का आन्दोलन झारखण्ड की राजनीति का ही नहीं, बल्कि उनके अस्तित्व के लिये आज भी एक बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न बन कर खड़ा है। इस प्रश्न को मैें सघंर्ष के माध्यम से सरे ज़मीन से लेकर विधानसभा तथा सुप्रीम कोर्ट तक ले गई और इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाया।

नक्सलवाद को आदिवासी से जोड़कर देखा-समझा जाने लगा है : इसका क्या कारण है ?

नक्सलवाद दरअसल ग्रामीण क्षेत्र के किसानों से जुड़ा है। आदिवासी मूलत: किसान हैं। ज़मीन और जंगल के बिना आदिवासी की पहचान ही नहीं होती। बाहरी लोगों की जंगल में घुसपैठ बढ़ने के साथ बेरोज़गारी, भुखमरी और गरीबी बढ़ी है। असंतोष पनपाब है। आदिवासी को पुलिस, ज़मींदार और ठेकेदार लूटते रहे हैं। कोई भी समस्या होने पर पुलिस दोनों तरफ से पार्टी से पैसा लेकर ग्रामीणों का शोषण करती है। ऐसी परिस्थिति में ग्रामीणों व आदिवासियों के पास कोई विकल्प नहीं बचता। राजनैतिक दल भी उनकी समस्याओं को अपने लाभ के लिए उठाते तो हैं, पर उनका निराकरण नहीं करते। दलालों की, खासकर राजनैतिक दलालों की संख्या झारखण्ड में इतनी बढ़ गई है कि आदिवासी समझ ही नहीं पाता किस तरफ जाए, किस तरफ न जाए, क्या करे, क्या न करे? जब उसे कोई रास्ता नहीं सूझता, तो वह नक्सलवाद की तरफ जाता है। नक्सलवाद का उद्देश्य गलत नहीं है भले हम उसके रास्ते से सहमत न हों। पर चारांे तरफ जब कोई मौत से घिरा हो इधर कुँआ हो, उधर खाई, तो वह जिधर राह पाता है, उधर चला जाता है; यह जानते हुए भी कि वहाँ मौत मुँह बाए खड़ी है, पर क्या करे वह ? उधर यदि वह न भी जाए, तो इधर भी कहाँ है समाधान? उधर मौत है, तो इधर भी तो मौत ही है, जो हर क्षण उसके स्वाभिमान को मारती है। फलत: वह मारकर मरने का रास्ता चुनता है। उसे नक्सलवाद में एक रोशनी की किरण दिखती है। नक्सलवादी रास्ता उसके लिए अंतत: सम्मान और स्वाभिमान का रास्ता बन जाता है। वह शोषण से मुक्ति और सम्मान से जीना चाहता है। 'सम्मान की ज़िन्दगी` न मिलने पर वह 'सम्मान से मृत्यु` चुनता है। आदिवासी में पनप रहे खालीपन को भरता है-नक्सलवाद। हम क्यों नहीं भर सके-इस पर आत्मचिंतन ज़रूरी है।

जब इनकी किसी भी समस्या को दूर करने के लिए कोई सामने नहीं आता, तब वे किसकी तरफ देखें? जंगल, जिन पर उसकी रोज़ी रोटी निर्भर है, कटते जा रहे है। जंगल के ठेकेदार, पुलिस, नेता और माफ़िया मिल कर जंगल को काटने में अपनी भूमिका निभाते हैं। दरअसल सरकारी अकर्मण्यता और गलत नीति ही समस्या की जड़ है। अंग्रेज़ों ने जंगल का व्यापारीकरण किया। आज़ादी के बाद भी भारत सरकार ने अंग्रेज़ों की नीतियों को ही जारी रक्खा। जंगल बचाना, जंगल आधारित रोज़गार बचाना या पैदा करना व पर्यावरण की रक्षा, सरकार का उद्देश्य कभी रहा ही नहीं। जंगलवासियों के अधिकार कम-से-कमतर किए जाते रहे हैं। जंगल का व्यापार करने के लिए सरकार ने भारी मात्रा में यूकेलिप्टस और सागवान लगाया गया, जब कि यूकेलिप्टस पानी का दुश्मन माना जाता है। सखुआ और अन्य पुश्तैनी फलदायक पेड़ नहीं, जिनसे वे पेट भरते या काम में लाते अथवा रोजगार का साधन बनाते थे।

रांची में लकड़ी की बड़ी-बड़ी टालें (दुकानें) हैं, जिनके मालिक मारवाड़ी व बाहर वाले हैं। इनमे नेताओं की हिस्सेदारी है। इस हिस्सेदारी में कतिपय आदिवासी नेता भी शामिल है। झारखण्ड में इन्हीं सब बहिरागतों के विरोध में नारा उठा था 'लोटा-सोटा-झोटा झारखण्ड छोड़ो।`` लोटा यानी मारवाड़ी, सोटा यानी बिहारी, खासकर आरा-छपरा-बलिया के लोग और झोटा यानी पंजाबी, सरदार जी। ये सभी लोग सूद का धन्धा भी करते है, इसलिए इन्हें 'दिकू` भी कहा जाता है। दस रुपये की लकड़ी के खातिर आदिवासी जेल जाता रहा है। दूसरी तरफ ठेकेदार जंगल का जंगल साफ़ कर देता है, किंतु उस पर कोई कार्यवाही नहीं होती। मैंने १९६९-१९७० में जंगल काटने के विरोध में लड़ाई शुरू की थी और आदिवासियों के लिए-जल-जंगल-ज़मीन और लाठा-छावन-जलावन का नारा दिया था। तब हमने इसे पाने के लिए 'घूस नहीं अब घूंसा देंगे` का नारा बुलंद कर जंगल और ज़मीन के लिए एक ज़बरदस्त अभियान चलाया था, ताकि जंगल सिपाहियों के ज़ुल्म को रोका जा सके। ज़ुल्म काफी हद तक रुका भी था तब। जंगल सिपाहियों ने उन दिनों जंगल में जाना ही बंद कर दिया था...लेकिन ये सब समय के साथ उठने वाले आंदोलन बन कर रह गए, क्योंकि सरकार ने नीतियां नहीं बदलीं।

सलवाजुडूम आदिवासी के पक्ष में नया प्रयोग किया बताया गया है। सरकार नक्सलवाद से लड़ने के लिए ऐसा कर रही है या आदिवासी को आदिवासी के सामने खड़ा कर रही है?

सलवाजुडूम बनाने का मतलब और उद्देश्य है-- आदिवासी को आदिवासी के खिलाफ़ लड़वाना। छत्तीसगढ़ में शांति के नाम पर आदिवासी को खत्म किया जा रहा है। सरकार वहाँ पर नक्सलवाद को नहीं, आदिवासियों को खत्म कर रही है। दरअसल ये आदिवासियों के हिंदूकरण का नायाब राजनैतिक तरीका है। आदिवासी का मतलब होता है उनका जंगल, ज़मीन, उनकी बोली-भाषा और उनकी अपनी संस्कृति। सरकार उनकी संस्कृति को ही नष्ट कर रही है, बाकी सब तो स्वत: नस्ट हो जाते हैं। कहावत है '' किसी कौम को खत्म करना हो तो उसकी भाषा-बोली नष्ट कर दो।`` आज सरकार यही कर रही है।

प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को आतंकवाद से भी बड़ी समस्या करार दिया है?

सरकार की गलत नीतियों का परिणाम है-नक्सलवाद। आदिवासियों व वंचित जमातों में पनप रहे असंतोष का परिणाम है-नक्सलवाद। न्यायालय से न्याय न मिलने तथा निर्दोष को बिना वजह पुलिस द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर भी असंतोष पनपता है। प्रधानमंत्राी द्वारा दिया गया वक्तव्य किसी नौकरशाह का वक्तव्य है। भारत का प्रधानमंत्राी ऐसा वक्तव्य नहीं दे सकता और देना भी नहीं चाहिए। ऐसा वक्तव्य तो नौकरशाही देती है-जब वह स्थिति को काबू नहीं कर सकती। आदिवासी भी इसी देश के वासी हंै। उनके प्रति भी नेताओं का दायित्व बनता है। यदि आदिवासी अभी भी भुखमरी की कगार पर हैं, तो इसके पीछे दोषी कौन है ? देश के नीति-नियंता ही न? देश की नीति व उन नीतियों के नियंता ही न! नीति तो सरकार बनाती है! सच तो यह है कि सरकारी नीतियां या तो कमज़ोर होती हैं या ठीक से लागू नहीं की जातीं।

नक्सलवाद का समाधान क्या है? आखिर आप भी लंबे समय तक ऐसे पिछड़े इलाकों से जुड़ी रही हैं। आपकी क्या राय है?

आज झारखण्ड के २४ में से २२ प्रखंडों में नक्सलवाद है। आदिवासियों का जंगल, ज़मीन पर अधिकार तो क्या--आज उनके प्रवेश तक पर रोक लगा दी गई है। कारखाने हों या कोयला खदानें अथवा बडे-बडे बांध, वे सब वहां के स्थायी निवासियों को विस्थापित करते हैं। बांधों में ज़मीनें तो डूबती है आदिवायों की, सिंचित होती है गैरआदिवासियों की। यानि आदिवासियों का नुकसान, दूसरों का लाभ। एक तबके की कीमत पर दूसरा तबका पनप रहा है। आदिवासी क्षेत्रा का कोयला दिल्ली तक पहुँच रहा है। झारखंड खनिज के मामले में मालामाल है। फिर भी वहाँ का आदमी सबसे गरीब है। आखिर ये बड़े-बड़े बाँध किसके लिए बनते हैं? आदिवासियों की ज़मीन की न तो सिंचाई होती है और न ही उनके घरों के लिए बिजली मुहैरया कराई जाती है। इनके संसाधनों का इस्तेमाल दूसरों के हितों के लिए हो रहा है। इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब उनका समुचित पुनर्वास किया जाए और उद्योगों में उनके रोजगार की व्यवस्था सुनिश्चित की जाए। आदिवासियों को उनकी ज़मीन और जंगल पर पूर्ण अधिकार देकर, उन्हें वहीं रोजगार की गारंटी मिले, तभी उनका विस्थापन और पलायन रुक सकता है। जंगल की रखवाली उन्हें सौंप दी जाय तो जंगलों की अवैध कटाई भी रुक जाएगी उनके लिए ज़मीन और सिचाई की व्यवस्था कर दी जाय तो पलायन रुक जाएगा, क्योंकि आदिवासी मूलत: किसान है। वह अपने घर में, जंगल में, नदियों के पेट में खेती करके खुश है आदिवासी की समृद्धि जंगल और ज़मीन से नालबद्ध है। आदिवासियों को उनके संसाधनों का अधिकार मिल जाए तो उन्हें अपने तरीके से अपना राज चलाने का मौका मिले तो नक्सलवाद स्वत: खत्म हो जाएगा।

सलवाजुडूम आदिवासी के पक्ष में नया प्रयोग किया बताया गया है। सरकार नक्सलवाद से लड़ने के लिए ऐसा कर रही है या आदिवासी को आदिवासी के सामने खड़ा कर रही है?

सलवाजुडूम बनाने का मतलब और उद्देश्य है-- आदिवासी को आदिवासी के खिलाफ़ लड़वाना। छत्तीसगढ़ में शांति के नाम पर आदिवासी को खत्म किया जा रहा है। सरकार वहाँ पर नक्सलवाद को नहीं, आदिवासियों को खत्म कर रही है। दरअसल ये आदिवासियों के हिंदूकरण का नायाब राजनैतिक तरीका है। आदिवासी का मतलब होता है उनका जंगल, ज़मीन, उनकी बोली-भाषा और उनकी अपनी संस्कृति। सरकार उनकी संस्कृति को ही नष्ट कर रही है, बाकी सब तो स्वत: नस्ट हो जाते हैं। कहावत है-'' किसी काै़म को खत्म करना हो तो उसकी भाषा-बोली नष्ट कर दो।`` आज सरकार यही कर रही है।

प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को आतंकवाद से भी बड़ी समस्या करार दिया है?

सरकार की गलत नीतियों का परिणाम है-नक्सलवाद। आदिवासियों व वंचित जमातों में पनप रहे असंतोष का परिणाम है-नक्सलवाद। न्यायालय से न्याय न मिलने तथा निर्दोष को बिना वजह पुलिस द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर भी असंतोष पनपता है। प्रधानमंत्री द्वारा दिया गया वक्तव्य किसी नौकरशाह का वक्तव्य लगता है। भारत का प्रधानमंत्री ऐसा वक्तव्य नहीं दे सकता और देना भी नहीं चाहिए। ऐसा वक्तव्य तो नौकरशाही देती है-जब वह स्थिति को काबू नहीं कर सकती। आदिवासी भी इसी देश के वासी हंै। उनके प्रति भी नेताओं का दायित्व बनता है। यदि आदिवासी अभी भी भुखमरी की कगार पर हैं, तो इसके पीछे दोषी कौन है ? देश के नीति-नियंता ही न? नीति तो सरकार बनाती है! सच तो यह है कि सरकारी नीतियां या तो कमज़ोर होती हैं या ठीक से लागू नहीं की जातीं।

नक्सलवाद का समाधान क्या है? आखिर आप भी लंबे समय तक ऐसे पिछड़े इलाकों से जुड़ी रही हैं। आपकी क्या राय है?

आज झारखण्ड के २४ में से २२ प्रखंडों में नक्सलवाद है। आदिवासियों का जंगल, ज़मीन पर अधिकार तो क्या-आज उनके प्रवेश तक पर रोक लगा दी गई है। कारखाने हों या कोयला खदानें अथवा बडे-बडे बांध, वे सब वहां के स्थायी निवासियों को विस्थापित करते हैं। बांधों में ज़मीनें तो डूबती है आदिवायों की, सिंचित होती है गैरआदिवासियों की। यानि आदिवासियों का नुकसान, दूसरों का लाभ। एक तबके की कीमत पर दूसरा तबका पनप रहा है। आदिवासी क्षेत्रों का कोयला दिल्ली तक पहुँच रहा है। झारखंड खनिज के मामले में मालामाल है। फिर भी वहाँ का आदमी सबसे गरीब है। आखिर ये बड़े-बड़े बाँध किसके लिए बनते हैं? आदिवासियों की ज़मीन की न तो सिंचाई होती है और न ही उनके घरों के लिए बिजली मुहैरया कराई जाती है। इनके संसाधनों का इस्तेमाल दूसरों के हितों के लिए हो रहा है। इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब उनका समुचित पुनर्वास किया जाए और उद्योगों में उनके रोजगार की व्यवस्था ही नहीं उनकी हिस्सेदारी और दखल भी सुनिश्चित किया जाए। आदिवासियों को उनकी ज़मीन और जंगल पर पूर्ण अधिकार देकर, उन्हें वहीं रोजगार की गारंटी मिले, तभी उनका विस्थापन और पलायन रुक सकता है। जंगल की रखवाली उन्हें सौंप दी जाय तो जंगलों की अवैध कटाई भी रुक जाएगी उनके लिए ज़मीन और सिचाई की व्यवस्था कर दी जाय तो पलायन रुक जाएगा, क्योंकि आदिवासी मूलत: किसान है। वह अपने घर में, जंगल में, नदियों के पेट में खेती करके खुश हैआदिवासी की समृद्धि जंगल और ज़मीन से नालबद्ध है। आदिवासियों को उनके संसाधनों का अधिकार और अपने सामूहिक तरीके से अपना राज चलाने का मौका मिले तो नक्सलवाद स्वत: खत्म हो जाएगा।

नक्सलवादियों का उद्देश्य क्या है?

समानता, भाईचारा और आज़ादी, संसाधनों पर जनता का कब्ज़ा--इज़ारेदारी, ज़मींदारी, दलाली पर रोक, सभी को शिक्षा-रोजगार और विकास में समान अवसर व स्वास्थ्य की सुरक्षा। उनकी ज़मीनों की वापसी भी एक बड़ा मुद्दा है। माओवादी बंदूक की नली से परिवर्तन की उम्मीद करते हैं। मैं मानती हूँ कि इस रास्ते से लोगों का मतभेद हो सकता है, पर उनके उद्देश्य पर शंका नहीं की जा सकती। यों आजकल नक्सलियों में भी घुसपैठ होनी शुरू हो गई है। कभी-कभी तो पुलिस वाले ही अपराधियों को नक्सलवादी घोषित कर देते हंै, जिससे उन्हें जनता की सहानुभूति मिल जाती है और वे गौरवान्वित हो जाते हैं। इन छद्म नक्सलियों की आड़ में अपराध बढ़ता रहता है।

जहाँ तक नक्सलियों द्वारा विकास प्रक्रिया रोकने और सरकारी संपत्ति की तोड़-फोड़ करने का सवाल है, वह शायद इसलिए कि पुलिस उन तक न पहुँच सके। यह उनका रक्षात्मक कदम हो सकता है, लक्ष्य नहीं। मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि उनके रास्ते अलग हंै। ज़रूरी नहीं सभी उनसे सहमत हों, लेकिन यह भी सत्य है कि आदिवासी पुलिस से प्रताड़ित होता है। नक्सली क्षेत्रों में रात को खाना न देने पर नक्सली उन्हें मारता है और देने पर पुलिस। दरअसल जंग में यह नहीं देखा जाता कि कहाँ न्याय हो रहा है और कहाँ अन्याय। कुछ भी हो, लेकिन अन्तत: नक्सली आदिवासी के पक्ष में ही खड़ा दिखता है और लगता है कि वह उसके लिए ही तो लड़ रहा है। ये विश्वास नक्सल आंदोलन अर्जित कर चुका है। ''सरकार और उसकी मशिनरी दलालां का समूह है, जहां से उन्हें राहत नहीं मिल सकती। बस उनका शोषण हो सकता है।`` ये मैं नहीं कह रही। आम जनता की धारणा यही बनती जा रही है और यह भी कि राजनैतिक दल सत्ता सुख भोगने के लिए राजनीति करते हैं, बदलाव के लिए नहीं।

ऐसी सोच जनमानस में निर्मित की जा रही है, या निर्मित हो रही है-इसके लिए कौन दोषी है? आखिर नौकरशाही और मीडिया ही न! दरअसल यह सोच बहुत खत़रनाक है! चूंकि यही सोच लोकतंत्र को कमज़ोर करती है। इन धारणाओं को पलटने के लिए तो पहल राजनैतिक दलों और सत्ताधीशों को ही करनी होगी न? क्यों नहीं सरकार या समाज के दूसरे दल अपना चेहरा वैसा बनाने की कोशिश करते कि आदिवासी उन्हें अपना समझें।

यह आदिवासी जनता की त्रासदी है कि पुलिस वर्ग शत्रु के साथ है और प्रशासन तंत्र भी आम आदमी के विरोध में है। ऐसे में आदिवासियों के समक्ष विकल्प ही क्या बचता है? गाँव में एक तरफ इज़ारेदार, मुनाफ़ाखोर, साहूकार, सामाजिक और राजनीतिक दलालों की भरमार है, जो उसे फुसलाकर या लालच देकर लूटने को तैयार रहते हैं। दूसरी तरफ हथियारों से लैस जमात है, जो उन्हें रास्ता दिखाती है-'पकड़ो यह हथियार-और तुम खुद ही लड़ो अपनी लड़ाई! मरो, लेकिन शान से मरो, मार कर मरो!` वह जमात उनके सम्मान का वचन देकर उनका अहम् जगाती है और जब प्रताड़नाओं से त्रस्त व्यक्ति, जो रोटी ही नहीं, बल्कि सदियों से सम्मान और आदर का भी भूखा है-को इज्ज़त और गौरव से मरने का रास्ता मिलता है, तो वह सिर पर कफ़न बांधकर उस राह पर चल पड़ता है। सौदेबाज़ी करना आदिवासी को आता नहीं है। सामने विकल्प के रूप में एकमात्र नक्सलवाद ही दिखता है। यदि प्रशासन तंत्र या राजनैतिक दल उसे अपने पक्ष में नज़र आता, तो नक्सलवाद पनपता ही क्यों!

नक्सलवाद से आदिवासियों की किस तरह से भलाई हुई है?

उनमें चेतना ही नहीं, अधिकार चेतना भी आई है। वह जहां अपने हक़ की बात करने लगा है, वहीं सपने भी देखने लगा है। नक्सली क्षेत्रों में पुलिस की मिलीभगत से जंगल कटने पर रोक लगी है, बसें लूटने पर रोक लगी है। जंगल की रक्षा में तत्पर नक्सली लकड़ी काटने वाले स्थानीयों को भी दंड देने से नहीं चूकते। आदिवासियों के लिए बिहार, झारखंड में समाजवादी और वामपंथी पार्टियों ने ही पहले-पहल संघर्ष शुरू किया था, जो अभी अलग थलग पड़ गया है। झारखण्ड पार्टी, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा तथा आजसू जैसी क्षेत्रीय पार्टियों ने भी अलग राज्य की लड़ाई के माध्यम से, आदिवासियों मेंें चेतना लाने में एक अहम् भूमिका निभाई है। फ़ऱ्क यही रहा है कि यह लड़ाई एक अलग राज्य की लड़ाई बन कर रह गई, परिवर्तन या समाज व वयवस्था बदलने की नहीं। आदिवासियों के अधिकारों एवं व्यवस्था में बदलाव के मुद्दे गौण हो गए। अलग राज्य यानि सत्ता का मुद्दा अहम् हो गया। इस लड़ाई में अदिवासियों का शोषण करने वाले लोग भी झारखंडी संस्कृति के नाम पर आंदोलन का नेतृत्व करने लगे। इस कारण और भी अधिक भ्रम बढ़ा। जब अलग राज से भी अधिकार नहीं मिला, तो भ्रष्टाचार बढ़ा। फिर विकल्प क्या हो? क्या आज़ादी के इतने सालों के बाद भी कोई राजनैतिक दल विकल्प खड़ा कर पाया है? हुआ तो यह है कि राजनीति में भ्रष्टाचार आज कोई मुद्दा ही नहीं रहा, लेकिन जनता राजनैतिक भ्रष्टाचार को मुद्दा मानती है, क्योंकि वह सीधे इससे प्रभावित होती है। अब उनको बंदूक सहज लगी तो वह उधर चले गए। मेरा दृढ़ मत है कि यदि हम या कोई भी बंदूक का विकल्प उनके पास लेकर जाएं, तो वे लोग लौटेंगे ज़रूर ! आदिवासी से बड़ा लोकतंत्रवादी विश्व में कोई दूसरा समाज नहीं है। यह हमारी गलती है कि हम अपने स्वार्थ के चलते उन्हें लोकतंत्र से विमुख कर रहे हैं। दरअसल हमारी संस्कृति और धम्र ही व्यक्तिवादी और राजतंत्र का समर्थक है। व्यक्ति पूजा हमारा चरित्र है।

आदिवासी प्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री ही होते रहे हैं, फिर शीबू सोरेन का इस तरह से हार जाना....? सोरेन की हार को आप किस तरह से लेती हैं?

इसे झारखंड का दुर्भाग्य कहें या आदिवासी बहुल राज्यों का। इन राज्यों में मुख्यमंत्री भले ही आदिवासी बनाए जाते हैं, पर मुख्यमंत्री बनाने की डोर सदैव गैरआदिवासी शक्तियों के हाथों में रहती है। इस विषय में मैं अंबेडकर जी की टिप्पणी याद दिलाना चाहती हूं। साइमन कमीशन के सामने उन्होंने प्रस्ताव रखा था-''दलित को दलित ही चुनकर भेजे,`` तभी दलित को सही प्रतिनिधित्व मिल पाएगा। आज की चुनाव प्रणाली में उसे गैरदलित जमात पर निर्भर रहना पड़ता है। जो उनका शोषण करती रही है। इसीलिए डा. अंबेडकर ने पहले चुनाव, के बाद कहा था--''यह राजनैतिक डकैती है।`` झारखंड में ६० प्रतिशत प्रतिनिधित्व आदिवासियों को ही मिलना चाहिए। कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी का स्वायत्त शासन के लिए यही फैसला था। इससे आदिवासी अपने विकास के फैसले स्वयं कर सकेंगे। लोकतंत्र में बहुसंख्यक की चलती है। आज की स्थिति में आदिवासियों को बहुसंख्यकांे के अधिकारों से सरकार ही लैस कर सकती है, क्योंकि वे घुसपैठ के चलते अपने ही घर में अल्पसंख्यक बना दिए गए हैं। दूसरा रास्ता बन्दूक का था, जिसे कई लोग चुन रहे हैं।

जहां तक शीबू सोरेन के हारने का सवाल है, तो उन्हें दिग्भ्रमित किया गया। कांग्रेस व अन्य सहयोगी पार्टियों के झूठे अश्वासन भी उनकी हार का कारण बने। सभी मिलकर उन्हें हराना चाहते थे, ताकि झारखंड में उनका प्रभाव कम हो। उसी दौरान मुन्नी हाँसदा प्रकरण घटा, जो विस्थापन के खिलाफ़ संघर्ष था। वे लोग आदिवासियों की ज़मीन के अधिग्रहण का विरोध कर रहे थे। स्थानीय प्रशासन ने उसकी भी गलत रिपोर्टिंग की और मुन्नी व उसके साथियों को नक्सलवादी घोषित कर दिया। उस दौरान पुलिस मुठभेड़ में एक आदिवासी भी मारा गया और कई घायल हो गए। इसका मीडिया ने खूब प्रचार किया और विपक्ष ने भी इसका खूब लाभ उठाया कि सोरेन के राज में आदिवासी मारे जा रहे हैं और वह भी ज़मीन के सवाल पर-सोरेन सत्ता में जाकर बदल गए हैं।

दरअसल सोरेन मुख्यमंत्री तो बना दिए गए थे, पर उनके मुख्यमंत्री होने न होने में दो -तीन वोट का ही फ़ऱ्क था। उनकी सरकार निर्दलियों पर ज्य़ादा आश्रित थी, ऐसी स्थिति में किसी भी मुख्यमंत्री के लिए कोई नीतिगत फैसला लेकर बदलाव लाना संभव नहीं हो सकता था, क्योंकि दूसरे सहयोगी दलों के लोग तुरंत हस्तक्षेप कर देते। झारखंड के औद्योगीकरण का मामला हो या अधिगृहित की गई ज़मीनों के बदले पुनर्वास का, ये मामले किसी भी मुख्यमंत्री के अकेले वश की बात नहीं होती। इसके लिए राज्य के पूरे मंत्रीमंडल ही नहीं केंद्रीय सरकार की भी स्वीकृति की दरकार होती है। इस घटनाक्रम के दौरान ही मुख्यमंत्री ने चुनाव लड़ा और वह भी दूसरे क्षेत्र से। इतने कम समय में कुछ करने का मौका भी तो नहीं मिला था। जहाँ सहयोगी ही मुख्यमंत्री की टांग खींच रहे हांे, तो पूर्व सरकार की नीतियों को बदल पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है। पूर्ण बहुमत के बिना अधिक परिवर्तन नहीं किया जा सकता। बदलाव, शोषण और विस्थापन जैसे मुद्दांे को हल करने के लिए भारी बहुमत की ज़रूरत होती है और होती है इच्छाशक्ति की ज़रूरत। झारखंड में तो क्या, पूरे देश में सत्ता गंवाकर परिवर्तन करने की हिम्मत अभी तक कोई भी पार्टी नहीं दर्शा सकी है। फिर सोरेन से हम कैसे यह उम्मीद करते? वे तो अल्पमत में थे!

आदिवासी और दलित में समानता-असमानता और समस्याओं में समता-विषमता क्या है?

जहां आदिवासी और दलित समस्याओं या साहित्य में कुछ समानताएं हैं, वहीं काफ़ी हद तक कुछ असमानताएं भी हैं। हिंदू समाज के संदर्भ में दोनों को ही अछूत माना जाता है और दोनों ही मानवीय अधिकारों से वंचित रखे गए हैं। सवर्णां के दृष्टिकोण में हिन्दू होते हुए भी दलित बहिष्कृत हिंदू हंै और उस पर हिंदू सामाजिक नियम लागू होते हैं, हालांकि उन्हें हिंदू उत्सवों या कर्मकांडों में शामिल नहीं होने दिया जाता। जहां तक मेहनत या काम के बंटवारे का मामला है-दोनों मेहनतकश हैं, पर उनके अधिकारों में अंतर है। दोनों खेती से जुड़े हैं, पर दलित भूमिहीन हैं, उनके पास अपने खेते नहीं हैं, वे दूसरों के खेतों में काम करते हैं, जबकि आदिवासियों के पास अपनी ज़मीन, अपने जंगल और अपने खेत हैं, जिससे उन्हें अब विकास के नाम पर विस्थापित किया जा रहा है। दलित ज़मीन पाने की लड़ाई लड़ रहा है तो आदिवासी ज़मीन बचाने की, पर मुद्दा ज़मीन का ही है। दोनों सूदखोरांे के शिकार हैं। शिक्षा के क्षेत्रा में, शिक्षा से वंचित रखने की हिंदू शास्त्राों की आचार संहिता, दोनों पर समान रूप से लागू होती है, भले ही संविधान द्वारा दोनों को उसका अधिकारी बनाया गया है।

दोनों में बाल विवाह, बेमेल विवाह की प्रथा भौगोलिक स्थितियों के अनुसार भिन्न भिन्न स्थानों पर भिन्न भिन्न है। कई जगह ये प्रथाएं दोनों में एक समान हैं और कई जगह विपरीत भी हैं। विवाह और तलाक की प्रक्रियाओं में अंतर है। दलितों में हिंदू रीति या जिस धर्म में वे गए हैं, उस धर्म से विवाह होता है, जबकि आदिवासियों में अपनी रीतियां एवं पद्धतियां हंै। आदिवासी धर्मांतरण के बाद भी अपनी रीति से विवाह करते हैं, जैसे खासी जनजाति में।

दोनों अपनी मेहनत के बल पर ज़िन्दा हंै। जहां आदिवासी जंगलों में सभ्यता से बहिष्कृत होकर, जंगली कहलाकर विपरीत स्थितियों को झेलकर, प्रकृति के बल पर जीवित रहते आया है, वहीं दलित मज़बूरन सवर्णों का सेवारत् रहकर अपमानित, तिरस्कृत और प्रताड़ित होकर ज़िन्दा रहा है। हालांकि दोनों जमातों ने भारत के रक्षार्थ कुर्बानियां दीं, पर भारतीय इतिहासकारों ने उन्हें कभी स्वीकारा नहीं। ये तो अंगे्रज़ों के आने के बाद ही दोनों की पहचान की मुहिम शुरू हुई।

दलितों के पास ज़मीन नहीं रही है। उनके स्वाभिमान को खत्म कर दिया गया है। उनके दिमाग में यह बिठा दिया गया है कि वे सेवा के लिए ही बने हैं। वे इस जन्म में पिछले जनम के पापों का प्रायश्चित कर रहे हैं। बाबा सहब ने उनमें मनुष्यता की भावना पैदा करने का प्रयास किया है। कतिपय बुद्धिजीवियों को छोड़कर ज्य़ादा बदलाव अभी भी नहीं आ पाया है। वे अभी भी अधिकांशत: दलित हिंदू ही हंै और जाति-प्रथा में विश्वास रखते हैं। इसके विपरीत आदिवासियों के पास अपनी ज़मीन और जंगल हैं, जो अब छिन रहे हैं। वे अपनी ज़मीन और जंगल से विस्थापित हो रहे हैं। उनकी अपनी संस्कृति और भाषा है। उनकी अलग पहचान है। उनकी शारीरिक संरचना और जीवन- शैली अलग है। दलित और आदविासी की सोच में भी फ़ऱ्क है। आदिवासी जहां समता, समानता और भाईचारे की सामूहिक ज़िंदगी जीते हैं, वहीं दलित गऱीबी के चलते तो समूह में जीता है, लेकिन उसकी सोच व्यक्तिगत है और यह व्यक्तिगत सोच सभ्यताओं के विकास का फल है, जिस पर अभी प्रश्न उठाए जा रहे हैं। सामूहिक जीवन या लोकतांत्रिाक प्रक्रिया के लिए आदिवासियों को किसी से सीखने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि उनसे सीखा जा सकता है। इनके समाज में नीचे से लेकर ऊपर तक उनके निर्वाचित प्रतिनिधि सामूहिक नेतृत्व देते हैं। पंचायत भी मिलकर ही फैसला देती है। इसलिए आदिवासी की लड़ाई अंतिम आदिवासी के जीवित रहने तक लड़ी जाती है। दूसरी तरफ गैरआदिवासियों की राजतंत्रा के प्रति अभी भी आस्था कायम है, जिनमें दलित भी शामिल हैंै। जैसे राजा के मरने पर भारतीय सेना भाग जाया करती थी, वैसा आदिवासियों में नहीं होता था। इसलिए ये हज़ारों मारे जाते रहे। सिद्धो-कान्हू की लड़ाई में १०-१५ हज़ार आदिवासी मारे गए।

आदिवासी किसी के धर्म में दखल नहीं देते। वे दूसरों के धर्म की इज़़्जत करते हैं। आदिवासी स्वाभिमान से जीना जानता है। मुंडा, होड़, उरांव और संथाल आपस में कभी नहीं लड़ते हैं, होड़ के नाम पर सब जमा हो जाते हैं, लेकिन अब उनकी पहचान पर ही संकट आ खड़ा हुआ है। पलायन और विस्थापन के चलते उनका समायोजन हो रहा है। 'दिकुओं` की घुसपैठ के चलते वे अपने ही घर में अल्पसंख्यक हो रहे हंै। निज घर में ही परदेसी बनते जा रहे हैं। इसी विषय पर मेरी एक पुस्तक 'कन्टेम्परेरी प्रॉब्लम्स ऑफ़ ट्राइबल्स भी अंग्रेज़ी में आई है।

दलितों जैसी चेतना आदिवासियों में नही दिखाई देती। दलित-साहित्य जैसी बयार आदिवासियों में बिल्कुल भी नहीं है? आपका क्या मत है?

दलित या तो हिन्दी में लिखते हैं या फिर क्षेत्रीय भाषाओं में-इसलिए उनकी पुस्तकें अधिक लोगों तक पहुंच जाती हैंं आदिवासी या तो अंग्रेज़ी में लिखते रहे हें या फिर अपनी मातृभाषा, बोली में जिसे सब नहीं समझते। संमप्रेषणीयता का यह संकट भी उन्हें सीमित रखे हुए था। अब हम लोगों ने उनके साहित्य को हिन्दी में अनुवाद करके प्रस्तुत किया है। यदि वे स्वयं भी हिन्दी में लिखने लबे हैं-तो इस साहित्य को शेष भारतीयों तक पहुंचाने की मुहिम हाल ही में शुरू हुई है। रमणिका फ़ाउंडेशन में युद्धरत् आम आदमी के माध्यम से अभियान चलाया है। आदिवासी की अलग बोली-भाषा रही है। सवर्णों के संदर्भ में दलित साहित्य की चर्चा होती है। वैसे दलित चेतना आज काफ़ी आगे बढ़ गई है। मनुष्य को मनुष्य न मानने के प्रतिरोध में बाबा साहब ने आज़ादी, समता और भाईचारे का सूत्रा दिया था। इसी बिंदु पर बुद्ध भी लड़े थे। बराबरी और समता को लेकर फ्रांस, रूस की क्रांति भी हुई। ये सारी लड़ाइयां असमानता के खिलाफ़ समानता के लिए की गईं थीं। आदिवासी की जीवन-शैली ही बराबरी की अवधारणा पर आधारित है, जबकि दलितों का संघर्ष बराबरी पाने के लिए है। आज आदिवासी अपनी पहचान बचाने के लिए लड़ रहा है, जो वनवासी के नाम पर उससे छीनी जा रही है। आदिवासी विस्थापन के खिलाफ़ लड़ रहा है और स्वशासन की मांग करता है। आदिवासी समुदाय में कोई जाति ही नहीं होती। उनमें सामूहिकता और सर्वानुमति से जीवन जीने की पद्धति प्रचलित है। जब तक अंतिम व्यक्ति नहीं मान लेता, तब तक रात-भर नगाड़े बजते रहते हैं और मंत्राणा चलती रहती है। सभा में उपस्थित हर व्यक्ति के राज़ी हो जाने पर ही सभा विर्सजित होती है और लोग उस पर अमल करने के लिए कटिबद्ध होकर निकल पड़ते हैं। उनकी व्यवस्था सर्वसहमति की व्यवस्था है, बहुसंख्या पर आधारित व्यवस्था नहीं।

महाराष्ट्र के आदिवासी भी बाबा साहब का नाम लेकर ही अपनी कार्रवाई शुरू करते हैं। दलितों साहित्यकारों ने आदिवासी मुद्दों को छूना ज़रूरी नहीं समझा। वे आज जाति के उन्मूलन की बजाय आति के उन्नयन की मांग कर रहे हैं। हालांकि डॉ. अम्बेडकर ने दलितों के साथ-साथ आदिवासी मुद्दों को भी आवाज़ दी थी। फलत: महाराष्ट्र में आदिवासियों के तीन बड़े सम्मेलन हुए। जिसमें विस्थापित और प्रस्थापित समाज का मुद्दा मुख्य रूप से उभर कर सामने आया। आदिवासियों को विस्थापित माना गया और गैर आदिवासियों को प्रस्थापित। प्रस्थापित समाज वह है, जिसने अपने समाज और मान्यताओं को इतना शक्तिशाली बना लिया कि आज वे दूसरे समाजों को उनकी मान्यताओं, जीवन-शैलियों और भौतिक अधिकारों से वंचित कर, उन पर अपनी मान्यताएं और व्यवस्थाएं थोपने में सफल हो गए हैं। रहे हैं। दूसरों के देवी देवताओं के नामों को अपने देवताओं का नाम दे रहे हैं। आज का संघर्ष इन्हीं दो संस्कृतियों के वैचारिक संघर्ष पर आधारित है। दोनों विचारधाराएं परस्पर विरोधी हैं। इन्हेंे मात्रा दो वर्गों या दो व्यक्तियों की विचारधारा का संघर्ष नहीं कहा जा सकता। वास्तव में यह दो जीवन-शैलियों, दो विचार-शैलियों का संघर्ष है। जहां आदिवासी समाज सामूहिकता, भाईचारा, समानता और आज़ादी का पक्षधर है, तो शेष समाज, जिसमें हिंदू भी शामिल हैं-व्यक्तिवाद, वर्चस्ववादी, श्रेष्ठतावादी और धर्म आधारित है। यह समाज अपनी श्रेष्ठता कायम करने के लिए दूसरे का विनाश करने से भी गुरेज़ नहीं करता। ये समाज व्यक्ति और व्यक्तगत लाभ और मुनाफ़े के लिए अपने समाज का भी विनाश कर सकता है। यही दो वैचारिक धुरियां आज आमने-सामने हैं। आज प्रश्न है-संतुलन कैसे कायम हो? तराजू का पलड़ा किधर झुके- कल्याण की तरफ़ या मुनाफ़े की तरफ समूह की तरफ या व्यक्ति की तरफ? वैसे आदिवासी सामाजिक व्यवस्था समाज में व्यक्तिगत विकास की मनाही नहीं है, पर वह विकास समूह की कीमत पर नहीं हो सकता, न ही किसी कमज़ोर की कीमत पर हो सकता है, जबकि शेष समाज में दूसरे की कीमत पर ही विकास करने की परंपरा सदियों से ज़ारी है और आज भी हो रही है। आदिवासी समाज दूसरे धर्म में हस्तक्षेप नहीं करता, जबकि दूसरे धर्म अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए दूसरे धर्मों को नेस्तनाबूद करने के लिए युगों तक लड़ाईयां लड़ते रहे हैं-और आज भी लड़ रहे हैं।

शिक्षा किस भाषा में दी जानी चहिए?

आदिवासी बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए। अपनी भाषा बच्चा शीघ्र समझता है। हजारीबाग के बच्चे 'याद` को 'आद` बोलते हैं और राजस्थान के भील बच्चे '` को '` बोलते हैं, यानि 'समोसे` को 'चमोचा`। दूसरे साथी बच्चे इनका मज़ाक उड़ाते हैं। इसलिए किसी भी बच्चे को, विशेषकर आदिवासी बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाए बिना, उन्हें शिक्षित करना आसान नहीं है।

आदिवासी समाज में स्त्राी की स्थिति कैसी है?

दरअसल हम तथाकथित मुख्यधारा के लोग, जिन्हें 'असभ्य या जंगली` कहकर नकारते आए हंै-वे अपनी स्त्राी को समुचित आदर देते हैं। आदिवासी स्त्राी पुरुषों के बराबर काम करती है, बल्कि एक मायने में पुरुषों से ज्य़ादा काम भी करती है और मेहनत भी। वह ज्य़ादा कुशल है। मेघालय के मातृ-सत्तात्मक समाज को छोड़कर इंडोबर्मन समाज की कुछ जनजातियों में इस मामले में कुछ अंतर पाया जाता है। हालांकि ऑस्ट्रिक जनजातियों के आदिवासी पुरुषों ने काम के बंटवारे को लेकर, अपनी औरत के साथ बेइमानी की है, लेकिन इंडोबर्मन जनजातियों में औरत मर्द के बराबर खड़ी है। ऑस्ट्रिक जनजातियों में आदिवासी औरत न तो घर छा सकती है और न हल चला सकती है। दरअसल ये औरत को आश्रित बनाने का पुरुष षड़यंत्रा है। अगर एक होड़ स्त्राी ये सब कर लेती है तो पुरुष के बिना भी अपना अस्तित्व बनाए रख सकती थी, क्योंकि वह स्वयं मेहनतकश है। वह मेहनत करने में पुरुष से किसी भी तरह कम नहीं। ऑस्ट्रिक जनजातियों के विपरीत मिज़ोरम या पूर्वोत्तर के इंडोबर्मन समूह की औरतें खेत में हल भी चलाती हैं और घर भी छा लेती हंै।

एक और उदाहरण देना चाहूंगी। आदिवासियों के कई कबीलों में कोई बच्चा नाजायज़ नहीं माना जाता। गुजरात की राठौर जनजाति के एक कबीले में तो भागकर विवाह करने वाले बच्चे पैदा कर लेते हैं और नाती-पोते वाले हो जाते हैं। उसके बाद वे अपनी शादी, पोतों के ही मंडप में बैठकर कराते हंै। न औरत पर कोई को उंगली उठाता है, न बच्चे पर। मिज़ोरम में एक 'सॉन प्रथा` है। वहां बिना ब्याह किए पैदा बच्चे को मां द्वारा चिन्हित या नामित पिता का नाम दे दिया जाता है और पिता से चालीस रूपया दंड वसूल लिया जाता है, दुर्भाग्य है कि वहां 'सॉन` की कीमत आज भी वही है। आदिवासियों में विधवा विवाह की छूट है। वहां औरत की इतनी इज़़्जत है कि अगर झूम खेती करने के वक्त खेत के बाहर रखी उसकी 'पौचाई` (लुंगी) कोई पुरुष छू दे तो वह दंड का भागी माना जाता है।

आदिवासियों में विधवा विवाह की छूट है और प्रेम विवाह की भी छूट है। जो लड़की भागकर विवाह करती है, उसे 'पौन` यानि 'पवन` विवाह कहते हैं, लेकिन इधर भारत की शेष संस्कृति वालांे की घुसपैठ के चलते सांथालियों की विधवा पर झारखंड में एक पाबंदी लगाई गई है। विधवा स्त्राी को शादी के बाद जब तक बेटा पैदा नहीं होता, तब तक उसे पूजा में शामिल नहीं किया जाता। यह सब पहले नहीं था।

यह सही है कि आदिवासियों में 'डायन प्रथा` जैसी एक कुप्रथा मौजूद है जो अब केवल आदिवासियांे मंे ही सीमित नहीं रही, बल्कि दलितों व पिछड़ी जातियों में भी है। जो आदिवासी जातियां मुख्यधारा में पिछड़ी या दलित जातियों में समायोजित हो गईं, संभवत: वे विरासत में इस प्रथा को साथ ले गईं। हालांकि आजकल डायन हत्या विश्वास से ज्य़ादा संपत्ति के चलते हो रही हैं। पहले आदिवासी औरत का हिस्सा गांव की सामूहिक ज़मीन में होता था और वह पति के छोड़ने के बाद भी उस ज़मीन की हिस्से की उपज ले सकती थी, जैसे अन्य आदिवासी हिस्सेदारों को मिलती थी। झारखंड में आज भी ज़मीन किसी एक व्यक्ति के नाम से रज़िस्टर्ड नहीं मिलती, उसके बीस-बीस पच्चीस-पच्चीस भागीदार होते हैं। अंगे्रज़ांे के राजस्व कानून बदलने के बाद ज़मीन व्यक्तियों की हो गई। तब से आदिवासी औरत ज़मीन की हक़दार नहीं रही। आज डायन हत्याएं ज्य़ादातर ज़मीन को लेकर या मुखर औरत द्वारा दखलंदाज़ी करने पर की जाती हैं। यह विषय अपने आप में एक खोज का विषय है कि डायन प्रथा कब शुरू हुई, क्योंेकि यूरोप में भी 'जोन ऑफ़ आऱ्क` को डायन कहकर ज़िन्दा जला दिया गया था। इस प्रथा के लिए गांव के ओझा, नजूमी, नकली वैद्य अथवा डॉक्टर भी ज़िम्मेदार हंै, जो किसी बच्चे की मृत्यु का कारण किसी औरत को बता देते हैं। आजकल तो यह धंधा बन गया है। इन अंधविश्वासों को थोड़ा बहुत पढ़े-लिखे लोग भुनाने लगे हैं। औरतों के भयादोहन का साधन बन गयी है-डायन प्रथा। स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी या स्वास्थ्य चेतना व सूचना की कमी के चलते भी डायन प्रथा जारी है।

वैश्वीकरण के दौर में आदिवासी विस्थापन का क्या स्वरूप होगा? आदिवासी और विस्थापन एक दूसरे से हमेशा चोली-दामन की तरह से जुड़े हुए मुद्दे रहे हैं। आप आदिवासी विस्थापन को किस तरह से देखती है?

वैश्वीकरण के दौर में आदिवासी का क्या होगा? मेरा मतलब है कि इस नये दौर में आदिवासी कुछ हिाास्ल कर सकेगा या नहीं?

दरअसल इस वैश्वीकरण की गाज अगर सबसे ज्य़ादा अगर किसी पर गिरी है, तो वह है आदिवासी, दलित और स्त्राी। फिलहाल वैश्वीकरण एकतरफा है। वैश्वीकरण के माध्यम से पूंजी बाहर से आ सकती है या बाहर जा सकती है, लेकिन यहां से श्रम बाहर नहीं जा सकता। इसलिए विदेशी पूंजी देश में आकर हमारे सस्ते श्रम का लाभ उठाकर, मुनाफ़ा कमाकर अपने देश ले जाती है और हमारे देश को न तो उनके निवेश का लाभ मिलता है, न मुनाफ़े का। रोज़गार में भी कोई इजाफ़ा विदेशी पूंजी नहीं करती, क्योंकि वह ऊंचे दर्जे की तकनीक से लैस होती है और तकनीक के सहारे कम ही लोगों से अधिक काम ले लेती है। अत्यधिक मशीनीकरण से बेरोज़गारी बढ़ती है। आदिवासी अपनी जड़ों से उखड़ते हैं, पुशतैनी धंधे खत्म होते हैं, रोजगार के अवसर छिनते हंै, शिक्षा मंहगी व पहुँच से दूर हेाती जाती है, कुशलता का प्रशिक्षण पर्याप्त न होने के कारण गुणवत्ता कम हो जाती है। फलत: मज़दूर छँटनी के शिकार हो जाते हैं, जिसमें औरतों की छंटनी सबसे पहले की जाती है, फिर दलित, आदिवासी और अकुशल मज़दूरों की बारी आती है। एक तो उनकी ज़मीन छिन जाती हैं, ऊपर से उन्हें कारखाने में काम भी नहीं मिलता। उनकी अपनी ज़मीनों पर बाहर वाले आ कर खटने-कमाने के साथ-साथ बसने भी लगते हंै, वे अपने ही घर में बेगाने हो जाते हैं। मर्द कमाई के लिए शहर या दूसरे राज्यों में जाकर रिक्शा चलाते हंै और स्त्राी घर या दूसरों के खेतों में काम करने पर मज़बूर होती है। कहीं-कहीं तो गांव में केवल बूढ़े ही रह जाते हैं, क्योंकि औरतों को लोग इंर्टा-भट्ठों में मौसमी मज़दूर के रूप में ले जाते हैं। इस स्थिति का निर्मला पुतुल ने अपनी कविता में बड़े मार्मिक ढंग से वर्णन किया है। मेरी कविताओं में भी इन स्थितियों का ज़िक्र है।

शिक्षा की क्या स्थिति है?

जंगली इलाकों में शिक्षा के स्तर पर सुधार अधिक नहीं हो पाया। शहरी इलाकों मेंे सरकारी व निजी संस्थान या स्कूल बढ़े हैं, पर शिक्षा की सही नीति के अभाव में आदिवासी आबादी को वे उतना आकर्षित नहीं कर पाए। ईसाई मिशनरियां, जो पहले से शिक्षा के क्षेत्रा में आदिवासियों में अपनी पैठ बना चुकी हैं--शिक्षा का प्रचार प्रसार कर रही हैं, लेकिन उनके बड़े स्कूलों में गैरआदिवासी आबादी की संख्या बढ़ती जा रही है। और उनकी फ़ीस भी बढ़ रही है। इधर हिंदू संगठन भी शिक्षा देने के नाम पर कहीं बनवासी संस्थाएं खोल रहे है तो कहीं संस्कृति विद्यालय। ये लोग चाहे हिंदू हों या ईसाई शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक संकीर्णता को भी हवा दे रहे हैं। सरकारी स्कूलों में भले शिक्षा का स्तर ऊंचा नहीं है, लेकिन संकीर्णता के पाठ उस हद तक नहीं पढ़ाए जाते जितने कि धार्मिक संस्थानों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों में। सरकारी ढांचा बेहद कमज़ोर है, वहां शिक्षक माफ़िया का कब्ज़ा है या फिर राजनैतिक नेताओं का। शिक्षक आंदोलन करके अपना वेतन तो बढ़ा लेते हैं, सुविधाएं भी ले लेते हैं, लेकिन छात्राों की संख्या बढ़ाने, या उन्हें सही शिक्षा देने में कोई रुचि नहीं रखते। कई-कई दिनों तक तो ग्रामीण स्कूलों में शिक्षक पदस्थापित ही नहीं होते, अगर हो जाते हैं तो वे वहां हफ्त़ों तक पढ़ाने ही नहीं जाते। शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टरों से मिलकर अपनी हाज़िरी लगवाते रहते हैं। सरकारी स्कूलों के शिक्षक निजी ट्यूशन के माध्यम से ज्य़ादा पढ़ाते हैं और स्कूल में कम। इससे गरीब छात्रा, जो कि आदिवासी या दलित होते हैं, शिक्षा की रफ्त़ार नहीं पकड़ पाते। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इन स्कूलों के शिक्षक अभी भी ज्य़ादातर गैरआदिवासी हैं, जो छात्राों की भाषा नहीं समझते या जानते। जिससे शिष्य और गुरू का, संवाद नहीं हो पाता। जिज्ञासु और जिज्ञासा शांत करने वाले का, प्रश्नकर्ता और उत्तर देने वाले का या प्रशिक्षु और शिक्षक का सहज रिश्ता नहीं बन पाता। बस खानापूर्ति होती है।

झारखंड में अभी भी मातृभाषा में पूरी तरह पढ़ाई शुरू नहीं हुई। सांथाली भाषा की पुस्तकें तैयार तो कर ली गई हैं, पर पूरी तरह बंटी नहीं। प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में सब जगह नहीं पढ़ाई जा रही है, जबकि एम.ए, एम.फ़िल. व पीएच.डी. पांच जनजातीय व चार क्षेत्राीय यानि कुल नौ भाषाओं में की जा सकती है। जब तक स्कूलों में मातृभाषा

में पढ़ाने की समुचित व्यवस्था नहीं हो जाती, तब तक उच्च शिक्षा प्राप्त शिक्षक बेराजगार ही रहेंगे। ऐसे कोयला खदानों या कतिपय औद्योगिक केंद्रों के ईदगिर्द मज़दूरों के बच्चों के लिए शिक्षा की व्यवस्था कुछ हद तक बेहतर है, लेकिन वहां किसानों के बच्चों की उतनी पहुंच नहीं है। कोलफ़ील्ड के क्षेत्रा में हमने आठ किलोमीटर के दायरे में हमने कोयला मज़दूरों के कल्याण-कोश द्वारा स्कूल खुलवाने के लिए संघर्ष किया था, जिसमें हम कामयाब भी हुए। पहले जिस क्षेत्रा में एक लाख की राशि आबंटित होती थी, वहां पर आजकल आठ दस और पंद्रह लाख की राशि आबंटित होने लगी है। इसके बावजूद यह समस्या का समाधान नहीं है। समाधान तो तब होगा जब सरकार निजी स्कूलों को खत्म कर सभी के लिए एक जैसे शिक्षा के स्कूल खोलकर, सभी को उनकी मातृभाषा में पढ़ने की नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देना चालू करेगी।

ईसाई मुद्दा धर्म परिवर्तन से जोड़ा जाता रहा है। क्या ईसाई का एक ही मिशन है धर्म परिवर्तन? आदिवासी जीवन-शैली का स्वरूप क्या है?

ईसाइयों द्वारा ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन के उदाहरण न के बराबर हैं। ईसाई मिशनरियां भारत में दो कामों के लिए लाई गई थीं- एक ईसाई धर्म का प्रचार करने और दूसरा अंग्रेज़ी हुकूमत के पक्ष में जनमत बनाने के लिए। ईसाईयत के प्रचार के लिए शिक्षा की ज़रूरत थी, तो ईसाइयों ने खुद यहां के आदिवासियों की भाषाएं सीखीं और उन्हें अपनी भाषा में ईसाई धर्म का उपदेश दिया। उन्होंने उन्हें लिपि भी दी। भले ही यह सब उन्होंने अपने लिए किया था, लेकिन शिक्षित तो आदिवासी हुए। मुगलों ने वही किया जो उनके अधीन हिंदी राजाओं ने चाहा। जन साधारण की शिक्षा, उनका अजेंडा भी कभी नहीं रहा। भारतीय प्रशासकों ने उन्हें शिक्षित करने के लिए प्रयास करने के लिए प्रयास करने की बात ही नहीं सोची। उन्होंने तो उन्हें शिक्षा से वंचित करने के नियम और आचार संहिताएं बनाईं।

ईसाइयों ने आदिवासियों में सम्मानित जीवन और आदर के साथ जीने की ललक पैदा की। बराबरी का अहसास कराया। भले हिंदुओं से ईसाई बने ब्राह्मणों ने दलितों से ईसाई बने दलितों के साथ भेदभाव ज़ारी रखा, लेकिन अंग्रेज़ पादरियों ने ऐसा नहीं किया। दरअसल हिंदू धर्म बहिष्कार पर आधारित है, निषेध पर आश्रित है। ये मत करो, वह मत करो, इसको मत छुओ, उसको मत छुओ, ये मत खाओ, वह मत खाओ और इसको निकालो, उसका निकालो-- ऐसे निषेध ही उनके सूत्रा हैंं। इसको जोड़ो, उनको लाओ, ये वे नहीं कहते, क्योंकि किसी को बाहर से लाने पर उन्हें किस श्रेणी में रखा जाएगा-उनके लिए यह बड़ा सवाल होता है। अपने धर्म में वे खुद को सबसे श्रेष्ठ मानते हैं, इसलिए जो उनके साथ आएगा, वह उनके नीचे ही स्तर पर रहेगा। इसीलिए हिंदुओं की जमात में केवल हारी हुई कौमें ही शामिल हुईं या बाहर से आईं कौमें ही रह गईं। इस प्रकार भारत की विजेता कौम ने अपने उच्च जातीय दंभ में बाकी सभी को गुलाम बनाया, सेेवक बनाया, किसी को बराबर नहीं माना। हिंदू धर्म तानाशाही का समर्थक है, क्योंकि वह राजधर्म को मानता है और मानवीय मूल्यों के विपरीत मनु की आचार संहिता को लागू करता है। आदिवासी समाज मानवीय मूल्यों से ही निर्मित हुआ है। इसलिए उसमें न धर्म है न भगवान है। वहां एक जीवन शैली है। वे अपने पूर्वजों को मानते हैं, उन्हें 'बोंगा` कहते हैं और उन्हीं के नाम से अपनी संततियों को पुकारते हैं।

ये भगवान को नहीं मानते, केवल पूर्वज को मानते हैं, प्रकृति को मानते हैं। अच्छी बुरी शक्ति को मानते हैं। उनमें शक्ति की अवधारणा भी चमत्कारी नहीं होती। वह ज़िन्दगी का हिस्सा होती है। आदिवासियों में साम्प्रदायिक और जातीय शब्द भी नहीं होते। उनके शब्द-समूह के प्रतीक होते हैं या आपसी रिश्तों के। गैर बराबरी आदिवासी भाषाओं में नहीं मिलते। उनकी बहुतायत तो हिंदी कोश में शायद सबसे ज्य़ादा है। हालांकि कुछ मुहावरे स्त्रिायों के प्रति आदिवासी समाज में भी पाए जाते हैं, जो स्त्राी की कमतर या दोयम छवि दर्शाते हैं। ये पुरुष प्रधानता के कारण है। समूह में उन्हें प्राय: अलग करके नहीं देखा जाता। आदिवासियों की घोटुल-प्रथा जहां लड़के लड़कियां शादी से पहले एक साथ एक कमरे में रहकर आने वाले जीवन का प्रशिक्षण लेते थे। कमोबेश सभी कबीलों में यह प्रथा प्रचलित है, चाहे वह ऑस्ट्रिक नस्ल के आदिवासी हों, चाहे द्रविड़ या इंडोबर्मन। घोटुल-प्रथा पुरुष प्रधानता से विपरीत मिसाल पेश करती है। हालांकि इनमें मातृसत्तात्मक समाज भी है, पर आज उसमें भी पुरुष ने अपनी दखलंदाज़ी कायम कर ली है। इन सबके बावजूद भी आदिवासी समाज में स्त्रिायों का बहुत आदर है।

झारखंड आदिवासी राज्य है। आदिवासी राज्य होने-कहलाने से क्या मायने हैं?

अगर देखा जाए तो देश में सही मायने में पूर्वोत्तर को छोड़ कर कोई आदिवासी राज्य नहीं बन सका है। भौगोलिक राज्य अवश्य बने हैं। इन राज्यों में आदिवासियों को सही मायने में सत्ता हासिल नहीं हुई, भले मुख्यमंत्राी आदिवासी होता है, लेकिन मुख्यमंत्राी की डोर गैर आदिवासियों के हाथ में रहती है। शिबू सोरेन जिन्हें एक साज़िश के तहत हरवा कर हटने पर मज़बूर कर दिया गया। झारखंड राज्य बनने से पहले आदिवासी राज्य की मांग करते थे, जिसमें मध्यप्रदेश, उड़ीसा, बंगाल और बिहार के हिस्से भी शामिल थे, लेकिन फिर आदिवासी राज्य का मुद्दा गौण हो गया और झारखंउी संस्कृति का मुद्दा बनाकर झारखंड का अलग राज्य बना दिया गया, जो भौगोलिक अधिक है, आदिवासी कम। झारंखड बनने से पहले बिहार में आदिवासी की आबादी २८ प्रतिशत थी। झारखंड राज्य बनने के बाद वेे २६ प्रतिशत रह गए। एक सांसद कम हो गया और २ विधायकांे की सीट घट गई। झारखंड भले आदिवासियों के नाम पर बनाया गया, पर आज भी वहाँ गैर-आदिवासी की ही हुकूमत चलती है। आदिवासी राज्य होने के लिए ६० प्रतिशत हिस्सा आदिवासी को देना होगा। या राज्य के आदिवासी बहुल क्षेत्राों में स्वायत्त-शासन की व्यवस्था करनी होगी, जिसमें उन्हें अपने विकास के फैसले लेने का पूर्ण अधिकार हो। पंचायत से जिले तक स्वायत्त-शासन की ही प्रक्रिया चलानी होगी, यानि आदिवासियों को ६० प्रतिशत वोटिंग पावर देकर विकास की प्रक्रिया तेज़ की जा सकती है। जब तक आदिवासियों की भागीदारी और फैसले लेने का हक़ उन्हें नहीं मिलेगा, तब तक विकास संभव नहीं है। केवल राज्य बनने से विकास नहीं होता, विकास के लिए इच्छाशक्ति, निर्णय लेने की हिम्मत और पूर्ण विश्वास की ज़रूरत होती है और पूर्ण विश्वास तभी पैदा होता है, जब उसके पास पूर्ण बहुमत हो या साथियों का पूर्ण विश्वास हो। ये स्थिति राज्य अलग करके पैदा नहीं की जा सकती, बल्कि उन्हें निर्णय लेने का हक़ देकर की जा सकती है।

आदिवासी साहित्य कौन रचे? दलित साहित्य वही हो सकता है जिसे दलित लिखता है? क्या आदिवासी साहित्य भी इसी अवधारणा पर चलता है?

दलित साहित्य वह होता है जो दलित द्वारा लिखा गया हो और बहुत बाबा साहेब अंबेडकर की बाइस प्रतिज्ञाओं के अनुरूप हो। जो धर्म, भाग्य, भगवान और पुनर्जन्म को नकारे और वैज्ञानिक सोच, तर्कशीलता को स्वीकारे और नवसंस्कृति के नवमूल्यों का निर्माण करे, जो समता, आज़ादी और भाईचारे की अवधारणा को माने और दलितों में स्वाभिमान और अस्मिता का निर्मित करे। इस धारणा के विपरीत किसी भी दलित द्वारा लिखा गया साहित्य, दलित साहित्य नहीं कहलाता।

अब रही आदिवासी साहित्य की बात। आदिवासी पर लिखा हुआ साहित्य केवल इसलिए आदिवासी साहित्य नहीं कहा जाता कि उसे लिखने वाला कोई आदिवासी है, या उस साहित्य में आदिवासी पात्रा या नायक नायिकाएं हैंं। आदिवासी साहित्य में प्रकृति और प्रकृति से लगाव, आदिवासी संस्कृति, जीवन-शैली, उनकी अपनी समस्याएं-जल, जंगल ज़मीन, सामूहिकता, बराबरी, आज़ादी और भाईचारा तथा लोकतंत्रावादी सोच का होना ज़रूरी है। उनकी अपनी भाषा या अन्य किसी भाषा में रचित साहित्य में बदलाव की उनकी अपनी रूपरेखा, आज़ादी की भावना, विकास की अपनी परिभाषा, अपना इतिहास या उसकी खोज तथा अपनी किंवदंतियां, मुहावरे, लोककथाएं, मिथक व उनकी व्याख्या होना ज़रूरी है और ज़रूरी है उनका जीवन और प्रकृति से जुड़ा होना तथा बहुत हद तक वैज्ञानिक व तर्कशील होना। महत्वपूर्ण बात तो यह कि उसे शोषण एवं अन्याय का विरोधी होना चाहिए, तभी वह आदिवासी साहित्य की परिभाषा में आ सकता है। इस समय दिवंगत भुजंग मेश्राम, वाहरु सोनवणे (भील), ऊषा अत्राम(गोंड) नजूबाई गावित (महाराष्ट्र) निर्मला पुतुल, गे्रस कुजूर, सरिता बड़ाइक, महोदव टोप्पो, देवगम, रोज़ करकट्टा, कृष्णचंद टुड्डू (झारखंड), रूपचंद हाँसदा (बंगाल), दयामनी बेसरा, चेतन मांझी और सुकन्या (उड़ीसा), एल. लियाना ख्यांग्टे, येशेे दोरजी एवं ममांगदेई (अरूणाचल प्रदेश), किंगफाम सिंह, डेज़मन्ड खरफिलयांग, विजोया सावियान और मिमिमोन लालू (मेघालय), योमे, नेचुरियाजो चूचा(नागालैंड), मक़रम माझी और मोती लाल (मध्यप्रदेश), हरिराम मीणा, रमेश चंद्र मीणा, शंकरलाल मीणा मोहन पारगी, रमेश वढेऱा, अर्जुन सिंह, गोगराय शेखावत और श्री घोघरा (राजस्थान), भगवान दास पटेल और श्री राठवा (गुजरात) से आदिवासी लेखक कलम चला रहे हैं।

वैश्वीकरण के दौर में आदिवासी का क्या होगा? मेरा मतलब है कि इस नये दौर में आदिवासी कुछ हिाास्ल कर सकेगा या नहीं?

दरअसल इस वैश्वीकरण की गाज अगर सबसे ज्य़ादा किसी पर गिरी है, तो वह है आदिवासी, दलित और स्त्राी। फिलहाल वैश्वीकरण एकतरफा है। वैश्वीकरण के माध्यम से पूंजी बाहर से आ सकती है या बाहर जा सकती है, लेकिन यहां से श्रम बाहर नहीं जा सकता। इसलिए विदेशी पूंजी देश में आकर हमारे सस्ते श्रम का लाभ उठाकर, मुनाफ़ा कमाकर अपने देश ले जाती है और हमारे देश को न तो उनके निवेशका लाभ मिलता है, न मुनाफ़े का। रोज़गार में भी कोई इजाफ़ा विदेशी पूंजी नहीं करती, क्योंकि वह ऊंचे दर्जे की तकनीक से लैस होती है और तकनीक के सहारे कम ही लोगों से अधिक काम ले लेती है। अत्यधिक मशीनीकरण से बेरोज़गारी बढ़ती है। आदिवासी अपनी जड़ों से उखड़ते हैं, पुशतैनी धंधे खत्म होते हैं, रोजगार के अवसर छिनते हंै, शिक्षा मंहगी व पहुँच से दूर हेाती जाती है, कुशलता का प्रशिक्षण पर्याप्त न होने के कारण गुणवत्ता कम हो जाती है। फलत: मज़दूर छँटनी के शिकार हो जाते हैं, जिसमें औरतों की छंटनी सबसे पहले की जाती है, फिर दलित, आदिवासी और अकुशल मज़दूरों की बारी आती है। एक तो उनकी ज़मीन ज़मीन का छिन जाती हैं, ऊपर से उन्हें कारखाने में काम भी नहीं मिलता। उनकी अपनी ज़मीनों पर बाहर वाले आ कर खटने-कमाने के साथ-साथ बसने भी लगते हंै, वे अपने ही घर में बेगाने हो जाते हैं। मर्द कमाई के लिए शहर या दूसरे राज्यों में जाकर रिक्शा चलाते हंै और स्त्राी घर या दूसरों के खेतों में काम करने पर मज़बूर होती है। कहीं-कहीं तो गांव में केवल बूढ़े ही रह जाते हैं, क्योंकि औरतों को लोग इंर्टा-भट्ठों में मौसमी मज़दूर के रूप में ले जाते हैं। इस स्थिति का निर्मला पुतुल ने अपनी कविता में बड़े मार्मिक ढंग से वर्णन किया है। मेरी कविताओं में भी इन स्थितियों का ज़िक्र है।

आदिवासियों में किस तरह से बदलाव आ रहा है? उनके आपसी संबंध किस तरह के हैं?

उद्योगों व शहर के नज़दीक रहने-बसने वाले आदिवासियों के सामूहिक नृत्य व गान बंद हो रहेे हैं। बहिरागतों द्वारा आदिवासी औरतों की स्वछंदता को गलत अर्थ में लिया जाता है। उनके मुक्त भ्रमण के कारण उनका दैहिक शोषण भी बढ़ता जा रहा है। इससे उनकी संस्कृति या तो विकृत हो रही है या नष्ट हो रही है।

दरअसल आदिवासी वर्चस्ववादी नहीं होते। वे सबको बराबर तो मनते ही हैं, सबके साथ वे सहअस्तित्व की भावना से जीते हैं, जैसे वे प्रकृति के साथ जीते हैं। वे हमेशा बाहरी घुसपैठ से प्रभावित व विकृत हुए हैं। उन्होंने बाहरी लोगों की कुरीतियाँ अर्जित की हैं। कहीं-कहीं तो वे अपने यहां प्रचलित प्रेम-विवाह को भी नकारने लगे हैंं। आदिवासियों में प्रेम विवाह और विधवा-विवाह आम बात है, उस पर भी आज बंदिशें लगने लगी हैं। आदिवासी कभी मंदिर या धर्म स्थानों में नहीं जाते, न ही उनका केाई मंदिर होता है। वे तो पेड़ों की पूजा करते हैं, पर आजकल देखादेखी आदिवासी लोग भी बाबा धाम जाने लगे हैं और हिंदू अनुष्ठानों को भी बिना उसका अर्थ समझे देखादेखी अपनाने लगे हैं। कुछ लोग तो अपनी भाषा भी भूलते जा रहे हैं। ऊरांव लोग अपनी कुडुख भाषा छोड़कर छोटा नागपुरी या सदरी बोलने लगे हैं। कोलरियों या कारखानों में काम करने वाले लोगों की एक मिश्रित भाषा ही बन गई है, जो हिंदी, मगही, बिलासपुरी, उड़िया, संथाली, कुर्माली, खोरठा तथा बंगला (भौगोलिक स्थिति के अनुसार) का मिश्रत रूप हो गई है। मैंने अपने 'मौसी` 'सीता` उपन्यासों तथा 'बहू जुठाई` की कहानियों मेंं इस समस्या का विशेष रूप से उल्लेख किया है।

क्या आदिवासियों में स्त्राी की स्थिति को लेकर कुछ बदलाव आया है?

कुर्मी, कोयरी, सूड़ी व साओ तथा कुछ अन्य पिछड़ी व दलित जातियों में बाल-विवाह आज भी हो रहे हैं। इन जातियों में आदिवासियों समेत दूसरी शादी करने का भी बहुत चलन है। खासकर नौकरी मिलने या तरक्की होने पर या ज़मीन में अच्छी फसल आने पर दूसरी शादी करने का प्रचलन रहा है। इनके खिलाफ़ उस क्षेत्रा में बहुत आंदोलन भी किये गये हैं, लेकिन एक और नई विकृति इन जातियों में आई है। इनके यहां, खासकर आदिवासियों में दहेज की प्रथा बिल्कुल नहीं थी। उल्टे कन्या शुल्क दिया जाता था और लड़की के बाप के कपड़ों समेत बारात का सारा खर्च लड़के का बाप करता था। औद्योगीकृत क्षेत्राों में जहां ठेकेदारियों या सरकारी कंपनियों के तहत मज़दूर के रूप में आदिवासी काम करने लगे हैं, दहेज का प्रचलन शुरू हो गया है। लोग साइकिल, मोटर साइकिल या टी.वी. मांगने लगे हैं और कन्यादान भी करने लगे हैं। आदिवासियों या वहां की हिंदू पिछड़ी व दलित जातियों में हिंदू प्रथा के अनुसार कन्यादान नहीं होता था, अब बीजेपी के अर्जुन मंुडा की सरकार आई तो उसने लड़की वाले आदिवासी परिवारों को शादी में पाँच-पाँच हज़ार रुपये कन्यादान के नाम पर देना शुरू कर दिया और एक कुप्रथा और विकृत संस्कृति को बढ़ावा दिया। आदिवासी लड़कियां आमतौर से चौदह पंद्रह बरस की उम्र के बाद ब्याह करती है, झारखंड के आदिवासियों में बाल-विवाह का चलन नहीं है, लेकिन बिलासपुर, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश या राजस्थान के आदिवासियों में बाल-विवाह और बेमेल विवाह की प्रथा मौजूद है। आदिवासी स्त्रिायों को संपत्ति में अधिकार नहीं है। मेघालय की खासी जनजाति को छोड़कर, जहां छोटी लड़की को ही सारी संपत्ति मिलती है, पूर्वात्तर की इंडोबर्मी नस्ल की जनजातियों में मां की संपत्ति बेटी को जाती है, कहीं छोटी बेटी को, कहीं बड़ी बेटी को। उसी तरीके से पिता की संपत्ति बेटे को जाती है, कहीं छोटे बेटे को, कहीं बडे बेटे को, मेघालय की खासी, जैंतिया जनजातियों को छोड़कर, जहां मातृप्रधान व्यवस्था है। वहां भी केवल कंुआरी लड़की ही नृत्य कर सकती है-वह भी आंखें नीची करके। उसमें भी चारों तरफ से वह पुरुषांे के घेरे में घिरी रहती है, जैसे कि वे उसके रक्षक हों। एक और बड़ी विडंबना है। ऑस्ट्रिक जनजातियों में तो पंचायत में पुरुष औरत सब भागीदारी करते हैं, लेकिन मेघालय की खासी जनजाति में जहां प्रागैतिहासिक काल से चल-चुनाव की प्रक्रिया समाज में लागू है और उनका चुना हुआ सरदार जनता के उपहारों पर ज़िन्दा रहता है, जो जनता पर टैक्स तक नहीं लगा सकता, वहां भी औरत को वोट देने का अधिकार नहीं था; भले वह औरत के चूल्हे के गिर्द बैठकर सारी जनतांत्रिाक प्रक्रिया संपन्न करते थे। वहां दूल्हा ब्याह कर औरत के घर ही आता ह, पर घर में मामा की चलती है। जो भी हो, उनमें औरतों के प्रति आदर बहुत है और वे औरतों से र्को्र ज़बरदस्ती बर्दाश्त नहीं करते।

आदिवासियों के संदर्भ में मुख्यधारा क्या और कौन-सी है?

दरअसल आदिवासियों और दलितों की धारा को ही मुख्यधारा है क्योंकि देश की बहुसंख्यक आबादी वही है। खुद को मुख्यधारा मानने वाले लोग वास्तव में अल्पसंख्यक हैं, जिन्होंने अपने वर्चस्ववादी रुझान के कारण दूसरों की धारा को या तो दबा दिया या खत्म कर दिया। वे अपनी मुख्यधारा की कसौटी अभिजात्य, नफ़ासत, सौंदर्य और आनंदवादी सोच को मानते हैं। वे दूसरों पर अपनी सोच थोपते रहे हैं, जबकि आदिवासी अपनेे साहित्य में पीड़ा, आक्रोश और बदलाव की तड़प, प्रकृति से जुड़ाव तथा ज़िन्दगी की समस्याओं और यथार्थ का समावेश करता है। इनका साहित्य कुंठा-मुक्त, समूहवादी और समाजहित से ओतप्रोत होता है। उसमें प्रतिरोध के स्वर मुखर होतेे हैं। इनके यहाँ आम आदमी ही नायक के रूप में प्रस्तुत होता है। अभिजात्य साहित्य में झाड़ू और झाड़ूवाला दोनों वर्जित हंै, दलित व जबकि आदिवासी साहित्य में झाडू लगाने वाला, मेहनतकश मज़दूर किसान ही केंद्र में होता है और यही वह मुख्यधारा है जिसमंे मानवतावाद जीवित है। आदिवासी साहित्य के केंद्र में ईश्वर नहीं, मनुष्य है और मनुष्य मनुष्य की नज़र में समान है। 'ईश्वर की नज़र में हर मनुष्य समान होता है` अवधारणा का इनके लिए न तो कोई अर्थ है, न महत्व। जिस व्यवस्था में मनुष्य की नज़र में मनुष्य समान न हो, वह व्यवस्था मानववादी मूल्य पर खरी नहीं उतर सकती। यही दलित आदिवासी साहित्य या सोच मान्यता है। तथाकथित मुख्यधारा को इनसे सीखने की ज़रूरत है। सभ्यतावादी सोच ने तो मनुष्य को बर्बर, हिंसक और उपभोक्तावादी बनाया है, जिसमें वैमनस्य और गलाकाट प्रतिस्पर्धा और उन पर वर्चस्ववाद हावी है। आदिवासी नैैतिकता से युक्त मानववादी और समतावादी हैं, भले यह अलग बात है कि वे अब इस व्यक्तिनिष्ठ विध्वंसकारी सोच से प्रभावित हो रहे हैं।

आदिवासियों की समस्याओं के समाधान में राजनीति किस तरह से भूमिका अदा कर सकती है?

आदिवासी समस्याओं का समाधान राजनीति से ही संभव है, बशर्ते राजनीति करने वालों में इच्छाशक्ति हो। राजनैतिक पार्टियाँ सत्ता हासिल करने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद की नीतियां अपनाती हंै। दरअसल किसी भी तरह के परिवर्तन के लिए जनता की तरफ से भी आवाज़ उठनी चाहिए तभी परिवर्तन लाया जा सकता है। सरकारी कानून बनाने भर से कुछ नहीं बदलता। मैंने खुद भी परिवर्तन की राजनीति की है। जनआंदोलन किये हैं। जनता को संगठित किया है। राजा रामगढ़ की केदला कोलियरी का राष्ट्रीयकरण करवाने के लिए हमारी हड़ताल डेढ़ साल तक चली। शिबू सोरेन ने झारखंड में शराब बंदी का आंदोलन चलाया, सूदखोरी के खिलाफ़ जनता को साथ लेकर जंग छेड़ी। एक पत्नी के रहते दूसरी से शादी करने के खिलाफ़ भी झारखंड में संक्षम संघर्ष जातीय नेताओं और जननेताओं ने किए हैं। अलग राज्य की लड़ाई भी वहीं लड़ी गई। सामाजिक सुधार हेतु जगह-जगह जाति की पंचायतंे करवाई गई। इन राजनैतिक और सामाजिक लड़ाइयों का एक प्रभाव तो हुआ है कि जनता में जागृति आई और आज आदिवासी अपने हक़ की लड़ाई करने का नेतृत्व खुद करने के लिए खड़ा हो गया है।

अंबेडकर ने कांग्रेस इसलिए छोड़ी थी कि कांग्रेस ने अपने बंबई सम्मेलन में सामाजिक बदलाव का एजेंडा छोड़ दिया था। दरअसल केवल राजनैतिक लड़ाई समाज में बदलाव नहीं ला सकती, उसके बरक्स सामाजिक बदलाव की लड़ाई भी साथ-साथ चलानी होगी, जो अभी नहीं हो रहा है। राजकीय सत्ता का लक्ष्य केवल राज या सरकार बदलना नहीं है, बल्कि सामाजिक व्यवस्था बदलना भी है जो आज नहीं हो रहा। वामपंथी पार्टियों ने ज़मीन बाँटने के लिए आवाज़ उठाई है, जिससे बदलाव लाया जा सकता है। अंबेडकर ने भी ज़मीनों के राष्ट्रीयकरण की बात की थी और समाजवादी सोच भी भूमि-सुधारों की पक्षधर है। ये बहुत बड़ा वर्ग संघर्ष है, लेकिन केवल ज़मीन का बंटवारा करके भी भारतीय समाज में बराबरी नहीं लाई जा सकती। जब तक कि जातीय-व्यवस्था खत्म न की जाए। भारत की जातीय व्यवस्था का जनक हिंदू धर्म तो है ही, लेकिन दूसरे धर्मों में भी ये व्यवस्था घुस गई है। इसलिए वर्ग-संघर्ष के साथ जाति और धर्म के खिलाफ़ भी मुहिम चलाना ज़रूरी है, ताकि अंधविश्वासों में जकड़ी हमारी जनता मुकत भाव से समता, भाईचारा और आज़ादी हासिल कर सके।

आदिवासियों में परिवर्तन किस तरह से संभव हो सकेगा?

जैसा कि मैंने कहा जब तक आदिवासियों में अपना ख्ुाद का नेतृत्व विकसित नहीं होगा और उनमें अपने सवालों के प्रति चेतना का विकास नहीं होगा, तब तक परिवर्तन लाना आसान नहीं है।

आदिवासियों को भी एक होना होगा और आपसी जुड़ाव के लिए किसी लिंक भाषा का विकास करना होगा ताकि वे अपने साझा मुद्दों को एक साथ पूरे देश के पैमाने पर उठा सकेंं। अतीत से उन्हें सबक लेना होगा। देखा जाए तो भारत की आज़ादी की सबसे पहली लड़ाई लड़ने वाले आदिवासी ही थे। १७७४ में झारखंड की पहाड़िया जनजाति ने यह लड़ाई शुरू की थी और १७७४ में ही पूर्वोत्तर के जैतिया के राजा से अंगे्रज़ों का युद्ध शुरू हुआ था। खान देश में १८२४ तक अंग्रेज़ आदिवासियों के विद्रोह के कारण अपने पांव नहीं जमा पाए थे। १८५७ के युद्ध की समाप्ति के बाद अंग्रेज़ों के जुल्म का मुकाबला करने के लिए तांत्या भील जेल से भागकर जनता के बचाव में जोखिम़ उठाता रहा। देश की बाकी जनता व राजा या नवाब डर के मारे चुप्पी साध गए थे। झारखंड में १९०४ तक आदिवासी सशस्त्रा विद्रोह करते रहे। आंध्र प्रदेश में गांधीजी के आने के बाद भी आदिवासियों ने श्री राम राजू के पेतृत्व में फितूरी नामक विद्रोह किया। उनमें से ही उभरे नेता कभी बिके नहीं। मगर आज स्थिति यह है कि पूर्वोत्तर में झारखंड से गए आदिवासियों को असम की सरकार आदिवासी नहीं मानती। पूर्वोत्तर के आदिवासियों को बाकी भारत के लोग मिलने पर चीनी, बर्मी और तिब्बती समझ लेते हैं। इसीलिए पूर्वोत्तर का आदिवासी पूछता है- 'मुझ पर राज करते हो, पर पहचानते नहीं। ` और वे चल देते हैं अपनी जड़ों की खोज में कि वे कौन हैं। यहीं से शुरू होता है बेगानेपन का अहसास और अलगाववाद की प्रक्रिया। इसके लिए दोनों सिरों से प्रक्रिया शुरू करनी पड़ेगी--शेष भारत को और सरकार को। उन्हें एक दूसरे को जानना ही नहीं होगा, बल्कि महसूस भी करना होगा कि असम के बाद वाले राज्यों के बाशिन्दे भी भारतीय हैं। अभी तक तो शेष भारत की सोच असम तक जाकर ही रुक जाती है, जिस दिन पूरा भारत अपनी सारी भौगोलिक सीमाओं के भीतर रहने वालों को, खासकर आदिवासियों को पहचानने, और अपना मानने लगेगा, उस दिन सही मायने में भारत, भारत होगा। अभी तो भारत टुकड़ा-टुकड़ा या खंड-खंड अस्मिताओं की एक ढीली-ढीली भग्न इकाई है।

पानी की रानी और रानी माँ का दर्जा कैसे हासिल किया?

राजारामगढ़ कामाख्या नारायण सिंह के सामने कोई चुनाव नहीं जीत पाता था। रानी माँ सिंदूर बांटते हुए वोट मांगा करती थीं। वह चुटकी भर सिंदूर के नाम पर वोट पाती रही थीं। मैंने मांडू विधान सभा क्षेत्रा में चुनाव प्रचार छोड़कर वहाँ की मूल समस्या पानी की लड़ाई छेड़ दी थी। जब तक उनको पानी नहीे मिला मैंने लोगों, खासकर स्त्रिायों को साथ लेकर संघर्ष किया। तीन दिन तक एस.डी.ओ को घेरे रखा। तब जाकर टैंकरों से पानी भेजा गया। इसके बाद मैंने निंरतर कई लड़ाईयां पानी के लिए ही लड़ी। इसीलिए लोग मुझे 'पानी की रानी` कहते थे।

आपकी कौन-कौन-सी रचनाओं में आदिवासी चित्रिात हुए हैं?

झारखंड-खासकर हजारीबाग के जिले में(जब वह आज के पांच जिलों के बराबर था) मेरा संघर्ष और लेखन साथ-साथ चलता रहा है। मैंने प्रकति, प्रेम, स्त्राी, चीन, पाक़िस्तान पर कविताएँ लिखी हैं। शुरू में मेरी कविताएँ में प्रकृति वीर-रस और मिथकों पर आधारित रही हंै। आंदोलनों में आदिवासियों के साथ मैं कई बार जेल गई। आदिवासी नेताओं, अन्य मजदूर साथी महिला व पुरूषों के साथ हम दो महीने जेल में रहे। मेरी पहली पुस्तक 'अब और तब` 'गीत-अगीत` नाम से है। उसकी कविताएं अधिकतर धनबाद व पटना में ही लिखी गईं। कुल १६ काव्य संग्रह आ चुके हैं। 'गीत-अगीत` में दो भाग है 'गीत` में छंद-बद्ध पे्रम गीत है। 'अगीत` में विद्रोह, भगत सिंह जैसे क्रांति कारी कविताएँ हंै। 'आदिम मजदूर` जैसी मज़दूरों पर पहली कविता है 'तू केवल मिट्टी ढोता है/ यह सत्य नहीं है।` कई यथार्थवादी कविताएँ हंै। एक कविता है-'ललिता`। इस कविता की पात्रा ललिता जेब कतरी के जुर्म में हवालात में आती है। जब वह पेशी पर कोर्ट गई, तो वहीं से ही भाग जाती है। रांची में हटिया का कारखाना बना। मैं ट्रेड यूनियन के काम से वहाँ जाया करती थी। 'दृष्टिकोण बदलना होगा` कविता मैंने उसी दौरान लिखी। ''मैं क्रांति चाहता हूँ/ तो तुम हिंसा कहते हो/ मैं अन्याय का विरोध करता हँू/ उसका सर कुचलता हूँ/ जब मैं तीर चलाता हूँ/ तो तुम नक्सलवादी कहते हो/ 'वे बोलते नहीं थे`--भी मेरी मशहूर कविता है। ''वे बोलते नहीं थे/इसीलिए ज़रूरी सामान की तरह/ट्रकों में लाद कर भेज दिए जाते थे/कर्नाटक, असम और पंजाब।`` ''अब वे बोलने लगे हैं/भूख को रोटी और मार को लाठी/कहना सीख गये हैं/ वे मांगने लगे हैं हिसाब/ सड़क के नीचे कल-कल करती अपनी नदी का/ रिक्शा में ढोते हुए लोगों के फेफड़ों से धौंकनी-सी चलती सांसोंं का।`` ये कविताएं विस्थापित हो रहे आदिवासियों पर लिखी हैं मैंने। 'कब्रगाह` भी इन्हीं में से एक है। ''जहां मेरी पनवा चूल्हा धराती थी/आज मेरी उस ज़मीन पर फैक्ट्री की चिमनी धुआँ उगलती है।`` 'बहु जुठाई` कहानी संग्रह की ११ में से आठ आदिवासियों पर ही आधारित कहानियां हैं। 'मौसी` उराँव जनजाति की स्त्राी पर और 'सीता` करमाली जनजाति की आदिवासी स्त्राी की त्राासदी पर आधारित मेरे उपन्यास हैं। मेरा कथा साहित्य स्त्राी प्रधान रहा है। सीता ऐसी ही एक संघर्षशील पात्रा रही है। वह आज भी जीवित है।

मेरे आदिवासियों पर लेखन शुरू करने के पीछे भी एक कथा है। १९७८ में जब मैं अस्पताल में बीमार थी तो भारत यायावर ने कहा कि आप जिसकी लड़ाई लड़ती हैं, उस पर क्यों नहीं लिखती। तब मैंने कोलफील्ड की एक नायिका पर्वतिया पर एक कहानी लिखी। १९८० में जेल प्रवास के दौरान मज़दूर आन्दोलन से जुड़ी कई कविताएं लिखीं। जेल में और बाहर आने पर एक 'अरावली उद्घोष` के सम्पादक बी.पी.वर्मा पथिक के पत्रा मिलने के बाद से ही मैंने आदिवासियों पर लिखना आरभ किया(१९९८)। महाराष्ट्र में भी आदिवासी लेखन दलित साहित्यके अंतर्गत ही किया जाता रहा है। अब वे अलग विध बनाकर लिख रहे हैं। झारखंड में भी लिखा गया है, पर अपनी अपनी भाषाओंें में अधिक लिखा है, हिंदी में भी कोई कोई लिखते थे। संथाली में रघुनाथ मुर्मु १९५० से पहले ही लिखने लगे। उन्होंने संथाली लिपि 'ओल चिकि` में ही सारा साहित्य लिखा जाता रहा है। अब वे अलग विधा बना कर ही लिख रहे हैं। मेरी कई पुस्तकें आदिवासियों के बारे में प्रकाशित हो चुकी है। निज घरे परदेसी आदिवासी शौर्य और विद्रोह, आदिवासी-लोक (दो खंड) आदिवासी:विकास से विस्थापन, आदिवासी: साहित्यिक यात्राा, आादिवासी कौन आदि।

आपकी रचना-प्रक्रिया कया है?

प्रकृति से मुझे बेहद लगाव है और मनुष्य में अटूट विश्वास। ये दोनों मेरी रचनाओं के केन्द्र में रहे हैं। अन्याय और शोषण एक दिन खत्म होगा ही, ऐसा मेरा विश्वास है --इसलिए मेरा लेखन और मैं कभी हार कर भी हौसला नहीं हारते और ना ही जीत हम पर हावी होती है। संघर्ष करते-करते जब मैं थकान महसूस करती हूं तो ऊर्जा प्राप्त करने के लिए कविता के पास चली आती हूं और हौसला बटोर कर फिर संघर्ष में उतर जाती हूं। जहां कविता मुझे थकने नहीं देती वहीं संघर्ष मेरी रचना को नया तेवर, विषय, अनुभव, विधा, शब्द, भाषा और अलग पहचान देता है। मैं साहित्य की जनपक्षधरता में विश्वास रखती हूं और उसकी दिशा व दृष्टि को अनिवार्य मानती हूं लेकिन प्रकृति प्रेम, सौंदर्य की अनुभूति या कलात्मकता को वर्जित नहीं मानती।

हां, सत्य और यथार्थ को सौन्दर्य की कसौटी मानती हूं। मनुष्य कितने ही कटु यथार्थ में जीता हो -- समाज की किसी भी श्रेणी से सम्बद्ध हो -ऱ्ये सब तत्व सदैव उसके जीवन का अंग बने रहते हैं,भले इनके प्रति उसकी दृष्टि सापेक्षिक हो। मैं राजनीति से भी जुड़ी हूं लेकिन परिवर्तन के लिए समाजिक बदलाव के बिना केवल सता परिवर्तन को अप्रयाप्त मानती हूं। मैं अपनी रचनाओं में राजनीति से रू-ब-रू होने में गुरेज़ नहीें करती। दलित एवं स्त्राी की उपेक्षा और साम्प्रदायिकता के जहर ने भी मुझे हमेशा विचलित और उद्वेलित किया है। आदिवासी चूंकि प्रकृति का सहयात्राी और सहभागी है और उससे अपनी जीवन शक्ति और ऊर्जा तथा विश्वास अर्जित करात है, इसलिए प्रकृति की वह तरह ही वह मेरी कविता को सत्यता की ज़मीन, यथार्थ केक रंग और जीवन की ऊष्मा देता है।

मैंने सप्रयास कभी लेखन नहीं किया -- रचना स्वंय मेरे पास आती है -कविता हो या कहानी-बस लिख जाती है, लिखती नहीं मैं।

प्रकृति से और मनुष्य के उद्भव और विकास में अनवरत संघर्ष ही नज़र आता है मुझे, जिसे प्रेम और घृणा दानों संचालित करते हैं। इसलिए मेरी कविताओं में विकास की यात्राा और संघर्ष का विकास किसी न किसी रुप में होता रहता है--उभरता रहता है।

प्रकृति से प्यार मुझे भूगोल से जोड़ता रहा है और धरती के अन्तर तक खोज करने के लिए उकसाता है। मनोविज्ञान से लगाव ने मुझे नयी परिभाषाएं गढ़ने और विकास प्रक्रिया से जुड़ने की प्रेरणा दी है। मुझे सदा इतिहास ने आकर्षित किया--खासकर आदिम के इतिहास ने। आदमी का विकास मेरे लिए चुनौती रहा है और चुनौतियों को मैंने हमेशा स्वीकारा है। मेरी कविता ने इस खोज में, इस मुकाबले में हमेशा मेरा साथ दिया है।

इतिहास के गलियारों में घूमना मेरी आदत रही है। अपनी कल्पना के सहारे भविष्य के स्वप्न गढ़ना मुझे भाता है, पर वर्तमान का लगाव मुझे इतना जकड़े रहता है कि अतीत के संदर्भ कहीं वर्तमान से जुड़ जाते हैं और भविष्य की पतंग की डोर भी वर्तमान की घिरनी पर ही घुरने लगती है - कटी पतंग बन कर भटकती नहीं।

मेरी कविता जहां इतिहास की गुफ़ाओं के दस्तावेज पढ़ने को ठहरती है, वहीं आदम के प्रागैतिहासिक इतिहास में पहुंच उसके विकास, उद्गम तक को भी छू आती है। चूंकि मुझे हमेशा 'आदिम से आदमी तक` के विकास के प्रति एक चुम्बकीय आकर्षण रहा है-- और एक-कोणीय अमीबा भी अपनी ओर मुझे कहीं न कहीं तीसरी आंख की तरह खींचता रहा है, इसलिए मेरी कविता आज के आदमी को अमीबा की आंखों से देखने की धृष्टता भी कर बैठती है। अमीबा का टूटना, फिर विकसित होना, कभी न मरना, उसकी विनाश और सृजन की प्रवृत्ति का द्योतक है, जो आज भी आदमी की प्रकृति का हिस्सा है। विनाश और सृजन की उस प्रवृत्ति पर उसका नियंत्राण और उसे दिशा देने की उसकी क्षमता, ही आदमी के नर और पिशाच रूप का निर्धारण करती है।

मैंने गद्य लेखन बहुत देर से शुरु किया खास कर कहानी व उपन्यास विधा में। वह भी राम विलास शर्मा जी के इस कथन से प्रेरित होकर कि जो अनुभव मैंने आदिवासियों, दलितों और मज़दूरों के आंदोलन से प्राप्त किये हैं, उन्हें रूप दूं चाहे वे वर्णनात्मक शैली में ही क्यों न हों-- पर वे दस्तावेेजी होंगे। इसके बाद सीता, मौसी (उपन्यास) और बहू-जुठाई आदि कई कहानियां लिखीं और कई आलेख भी।

दलित और आदिवासी स्त्राी की उपेक्षा और साम्प्रदायिकता के जहर ने मुझे हमेशा विचलित और उद्वेलित किया। इसलिए मेरे अपने लेखन की दिशा इस ओर स्वत: मुड़ी और मैंने इस लेखन को एक आंदोलन और आंदोलन को लेखन के रूप में विकसित करने की मुहिम चलानी शुरु की। आज रचना और संपादन तथा स्वतंत्रा पत्राकारिता साथ-साथ चल रहे हैं। मैं सायास कभी नहीं लिखती -रचना स्वंय मेरे पास आती है।

रमणिका गुप्ता

सं: युद़्धरत आम आदमी

मेन रोड , हजारीबाग-८२५३०१

(बिहार)

संपर्क-रमणिका गुप्ता २२१-ए, डिफेंस कॉलोनी, नई दिल्ली

-रमेश चंद मीणा २-ए-१६, जवाहर नगर, बूंदी (राज.)

DALIT LITERATURE PART- 7

अमीचन्द्र शर्माश्री वाल्मीकि प्रकाश१००/-
सं. एस.एस. गौतमरविदास ने कहा : ऐसा चाहू राज मैं१०/-
(अनु.) सं. एस.एस. गौतमपेरियार ने कहा १०/-
(अनु.) सं. एस.एस. गौतममहात्मा फूले ने कहा : विद्या बिन मति गई १०/-
नारायणा गुरू१०/-
एन. एस. सुमनप्रणाम मेरे उद्दारक३९/-
माता प्रसादभारत में सामाजिक परिवर्तन के पेरणा श्रोत१८०/-
एन.एस. 'सुमन`प्रणाम मेरे उद्धारक३५/-
मोहन दास नैमिश्रायस्वतंत्राता संग्राम के दलित क्रांतिकारी१५०/-
डॉ. जुगल किशोरभारत के अग्रणी समाज सुधारक३५०/-
एम. आर. विजयीदलित दस्तावेज१५०/-
एम. सी. कमलदलित संघर्ष के महानायक१९५/-
डॉ. जुगल किशोर/रायमानव अधिकार आंदोलन के महान भारतीय यौद्धा१००/-
देवेन्द्र कुमार वैसन्तरीभारत के सामाजिक क्रांतिकारी१५०/-
डॉ. इग्नारिया टोप्पोबिरसा मुंडा : झारखण्ड आंदोलन के महानायक२००/-
कुमार सुरेश सिंहबिरसा मुंडा और उनका काल३००/-
मा. कांशीराम चमचा युग१००/-
डॉ. विवेक कुमारबहुजन समाज पार्टी एवं संरचनात्मक परिवर्तन५०/-
मोहनदास नैमिश्रायबहुजन पार्टी२००/-
स. अनुज कुमारबहुजन नायक : कांशीराम के अविस्मरणीय भाषण१००/-
डॉ. कुसुम मेघवालभारतीय राजनीति के आलोड़नकर्ता कांशीराम१००/-
कमलकांत सिंहविश्व की महान वीरांगना कु. मायावती१२५/-
अशोक गजभियेअतुलनीय महिला मायावती२५०/-
एच. एल. दुसाधसामाजिक परिवर्तन और बी. एस. पी१५०/-
कंवल भारतीमायावती और दलित आंदोलन१५०/-
संकलनबहुजन नायक मा. कांशीराम साहब के भाषण भाग-१ व ३९५/-
एस. एस. गौतमबहुजन नायक मा. कांशीराम साहब स्मृति ग्रंथ३००/-
K. VeeramaniPeriyar : Is There a God45/-
G. AloysisPeriyar on Islam20/-
Dhananjay KeerMahatma Jyoti Rao Phule300/-
J. Govindrao PhuleCollected Works of Phule: vol.III52/-
N.G. PawarMahatma Jyoti Rao Phule400/-
Shukdev SinghThe Bijak of Kabir225/-
Darshan SinghA Study of Bhakta Ravidas110/-
R. Chandra/K.ChanchreekSant Ravidas & His Contemporaries400/-
G.N.DasCouplets from Kabir 95/-
Vivek KumarDalit Assertion & Bahujan Samaj Party50/-
Dr. V.D. ChandanshiveKanshi Ram The Crusader50/-
Vivek KumarDalit Assertion & Bahujan Samaj Party50/-
Dr. V.D. ChandanshiveKanshi Ram The Crusader50/-
Sudha PaiDalit Assertion & the Unfinished290/-
Democratic Revolution : BSP in U.P.
Dr. Vivek KumarDalit Leadership in India650/-
Christope JafferloteIndia's Silent Revolution in North India695/-
Manohar AteyThe Editorials of Kanshi Ram 150/-
Collected Works of Periyar (2vols)300/-
M.D. Gopalkrishnan Garland to Periyar45/-
K. Veeramani Periyar on Religion45/-
K. Veeramani Periyar on Women Right45/-
M.D. Gopalkrishnan Periyar: The Father of Tamil Race40/-
K. Veeramani Gods of Ingersole: Periyar 45/-
K. Veeramani Periyar : Is There a God45/-
G. Aloysis Periyar on Islam20/-
W.M. Callewaeri The Millennium of Kabir Vani950/-
Shukdev Singh The Bijak of Kabir225/-
Darshan Singh A Study of Bhakta Ravidas110/-
R. Chandra/K.Chanchreek Sant Ravidas & His Contemporaries400/-
G.N.Das Couplets from Kabor 95/-
संत रविदास का विचार दर्शन
एम. आर. बिखानीश्री गुरू रविदास : पतित उद्धारक२५०/-
गुरनाम सिंह मुक्तसरकहि रविदास चमारा२००/-
डॉ. महेश प्रसाद अहिरवारश्रमण परंपरा और गुरू रैदास ५०/-,१००/-
स. मीरा गौतमगुरू रविदास : वाणी एवं महत्व४५०/-
डॉ. सुकदेव सिंहरैदास वाणी ९५/-,३२५/-
श्याम सिंहसंत रैदास की मूल विचारधारा६०/-
डॉ. मीरा गौतमसंत रविदास की निर्गुण भक्ति२००/-
आचार्य रजनीशसत-भाषे रैदास५०/-
आचार्य रजनीशऐसी भक्ति करे रैदास४०/-
वीरेन्द्र पाण्डेयसंत रविदास४१/-
डॉ. एन. सिंहरैदास ग्रन्थावली३५०/-
स. गोविन्द रजनीशरैदास रचनावली२००/-
डॉ. रमेशचन्द्ररैदास समग्र२००/-
माता प्रसादसंत शिरोमणि गुरू रविदास२००/-
डॉ. रमेशचन्द्र संत रैदास : वाणी और विचार२००/-
स. डॉ. धर्मपाल सिंहलसंत गुरू रविदास ग्रंथावली१२५/-