''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` नवीन धारणाओं का शोधपूर्ण दस्तावेज --जयपकाश वाल्मीकि

समयांतर अक़्र्तुबर २०१०
पुस्तक समीक्षा
''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` नवीन धारणाओं का शोधपूर्ण दस्तावेज।
जयप्रकाश वाल्मीकि
श्री संजीव खुदशाह दलित रचनाकार है। इस पर भी वे इस समुदाय पर एक शोधकर्ता रचनाकार के रूप में पहचाने जाते है। उनकी यह पहचान पूर्व में लिखी उनकी पुस्तक -'सफाई कामगार समुदाय` के कारण बनी। और अब यह पहचान और भी ज्यादा पुष्ठ हो गई हे। चुकि इस कड़ी में हाल ही में उनकी नवीन पुस्तक ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` एक शोधपूर्ण आलेख (दस्तावेज) है। पिछड़े वर्ग को लेकर समाज में जो मिथक बने हुए थे लेखक ने उससे अलग हट कर वास्तविकताओं को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है।
पुस्तक की शुरूआत मानव उत्पत्ति पर विचार करते हुए की गई है। श्री खुदशाह ने इस हेतु धर्मशास्त्रों में मानव उत्पत्ति को लेकर की गई व्याख्यापित मान्यताओं को सम्मलित किया है। हिन्दूधर्म ग्रन्थों के, ईसाई धर्म, (सृष्टि का वर्णन) मुस्लिमधर्म (सुरतुल बकरति, आयात सं.-३० से ३७) को भी उद्घृत कर अंत में वैज्ञानिक मान्यताओं के अंतर्गत स्पष्ट किया है कि मानव उत्पत्ति करोड़ो वर्ष के सतत विकास का परिणाम है। लेखक ने मानव उत्पत्ति की धर्मिक अवधारणाओं के साथ-साथ पूर्व की वैज्ञानिक अवधारणाओं को भी तोड़ा है। जैसे कि डार्विन का मत था कि माानव की उत्पत्ति वानर(बंन्दर) से हुई। हालाकि मानव उत्पत्ति से पहले अध्याय की शुरूआत रोचक और ज्ञानवर्धक है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को जिस तार्किक और तथ्यपूर्ण ढंग से लेखक ने पाठकों के समक्ष रखा है। वह विषय में पाठकों को एक नई दृष्टि देते है। फिर भी ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` पुस्तक की शुरूआत अगर मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को सुलझाते हुए नही भी की जाती तो भी पुस्तक का मूल उद्देश्य प्रभावित नही होते। चुंकि भारत में जातिय प्रथा होने के कारण मानव का शोषक या शोषित होना या शासक या शासित होना यहां की धार्मिक व सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण है। इसलिए भी पुस्तक के विद्वान लेखक श्री संजीव खुदशाह ने पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए हिन्दूधर्म शास्त्रों, स्मृतियों सहित कई विद्वान जनों के मतों को खंगाला और उसे उद्धृत किया है।
चार अध्यायों में समाहित श्री संजीव खुदशाह की यह पुस्तक पिछड़े वर्ग से संबंधित अब तक बनी हुई अवधारणाओं, मिथक तथा पूर्वाग्रह जो बने हुए है उनकी पड़ताल कर पाठकों के सामने तर्क संगत ढंग से मय तथ्यों  के वास्तविकताएं रखती है। जैसे आज के पिछड़े वर्ग हिन्दू धर्म के चौथे वर्ण ''शूद्र`` से संबंधित माना जाता है। किन्तु श्री संजीवजी के शोध प्रबंध से स्पष्ट यह  होता है कि आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग मूलरूप् से आर्य व्यवस्था से बाहर के लोग है। शूद्र वर्ण के नहीं। यह अलग बात है कि बाद में इन्हे शूद्रों में समावेश कर लिया गया। विद्वान लेखक ने इसे स्पष्ट करने से पूर्व शूद्र वर्ण की उत्पत्ति और उसके विकास को रेखांकित किया है। उनके अनुसार आर्यों में पहले तीन ही वर्ण थे। लेखक ऋग्वेद, शतपथ ब्राम्हण और तैतरीय ब्राम्हण सहित डॉ. अम्बेडकर के हवाले से कहा है कि यह तीनों ग्रन्थ आर्यो के पहले ग्रन्थ है और ये केवल तीन वर्णो की ही पुष्टि करते है।(पृष्ठ-२६)
वैसे ऋग्वेद के अंतिम दसवें मंडल के पुरूष सुक्त में चार वर्णो का वर्णन हे किन्तु उक्त दसवे मंडल को बाद में जोड़ा हुआ माना गया। अधिकांश विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद की यह दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया। क्रिथ के अनुसार यह कार्य १०००-८००ई. वी. पूर्व में हुआ। भाषा विद्वानों ने कहा -'इसकी भाषा, प्रयोग तथा व्याकरण पूर्व के मंडलों से सर्वथा भिन्न है।` (पृष्ठ-३६)
शूद्रों के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए श्री खुदशाह ने दोहराया कि सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियां अनार्य थी। जो आज हिन्दूधर्म की संस्कृति को संजाये हुए है। क्योकि कोई ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन सूचियों में (अनुलोम (स्पर्शय) प्रतिलोम (अस्पर्शय) संतान की सूचियां, जिसे लेखक ने पृष्ठ २८-२९ पर दी है) अवैध संतान घोषित नही किए गए है (पृष्ठ-३०) वे आगे लिखते है-''यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि मनु ने शूद्र को उच्च वर्णो की सेवा करने का आदेश दिया है, किन्तु इन सेवाओं में  ये पिछड़े वर्ग के कामगार नहीं आते। यानी पिछड़ा वर्ग के कामगारों के कार्य उच्च वर्ग की प्रत्यक्ष कोई सेवा नहीं करते। जैसा कि मनु ने कहा है। शूद्र उच्च वर्णो के दास होगे, यहां दास से सम्बंध उच्च वर्णो  की प्रत्यक्ष सेवा से है।`` वे आगे लिखते है-''उक्त आधारों पर कहा जा सकता है कि
१.     ''शूद्र कौन और कैसे`` में दी गई व्याख्या के अनुसार क्षत्रियों की दो शाखा सूर्यवंशी तथा चंन्द्रवंशी में से ''सूर्यवंशी`` अनार्य थे, जिन्हे आर्यो द्वारा धार्मिक, राजनीतिक समझौते द्वारा क्षत्रिय वर्ण में शामिल कर लिया गया।
२.    बाद में इन्हीं सूर्यवंशीय क्षत्रियों का ब्राम्हणों से संघर्ष हुआ ने इन्हे उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया। इन्ही संघर्ष के परिणाम से नये वर्ग की उत्पत्ति हुई, जिन्हे शूद्र कहा गया। में ब्राम्हण वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत आते थे यही से चातुर्वर्ण  परम्परा की शुरूआत हुई। शूद्रों में वे लोग भी सम्मलित थे जो युध्द में पराजित होकर दास बने फिर वे चाहे आर्य ही क्यों न हो।  अत: शूद्र वर्ण आर्य-अनार्य जातियों का जमावड़ा बन गया (पृष्ठ, ३०-३३-३४) यह तो रहा शूद्रों का उद्भव व विकास।

शेष कामगार (पिछड़ा वर्ग) जातिया कहां से आयी। इसका उत्तर निम्न बिन्दूवार दिया गया।
१.     यह जातियां आर्यो के हमले से पूर्व से भारत में विद्यमान थी, सिन्धुघाटी सभ्यता के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि उस समय लोहार, सोनार, कुम्हार जैसी कई कारीगर जातियां विद्यमान थी।
२.    आर्य हमले के प्रश्चात् इन कामगार पिछड़ेवर्ग की जातियों को अपने समाज में स्वीकार करने की कोशिश की, क्योकि-
(अ)   आर्यो को इनकी आवश्यकता थी क्योकि आर्यो के पास कामगार नही थे।
(ब)   आर्य युध्द, कृषि तथा पशुपालन के सिवाय अन्य किसी विद्या में निपूण नही थे।
(स)   आर्य इनका उपयोग आसानी से कर पाते थे, क्योकि ये जातियां आर्यो का विरोध नही करती थी चुकि ये कामगार जातियां लड़ाकू न थी।
(द)   दूसरी अन्य राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वी असुर, डोम, चाण्डाल जैसी अनार्य जातियां जो आर्यो का विरोध करती थी आर्यो द्वारा कोपभाजन का शिकार बनी तथा अछूत करार दी गई।
३.    चुंकि कामगार अनार्य जाति जो शूद्रों में गिनी जाने लगी। इसलिए सूर्यवंशी अनार्य क्षत्रिय जातियों के साथ मिल कर शूद्रों में शामिल हो गई। (पृष्ठ-३१-३२)
श्री संजीव खुदशाह की यह पुस्तक स्पष्ट करती है कि शूद्र तथा आज का पिछड़ा वर्ग समुदाय आर्यो की चातुवर्णी व्यवस्था के बाहर के अनार्य समुदाय के लोग थे।
अभी तक यह अवधारणा थी कि शूद्र केवल शूद्र है, किन्तु आर्यो ने शूद्रों को भी दो भागों में विभाजित किया हुआ थां एक अबहिष्कृत शूद्र, दूसरा बहिष्कृत शूद्र। पहले वर्ग में खेतीहर, पशुपालक, दस्तकारी, तेल निकालने वाले, बढ़ई, पीतल, सोना-चांदी के जेवर बनाने वाले, शिल्प, वस्त्र बुनाई, छपाई आदि का काम करने वाली जातियां थी।  इन्होने आर्यो की दासता आसानी से स्वीकार कर ली। जबकी बहिष्कृत शूद्रों में वे जातियां थी, जिन्होने आर्यो के सामने आसानी से घुटने नही टेकें विद्वान ऐसा मानते है कि ये अनार्यो में शासक जातियों के रूप् में थी। आर्यो के साथ हुए संघर्ष में पराजित हुई। इन्हे बहिष्कृत शूद्र जाति के रूप् में स्वीकार किया गया। इन्हे ही आज अछूत (अतिशूद्र) जातियों में गिना जाता है। जैसे चमड़े का काम करने वाली जाति, सफाई करने वाली जाति आदि (पृष्ठ ३८)
जिस तरह शूद्रों को दो वर्गो में बांटा गया है। संजीवजी ने कामगार पिछड़े वर्ग (शूद्र) को भी दो भागों में बांटा है-(१) उत्पादक जातियां (२) गैर उत्पादक जातियां। किन्तु पिछड़े वर्ग में जिन जातियों को सम्मिलित किया गया है उसमें भले ही अतिशूद्र (बहुत ज्यादा अछूत) जातियां का समावेश न हो किन्तु उत्पादक व गैर उत्पादक दोनो तरह की जातियों को पिछड़ा वर्ग माना गया हैं। संजीव जी ने ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` के चौथे अध्याय (जाति की पड़ताल एवं समाधान) में पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों की जो अधिकारिक सूची दी है। उसमें भी यही तथ्य है। जैसे लोहार, बढ़ई, सुनार, ठठेरा, तेली(साहू) छीपा आदि यह उत्पादक कामगार जातियां है। जबकी बैरागी (वैष्णव) (धार्मिक भिक्षावृत्ति करने वाली) भाट, चारण (राजा के सम्मान में विरूदावली का गायन करने वाली) जैसी बहुंत सी गैर उत्पादक जातियां है। पिछड़े वर्ग में उन जातियों को भी सम्मिलित किया गया है। जो हिन्दू धर्म में अनुसूचित जाति के तहत आती होगी। किन्तु बाद में उन्होने ईसाई तथा मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया; लेकिन धर्मान्तरण के बाद भी उनका काम वही परंपरागत रहा। जैसे शेख मेहतर(सफाई कामगार) आदि।
पुस्तक लेखक श्री संजीव खुदशाह ने पिछड़े वर्ग की पहचान भारत के मूल निवासी अनार्यो के रूप में पहले अध्याय में कर के यह भी स्पष्ट कर दिया था कि पिछड़े वर्ग को कैसे शूद्र वर्ण में तब्दील किया गया था। इसके बाद भी वे पुस्तक के दूसरे अध्याय -''जाति एवं गोत्र विवाद तथा हिन्दूकरण`` में पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति के बारे में स्मृतियों, पुराणों के मत क्या है, उसे पाठकों के सामने रखते है। क्योकि पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां अपने को क्षत्रिय और ब्राम्हण होने का दावा करती रही है। लेखक ने उसके कुछ उदाहरण भी दिए है किन्तु हम भी लोक जीवन में कई ऐसी जातियों को जानने लगे है। जिनका कार्य धार्मिक भिक्षावृत्ति या ग्रह विशेष का दान ग्रहण करना रहा है। सीधे तौर पर अपने आप को ब्राम्हण बतलाती है तथा शर्मा जैसे सरनेम ग्रहण कर चुकी है। आज वे पिछड़ा वर्ग की अधिकारिक सूची में दर्ज है। जबकी हिन्दू स्मृतिया इन्हे वर्णसंकर घोषित करती है। और इन्ही वर्ण संकर संतति में विभिन्न निम्न जातियों का उद्भव हुआ भी वे बताती है।
पिछड़े वर्ग की जो जातियॉं स्वयं को क्षत्रिय या ब्राम्हण होने का दावा करती है। लेखक ने उनमें मराठा, सूद और भूमिहार के उदाहरण प्रस्तुत किये है। किन्तु उच्च जातियों ने इनके दावों को कभी भी स्वीकार नही किया। यहां शिवाजी का उदाहरण ही पर्याप्त होगा। मुगलकाल में मराठा जाति के शिवाजी ने अपनी विरता से जब पश्चिमी महाराष्ट्र के कई राज्यों को जीतकर उनपर अपना अधिकार जमा लिया और राज तिलक कराने की सोची। तब ब्राम्हणों ने उनका राज्याभिषेक कराने से इंकार कर दिया तथा तर्क दिया कि वे शूद्र है। इस अध्याय में गोत्र क्या है? तथा अनार्य वर्ग के देव महादेव का कैसे हिन्दूकरण किया गया जाकर बिना धर्मान्तरण के अनार्यो को हिन्दू धर्म की परिधि में लाया गया की विद्वतापूर्ण विवेचना की गई है। इस अध्याय में बुध्द के क्षत्रिय होने का जो मिथक अबतक बना हुआ था, वह भी टूटा है और यह वास्तविकता सामने आई की वे शाक्य थे और शाक्य भारत में एक हमलावर के रूप में आये। बाद में ये जाति भारतीयों के साथ मिल गई और यह जाति शूद्रों में शुमार होती थी। (देखे पृष्ठ-७१,७२)
अध्याय-तीन ''विकास यात्रा के विभिन्न सोपान`` में लेखक ने उच्चवर्गो के आरक्षण को रेखांकित किया तथा पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की पृष्ठभूमि को भी वर्णित करते हुए लिखा है कि- जब हमारा संविधान बन रहा था तो हमारे पास इतना समय नही था कि दलित वर्ग में आने वाली सभी जातियों की शिनाख्त की जा सकती ओर उन्हे सूचीबध्द किया जाता। अन्य दलित जातियों (पिछड़ा वर्ग की जातियां) की पहचान और उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए संविधान में एक आयोग बनाने की व्यवस्था की गई। उसी अनुसरण में २९ जनवरी १९५३ में काका कालेलकर आयोग बनाया गया। यह प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन था। किन्तु इस आयोग ने इन जातियों की भलाई की अनुशंसा करने के बजाय ब्राम्हणवादी मानसिकता प्रकट की जिससे पिछड़ों का आरक्षण खटाई में पड़ गया। बाद में १९७८ को  मण्डल आयोग बना जिसे लागू करने का श्रेय वी.पी.सिंह को गया। मण्डल आयोग ने एक खास बात अपनी रिपोर्ट में शामिल की। वह यह थी कि कुछ जातियां गांव में अछूतपन की शिकार है इन्हे अनुसूचित जाति में शामिल करने की अनुशंसा की।
संजीवजी ने पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने के विषय और उसके विरोध की व्यापक चर्चा की है। तथा उन संतों तथा महापुरूषों का भी उल्लेख किया है। जिन्होने पिछड़े वर्ग में सामाजिक चेतना का अलख जगाया।
चाल अध्याय और १४१ पृष्ठों में समाहित यह पुस्तक वास्तव में एक ऐसा शोध है जो आम आदमी के पूर्वाग्रह एवं उसकी पहले से बनी अवधारणाओं को बदल कर पिछड़े वर्ग की वास्तविकताओं को सामने लाती है। लेखक ने इसे लिखने से पहले काफी शोध किया है। कई प्रश्न वे ऐसे खड़े करते है जिनका उत्तर जात्याभिमानी लोगों को देना कठिन है। इस अनुपम कृति के लिए संजीव खुदशाह बधाई के पात्र है। यदि पिछड़ी जाति समुदाय के लोग अभी भी पूर्वाग्रह को त्याग कर इस पुस्तक में खुदशाह जी द्वारा रखी वास्तविकताओं को स्वीकार कर अपना उत्थान करने के लिए आगे आतीं है तो उनका परिश्रम सफल होगा।

जयप्रकाश वाल्मीकि
१४, वाल्मीकि कालोनी,
द्वारिकापुरी के पास,
शास्त्री नगर,
जयपुर-३०२०१६(राजस्थान)

दलित मुव्हमेंट ऐसोसियेशन ग्रुप के शानदार तीन वर्ष पूरे करने पर भी बधाई स्वीकार करें।

माननीय सदस्यगण,

दलित मुव्हमेंट ऐसोसियेशन

आप इस ग्रुप के शानदार तीन वर्ष पूरे करने पर भी बधाई स्वीकार करें।

आज दलित मुव्हमेंट ऐसोसियेशन ग्रुप भारत का सबसे लोकप्रिय दलित एवं मानव अधिकार ग्रुप बन कर उभरा है। जिसके करीब ५०० सदस्य है तथा लगभग ६०० विषयों पर खुल कर चर्चा हुई है अथवा लेख, कविताएं, कहानियां एवं पुस्तक समीक्षा प्रेषित की गई है। यह सब इसके सक्रिय सदस्यो की बदौलत संभव हो सका। हम सभी सदस्यों के शुक्रगुजार है तथा आशा करते है भविष्य में भी इस प्रकार सहयोग बनाये रखेगें।

हम इस ग्रुप के दो वर्ष पूरा करने के उपलक्ष्य में आपसे सलाह शिकायत एवं नये प्रस्ताव आमंत्रित करते है। ताकि इसमें आवश्यक सुधार किया जा सके।

संजीव खुदशाह, गोल्डी एम जॉर्ज, अमित गोयल, विरेंद जाटव

माडरेटर एवं मेनेजर्स

(दलित मुव्हमेंट ऐसोसियेशन)

sanjeevkhudshah@gmail.com
http://dalit-movement-association.blogspot.com

दलित विमर्श : दलित समाज की रचनात्मक चुनौती -- रमेश चंद मीणा

द प‍‍‍ब्लि‍‍क एजेंडा ७ जुलाइ २०१०

दलित विमर्श : दलित समाज की रचनात्मक चुनौती -- रमेश चंद मीणा

रमणिका फाउंडेशन की पत्रिका "युद्धरत आम आदमी' ने अपने विशेषांकों के माध्यम से स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों के सर्जनात्मक और वैचारिक संघर्षों को हिंदी के पाठकों तक पहुंचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इस कड़ी में अभी हाल ही में दो खंडों में प्रकाशित उनका विशेषांक उल्लेखनीय है जो दलितों में भी दलित बाल्मीकि समाज के सृजन और संघर्ष पर आधारित है।

जो लोग/तुम्हें तुम्हारे नाम से नहीं/तुम्हारे काम से पुकारते हैं/जो लोग तुम्हारे बच्चों को/देते हैं मुंह भर गालियां/जो लोग/मनुष्य नहीं समझते तुम्हें/वे लोग/हर सुबह तुम्हारे आने का/इंतजार करते हैं/तुम चाहो तो उनसे/छीन सकते हो/उनकी सुबह।'
-देवांशु पाल : "मल-मूत्र ढोता आदमी'भारतीय संस्कृति में जो भी बाहर से आया, उसे स्वीकार किया गया पर जो अपने समाज के अंग के रूप में जाने-माने गये, उन्हें कुछ नहीं दिया- सिवाय दुत्कारने, अपमानित करने और जलील करने के। जिनके बल पर वे समाज सुचारु रूप से गतिमान रहा है, उन्हें धर्म, दर्शन और आध्यात्म की घुट्टी जन्म से ही पिला-पिला कर "बे्रनवाश' किया गया कि तुम्हारे पूर्व कर्म नीच रहे इसलिए नीच कुल में पैदा हुए हो। इस दर्शन को ठीक से चुनौती नहीं दी जा सकी। चार्वाक और बौद्ध ने प्राचीन और रूढ़ हो चुके धर्म को चुनौती अवश्य दी पर वह अधिक समय तक इनके यंत्र के आगे टिक नहीं सके। गांधी हो या मस्तराम कपूर ये सब उसी व्यवस्था केषड् हिस्से रहे हैं जो उदारता के मुखौटे कहे जा सकते हैं, शायद इसीलिए समाज का एक बड़ा तबका सदियों मल-मूत्र ढोता रहा और कभी बगावत नहीं कर सका।
पहली बार डॉक्टर आंबेडकर के आगमन से भेद-भाव पूर्ण वर्ण व्यवस्था को जबर्दस्त चुनौती मिली है। इसी कड़ी में रमणिका फाउंडेशन से प्रकाशित "युद्धरत आम आदमी' के विशेषांक "सृजन के आइने में मल-मूत्र ढोता भारत' और "मल-मूत्र ढोता भारत:विचार की कसौटी पर' को अनूठा और क्रांतिकारी कदम कहा जा सकता है।
पत्र-पत्रिकाओं के समय-समय पर दलित विशेषांक आये हैं लेकिन "मल-मूत्र ढोता भारत' पर पहल करने वाला यह पहला कदम कहा जायेगा। इस संस्था की दशा ऐसे प्रयास पहले भी किये जाते रहे हैं जिससे आम आदमी अपनी आवाज स्वयं बन सके। पूर्व में भी आदिवासी विशेषांक के माध्यम से मूक आदिवासियों और दलितों की आवाज उठायी जा चुकी है।
"मल-मूत्र ढोता भारत' किसी भी सामान्य समझ रखने वाले आदमी के लिए शर्म की बात है। लोकतंत्र की आधी सदी के बाद भी अगर ऐसी अमानवीय प्रथा इस देश में चल रही है तो यह न केवल एक समुदाय के लिए अपितु पूरे देश के लिए शर्मनाक है। कोई समुदाय अपनी मर्जी के किसी दूसरे समुदाय का मल-मूत्र ढोता रहे, बिना किसी ना-नुकर के- यह समझ से परे तो है ही, साथ-ही-साथ समाज विशेष की क्रूरता, अमानवीयता को सामने भी लाता है। जाहिर है समाज की विसंगति को प्रगट करने वाला साहित्य परंपरागत साहित्य की जद से बाहर ही रहा है।शिक्षा और संपत्ति,दोनों ही समाज के नियंताओं के वर्चस्व में रहे हैं। परिवर्तनकारी शिक्षा और संपत्ति से दलितों को बाहर रखा गया है। "सृजन के आइने में मल-मूत्र ढोता भारत' में साहित्य की न केवल हर उस विधा को लिया गया है, जिसमें भंगी का जीवन, स्पंदित, मुखरित और चित्रित हुआ है, अपितु देश की मुख्य भाषाओं में जहां भी दलित साहित्य रचा जा रहा है, सभी का सफल संयोजन किया गया है।
दलित साहित्य में जातीय प्रताड़ना, दंश और शोषण की अंतहीन कहानी रही हैं, जो आत्मकथाओं में कई रूपों में उभर कर आती है। भगवान दास की "मैं भंगी हूं', ओमप्रकाश वाल्मीकि की "जूठन', सुशीला टाकभौरे की "शिकंजे का दर्द' सूरजपाल चौहान की "तिरस्कृत' जैसी आत्मकथाओं में मैला ढोते समाज की कड़वी सच्चाई बयां होती है।
दलित कवि के तेवर तीखे हैं, भाषा अनगढ़ और कर्णकटु है पर लगता है जैसे हर शब्द जवाब मांग रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि हो या मलखान सिंह या नये कवि राज वाल्मीकि भाषा और विषय वस्तु में समानता देखी जा सकती है। जब से उसने कलम पकड़ी है तब तबसे कुछ ऐसे ही फूटते हैं- "जब भी देखता हूं मैं/झाड़ू या गंदगी से भरी बाल्टी/कनस्तर किसी हाथ में/मेरी रगों में/दहकने लगते हैं/यातनाओं के कई हजार वर्ष।' (पृष्ठ 123) भंगी, मेहतर और भी कई नाम दिये किसने दिये? और क्यों दिये? देव कुमार सही सवाल करते हैं- "चांडाल था/श्वपच था/अन्त्यज था/फिर भी मैं ही डोम बना। मुझे अपना नाम रखने का भी हक नहीं मिला।' (पृष्ठ 127)
अछूत शब्द को लेकर एक वर्ग द्वारा नाक भों सिकोड़ी जाती रही है, तो दूसरी तरफ इससे आहत होने वाला वर्ग ही ऐसा सवाल कर सकता है- "आखिर उस एक अछूत शब्द में/ऐसा क्या था जो आकाश से टपका नहीं/जमीन से उगा नहीं/मेरे चेहरे पर भी लिखा नहीं था/मगर वह उसे लगातार पढ़ रहा था।' (पृष्ठ 128) अछूत शब्द, शब्दभर नहीं है। इस शब्द की पीड़ा, जहालत और कोढ़ को जीती है मेहतर जाती। उसे भी जीवन जीने का पूरा हक होते हुए भी नहीं दिया गया। क्या कहते हैं उनके धर्म ग्रंथ, पुराण और दर्शन। जिनमें लिखा है इस जाति को हमेशा बिना किसी बगावत और विद्रोह के खपते रहने का। सूरजपाल चौहान का तर्क है- "तुम कहते हो बहुत गर्व से/कि बसती है/गांवों में आत्मा भारत की/तुम आओ सिर्फ चंद रोज के लिए/उसी स्वर्ग की भंगी बस्ती में।' (न्यौता-135) वे हमेशा जिस स्वर्ग में रहते रहे हैं वह भी इस वर्ग की मेहनत और परिश्रम से बना है।
मलखान सिंह की "सुनो ब्राह्मण', ब्राह्मणवाद को चुनौती देती चर्चित कविता है। "मुझे गुस्सा आता है' कविता में उनको संबोधित करते हैं, जो "सबके-सब आदमी के आभूषण है /हम जैसे गुलामों के नहीं/मेरी बात मानों/अपने वंश के हित में/आदमी बनने का ख्वाब छोड़ दो/और चुप्प रहो।' (पृष्ठ 149) द्वारका भारती तो यही आह्वान कर रहे हैं कि कविता में बदलाव की बात आनी ही चाहिए- "मुझे शिद्दत से इंतजार है/आपकी उस कविता का/और उसके अंदर खौलते/ज्वालामुखी का।' नीरव पटेल दलितों की एकता की कामना में बाबा को याद रखने और उनके अनुसार चलने की हिदायत देते हुए लिखते हैं-"तुम भूल गये कबीर दादा को/तुम भूल गये रैदास दादा को/इतनी जल्दी भूल गये बाबा की बात/अपने बाबा की वसीयत/तुम फिर से पढ़ो/और आज के बाद कभी मतपूछो/कि मैं बड़ा कि मेरा भाई।'
कथा साहित्य में भी असमानता, विषमता और जातीय दंश की तपन महसूस की जा सकती है। बाबूराव बागुल की "विद्रोह' में पुरानी और नयी पीढ़ी की टकराहट और द्वंद्व "बीच बहस में' कहानी की याद दिला जाती है। फर्क है तो इतना कि पिता वाल्मीकि परंपरा निभा रहा है, तो बेटा अंबेडकरी विद्रोह- जो मैला ढोने की नौकरी से साफ इंकार करता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की "शव यात्र' बल्हार महा दलितों की ऐसी कहानी है, जो समाज का मैला और शव ढोते हुए अपने आपको शव में तब्दील कर देते हैं। यह कहानी दलितों में व्याप्त जाति के सच को बेरहमी से उजागर करती है। भगवान दास की "शूद्र का श्राप' में कथित धर्मावतारों के ढोंग को उजागर कर दलित चेतना को जगाने का प्रयास किया गया है। जिसमें क्षत्रिय राम भी ब्राह्मणों की चालों को नहीं समझ पाते हैं और शूद्र शंबूक का वध इसलिए करवा देते हैं कि वह उनके स्वर्ग में प्रवेश करने का दुःसाहस करता है।
पूनम तुषामड़ की "गंगा', सविता चड्डा की "बिब्बो' और पुन्नीसिंह की "हारे को हरि नाम' में मेहतर समाज की स्थिति को कलात्मकता से यंत्र उजागर किया गया है।
वाल्मीकि शब्द इनसे क्यों जोड़ा गया? इस शब्द से जुड़े षड् का खुलासा होता है तो अंधविश्वास का कोहरा छटता है। वाल्मीकि शब्द से जुड़कर हालांकि अधिकांश दलित गौरवान्वित होते रहे हैं। रमेश भंगी इस "शब्द प्रपंच' की तह तक जाते हैं और घोषणा करते हैं कि वाल्मीकि कहलाने/बनने से कोई बदलाव नहीं आ जाता, यह शब्द भी वहीं गंध देता है जो भंगी से आती है। रामायण के रचयिता से अपने आपको जोड़ लेने से "कुछ विद्वान यह कह सकते हैं कि भंगी कहने में हिकारत और जहालत का बोध होता है जबकि वाल्मीकि कहने में भंगीपन का बोध नहीं होता। भंगी को संस्कारित कर वाल्मीकि बना दिया गया।' (रमेश भंगी शब्द प्रपंच पृष्ठ 77) भंगी एक ऐसी पहचान है जो लाख छुपाने पर भी नहीं छुपती। इसलिए रमेश भंगी घोषणा के साथ इस शब्द से न केवल जुड़ते है अपितु भंगी में छुपी मार्शलिटी की पहचान करते हैं। "भंगी से वाल्मीकि होने का अर्थ है, अपने पूर्वजों के दर्द से नाता तोड़ना। वाल्मीकि की चादर ओड़ लेने भर से नफरत नहीं रुक सकती।'
संत रैदास और वाल्मीकि ये दोनों जातियों के इष्ट देव की तरह माने गये हैं। विवाद वाल्मीकि को लेकर रहा है। रत्नाकर डाकू या बांबी से बने वाल्मीकि यदि भंगी ही थे तो संस्कृत के प्रकांड विद्वान कैसे हुए? मूलचंद सोनकर इस शब्द को लेकर सही बहस छेड़ते हैं कि जो व्यक्ति ठीक से राम नहीं बोल सकता, वह यकायक संस्कृत का विद्वान कैसे बन सकता है? अपनी रामायण में दलित चेतना के वाहक शंबूक, दलित शौर्य के प्रतीक बालि की हत्या करने वाले राम का जीवन चरित्र लिखने वाला वाल्मीकि, मैला ढोने वाली जातियों का आदि पुरुष कैसे हो सकता है' इसे संयोग ही कहेंगे कि एक तरफ हिंदू महासभा ब्राह्मण वाल्मीकि को भंगियों का पूर्वज बता रही थी तो दूसरी तरफ गांधी उनके घृणित पेशे को ब्राह्मणों के पेशे के समक्ष महान घोषित कर रहे थे। भूतकाल के स्वर्गिक भाव लोक में रहना हिंदू संस्कृति का शगल रहा है। वे आदिकाल को सर्वगुण संपन्न बताते हैं तो हिंदी साहित्य के भक्तिकाल को स्वर्ण युग से नवाजते रहे हैं। रमेश भंगी का मानना है कि वाल्मीकि के नाम से दलित अपने इतिहास को कदापि नहीं ढूंढ़ पायेंगे। मुंशी एन.एल. खोब्रागड़े भंगी जाति का मूल पुरुष वाल्मीकि के होने पर-प्रश्न चिह्न लगाते हैं।
आजादी के छह दशक बाद भी भंगी जाति में परिवर्तन क्यों नहीं आसका? ये दलितों में भी दलित बने हुए हैं तो निश्चित ही इसके कारण रहे हैं? साक्षात्कारों के हवाले से पता चलता है कि वर्णव्यवस्था में विश्वास का होना ही एक मात्र ऐसा कारण रहा है जिसके चलते यह तबका पशुवत जीवन जीता रहा है। संजीव खुदशाह इस जाति को अपने पेशे से मोह और विकल्प के न होने को, सुशीला टाकभौरे हिंदू आडंबरों और विश्वास से चिपके रहने को इसका कारण मानती हैं। हिंदू धार्मिक आस्थाएं और विश्वास इनकी समझ और सोच को जड़ बना देते हैं, बाकी काम ब्राह्मणवाद के प्रचारक गुमराह करके कर देते हैं।
विशेषांक के आकर्षण हैं- दस्तावेजी पत्र। अमृतलाल नागर से के.एस.तूफान का पत्र व्यवहार और सुशीला टाकभौरे की चिट्टी बापू के नाम। बापू सर्वसम्मत देश के राष्ट्रपिता रहे हैं। वे जिनको दलित अंबेडकर से भी अधिक मानते रहे हैं। मस्तराम कपूर मानते हैं-"सफाई कार्य से संबंधित जातियां आंबेडकर से अधिक गांधी से जुड़ी रही हैं।' ऐसे महात्मा जिन्हें दलित अपना मानते हुए, वर्णव्यवस्था से चिपके रहते हैं। उनको संबोधित करता हुआ पत्र है-"तुमने भी तो बापू हमें वर्णाश्रम का पालन कर सेवा करने की सीख दी थी न, और कर्म करने का उपदेश भी कृष्ण की तरह दिया था। और बापू जिन बातों को हम अछूत वर्ग के बड़े-बूढ़े नहीं जान पाते थे, उन्हें समय-समय पर प्रवचनों, धर्म चर्चाओं और लोक कथाओं के रूप में ऊंची जात वाले समझा दिया करते थे। बापू! हिंदू धर्म की रक्षा का एक ही उपाय था कि अछूत सदा ही अपनी स्थिति में अनभिज्ञ रहे, प्रगति की बातें न सोचें।' (मल-मूत्र... विचार की कसौटी पर- 348) गांधी के चिंतन में दलितों, हरिजनों के लिए दया भाव और अपने धर्म की रक्षा छुपी हुई थी। इसलिए दलित हो या महादलित इनके बदलाव का एक ही उपाय है वह यह कि बाबा के शब्दों में शिक्षित बनों। संजीव खुदशाह जैसा आत्मविश्वास सैकड़ों दलितों में भी आ सका तो यह शर्मनाक कृत्य हर सूरत में 2010 तक ही खत्म हो सकता है।

पिछड़ा वर्ग की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण--रमेश प्रजापति

राष्ट्रीय प्रत्रिका 'हंस` जून २०१० अंक पृष्ठ-८६
पुस्तक समीक्षा
पिछड़ा वर्ग की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण
-रमेश प्रजापति
समाजशास्त्र की ज्यादातर पुस्तकें अंग्रेजी में ही उपलब्ध होती थी, परन्तु पिछले कुछ वर्षो से हिन्दी में समाजशास्त्र की पुस्तकों के आने से सामाजिक विज्ञान के छात्रों के लिए संभावनाओं का एक नया दरवाजा खुला है। साथ ही हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों को भारत की सामाजिक परम्परा से जुड़ने का अवसर भी प्राप्त हुआ है। आज इस श्रृंखला में एक कड़ी युवा समाजशास्त्री संजीव खुदशाह की पुस्तक ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` भी जुड़ गई है। यह पुस्तक लेखक का एक शोधात्मक ग्रंथ है। पुस्तक के अंतर्गत लेखक ने उत्तर वैदिक काल से चली आ रही जाति प्रथा एवं वर्ण व्यवस्था को आधार बनाकर पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास-प्रक्रिया और उसकी वर्तमान दशा-दिशा का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया है।
आदि काल से भारत के सामाजिक परिपे्रक्ष्य को देखे तो भारतीय समाज जाति एवं वर्ण व्यवस्था के व्दंद से आज तक जूझ रहा है। समाज के चौथे वर्ण की स्थिति में अभी तक कोई मूलभूत अंतर नही हो पाया है। आर्थिक कारणों के साथ-साथ इसके पीछे एक कारण सवर्णो की दोहरी मानसिकता भी कही जा सकती है। पिछड़ा वर्ग जोकि चौथे वर्ण का ही एक बहुत बड़ा हिस्सा है। इस वर्ग की सामाजिक स्थिति के संबंध में लेखक कहता है-''पिछड़ा वग्र एक ऐसा कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है और  न ही अस्पृश्य या आदीवासी इसी बीच की स्थिति के कारण न तो इसे सवर्ण होने का लाभ मिल सका है और न ही निम्न होने का फायदा मिला।`` पृ.१४ यह बात सत्य दिखाई देती है कि पिछड़ा वर्ग आज तक समाज में अपना सही मुकाम हासिल नही कर पाया है। उसकी स्थिति ठीक प्रकार से स्पष्ट नही हो पा रही है इसीलिए इस वर्ग की जातियॉं अपने अस्तित्व के बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है।
विवेच्य पुस्तक में अभी तक की समस्त भ्रांतियों, मिथकों और पूर्वधारणाओं को तोड़ते हुए धर्म-ग्रंथों से लेकर वैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर पिछड़े वर्ग की निर्माण प्रक्रिया को विश्लेषित किया गया है। लेखक ने आवश्यकता पड़ने पर उदाहरणों के माध्यम से अपने निष्कर्षो को मजबूत किया है। भारत की जनसंख्या का यह सबसे बड़ा वर्ग है जो वर्तमान स्थितियों -परिस्थितियों के प्रति जागरूक न होने के कारण राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका नही निभा पा रहा है। इस वर्ग की यथार्थ स्थिति के बारे में लेखक का मत है-''व्दितीय राष्टीय पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट तथा रामजी महाजन की रिपोर्ट कहती है कि भारत वर्ष में इसकी जनसंख्या ५२ प्रतिशत है, किन्तु विभिन्न संस्थाओं , प्रशासन एवं राजनीति में इनकी भागीदारी नगण्य है। चेतना की कमी के करण यह समाज आज भी कालिदास बना बैठा है।`` पृ. १४ गौरतलब है कि प्राचीन काल से ही इस वर्ग की जातियॉं अपनी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के कारण सदैव दोहन-शोषण का शिकार रही है। भूमंडलीकरण के आधुनिक समाज में इस वर्ग की स्थिति ज्यो-कि-त्यों बनी हुई है। हम वैज्ञानिक युग में जी रहे है परन्तु आज भी अंध विश्वास के कारण कुछ पिछड़ी जातियों का मुंह देखना अशुभ माना जाता है। जिसकी पुष्टि लेखक के अपने इस वक्तव्य से की है-''आज भी सुबह-सुबह एक तेली का मॅुह देखना अशुभ माना जाता है। वेदों-पुराणों में पिछड़ा वर्ग को व्दिज होने का अधिकार नही है, हालाकि कई जातियॉं  अब खुद ही जनेउ पहनने लगी । धर्म-ग्रंथो ने इन शुद्रों को (आज यही शुद्र पिछड़ा वर्ग में आते है) वेद मंत्रों को सुनने पर कानों में गर्म तेल डालने का आदेश दिया है। पूरी हिन्दू सभ्यता में विभिन्न कर्मो के आधार पर इन्ही नामों से पुकारे जाने वाली जाति जिन्हे हम शुद्र कहते है। ये ही पिछड़ा वर्ग कहलाती है।`` पृ. २३ इसी पिछड़ा वर्ग के उत्थान और सम्मान के उद्देश्य से समय-समय पर महात्मा ज्योतिबा फूले, डा. अम्बेडकर, लोहिया, पेरियार, चौ.चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह आदि पिछड़े वर्ग के समाज सुधारकों और राजनेताओं ने जीवनपर्यंत सतत् संघर्ष किए है। बावजूद इसके पिछड़ा वर्ग आज तक इन समाज सुधारकों को उतना सम्मान नही दे पाया जितना कि उन्हे मिलना चाहिए था।
पिछड़ी जातियों की जॉंच-पड़ताल करते हुए उन्हे कार्यो के आधार पर वर्गीकृत करके इस वर्ग के अंदर आने वाली जातियों का भी लेखक ने गहनता से अध्ययन किया है। लेखक ने इन्हे समाज की मुख्यधारा से बाहर देखते हुए शूद्र को ही पिछड़ा वर्ग कहा है, जिसमें अतिशूद्र शामिल नही है। इस कार्य हेतु लेखक ने पिछड़ा वर्ग की वेबसाईट का सहारा लिया है, जिससे वह अपने तर्क को अधिक मजबूती से सामने रखने में सफल हुआ है। पूर्व वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई अस्तित्व नही था वह उत्तर वैदिक काल में सामने आई और इसी काल में विकसित भी हुई। आर्यो के पहले ब्राम्हण ग्रथों में तीन ही वर्ण थे जबकि चौथे वर्ण शुद्र की पुष्टि स्मृतिकाल में आकर हुर्ह है। शुद्र शब्द को लेखक ने कुछ इस तरह परिभाषित किया है- ''शुद्र शब्द सुक धातु से बना है अत: सुक(दु:ख) द्रा (झपटना यानि घिरा होना) यानि जो दुखों से घिरा हुआ है या तृषित है। तैत्तिरीय ब्राम्हण के अनुसार शूद्र जाति असुरों से उत्पन्न हुई है। (देव्यों वै वर्णो ब्राम्हण:। असुर्य शुद्र:।) यजुर्वेद। ३०-५ के अनुसार (तपसे शुद्रम) कठोर कर्म व्दारा जीविका चलाने वाला शूद्र है। यही गौतम धर्म सुत्र (१०-६,९) के अनुसार अनार्य शुद्र है।`` पृ.-३७ मनुस्मृति के आधार पर अनुलोम एवं प्रतिलोम सूची के अनुसार पिछड़ी जातियों की उत्पत्ति के संबंध में लेखक इस निष्कर्ष पर पहुंचा है- ''अभी तक हम यह मान रहे थे कि समस्त पिछड़ी जातियॉं शुद्र वर्ग से आती है, किन्तु यह सूची एक नही दिशा दिखलाती है, क्योकि ऐसा न होता तो वैश्य पुरूष से शुद्र स्त्री के संयोग से दर्जी का जन्म क्यों होता, जबकि हम दर्जी को भी शुद्र मान रहे है। इस प्रकार शुद्र पुरूष या स्त्री से अन्य जाति के पुरूष-स्त्री के संभोग से निषाद, उग्र, कर्ण, चांडाल, क्षतर, अयोगव आदि जाति की संतान पैदा होती है। अत: इस बात की पूरी संभावना है कि अन्य कामगार जातियों का अस्तित्व निश्चित रूप से अलग रहा है।`` पृ.-३० लेखक व्दारा दी गई पिछड़ी जातियों की निर्माण प्रक्रिया हमारी पूर्व धारणाओं को तोड़कर आगे बढ़ती है। यदि शुद्रों का विभाजन किया जाए तो हम देखते है कि पिछड़ी जातियॉं शुद्र वर्ण के अंतर्गत ही आती है। शुद्र के विभाजन के संदर्भ में पेरियार ललई सिंह यादव का यह कथन देखा जा सकता है-''समाज के तथाकथित ठेकेदारों व्दारा जान-बूझकर एक सोची-समझी साजिश के तहत शुद्रों के दो वर्ग बना रखे है, एक सछूत शुद्र (पिछड़ा वर्ग) दूसरा अछूत शूद्र (अनुसूचित जाति वर्ग)।``
आर्यो की वर्ण -व्यवस्था से बाहर, इन कामगार जातियों के संबंध में लेखक 'सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियों को अनार्य` मानते है। समय-समय पर भारत के विभिन्न हिस्सों में जाति व्यवस्था के अंतर्गत परिवर्तन हुए जिनसे पिछड़ा वर्ग का तेजी से विस्तार हुआ। अपने काम-धंधों पर आश्रित ये जातियॉं अपनी आर्थिक स्थिति के कारण देश के अति पिछड़े भू-भागों में निम्नतर जीवन जीने को विवश है। लेखक ने सामाजिक समानता से दूर उनके इस पिछड़ेपन के कारणों की भी तलाश की है। पुस्तक में पिछड़ा वर्ग को कार्य के आधार पर उत्पादक और गैर उत्पादक जातियों में बांटा गया है।
यदि जातियों के इतिहास में जाए तो हम देखते है कि भारत में वर्ण-व्यवस्था का आधार कार्य और पेशा रहा, परन्तु कालान्तर में इसे जन्म पर आधारित मान लिया गया है। दरअसल भारत की जातीय संरचना से कोई भी जाति पूर्ण रूप से संतुष्ट दिखाई नही देती और उनमें भी खासकर पिछड़ी जातियॉं। जाति व्यवस्था को लेकर १९११ की जनगणना में यह असंतोष की भावना मुख्यत: उभर कर सामने आई थी। उस समय अनेक जातियों की याचिकाऍं जनगणना अयोग की मिली, जिसमें यह कहा गया था कि हमें सवर्णों की श्रेणी में रखा जाए। परिणामस्वरूप जनगणना के आंकड़ो में ढेरों विसंगतियॉं और अन्तर्जातीय प्रतिव्दन्व्दिता उत्पन्न हो गई थी। आज भी कायस्थ, मराठा भूमिहार और सूद सवर्ण जाति में आने के लिए संघर्षरत है। ये जातियॉं अपने आप को सवर्ण मानती है परन्तु सवर्ण जातियॉं इन्हे अपने में शामिल करने के बजाए इनसे किनारा किए हुए है। लेखक ने अपने अध्ययन में तथ्यों और तर्को के आधार पर इन जातियों की वास्तविक सामाजिक स्थिति को चित्रित करने का प्रयास किया है। यदि गौर से देखे तो आज भी पिछड़ा वर्ग का व्यक्ति अपनी स्थिति को लेकर हीन भावना से ग्रस्त है। जबकि भारत के विभिन्न राज्यों की अन्य जातियॉं आरक्षण लाभ उठाने की खातिर पिछड़े वर्ग में सम्मिलित होने के लिए संघर्ष कर रही है। आधुनिक भारत में समय-समय पर जातियों के परिवर्तन करने से बहुत बड़े स्तर पर सामाजिक विसंगतियॉं उत्पन्न होती रही है। पिछड़ा वर्ग को अपनी समाजिक और आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनाने के लिए विचारों में बदलाव लाना अति आवश्यक है। जॉन मिल कहते है,''विचार मूलभूत सत्य है। लोगो की सोच में मूलभूत परिवर्तन होगा, तभी समाज में परिवर्तन होगा।`` यदि यह वर्ग जॉन मिल के इन शब्दों पर सदैव ध्यान देगा तो वह अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति स्थिति को उचित दिशा देकर अवश्य आगे बढ़ सकेगा।
आज भी सवर्णो में गोत्र प्रणाली विशिष्ट स्थान रखती है। प्राचीन काल से लेकर इस उत्तर आधुनिक समय में भी सगोत्र विवाह का सदैव विरोध होता रहा है। इनको देखते हुए कुछ पिछड़ी जातियॉं भी ऐसे विवाह संबंधो का विरोध करन लगी है। ताज़ा उदाहरण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग की जाट जाति को लिया जा सकता है। जिसने हाल ही में समस्त कानून व्यवस्थाओं को ठेंगा दिखाकर सगोत्र और प्रेम-विवाह का कड़ा विरोध किया है। जाट महासभा ने ऐसे विवाह के विरोध में अपना फासीवादी कानून भी बना लिया है।
पिछड़े वर्ग में व्याप्त देवी-देवताओं से संबंधित अनेक परम्परागत मान्यताओं और धारणाओं का भी लेखक द्वारा गंभीरता से अध्ययन किया गया है। गौतम बुध्द की जातिगत भ्रातियों को लेखक ने सटीक तथ्यों के माध्यम से तोड़कर उन्हे अनार्य घोषित किया है। बुध्द और नाग जातियों के पारस्परिक संबंध को बताते हुए डॉ. नवल वियोगी के कथन से अपने तर्क की पुष्टि इस संदर्भ में की है कि महात्मा बुध्द अनार्य अर्थात शुद्र थे, जिन्हे बाद में क्षत्रिय माना गया-''बौध्द शासकों के पतन के बाद स्मृति काल में ही बुध्द की जाति बदल कर क्षत्रिय की गई  तथा उन्हे विष्णु का दशवॉं अवतार भी इसी काल में बनाया गया।`` पृ.-७४
धार्मिक पाखंडो से मुक्ति दिलाने और पिछड़ों के अंदर चेतना का संचार करके उनके उत्थान के लिए देश भर के बहुत से समाज सुधारक साहित्यकारों व्दारा समय-समय पर सुधारवादी आंदोलन चलाए गए है। इन साहित्यकारों के व्यक्तित्व और उनके सामाजिक कार्यो का लेखक ने बड़ी ही शालीनता से अपनी इस पुस्तक में परिचय दिया है। इन संतों में प्रमुख है-संत नामदेव, सावता माली, संत चोखामेला, गोरा कुम्हार, संत गाडगे बाबा, कबीर, नानक, नानक, पेरियार, रैदास आदि। मंडल आयोग की सिफारिशों और आरक्षण की व्यवस्था के विवादों की लेखक ने इस पुस्तक में अच्छी चर्चा की है।
प्राचीन भारत की सामाजिक व्यवस्था को लेकर आधुनिक भारतीय समाज में पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास के साथ-साथ उनकी समस्याओं और उनके आंदोलनों का अध्ययन संजीव खुदशाह ने बड़ी सतर्कता के साथ किया है। लेखक ने पिछड़ा वर्ग के इतिहास के कुछ अनछुए प्रसंगों पर भी प्रकाश डाला है। संजीव खुदशाह ने धार्मिक ग्रंथो, सामाजिक संदर्भो और राजनीतिक सूचनाओं का गहनता से अध्ययन करके आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग की वास्तविक सामाजिक स्थिति को सहज-सरल भाषा में सामने रखने की कोशिश की है। कोशिश मै इस कारण से कह रहा हूं कि लेखक ने इतने बड़े वर्ग के संघर्षो और संत्रासों को बहुत ही छोटे फलक पर देखा है। लेखक का पूरा ध्यान इस वर्ग-विशेष के सामाजिक विश्लेषण पर तो रहा परन्तु उनके शैक्षिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विश्लेषण पर नही के बराबर रहा है। आधुनिक भारत में जिस पूंजीवाद ने समाज के इस वर्ग को अधिक प्रभावित किया है उससे टकराए बिना लेखक बचकर निकल गया, यह इस पुस्तक का कमजोर पक्ष कहा जा सकता है। फिर भी मै इस युवा समाजशास्त्री को बधाई जरूर दूंगा जिन्होने बड़ी मेहनत और लगन से भारत के इतने बड़े वर्ग की स्थिति पर अपनी लेखनी चलाई है।

पुस्तक का नाम आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग
(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)
लेखक           -संजीव खुदशाह
ISBN           -97881899378
मूल्य             -200.00 रू.
संस्करण       -2010   पृष्ठ-142
प्रकाशक        -     शिल्पायन 10295, लेन नं.1
                    वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,
                    दिल्ली-110032  फोन-011-22821174

रमेश प्रजापति
डी-८, डी.डी.ए. कालोनी
न्यू जाफराबाद, शाहदरा,
दिल्ली-११००३२
मोबाईल-०९८९१५९२६२५