How right, how wrong is it to end Rahul's membership of Parliament with immediate effect.
The novel 'Channa Tum Ugiho' is the story of women's struggle - Prof. Chandrakala Tripathi
76% reservation:- This step of Baghel government will always be remembered
76% आरक्षण:- बघेल सरकार का यह
कदम सदा याद रखा जाएगा
संजीव खुदशाह
भारत में आरक्षण का इतिहास बहुत पुराना
है। एक ओर धार्मिक ग्रंथों ने ऊपर के 3
वर्गों के लिए सारे अधिकार आरक्षित कर दिए। वहीं दूसरी ओर नीचे के आखिरी वर्ण शूद्र
को सारे अधिकार से वंचित कर दिया। शूद्र जो आज एससी एसटी ओबीसी में गिना जाता है, कई सालों से उपेक्षित और प्रताड़ित
रहा है। यह मांग हमेशा से होती रही है कि आरक्षण के माध्यम से प्रतिनिधित्व का
अधिकार मिले और यह अधिकार उसकी संख्या बल के हिसाब से हो। यानी जिसकी जितनी संख्या
भारी उसकी उतनी भागीदारी।
इसी परिप्रेक्ष्य में हम सबके पूर्वजों
ने मिलकर संविधान की रचना की, जिसमें
शोषित और पीड़ित लोगों को आरक्षण के माध्यम से प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया। कुछ
लोग समझते हैं कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन अभियान का हिस्सा है। जबकि यह गलत है।
आरक्षण दरअसल शैक्षणिक, सामाजिक रूप से पिछड़े, सताए हुए लोगों को दिए जाने का
प्रावधान संविधान में किया गया है। इसी के तहत आरक्षण दिया जाता रहा है। लेकिन
सवर्ण आरक्षण इस सिद्धांत के विपरीत आर्थिक आधार पर दिया जाता है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल
ने 76% आरक्षण का जो विधेयक पास किया है।
जिसमें अनुसूचित जन जाति को 32%
अनुसूचित जाति को 13%
अन्य पिछड़ा वर्ग को 27%
सवर्णों को 4% आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है। यह
निर्णय ऐतिहासिक है, इसका स्वागत किया जाना चाहिए। यह
निर्णय केवल चुनावी या राजनीतिक नहीं है। उन हजारों वर्षों से दबे, कुचले , पिछड़े लोगों को उनकी जनसंख्या के मुताबिक प्रतिनिधित्व देने का जो
प्रयास किया गया है। वह सराहनीय है । हालांकि यहां पर पिछड़ा वर्ग को उनकी
जनसंख्या से काफी कम आरक्षण दिया जा रहा है। बावजूद इसके यह एक महत्वपूर्ण कदम है।
जिस का स्वागत किया जाना चाहिए।
अब तक सरकारी सेवाओं से लेकर राजनीति, व्यापार, प्रोफेशनल केवल ऊची जातियों के ही देखे जाते थे। बाकी जातियों के लोग
चतुर्थ श्रेणी का काम करके ही अपना काम चलाते थे। भले ही उनकी योग्यता कहीं अधिक
रही हो । यह लोग धार्मिक दृष्टिकोण से भी निम्न माने जाते रहे हैं। इस कारण इनमें
मानसिक विकास बाधित होता रहा। क्योंकि अगर आप किसी को लगातार निम्न या ताड़न के
अधिकारी कहते रहेंगे । तो वह व्यक्ति अपने आप को कुछ समय बाद वैसा ही मानने लगता
है।
यहां बताना जरूरी है कि इसके पहले भी
भूपेश बघेल की सरकार ने ओबीसी को 27%
आरक्षण देने का आदेश पारित किया था। लेकिन कुछ जातिवादी सवर्णों ने हाई कोर्ट पर
मुकदमा दायर कर दिया। यह आदेश टिक नहीं
पाया। हाई कोर्ट ने कहा कि इसके लिए जनगणना का डाटा पेश करें। छत्तीसगढ़ की सरकार
ने क्वांटिफिएबल डाटा तैयार किया और उस आधार पर 76% आरक्षण देने का निर्णय लिया।
वह ऐसा विधेयक पास करने में सफल हो गए।
शूद्र जातियों के पिछड़ेपन का अंदाजा
इस बात से लगा सकते हैं कि आज भी उन्हें नहीं मालूम है कि सरकार Deshbandhu 6 dec 2022
उन्हें क्या
बेनिफिट देने जा रही है। भारतीय समाज का 85%
हिस्सा शोषण अंधकार अशिक्षा में जी रहा है। उसकी नासमझी का आलम यह है कि उसे अपने
हको का इल्म नहीं है।
50% आरक्षण सीमा
सुप्रीम कोर्ट ने 50% आरक्षण की सीमा तय की थी। लेकिन
केंद्र सरकार के 10% सवर्ण आरक्षण ने इस बंधन को तोड़
दिया। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी अपना मुहर लगाया । इस बंधन के टूटने के बाद सबसे
पहले झारखंड की सरकार ने अपने यहां आरक्षण की सीमा को बढ़ाया। हालांकि इसके पहले
तमिलनाडु की सरकार विधेयक पास करके कई साल पहले से 50% से ज्यादा आरक्षण अपने राज्य में दे रही है। इसी क्रम में छत्तीसगढ़
की भूपेश बघेल की सरकार का यह निर्णय बेहद महत्वपूर्ण है। भारत के इतिहास में यह
पहली बार हो रहा है की धार्मिक रूप से नीच करार दिए जाने वाली जातियों को, उसके साथ साथ सवर्ण जातियों को भी उनके
जनसंख्या के अनुपात में ही आरक्षण दिया जाएगा। बावजूद इसके 24% क्षेत्र अनारक्षित होगा। जिसमें किसी
भी समुदाय के लोग प्रतियोगिता कर सकेंगे।
यहां पर यह बताना जरूरी है की ओबीसी
(यानी अन्य पिछड़ा वर्ग जिसमें पिछड़ा वर्ग की जातियों के साथ अल्पसंख्यक वर्ग के
पिछड़े भी शामिल हैं) को मंडल आयोग ने 52% आरक्षण
देने की सिफारिश की थी। इस लिहाज से आज भी जो आरक्षण 27% पिछड़ों को दिया जा रहा है यह उनकी
जनसंख्या के मुताबिक बेहद कम है। पिछड़ा वर्ग को राजनीतिक, सरकारी सेवाओं और शिक्षण संस्थान में
बेहद कम प्रतिनिधित्व मिला है। लोकतंत्र के चारों स्तंभ विधायिका, कार्य पालिका, न्यायपालिका तथा मीडिया में इनकी
जनसंख्या नगण्य हैं । उस लिहाज से 27% आरक्षण
महत्वपूर्ण है। आरक्षण की सीमा बढ़ाए जाने से ओबीसी की आरक्षण की लिमिट भी भविष्य
में बढ़ेगी ऐसा हम मान सकते हैं। जिस प्रकार मंडल आयोग को लागू करने में पूर्व
प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने महत्वपूर्ण कदम उठाया था । ठीक उसी प्रकार
भूपेश बघेल के इस कदम का भी स्वागत किया जाना चाहिए और उन तमाम दबे कुचले लोगों को
उत्सव मनाना चाहिए। अपनी बेड़ियों के खोले जाने के उपलक्ष में।
Founder of Chattishgarhi cinema Manu Nayak
छत्तीसगढ़ी सिनेमा के जनक मनु नायक
संजीव खुदशाह
पिछले दिनों प्रथम छत्तीसगढ़ी फिल्म के
निर्माता निर्देशक मनु नायक को राज्य का प्रतिष्ठित सम्मान किशोर साहू से सम्मानित
किया गया। यह सम्मान सिनेमा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए दिया
जाता है। मैं यहां बताना चाहूंगा की मनु नायक ने छत्तीसगढ़ी में पहली फिल्म कही
देबे संदेश का निर्माण और निर्देशन किया था। यह फिल्म उस वक्त बनी जिस समय फिल्मी
दुनिया में जाना किसी सपनों की दुनिया में जाना जैसे था।
publish on navbharat Chattishgarh cinema k janak |
वे अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और ईमानदारी के
बल पर कंपनी में एक खास जगह बना लेते हैं। उन्हें कंपनी का वित्त विभाग संभालने के
लिए दे दिया जाता है और वह उस समय के तमाम बड़े कलाकार हीरो, हीरोइन ,पार्श्व गायक, संगीतकारों को पेमेंट किया करते थे।
इससे उनकी इन सब कलाकारों से पहचान हो गई। एक व्यक्तिगत रिश्ता कायम हो गया। इनका
मुंबई से रायपुर आना जाना चलता रहा। उनके भीतर एक कलाकार भी था जो उन्हें मुंबई तक
खींच लाया था। बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था और उन्हें फिल्म बनाने के लिए प्रेरित
कर रहा था।
कही देबे संदेश फिल्म बनाने की कहानी
डीएमए इंडिया को दिये गये साक्षात्कार
के दौरान मनु नायक बताते हैं कि जब वह रायपुर में रहा करते थे। तब उनसे एक दलित
यानी सतनामी समाज के लड़के से दोस्ती हो गई थी । वह उनका एक करीबी दोस्त बन गया।
कभी वह घर आता तो मां उतने क्षेत्र को जितने एरिया में दोस्त खड़ा होता था या
बैठता था। उस जगह को गोबर से लीप देती थी। यानि उस वक्त छुआ-छूत, जाति-प्रथा चरम पर थी । इससे उन्हें बहुत तकलीफ होती। लेकिन वह कह
नहीं पाते। जब फिल्म बनाने की बारी आई तो उन्होंने इस तरह की घटनाओं को याद करते
हुए एक रोमेंटीक कहानी तैयार की जो ग्रामीण सामाजिक परिवेश पर आधारित था। जिसमें
हीरो दलित परिवार से और हीरोइन ब्राह्मण परिवार से आती थी। इस फिल्म को बनाने में उन्हे
बहुत मेहनत करना पड़ा । पहले सारे गीत रिकॉर्ड करवाए गए। जिसमें मोहम्मद रफी, सुमन कल्याणपुर, महेन्द्र कपूर , मन्ना
डे जैसे बड़े
गायकों से गवाया गया। बाद में यह गीत काफी हिट हुए। पैसे की कमी थी इसीलिए सेट में
शूटिंग नहीं की जा सकती थी। उन्होंने पूरी फिल्म की शूटिंग के लिए छत्तीसगढ़ के ही
पलारी गांव का चयन किया । नवंबर दिसंबर ठंड के महीने में उन्होंने इसकी शूटिंग
पूरी की। महीनों मुंबई के टेक्नीशियन कलाकार पलारी में जमे रहे।
यहां पर मनु नायक एक फिल्म निर्माता से
भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि वह सिर्फ मनोरंजन के लिए फिल्म का
निर्माण नहीं करते हैं। बल्कि समानांतर सिनेमा की तरह वह समाज की सच्चाई जातिवाद
छुआ छूत को भी सामने लाने की कोशिश करते हैं। इस फिल्म के माध्यम से वे सागर सरहदी, श्याम बेनेगल, बसु भट्टाचार्य जैसे बड़े निर्देशकों
की सूची में जगह बना लेते हैं।
फिल्म को लेकर विवाद
वे बताते हैं कि जब 1965 में फिल्म कहि देबे संदेश रिलीज हुई
तो कुछ कट्टरपंथियो को फिल्म के कथानक को लेकर आपत्ति हुई। वे फिल्म को बैन करने
की मांग करने लगते है। फिल्म रिलीज होने से पहले काफी चर्चित हो चुकी होती है। मनु
नायक इस फिल्म को टैक्स फ्री करवाने लिए एड़ी चोटी एक कर देते हैं। फिल्म टैक्स
फ्री होते ही बैन करने का विवाद समाप्त हो जाता है। इस फिल्म को जनता का बहुत
प्यार मिला। समीक्षकों और लेखकों द्वारा इसे काफी सराहा गया। क्योंकि यह
छत्तीसगढ़ी में पहली फिल्म थी । यह माना जाता है कि यह फिल्म तकनीकी दृष्टिकोण से
कमजोर होगी। लेकिन जब आप इस फिल्म को देखते हैं तो पाते है कि उस जमाने की उच्च
तकनीक का उपयोग करके बनाई गई थी। बेजोड़ संगीत, मजबूत
पटकथा, सधे हुए निर्देशन के आधार पर यह एक
महत्वपूर्ण फिल्म साबित होती है।भले ही यह फिल्म ब्लैक एंड वाइट है । लेकिन
दर्शकों पर पूरा प्रभाव छोड़ती है।
86 वर्षिय मनु नायक कहते हैं कि इस फिल्म
की ओरिजिनल प्रिंट उनके पास नहीं है। जो प्रिंट यूट्यूब पर अपलोड की गई है उसकी
क्वालिटी बेहद खराब है । वह इसकी प्रिंट को लेकर चिंतित है। यह कोशिश की जानी
चाहिए कि छत्तीसगढ़ी भाषा में पहली फिल्म की ओरिजिनल प्रिंट प्राप्त की जाए और
उसका डिजिटलाइजेशन करके छत्तीसगढ़ के सिनेमाघरों में दिखाई जाए। ताकि लोगो को
फूहड़ फिल्मों से मुक्ति मिल सके और स्थानीय कलाकारों को मार्गदर्शन। तब कहीं जाकर
मनु नायक का सही सम्मान हो सकेगा। यह तारीफें काबिल है कि उन्हें सरकार के द्वारा
किशोर साहू सम्मान दिया गया लेकिन उनका कद इस सम्मान से भी कहीं ऊंचा है। हिंदी
फिल्म दुनिया में छत्तीसगढ़ के तीन कलाकारों ने अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया है।
(किशोर साहू, हबीब तनवीर) उनमें से एक मनु नायक भी
हैं। उनकी विलक्षण प्रतिभा को एक सलाम तो बनता है।
In the age of silence, who is the supporter of fascism and how?
चुप्पीयुग में, फासीवाद के समर्थक कौन और कैसे?
एक मनुवाद तो दूसरा पूंजीवाद। यही दोनों जब सत्ता पक्ष में काबिज़ होकर मनमानी पर उतर आए तो उसे फासीवाद कहना ही उचित हैं। मनुवाद जिसमें वर्णव्यवस्था के आधार पर समाज को जातियों के आधार पर चार वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ) में बांटा गया। जो मेहनती पेशे जैसे- किसानी और मजदूरी के काम धंधे से जुड़े मूलनिवासी कहे जाते थे उनको सबसे निचले तबके में रखकर उनका जातिगत उत्पीड़न सदियों-सदियों किया जाता रहा। दूसरा फासीवाद (फ़ासिज़्म) जिसकी पृष्ठभूमि इटली में बेनितो मुसोलिनी द्वारा संगठित "फ़ासिओ डि कंबैटिमेंटो" का राजनीतिक आंदोलन रही जो मार्च 1919 में प्रारंभ हुआ। इसकी प्रेरणा और नाम सिसिली के 19वीं सदी के क्रांतिकारियों- "फासेज़" से ग्रहण किए गए। जो पूरी दुनिया में पूंजी के बल पर अधिनायकवाद से पूरे तंत्र को अपनी जकड़न में समेटकर अपना सपना बुनता है। व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए मीडिया और धर्म गुरुओं को ऊंचे दामों पर खरीदकर सत्ता के विजयगान और जातियों का गौरवगान उन्माद के स्तर पर गाया जाता है। इसके इतर सब देशद्रोही घोषित कर दिए जाते हैं और इसी आधार पर चलता है सत्ता का दमनचक्र।
Indigenous Agriculture History of Diwali
दीवाली का कृषि मूलनिवासी इतिहास
संजीव खुदशाह
अब तक दुनिया में जितने भी त्यौहार हुये है उनका जन्म उनके स्थानीय
मौसम और कृषि पर आधारित रहा है। चाहे आप यूरोप के क्रिसमस की बात करे या अरब के ईद
की या फिर भारत के किसी भी पारंपरिक त्यौहार की बात करे सभी स्थानीय मौसम और कृषि
पर आधारित रहे है। भारत के महत्वपूर्ण त्यौहारों में दीवाली का प्रमुख स्थान रहा ।
मुझे याद है जब उस समय हमारे घरों में दीवाली मनाई जाती थी। तब
लाई बताशो के सामने दीप जलाकर तथा धान की झालर[2] से घर सजा
कर पूजा की जाती थी। उस समय तक गांव के लोग लक्ष्मी पूजा या राम वनवास से लौटने की
कथा से अनभिज्ञ थे। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में स्थित हमारा घर दो तरफ से धान
के खेतों से घिरा हुआ था। आसपास धान की खेती के कारण दीवाली के समय धान के कीड़े
जीना मुहाल कर देते थे। दिन भर तो ठीक रहता। लेकिन जैसे ही शाम ढलती, यह कीड़े
उड़कर घरों में जल रही रोशनी की ओर आ जाते और वहीं ढेर हो जाते। यह पके हुए खानों
में गिरते । काफी परेशानी होती इन कीड़ों से। हम इसे दीवाली के
कीड़े कहा करते थे। ये बताना यहां पर महत्वपूर्ण है कि छत्तीसगढ़ में दीवाली त्योहार
को देवारी नाम से संबोधित किया जाता है।
मेरा बाल मन यही समझता था कि यह कीड़े भी दीवाली मनाने आते हैं या लोगों को याद दिलाने आते हैं कि अब दीवाली मनाने का वक्त आ गया है। धान की खेती से इसका कोई संबंध है यह बात बाद में समझ में आई। छत्तीसगढ़ के गांव में दीवाली का उत्सव मनाया जाता है । इसमें आज भी लाई बताशे एवं स्थानीय पकवान की केंद्रीय भूमिका रहती है। इसके पहले घरों की साफ-सफाई की जाती। धर आंगन को गोबर, छूई[3] एवं गेरु[4] से लीपा पोता जाता है। वे आज भी लक्ष्मी पूजा या राम वनवास की कथा से परिचित नहीं है। कहने का तात्पर्य है कि दीवाली समेत ज्यादातर त्यौहार कृषि एवं उसकी परंपरा पर आधारित है। बाद में धर्म के ठेकेदारों ने मनगढ़ंत कहानियां रच कर इन त्योहारों को धर्म से जोड़ दिया।
हमारे देश में दशहरा त्यौहार खरीफ फसल
की बुवाई के बाद बारिश खत्म होने पर मनाया जाता है। बस्तर में होने वाले दशहरा
कार्यक्रम में राम रावण का नामो-निशान नहीं है। उसी प्रकार मैसूर का प्रसिद्ध
दशहरा, हिमाचल प्रदेश का दशहरा और दक्षिण भारत
के दशहरे में लोग राम रावण को नहीं जानते। इस समय आदिवासी लोग जो दशहरा मनाते हैं
वह भी राम रावण के बारे में अनभिज्ञ हैं। यानी दशहरे का त्यौहार कृषि आधारित है ना कि धर्म पर
आधारित, यह बात हमें समझनी होगी। बाद में धर्म
के ठेकेदारों ने उस पर अपना प्रभाव दिखाने के लिए काल्पनिक कहानियों को जोड़ दिया
और वह उससे अपने धर्म को जोड़ने लगे। इसी प्रकार दशहरे पर हिंदू बौद्ध जैन धर्म के
लोग अपना कब्जा जताने की कोशिश करने लगे। और इसे अपने धर्म प्रचार का हिस्सा बनाने
लगे। भारत में पोंगल त्यौहार के पीछे भी यही कहानी है। यह त्यौहार रवि फसल की बुवाई
के बाद मनाया जाता है जिसे अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। इस
त्यौहार को मनाने का दूसरा कारण यह भी है। इस समय सूरज उत्तर से दक्षिण की ओर जाता
है।
यूरोप में क्रिसमस ईसा मसीह के जन्म के पहले से मनाया जाता था।
उसी प्रकार अरब में ईद का त्यौहार मुहम्मद साहब के आने के पहले से मनाया जाता है।
भारत में रवि फसल की खुशी में होली मनाई जाती है। लेकिन धार्मिक लोगों ने इन
प्राकृतिक त्यौहारों को अपना बताने लगे अपने धर्म प्रचार का हिस्सा बनाने लगे। इन्हीं त्यौहारों के बहाने तत्कालीन
विरोधियों को भी निशाना बनाया गया। जैसे रावण, होलिका, बली राजा आदि आदि।
जानिये अन्य राज्यों में दिवाली का
त्यौहार कैसे मनाया जाता है?
राजस्थान- में दीपावली के दिन घर में एक कमरे को सजाकर व रेशम के गद्दे
बिछाकर मेहमानों की तरह बिल्ली का स्वागत किया जाता है। बिल्ली के समक्ष खाने हेतु
तमाम मिठाइयाँ व खीर इत्यादि रख दी जाती हैं। यदि इस दिन बिल्ली सारी खीर खा जाए
तो इसे वर्ष भर के लिए शुभ व साक्षात धन का आगमन माना जाता है।
उत्तरांचल- के थारू आदिवासी अपने मृत पूर्वजों के
साथ दीपावली मनाते हैं
हिमाचल- प्रदेश में कुछ आदिवासी जातियाँ इस दिन यक्ष पूजा करती हैं।
मध्य प्रदेश- मध्यप्रदेश के बघेलखण्ड क्षेत्र में
इस दिन खास तौर पर लाई बताशे के साथ ग्वालन की पूजा की जाती थी। इसी प्रकार मालवा
क्षेत्र के मुस्लिम दीवाली को जश्न-ए-चिराग के रूप में मनाते है । इस अंचल में
मुस्लिम समाज द्वारा दीपावली पर्व मनाए जाने की परम्परा आज भी कायम है।
उड़ीसा - उड़ीसा निवासी सुधांशु हरपाल कहते हैं कि उड़ीसा के ग्रामीण
अंचल में दिवाली जैसा कोई त्यौहार नहीं मनाया जाता ना ही इस प्रकार के किसी
त्योहार मनाने की परंपरा है। लेकिन यहां पर एक फसल आधारित त्यौहार इसी समय या इसके
आसपास मनाया जाता है। जिसका नाम नुआखाई है । इस त्यौहार का दिन धान की फसल के पकने
के हिसाब से अलग-अलग होता है।
आइए अब जाने की कोशिश करते हैं कि इस
भारत के इंडिजिनियस आदि त्यौहार को या मूल निवासी त्यौहार को मनाने के लिए विभिन्न
धर्म क्या दावे करते हैं?
हिंदू धर्म- इस धर्म में यह दावा किया जाता है कि
राम 14 वर्ष के वनवास के पश्चात इसी दिन अयोध्या लौटे थे । इसीलिए अयोध्या वासी
दीपों से उनका स्वागत किया। गौर तलब है की वाल्मीकि रामायण एवं तुलसी रचित रामचरित
मानस में ऐसे किसी त्यौहार का जिक्र नहीं मिलता है। उसी प्रकार यह भी कहा जाता है
कि समुद्र मंथन पश्चात इस दिन लक्ष्मी और कुबेर प्रकट हुए थे । इसीलिए यह त्यौहार
मनाया जाता है। इसी प्रकार कृष्ण से जुड़ी भी कई कथाएं इस त्यौहार की पीछे जोड़ी
जाती है। वेदों और पुराणों में इस तरह के त्यौहार का कोई जिक्र नहीं है।
बौद्ध धर्म - बौद्ध धर्म के अनुयाई द्वारा भी दावा
किया जाता है कि यह त्यौहार बौद्धों का है। भगवान बुध ज्ञान प्राप्ति के 17 वर्ष
बाद इसी दिन अपने निवास कपिल वस्तु गए थे। इसलिए लोगों ने उनका दीपों से स्वागत
किया था। यह दावा भी किया जाता है कि इसी दिन सम्राट अशोक ने 84000 स्तूपों में
दीप प्रज्वलित करने का आदेश दिया था। एक बौद्ध विद्वान का दावा है कि जिस प्रकार
वैदिको[5] ने उनके
याने बौद्धों के बौद्ध विहार को मंदिर एवं बुध मूर्तियों को देवी देवताओं में बदल
दिया। इसी प्रकार इस बौद्ध त्यौहार को काल्पनिक कहानियों के सहारे हिंदू त्यौहार
में बदल दिया गया। जबकि दीप और दीप जलाने की परंपरा बौद्धों ने शुरू की है। ‘’अप्पो
दीपो भव’’ यानी अपना दीपक स्वयं बनो की बात सबसे पहले भगवान बुद्ध के द्वारा कही गई थी।
जैन धर्म- जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा दावा किया जाता है कि जैन
धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने दीपावली के दिन ही बिहार के पावापुरी में
अपना शरीर त्याग दिया था। कल्पसूत्र में कहा गया है कि महावीर निर्वाण के साथ जो
अंतर ज्योति सदा के लिए बुझ गई । उसकी क्षतिपूर्ति के लिए बहिर्ज्योति के प्रतीक
में दीप जलाए गए और दीपावली की परंपरा शुरू हुई।
सिख धर्म- सिख धर्म के अनुयायियों का दावा है कि इसी दिन 1618 को सिखों
के छठवें गुरु हर गोविंद सिंह जी को बादशाह जहांगीर की कैद से मुक्ति मिली थी। इस
खुशी में सिख समुदाय प्रकाश पर्व के रूप में दीपावली को मनाते हैं।
मुस्लिम धर्म- जैसा कि पूर्व में बताया गया है। मध्य
प्रदेश के मालवा के मुस्लिम इस त्यौहार को जश्ने चिराग के रूप में मनाते हैं। ऐसी
जानकारी मिलती है कि मुगल बादशाह भी अपने महलों में इस त्यौहार को शान से मनाते थे
और किलों में रोशनी की जाती थी।
अब प्रश्न ये उठता है कि ऐसा क्या कारण
है कि दीवाली त्यौहार पर लगभग सभी स्थानीय धर्मों द्वारा अपना दावा पेश किया जाता
है?
इसका कारण यह है कि दीपावली या दीवाली एक आदि या भारत के मूल
वासियों का कृषि आधारित त्यौहार है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए मानव जीवन
किसी त्यौहार के बिना अकल्पनीय है। यह खरीफ फसल पकने की खुशी का त्यौहार है इसे
बड़े पैमाने मे तब से मनाया जाता रहा होगा जब से इन धर्मों का अस्तित्व नहीं था। हम यह कह सकते है कि दीवाली जैसे त्यौहार का इतिहास
उतना ही पुराना है जितना पुराना कृषि का इतिहास। भारत में पनपे किसी भी धर्म के
लिए बहुत कठिन रहा होगा की वे इन परंपरागत त्यौहारों को नजरंदाज कर दे। इसलिए सभी धर्मों
ने दीवाली पर अपना-अपना दावा पेश किया। वैसे भी धर्म के प्रचार के लिए ये परंपरागत
त्यौहार बहुत ही महत्वपूर्ण एवं आसान जरिया होते है।
फिर इतना इठलाना किस बात का (कविता)
संजीव खुदशाह
यही ना वे तुम्हारी तरह अपनी नस्लों पर घमंड नहीं करते।
यही ना तुम्हारी तरह वे दूसरों की नस्ल पर नाक भौव नहीं सिकोड़ते।
कई जंतुओं को खत्म कर दिया तुमने, याद होगा तुम्हें।
कई जंगलों को कंक्रीट में बदल दिया, याद होगा तुम्हें।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों को अपने से कमतर बताना किस बात का।
यही न वे तुम्हारी तरह ऊंच-नीच, भेदभाव को नहीं करते।
तुम्हारी तरह अपनी मादाओं पर अत्याचार करना नहीं जानते।
इंसान-इंसान में नफरत करते हुये, शर्म नहीं आई होगी तुम्हें।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों को अपने से कमतर बताना किस बात का।
यही ना की वे तुम्हारी तरह भूत और भगवान को नहीं मानते
यही ना वे तुम्हारी तरह किसी अंधविश्वास और पाखंड को नहीं मानते.
नहीं बांटते अपनों को किसी ईश्वर के नाम पर।
नहीं चढ़ाते अपनों के बली किसी अंधविश्वास के नाम पर।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।
यही ना वह तुम्हारी तरह अपने बच्चों को पालने का एहसान नहीं बताते।
जन्म देने के एवज में खुद को नहीं पूजवाते।
तुम्हारी तरह अपने बच्चों को बुढ़ापे की लाठी नहीं बताते
परजीवी बन कर उनके अरमानों का गला नहीं घोटते।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।
यही ना वे तुम्हारी तरह धन-संपत्ति का पहाड़ नहीं बनाते हैं।
यही ना उनके बीच नहीं होती, कोई लड़ाई जमीन जायदाद की।
नदी तालाबों को पाटकर, जल पुरुष होने का ढोल नहीं पीटते।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।