“Khoob Chand Baghel was not only a dreamer of Chhattisgarh but he was also a great leader of social change.

 "खूब चंद बघेल न सिर्फ छत्तीसगढ़ के स्वप्न दृष्टा थे बल्कि वे सामाजिक परिवर्तन के महानायक भी थे !"

साहु रामलाल गुप्ता

                खूब चंद बघेल जी का जन्म 19 जुलाई 1900 को छत्तीसगढ़ रायपुर के पास पथरी ग्राम में हुआ था ।

            आप प्रारंभ से ही सामाजिक राजनीतिक जागरूकता से ओतप्रोत थे । अपनी मेडिकल शिक्षा के दौरान आपने पढ़ाई छोड़कर तत्कालीन स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े और कई बार जेल भी गए । आजादी मिलने के बाद भी आप


अपने जीवन के अंतिम समय तक विभिन्न राजनीतिक मंचों के साथ एवम् सामाजिक क्षेत्र में भी पूरी मजबूती के साथ अपनी उपस्थिति को आपने बनाए रखा ।

                सामाजिक असमानता, छुआछूत, और जाति भेदभाव के विरुद्ध आपने "हरिजन सेवक संघ" के मंत्री के तौर भी पूरी तन्मयता के साथ जुड़े रहे ।

"अपमानजनक परंपरा पर करारा प्रहार"

                तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में अनुसूचित जाति के लोगों का बाल नाई लोग नहीं काटते थे । इस सामाजिक असमानता के विरुद्ध आपने श्री अनंत राम बर्छिहा (भविष्य में विधायक) के साथ मिलकर एक सशक्त आंदोलन चलाया । जिसमें आपको पर्याप्त सफलता भी मिली । इस आंदोलन के कारण आपको सामाजिक बहिष्कार का दंश भी झेलना पड़ा ।

                इस मुद्दे पर अपने नाटक लिखकर जन-जन के बीच जाकर उसका सफल मंचन भी किया । जिसके लिए आपको सराहा भी गया ।

"उपजाति बंधन को तोड़ा"

                    आपने स्वयं उपजाति बंधन तोड़कर अपनी द्वितीय पुत्री की शादी दिल्लीवार कुर्मी समाज में किया । समाज ने पुनः इस मुद्दे को आधार बनाकर आपको सामाजिक बहिष्कृत का दंड दिया । आपने हिम्मत नहीं हारी और आपने अपनी तृतीय पुत्री की शादी भी "काका कालेलकर  आयोग" के सदस्य श्री रामेश्वर पटेल, बिहार (भविष्य में सांसद) से संपन्न कराई । आप सामाजिक रूढ़ियों पर सदैव करारा प्रहार करते रहे ।

"राष्ट्रीय कुर्मी महासम्मेलन"

                आपने अखिल भारतीय कुर्मी महासभा के दो-दो राष्ट्रीय अधिवेशन की अध्यक्षता भी की । प्रथम 1948 कानपुर में और द्वितीय 1966 नागपुर में । आपने राष्ट्रीय अधिवेशन में भारतीय हिंदू समाज में व्याप्त शाखाभेद, उपजातिभेद एवं जाति व्यवस्था के कारण, जो ऊंच-नीच, छुआछूत आदि असमानतावादी व्यवस्था थी । उसे समाज एवं राष्ट्रीय विरोधी करार देते हुए उसे दूर करने का आह्वान किया, ताकि राष्ट्रीय एकजुटता कायम की जा सके ।

                    "राष्ट्रीय अधिवेशन को संबोधित करते हुए आगे आपने कहा कि उपजातियां से भेदभाव मिटाना इस युग का छोटे से छोटा, हल्के से हल्का कदम होगा । सही मायने में तो हमको और आपको समस्त मानव जाति के अंदर रहने वाली ब्राह्मणवादी जाति-पांति की सड़ी एवं खड़ी व्यवस्था को ही पहले दूर करना होगा । वर्ण व्यवस्था रूपी शरीर में जाति व्यवस्था एक कोढ़ है । जो समस्त भारतीय समाज को नष्ट कर रहा है ।

"पंक्ति तोड़ो आंदोलन"

                    उसे समय छत्तीसगढ़ में शादी वगैरह के कार्यक्रम में हर जाति के लोगों को अलग-अलग पंक्ति में भोजन के लिए बैठाया जाता था । जिसे आपने "पंक्ति तोड़ो आंदोलन" चलाकर इस असामाजिक प्रथा को समाप्त करवाया । जो आगे चलकर सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में "मील का पत्थर" साबित हुआ ।

"किसबिन नाचा बंद करवाया"

                    उस समय जाति विशेष में अपने ही परिवार की बहन बेटियों से नाच-गाना आदि खुलेआम करवाया जाता था । इस तथाकथित "किसबिन नाच" को आपने कठिन प्रयास से बंद करवाया । आपने समाज से बेरोजगारी दूर करने के लिए "ग्राम उद्योग संघ" की भी स्थापना की । आपने गांव-गांव में विभिन्न प्रकार के ग्रामीण उद्योगों की स्थापना की । इस अभियान में तेल पेराई उद्योग , घानी निर्माण, हथकरघा, धान कुटाई, साबुन आदि के उद्योग स्थापित किए एवं मार्केटिंग भी करवाए ।

"शिक्षा के क्षेत्र में प्रयास"

                सन् 1958 -59 में आपने सिलियरी में जनता हाई स्कूल की स्थापना की । जिससे ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों को भी शिक्षा का अवसर मिला । आज वही स्कूल "खूबचंद बघेल शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय" के नाम से जाना जाता है ।

"विभिन्न सामाजिक राजनीतिक कार्य"

                सन् 1931 से 1969 तक आप आजीवन सामाजिक एवं राजनीतिक संघर्ष में पूरी तनमयता के साथ मशगूल रहे । सन्  1946 की अंतरिम सरकार में अपने संसदीय सचिव का दायित्व भी संभाला था ।

                आप आप रवि शंकर शुक्ल की जन विरोधी नीतियों से असहमति व्यक्त करते हुए आचार्य कृपलानी और जयप्रकाश जी के समाजवादी आंदोलन से जुड़ गए । सन 52 और 57 में आप विधायक भी निर्वाचित हुए । सन् 54 के बाद अपने समाजवादी आंदोलन की बागडोर भी छत्तीसगढ़ में संभाली । समाजवादी आंदोलन में आपके प्रमुख साथी ठाकुर प्यारेलाल सिंह, विश्वनाथ यादव एवं तामस्कर जी एडवोकेट रहे, ये सभी गांधीवादी थे ।

"जनहित के मुद्दों पर संघर्ष से आप कभी भी पीछे नहीं रहे"

                    आप आप जनहित के मुद्दे पर सदैव संघर्षरत रहे । चाहे छुई-खदान तहसील का गोली चालान कांड रहा हो या 1961 में आदिवासियों पर लोहांडीगुड़ा में गोली चालन कांड रहा हो या तकाबी के माध्यम से किसानों को लूटने का मुद्दा रहा हो । इन सभी मुद्दों पर आपने सरकारी षडयंत्र के विरुद्ध खुलकर पूरी ताकत से अपनी आवाज उठाई ।

                   कैलाश नाथ काटजू के मुख्यमंत्रित्व काल में भी आप जनहित के मुद्दे पर सदैव सरकार से टकराते रहे। चाहे सायना बांध घपला कांड हो या 1961 में धान निर्यात पर प्रतिबंध का मुद्दा रहा हो । इन सभी मुद्दों पर आपने बृजलाल वर्मा एवम् हरि प्रेम बघेल आदि के सहयोग से "धान सत्याग्रह आंदोलन" चलाया ।

"बस्तर का बहुचर्चित कांड"

                   1966 में आदिवासी राजा एवम् बस्तर नरेश प्रवीरचंद्र भंजदेव सहित 300 आदिवासी जनों की हत्या के विरोध में अपने द्वारिका प्रसाद मिश्र से खुला विरोध व्यक्त किया था ।

"किसानों को उनका हक दिलवाया"

                    भिलाई स्टील प्लांट की स्थापना के समय जिन किसानों की जमीन गई थी । उन्हें अनिवार्य रूप से नौकरी न देने पर आपने आंदोलन चलाकर किसानों को उनका हक दिलाया । इसी तरह हीराकुंड  बांध, रायगढ़ में भी किसानों को उनका हक दिलाने तक आपने संघर्ष किया ।

"छत्तीसगढ़ राज्य की परिकल्पना एवम् उनका संघर्ष"

                सन 1946 में ही आपने कांग्रेस की बैठक में छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव की चर्चा की थी । छत्तीसगढ़ के विकास के मुद्दे को लेकर अपने सन् 1948 में शुक्ला मंत्रिमंडल से त्यागपत्र भी दे दिया था ।

                छत्तीसगढ़ के मुद्दों को लेकर "क्षुब्ध छत्तीसगढ़" शीर्षक से लेख लिखकर "राष्ट्र बंधु" पेपर में छपवाया भी था । जिसमें छत्तीसगढ़ की उपेक्षा का मुद्दा मजबूती के साथ आपने उठाया था ।

                उनका कहना था कि छत्तीसगढ़ के सोए स्वाभिमान को जगाना, एवं उसके गौरव गरिमा को उजागर करना, उसे शोषण, अन्याय और दमन से मुक्त कराना ही उनका लक्ष्य है ।

                 वे विभिन्न सभाओं एवं बैठकों एवं लेखों के माध्यम से छत्तीसगढ़ की अस्मिता और उसके मुद्दे को उठाते रहे ।

                1956 में छत्तीसगढ़ राज्य की कल्पना को साकार रूप देने के लिए जुझारू एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं का एक सम्मेलन राजनांदगांव में आयोजित भी किया गया । सम्मेलन में छत्तीसगढ़ी महासभा का गठन भी किया गया । सम्मेलन में छत्तीसगढ़ राज्य का प्रस्ताव भी पारित किया गया ।

                25 सितंबर 1967 को रायपुर में छत्तीसगढ़ महासभा को पुनर्गठित किया गया । सर्वसम्मत से छत्तीसगढ़ महासभा का नाम बदलकर "छत्तीसगढ़ भातृ संघ" स्वीकार किया गया । परसराम यदु,  रेशमलाल जांगड़े, हरि ठाकुर, रामाधार चंद्रवंशी आदि सामाजिक राजनीतिक नेतृत्वकर्ताओं ने आपकी आवाज को अपनी भी आवाज दी । इस लक्ष्य में आपको बृजलाल वर्मा एवं राजा नरेश चंद्र सिंह का भी समर्थन एवं सहयोग मिला ।

                इस आंदोलन के बढ़ते प्रभाव से घबराकर तत्कालीन मुख्यमंत्री श्यामा चरण शुक्ल ने इस संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया था ।

"छत्तीसगढ़िया के मुद्दे पर उनका दृष्टिकोण"

रवि शंकर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति को अपने छत्तीसगढ़िया की परिभाषा को स्पष्ट करते हुए बताया था कि, 

                "जो छत्तीसगढ़ के हित में अपना हित समझता है और छत्तीसगढ़ के मान सम्मान को अपना मान सम्मान समझता है एवम् छत्तीसगढ़ के अपमान को अपना अपमान समझता है, वह छत्तीसगढ़ी है, चाहे वह किसी भी धर्म, भाषा, प्रांत या जाति का हो ।"

                    आजादी मिलने के बाद ही उन्हें तत्कालीन सरकार के रवैए से छत्तीसगढ़ की उपेक्षा का एहसास हो गया था । उन्होंने देखा कि शासक वर्ग छत्तीसगढ़ के शोषक वर्ग को सहयोग के साथ बढ़ावा भी दे रहा है एवं छत्तीसगढ़ की शोषित पीड़ित जनता को पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया है ।

                वरिष्ठ पत्रकार मधुकर खेर आपके बारे में लिखते हैं कि, प्रचारतंत्र का स्वतंत्र जाल न होने के कारण डॉक्टर बघेल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को वह सम्मानजनक स्थान नहीं मिल पाया जिसके कि वे हकदार थे ।"

                1965 में भीषण अकाल के समय "टाइम्स पत्रिका" की अमेरिकी महिला पत्रकार लिखती हैं कि, मेरे दो घंटे तक डॉक्टर बघेल का साक्षात्कार लेने के बाद, छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े क्षेत्र में भी ऐसे जुझारू कर्मठ नेतृत्व हो सकते हैं, इस बात पर मुझे आश्चर्य हुआ ।

                22 फरवरी 1969 को आप अपनी विशाल सामाजिक, राजनीतिक विरासत छोड़कर हम सबसे विदा हो गए ।

                छत्तीसगढ़ सरकार आज प्रतिवर्ष 2 लाख का पुरस्कार अपने छत्तीसगढ़ के माटी पुत्र डॉक्टर खूबचंद बघेल के नाम पर प्रदान करती है ।

                सच तो यह है कि आज अर्द्ध शताब्दी के बाद भी समाज के इस संघर्षशील, त्यागी, जागरूक, समाज समर्पित व्यक्तित्व का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है । उन्हें सिर्फ "छत्तीसगढ़ का स्वप्न दृष्टा" कहना उनका सही मूल्यांकन नहीं होगा । वह एक ओर जहां समर्पित व्यक्तित्व के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, वहीं इन दोनों अलंकरणों से हटकर आप सर्वप्रथम "सामाजिक न्याय को प्रतिबद्ध एक सामाजिक योद्धा" भी थे, जो इनकी वास्तविक विरासत मनाई जानी चाहिए ।

                आपके यशस्वी पौत्र चार्टर्ड अकाउंटेंट  विष्णु दत्त बघेल जी आपके आंदोलन और संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए पूरी तरह से संकल्पित है एवं उनकी विचारधारा को आगे बढ़ाने में आप सतत प्रयासरत भी हैं ।


लेखक-

साहु रामलाल गुप्ता,

मोबाइल 94077 64442.

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आवाज की दुनिया के बादशाह रहे हैं अमीन सयानी

 

बिनाका गीत माला के अमीन सयानी

संजीव खुदशाह 

आवाज की दुनिया के बादशाह रहे हैं अमिन सयानी। हीरो हीरोइन गायक कलाकारों के पीछे तो हमेशा लोग पागल रहे हैं लेकिन ऐसा पहली बार हुआ जब किसी एनाउंसर के पीछे लोग इस तरह दीवाने थे। इनका क्रेज किसी सुपरस्टार से कम कभी नहीं रहा।  वे भारतीय उपमहाद्वीप के अनाउंसरों के आदर्श रहे हैं। और लगभग हर दूसरा एनाआंसर उनकी तरह बोलना चाहता है। 50, 60 और 70 के दशक में पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में यह माहौल था कि हर बुधवार को रात 8:00 बजे गलियां और सड़के सुनसान हो जाया करती थी। लोग ट्रांजिस्टर, रेडियो से चिपक जाते । आधे घंटे का यह प्रोग्राम लोगों को बहुत आकर्षित करता था। खास तौर पर अमीन सयानी की डायलॉग डिलीवरी का जो अंदाज था वह काबिले तारीफ था। वो न ही कठिन हिंदी में था न ही कठिन उर्दू में खालीस हिंदुस्तानी भाषा में बोलचाल की तर्ज में वे अपनी बात को कहते थे और यही बात लोगों को पसंद आती थी। बिनाका गीत माला एक काउंटडाउन सो था जिसमें फिल्मी गीतों की लोकप्रियता के आधार पर प्रति सप्ताह करीब 16 गीत सुनाए जाते थे। आधे घंटे की इस शो में गीत पूरे नहीं बजते थे। लेकिन लोगों को यह जानने की उत्सुकता रहती की कौन सा गीत किस गीत के आगे है या पीछे है। सरताज गीत कौन सा है ? कौन सा गीत किस पायदान में है  ?  इसी प्रकार साल भर के सरताज गीत दिसंबंर के आखरी बुधवार को बजते जिसमें एक गीत सभी गीतो का सरताज बनता।

अमित सयानी बताते हैं कि जब उन्होंने बतौर एनाउंसर अपनी करियर की शुरुआत करनी चाही तो ऑल इंडिया रेडियो ने उन्हें रिजेक्ट कर दिया और यह कहा कि योर वॉइस इस नॉट सूटेबल फॉर अस।

एक उद्घोषक के रूप में अमीन सयानी कुछ कार्यक्रम किया करते थे इसी बीच वह 1952 में रेडियो सीलोन (उस वक्त श्रीलंका को सीलोन कहा जाता था) से प्रसारित होने वाले एक काउंटडाउन रेडियो शो के लिए उन्हें अनुबंधित किया गया।
टूथपेस्ट बनाने वाली कंपनी बिनाका ने इस कार्यक्रम को प्रायोजित किया था जिसमें उन्‍हे हिन्‍दी फिल्‍मों के लोकप्रीय गीतो को बजाना पड़ता। कुछ फेरबदल के साथ यह कार्यक्रम करीब 42 साल तक निर्बाध रूप से चलता रहा। 1989 से बीनाका गीत मला विविध भारती से प्रसारित होने लगा जो की 1994 तक चला। लेकिन उनका क्रेज आज की पीढ़ी में अब भी है।

 आवाज की दुनिया के तीन लोगो ने मुझे बेहद प्रभावित किया है। अमिताभ बच्चन, के के नायकर और अमीन सयानी। अमीन सयानी की बात करने की शैली कुछ ऐसी थी कि लोगों को लगता था कि वह उनके साथ वार्तालाप कर रहे हैं । जिन बातों को वह रेडियो प्रोग्राम में बताते थे तो लोगों को ऐसा लगता था कि जैसे वह कोई जीवंत तस्वीर या पिक्चर देख रहे हैं। यही कारण है कि 50 साल तक अमीन सयानी के पीछे लोग पागल से रहे हैं। बिनाका गीत माला खत्म होने के बाद उन्होंने गीतमाला की परछाई नाम से ऑडियो सीरीज सीडी के रूप में प्रकाशित किया। जिसमें उन्होंने गीतमाला की अपनी यादों को, अनुभवों को साझा किया। जो की बेहद प्रसिद्ध हुई , यह 30 भागों में थी।

हर गायक कलाकार अभिनेताओं की यह चाहत होती कि उनके गीत बिनाका गीत माला में बजे। बिनाका गीत माला में गीत बजने का मतलब होता था की फिल्म सुपरहिट होना तय है । अमीन सयानी इस कार्यक्रम में न केवल गीतों को सुनाते थे बल्कि उस गीत की पृष्ठभूमि के बारे में भी बताते थे । जो की बहुत रोचक हुआ करता था। लगभग उन्होंने तमाम फिल्मी हस्तियों से अपने इस काउंटडाउन शो बिनाका गीत माला में बातचीत की और उसका एक आर्काइव भी अपने पास रखा। जिसे उन्होंने गीतमाला की छांव में के अपने एपिसोड में प्रसारित किया। उन्होंने कुछ फिल्मों में भी बतौर एनाउंसर अभिनय किया जैसे भूत बंगला, तीन देवियां, बॉक्‍सर और कत्‍ल।

पिछले कुछ दिनों से वे काफी बीमार चल रहे थे। लेकिन सक्रियता उनकी आखिरी दिनों तक बनी रही । आज के तमाम रेडियो जॉकी के वे आईकान थे। आज वे हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी आवाज आज भी जैसे कि हमारे कानों में गूंज रही है। जिन्होंने उनका प्रोग्राम रेडियो पर सुना है वह कभी उन्हें भूल नहीं सकेंगे। उनकी यादें हमेशा उनके जहन में बनी रहेगी ।

Sant Ravidas's thoughts are relevant even today

 मन चंगा तो कठौती में गंगा- संत कवि रविदास

संजीव खुदशाह

भारतीय समाज मे संत रविदास का स्थान विशेष है वे भक्ति काल के कवि होने के बावजूद उनके पदो में प्रगतिशीलता और समता छाप स्‍पष्ट झलकती है। उनके जन्म स्थान दिनांक उम्र आदि के बारे विद्वानों में

विरोधा भाष रहा है। किंतु ज्यादातर विद्वान मानते है कि सन 1398 ईसा में उनका जन्म हुआ था तथा उनके दोहे से ज्ञात होता है कि वे एक दलित समुदाय से ताल्लुक रखते है।

जाति भी ओछी, करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा।

नीच से प्रभु ऊंच कियो है, कह रविरास चमारा।।

-- रैदास जी की बानी

वे एक मुख्यु धारा के संत कवि थे जिनका सीधा समाज से सरोकार था किंतु साहित्यिक मठाधीश उन्हे  निर्गुण धारा के कवियों में वर्गीकृत करते है। शायद इसलिये की वे समकालीन कवियों रसखान, सूरदास, तुलसीदास की भांती सिर्फ भक्ति में ही डूबकर रचनाएं नही करते थे। वे कबीर की तरह समाज की रूढि़यों पर भी चोट करते रहे। वे संत कवि होने के बावजूद समाज को मार्गदर्शन देने का काम करते रहे। ऐसा कहा जाता है कि संत रविदास बनारस के निवासी थे लेकिन जीते जी उनकी ख्याति‍ पूरे भारत में थी। उनके शिष्‍य और अनुयायी पूरे भारत में मिलते है चाहे पंजाब हो, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश या दक्षिण में महाराष्ट्र  और आंध्रप्रदेश । ऐतिहासिक ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि संत रविदास के जीवन काल के दौरान 

देश में सिकंदर लोधी का शासन था एवं भारत में ऊंच-नीच, धार्मिक पाखण्ड का बोल-बाला था। वे तीक्ष्ण बुध्दि के थे उनकी गजब की तर्क शक्ति थी। उनके जीवन की कुछ घटनाओं, किवदंतियों को पढ़कर ज्ञात होता है कि वे अपनी वाकपटुता और बुध्दि से विरोधियों को लाजवाब कर देते थे।

एक समय ऐसा था जब संत बनने के लिए किसी को गुरू बनाना जरूरी था। चित्तौड़ की रानी मीरा को तत्कालीन संतो ने शिष्या बनाने से इनकार कर दिया क्योकि वे एक स्त्री  थी। वह भी राज परिवार की़। धार्मिक परंपरा के अ़नुसाऱ ये उचित नही माना जाता था। लेकिन संत रविदास ने इस रूढ़ी को तोड़ते हुए मीरा के अनुनय विनय  को स्वीकार करते हुये अपनी शिष्‍या बनाया। मीरा के पदों में रैयदास का जिक्र कई स्थानों में मिलता है। रविदास की रचनाएं- नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिर्पोट के अनुसार उनकी रचनाएं विभिन्न हस्तालिखित ग्रन्थों के रूप मे मिली है ---1. रैदास की बानी, 2. रैदास जी की साखी, 3.रैदास के पद, 4.प्रहलाद लीला। ग़ौरतलब है कि सिक्खो के पवित्र धर्म ग्रन्थ ‘’गुरूग्रंथ साहेब’’ में संत रविदास के 40 पद संग्रहीत है।

रैदास की वाणी मानव भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का संतोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे।

संत रविदास जाति भेद, ऊंच-नीच, रंग-भेद, लिंग-भेद, पितृसत्ता को सारहीन एवं निरर्थक बताते थे। वे परस्पार मिलजुलकर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश देते थे।

वर्णाश्राम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।

सन्देशह-ग्रन्थि खण्ड न-निपन, बानि विमुल रैदास की।।

 इस पद में वे कहते है की मनुष्य मनुष्य‍ से तब तक नही जुड पायेगा जब तक की जाति रहेगी।

 जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।

रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।

 वे हिन्दू मुस्लिम एकता की बात करते थे जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है

रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।

तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।

 हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।

दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।

 

उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है।  इस प्रकार उनके मुख से प्रसिध्द  दोहे का जन्म् हुआ ।

- मन चंगा तो कठौती* में गंगा।

*कठौती- चमड़ा साफ करने का बर्तन।

आज भी प्रासंगिक है संत रविदास के विचार Publish on Navbharat 30 Jan 2018

Saint Valentine's Day giving the message of love

 

प्रेम का संदेश देता संत वैलेंटाइन दिवस

संजीव खुदशाह

सदियों से प्रेम और उसकी भावनाओं को धर्म और संस्कृति के ठेकेदारों ने अपनी पैरो की जूती समझा है तथा प्रेम के दीवानों पर सैंकड़ो सितम ढाये है। बावजूद इसके प्रेम के नाम पर अपने आपको न्‍यौछावर कर देने वाले संत वेलेन्‍टाईन के बलिदान दिवस को पूरी दुनिया बडी सिदृत मुहब्बत का त्यौहार मनाती है। आज विश्व की युवा पीढी और हर वह व्यक्ति जो अपने जीवन साथी को प्यार करता हैअपने प्रेम के इजहार के लिए 14 फरवरी के इस मुकदृदस दिन का बडी बेसब्री से इंतजार करता है।

वेलेन्टाइन डे क्यों मनाया जाता है 

इसके पीछे कई मान्यताएं है। सर्वस्वीकृत मत और तथ्य  ये

Valentine day
है की रोम के दुष्‍ट दुराचारी सम्राट क्लॉ्डियस ने अपनी सैन्य शक्ति बढाने के उद्देश्य से अपनी प्रजा के बीच यह भ्रम फैला रखा था की पुरूषों को विवाह नही करना चाहिए इससे उनकी बुध्दि और शक्ति में कमी आती है। उसने इसके लिए बकायदा कानून बनाये और जनता के बीच कडाई से लागू किया, सैनिक और राज्य के अधिकारियों को भी विवाह करने में पाबंदी लगाई गई। ऐसा कहा जाता है कि‍ संत वेलेन्टाईन सम्राट के इस कानून का विरोध करते और युवक युवतियों को मुहब्बत करने के लिए प्रेरित करते उनकी शादियाँ करवाते थे।  जब क्लोडिअस को इस बारे में पता चलाउसने वेलेंटाइन को गिरफ्तार करवाकर जेल में भेज दिया। जिस जेल में पादरी वेलेन्टाईन बंद थे वहां के जेलर की पुत्री का उन्होने उपचार किया था जिससे उन्हे  प्यार हो गया । रोम के सम्राट क्लॉ्डियस द्वारा संत वेलेन्टाईन की 14 फरवरी 269 इसवी को हत्या  करवा दी गई। मारे जाने से एक शाम पहलेउन्होंने पहला "वेलेंटाइन" स्वयं लिखाउस युवती के नाम जिसे वे बेहद प्यार करते थे। ये एक पत्र था जिसमें लिखा हुआ था "तुम्हारे वेलेंटाइन के द्वारा"।

ऐसी मान्यता है की प्रारंभ में रोम के निवासी इस दिन घरों में साफ सफाई किया करत थे और एक दूसरों को प्रेम का संदेश देते थे। यह संदेश हस्त लिखित होता था। बाद में यह दिवस प्रेम के आईकन के रूप में सर्व स्वीकृत होता गया। 1797 ईस्वी ब्रिटेन में पहले पहल छपे हुये संदेश भेजने की परंपरा शुरू हुई बाद में ग्रि‍टिंग (चित्रकारी के साथके रूप में प्रेम के संदेश को प्रेषित किया जाने लगा। वह हस्‍तलिखित पत्र आज इलेक्‍ट्रानिक कार्ड का रूप ले चुका है। बडी बडी कम्पनियाँ इस मौके पर तैयारी करती है और युवाओं को लुभाने का प्रयास करती है। अब होटलबाजारबाग बगीचे सजा ये जाते हैगिफ्ट आईटमों में छूट की पेशकश की जाती है। पूरा बाज़ार मानो सज धज कर तैयार हो जाता है।

विवाह दिवस के रूप में मनाया जाना:- वैसे प्रेम और प्रेम विवाह किसी मूहूर्त के मोहताज नही होते है। बहुत कम लोग जानते है कि इस दिन को विवाह दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। वेलेन्‍टाईन दिवस के दिन विवाह किये जाने का क्रेज जोरों पर है प्रेमी जोडे विवाह करने हेतु इस दिवस को चुनते है। इसलिए इसे विवाह दिवस के रूप में भी जाना जाने लगा है। 14 फरवरी को ऐसी कई हाई प्रोफाईल शादियाँ सुर्खियों में रहती है जो कुण्‍डली मिलानविवाह मुहूर्त के बिना सात फेरे लेकर अपनी शादी को यादगार बनाना चाहते है।

वेलेन्‍टाईन को लेकर विवाद:- आज से 1700 सौ साल पहले जिस प्रकार नफरत का जहर फैलाने वाले कट्टरवादी और तानाशाही विचारधारा के लोग प्रेम के परवानो पर कहर ढाते थे। आज भी उस क्लॉ्डियस की संताने इन प्रेमियों पर जुल्‍म ढाने से बाज नही आजे है। लेकिन उनका तरिका बदल गया है। भारत में कुछ कट्टरपंथियों के द्वारा इस दिवस का विरोध किया जाता है। वे इस दिवस को मनाने से मना करने के कई हास्‍यास्‍पद तर्क देते है जैसे इस प्रेम (वेलेन्‍टाईनदिवस को मनाने से भारतीय संस्‍कृति नष्‍ट हो जायेगीयह विदेशी संस्‍कृति का हमला हैप्रेम करना गलत है आदि आदि। कुछ लोग इस दिवस का भारत में प्रभाव खत्‍म करने की गरज से बजुर्ग दिवस, हिन्‍दू संस्‍कृति विकृत दिवस, पूजन दिवसमातृ-पितृ दिवस मनाने तक की घोषणा करते है। वे अपने आप को भारतीय संस्‍कृति का ठेकेदार समझते है। उनकी नजर में भारतीय संस्‍कृति इतनी कमजोर है की वेलेन्‍टाईन दिवस मनाने से नष्‍ट हो जायेगी, न की और मजबूत होकर फलेगी फूलेगी।

वेलेन्‍टाईन डे के विरोध का वास्‍तविक मकसद क्‍या है यदि गौर से देखे तो जो कट्टरपंथी लोग इस दिवस का विरोध करते हैउनका संस्‍कृति और धर्म से कोई लेना देना नही है वे जानते है कि उन्‍हे लोगो का समर्थन नही है वे इस तथ्‍य से तिल मिला जाते है और किसी न किसी प्रकार से चर्चा में बने रहना चा‍हते हैशायद ये एक सबसे आसान रास्‍ता है मी‍डिया में बने रहने का। दूसरा मकसद यह है कि वह क्‍लोडियस की तरह जनता की आँखो में घूल झोक करनफरत और घृणा का बीज बो कर लंबे समय तक सत्‍ता में काबि‍ज रहना चाहते हो। लेकिन सुखद है कि भारत का युवा इन सब से दूर प्रेम के इस दिवस को बडे ही तहजीब से मनाता आ रहा है। सात समुन्‍दर पार से आये इस प्रेम के त्‍योहार को यहां के युवा ही नही बुजुर्ग भी बडे शान से मनाते है। भारत में जातिधर्मऊंच-नीच के भेद को मिटा कर वास्‍तव में वासुदेव कुटुम्‍बकम का आगाज करने की पहल की जा चुकी है। यही बात इन नफरत के झंण्‍डाबरदारों को खटकती है। बडी ही दुख की बात है जब हमारे देश की दीवाली अमेरिका के वाइट हाउस में मनाई जाती है  तो हम गौरांवित होते है और जब पश्चिमी देशेा का कोई त्‍योहार हमारे देश में मनाया जाता है तो हम हाय तौबा मचाते है। हमें इस दोगली नीति से बचना होगा। हमारे संविधान में लिखा है कि भारत एक स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। यहाँ सबको अपनी तरह जीवन जीने अधिकार है। यह अधिकार छीनने का हक किसी को भी नही है स्‍वयं माता पिता को भी नही।

Publish on 8/2/2015 Nav Bharat

How to start your own business as a fresher, best idea | Industry Factory Dmaindia online

कोई भी बिजनेस, इंडस्ट्री खड़ा करना बहुत आसान है। शर्त यह है कि आपके अंदर जज्बा होना चाहिए। आपको सही मार्गदर्शन मिलना चाहिए। संयुक्त संचालक उद्योग श्री संजय गजघाटे जी बता रहे हैं कि आप अपना बिजनेस कैसे खड़ा कर सकते हैं। क्या-क्या सहयोग सरकार आपको देती है। देखिए यह महत्वपूर्ण वीडियो। जरूरतमंदों को फारवर्ड भी कीजिए।

DMAindiaOnline| Episode No158 Personality of The Week Sanjay Gajghate Joint Director Industry CG Gov

इस रविवार पर्सनालिटी ऑन द वीक की खास कड़ी में संजीव खुदशाह बातचीत कर रहे हैं जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता और मोटिवेशनल स्पीकर संयुक्त संचालक उद्योग श्री संजय गजघाटे जी से। वह बता रहे हैं कि किस प्रकार उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में एक बड़ा मुकाम हासिल किया और सार्वजनिक तथा सामाजिक क्षेत्र में सेवाएं दे रहे हैं।

 

Son of a sanitation Labour, former mayor of Nagpur, Dalit Mitra, Babu Ramratan Janorkar.

 सफाई मजदूर के बेटे पूर्व महापौर नागपुर दलित मित्र बाबूरामरतन जानोरकर

संजीव  खुदशाह

बाबू रामरतन जानोरकर एक ऐसे शख्स का नाम है जिन्होंने नागपुर की धरती में सफाई मजदूर के घर जन्म लिया डॉं भीमराव अंबेडकर के साथ काम किया। वे 14 अक्टूबर 1956 के डॉ भीमराव अंबेडकर की धम दीक्षा संयोजक समिति के उपसचिव रहे है। 1957 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा 1957 भारतीय बौद्ध महासभा के अखिल भारतीय अधिवेशन की वे जनरल सेक्रेटरी रहे।

राम रतन जानोरकरजी को प्यार से बाबूजी भी कहते थे। बाबूजी का जन्म 8 अगस्त 1931 में पांच पावली की सफाई मजदूर बस्ती में हुआ था। इनके पिताजी जालिम जियालाल नगर पालिका में सफाई जमादार थे और माता गंगाबाई भी नगरपालिका में सफाई मजदूर का काम करती थी। वह कहते हैं कि उनका परिवार


उत्तर प्रदेश के बांदा जिला से हिंदु जाति व्यवस्था और उनकी प्रताड़ना से तंग आकर नागपुर आ गये। वे डोमार अनुसूचित जाति वर्ग से आते थे।

प्रसिद्ध लेखक एडवोकेट भगवान दास कहते हैं कि जानोरकर साहब का जन्म डोमार जाति में हुआ था। जो बड़ी संख्या में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ जिलों में आबाद है। डोमार जाति अन्य अछूत जातियों से भिन्न है। बांदा जिले के गांव राजापुर तथा आसपास के इलाके में यदि कोई अछूत जाति सम्मान के लिए टक्कर देती है तो वह केवल डोमार लोग ही हैं। कई बार लड़ाई में उनके हाथों कत्ल भी हो जाता है। जानोरकर के दादा स्वर्गीय जियालाल दीवान इसी गांव में रहते थे। आज भी जानोरकर के परिवार के सदस्य इसी गांव में निवास करते हैं। 19वीं शताब्दी में ऐसी हालत में जातिगत लड़ाई के बाद डोमार जाति के लोग राजाओं रियासतों जातिवाद के अत्याचारों से तंग आकर या कहें भाग कर नजदीक के अंग्रेजी शासन के इलाके में शरण लेते रहे। गांव में उनका वहां कोई खास पेशा नहीं था। अन्य छोटी जातियों की तरह वे खेत मजदूर थे या वे सभी काम कर लेते थे जिन्हें गंदा और नीच समझा जाता था। बड़े शहर में जीविका के लिए जो भी बिना शिक्षा दीक्षा का काम मिला उन्होंने कर लिया। कुछ लोग नई बनी म्यूनिसिपल कमेटियों में सफाई का काम करने लगे और वहीं फस गए। आबादी बढ़ती चली गई और वह यही के होकर रह गए।

 राम रतन जी जब 5 वर्ष के हुए तो उनके पिताजी का साया उठ गया और 10 वर्ष की आयु में माताजी ने साथ छोड़ दिया। परिवार आर्थिक संकट में फस गया। बाल्यावस्था में ही रामरतन जी को सफाई मजदूर की नौकरी करने के लिए मजबूर होना पड़ा। बड़ी बहनो समेत लंबा चौड़ा संयुक्‍त परिवार था। इस बीच उन्होंने अपनी पढ़ाई को भी जारी रखा। दलितों के मसीहा डॉ आंबेडकर से प्रेरणा लेकर राम रतन छात्र जीवन में ही दलित उद्धारक राजनीति से जुड़ गए थे। नागपुर में जब शेड्यूल कास्ट स्टूडेंट फेडरेशन बना तो वह उसके सचिव बन गए। छात्रों के बीच सक्रिय हिस्सेदारी के कारण बड़ी आसानी से उन्हें सक्रिय राजनीति में बिना किसी की उंगली पकड़े प्रवेश मिल गया। नागपुर महानगर पालिका की सेवा में स्वयं होकर मुक्ति‍ पाई और दलितों की सेवा के काम में जुट गए। नागपुर शहर में शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के सचिव बन गए। इस पद के कारण भी सार्वजनिक तौर पर दलितों के बीच एक चमकते सितारे की तरह उभरे।

जानोरकर जी को पुस्तक, पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने का शौक था। शासन को अंदर से देखा राजनीति को बाहर से सोचने समझने और कुछ करने की आदत थी। जो बहुत कम लोगों में होती है। जिंदगी के कुछ उसूल बनाए

और उन पर दृढ़ता से अमल किया। न झुके, न बिके, न डरे, न बहके अपने रास्ते पर चलते रहे हैं। बाबू हरिदास आवडे एक लंबे अरसे तक इस इलाके में काम करते रहे हैं। उनकी तरह ईमानदार निष्ठावान सूझबूझ वाले बहुत कम लोग पैदा होते हैं। जानोरकर जी उनके संपर्क में आये और उनकी मृत्यु तक वफादारी के साथ काम करते रहें।

जानोरकर जी ने 1949 में शेड्यूल कास्ट फेडरेशन में दिलचस्पी ली। परंतु नौकरी छोड़ने के बाद फेडरेशन तथा रिपब्लिकन पार्टी में पूरी लगन और दिलचस्पी से काम किया। कई महत्‍वपूर्ण पदों पर नियुक्त हुऐ, आंदोलन में भाग लिया, कई बार जेल भी गए, रिपब्लिकन पार्टी के झंडे तले इलेक्शन भी लड़े। 1951 के बाद वह बौद्ध धर्म में दिलचस्पी लेने लगे। 1956 में अन्य लोगों के साथ बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर द्वारा महान दीक्षा सम्मेलन में बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। दिक्षा समिति के उपसचिव रहे। 1975 में वे भारतीय बौद्ध महासभा में शामिल हुए।  वे 1976 में नागपुर महानगर पालिका में मेयर चुने गए। 

नागपुर में सफाई कर्मचारियों को कर्ज और जमाखोरों से मुक्त करने के लिए उन्होंने एक कोऑपरेटिव सोसाइटी कायम करने का सोचा और लोगों को यह समिति बनाने पर राजी किया।  मेहतर को ऑपरेटिव सोसाइटी के नाम से स्थापित समूचे भारत में मेहतरों की या सबसे बड़ी कोऑपरेटिव सोसाइटी नागपूर (मेहतर बैंक) है जो करोड़ों अरबो रुपए का लेनदेन करती है।

जानोरकर जी राजनीतिज्ञ होने के अलावा समाज सुधारक भी थे। वह जात-पात विरोधी थे और केवल जात-पात के खिलाफ भाषण नहीं देते थे। बल्कि उसे अमल भी करते थे। अपने बच्चों के विवाह अपनी जन्म जाति से बाहर किया। खुद भी अंतरजातीय विवाह किया। उनके रिश्तेदारों में मेहतर, वाल्मीकि, इसाई आदि कई जाति के लोग हैं। नागपुर में विवाह और मृत्यु में अन्य अछूत जातियों में बहुत फिजूल खर्ची होती थी। परंतु अपनी लड़कियों के विवाह उन्होंने ठीक बाबा साहब डॉं अंबेडकर की दिखाएं रास्ते के मुताबिक किया। जानोरकर जी शराब सिगरेट बीड़ी आदि का सेवन नहीं करते थे और यह प्रचार भी करते थे कि नशा नहीं करना चाहिए। वह बहुत स्पष्टवादी थे उनकी यह आदत कभी-कभी कुछ लोगों को नाराज कर देती थी। परंतु उनके सोचने का ढंग बहुत ही तार्किक था।

जानोरकर जी सफाई कामगार जातियों में शिक्षा के प्रसार को महत्व देते थे। इसके लिए उन्होंने मध्य प्रदेश समेत अन्य प्र‍देशों में प्रचार भी किया। पंपलेट और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने इस काम को आगे बढ़ाया। लेकिन संसाधनों की कमी के कारण यह लंबे समय तक नहीं चल सका। उन्‍होने पूरे देश में घूमकर बौध्‍द धर्म का प्रचार किया और लोगो को बौध्‍द धर्म की दीक्षा दी।

बाबू राम रतन जानोरकर जी बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी थे। वे रिपब्लिकन पार्टी और अंबेडकर आंदोलन की बढ़ोतरी के लिए संघर्षशील न रहते तो उनसे यह क्षमता थी कि वह समूचे भारत में एक जातियां वर्ग के नेता बन सकते थे। परंतु उन्होंने अंबेडकर आंदोलन को बढ़ाने और संगठन को महत्व दिया और पार्टी के प्रति वफादार रहे। यदि अन्य नेताओं की तरह वे बिक जाते तो ऊंचा पद और धन दोनों उनके पास होता। परंतु वह असूल से बंधे रहे एक छोटी सी झोपड़ी नुमा घर में रहकर भी बाबा साहब की मिशन को आगे बढ़ाने का प्रयास करते रहे। वह सही मायने में दलित मित्र हैं उस बीज की तरह जो मिट्टी में मिलकर अपना वजूद खोकर नए वृक्ष को जन्म देता है। उनके बारे में कहा जाता है कि वह गरीब स्थिति होने के बावजूद रोज सुबह ब्रेड, डबल रोटी गरीबों में बांटा करते थे और यह काम उन्होंने अपने जीवन पर्यंत किया। इन पंक्तियों के लेखक ने उन्‍हे ऐसा करते देखा है।

पहले नागपुर में सफाई कामगारों की नौकरियां जाति आधारित निकाली जाती थी। जिसमें सिर्फ सफाई कामगार जातियां ही आवेदन कर सकती थी। रामरतन जानोरकर ने इसका विरोध किया। उन्‍होने सभी जाति के लिए यह मार्ग खुलवाया। उन्होंने कहा कि जिस दिन सफाई कामगार जातियां दूसरे कामों में लग जायेगीं तथा सफाई काम में अन्‍य जातियां आएंगी तभी यह देश प्रगति हुआ है माना जाएगा। 

भले ही वे वाल्‍मीकि एवं सुदर्शन जयंती में जाते थे। किन्‍तु वे यह मानते थे की सफाई कामगारों का भला पौराणिक ऋषियों की पूजा अर्चना करने से नहीं होगा क्योंकि इससे सफाई कामगार समाज धार्मिक जाति व्यवस्था के सामने नतमस्तक होकर शिक्षा से दूर हो जाता है। जिसके कारण वह विरोध नहीं कर पाता। वह मानते थे कि अंबेडकर वादी आंदोलन और विचारधारा के प्रभाव में आने के बाद ही समाज का भला हो सकेगा। उन्‍हे महाराष्ट्र सरकार द्वारा बाबा साहेब अंबेडकर दलित मित्र सम्‍मान दिया गया। वे पूरी जिंदगी सक्रिय रहे 19 जून 2005 को 74 वर्ष की आयु में उनका परी निर्वाण हुआ। काश पूरा समाज उनसे प्रेरणा लेता और उनके बताऐ रास्‍ते पर चलता।

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Omprakash Valmiki's absence

ओमप्रकाश वाल्मीकि का न होना

संजीव खुदशाह

आज चुनाव कार्य की व्यस्तता के बीच देशबंधु के प्रधान संपादक श्री ललित सुरजन जी के माध्यम से यह जानकारी प्राप्त हुई की हिन्दी के मशहूर साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि नही रहे। उनका आज यानी 17.11.2013 की सुबह देहरादून के एक अस्पताल मे निधन हो गया। वे 67 साल के थे। इसके बाद शील बोधी, सुन्दरलाल टाँकभौरे सहित कई साथियों के SMS और फोन भी आये। दरअसल ओमप्रकाश


वाल्मीकि केवल लेखक नही थे वे एक दलित दृष्टा भी थे। दलित शब्द  इसलिए यहां प्रयोग करना जरूरी है क्योकि उन्होने प्रगतिशील दृष्टिकोण को ऐसे ढंग से प्रस्तुत किया जहां दलित दृष्टि के बिना प्रगतिशीलता एक रूढी प्रतीत होती है।

वे एक अच्छे कहानीकार के साथ-साथ्‍ा कवि एवं विचारक भी थे। उन्हे विशेष प्रसिध्दि तब प्राप्त हुई जब उनकी आत्मकथा जूठन प्रकाशित हुई। जूठन ने ये बताया की एक भंगी भी इंसान होता है। और उसके सीने में भी दिल धडकता है। जूठन ने साहित्य के हल्को में हलचल मचा दी। लोगो ने एक सफाई वाले की जिन्दगी को करीब से देखा और ये किताब कई भाषाओं में अनुदीत हुई।  

मेरी उनसे मुलाकात तब हुई जब मै अपनी किताब सफाई कामगार समुदाय पर काम कर रहा था। इस हेतु मुझे कुछ साथियों ने उनका नाम सुझाया। मुझे उनका  साक्षात्कार लेना था एवं शोध हेतु उनसे रायसुमारी करनी थी। गौर करने वाली बात ये है कि उस समय मुझे ये नही मालूम था कि वे मशहूर लेखक है। मुझे सिर्फ ये बताया गया कि वे समाजिक कार्यकर्ता है और कुछ लिखते भी है।

जबलपुर स्थित डिफेंस कालोनी के उनके निवास पर मेरी उनसे मुलाकात हुई।  मैने उनसे कुछ प्रश्न पूछे। उन्होने बडी ही विदृवता से जवाब दिया। उन्होने ये भी बताया जैन धर्म में जिन चार लोगो को प्रवेश में मनाही है उनमें से एक भंगी भी है। मैने अपनी किताब में इसका जिक्र भी किया है। उन्होने ये भी बताया की यहां के सफाई कामगार वाल्मीकि की तरह सुदर्शन को मानते है और वे अम्बेडकरी आंदोलन से इत्तेफाक नही रखते है। उन्होने ये भी बताया कि उन्हे उनके ही लोग सभाओं कार्यक्रमों में बुलाने से परहेज रखते है। क्योकि समाजिक नेताओ को लगता है कि उनके आने से सुदर्शन और वाल्मीकि का भ्रम हट जायेगा और उनकी नेतागीरी जाती रहेगी। इस समय उनकी पत्नी चंदाजी शायद बीमार थी।  उन्होन स्वयं चाय बनाकर हमे दिया, मना करने पर भी वे मेहमान नवाजी पर तत्पर थे।

बाद में मेरी किताब सफाई कामगार समुदाय प्रकाशित हो गई। उनसे अक्सर बात होती रहती कभी साहित्यिक कभी निजी बाते होती। हलांकि वे आज नही है फिर भी यह जिक्र करना आवश्यक है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि का विवादो से चोली दामन का नाता रहा है। उनपर अक्सर रचनाएं चुराने का आरोप लगता रहा है। धर्मवीर ने “जूठन का लेखक कौन?”  नाम से एक किताब ही लिख डाली। मुकेश मानस की अनूदीत किताब “मै हिन्दू क्यो नही हूं ?“ (लेखक-कांचा इलैया) के अनुवाद चुराने का आरोप उन पर लगा। इसी प्रकार कई और भी विवाद उनसे जुडे रहे। हैरानी की बात ये है कि मेरे साथ भी उनके संबंधो में तब तल्खी आ गई जब वे अपनी नई किताब “सफाई देवता” में मेरे किताब के अंश को बिना उचित संदर्भ देते हुए प्रकाशित कर दिया । मेरे एवं हिन्दी के अन्य लेखको की आपत्ति के बाद, उन्होने गलती स्वीकार कर ली और मामला खत्म हो गया। लेकिन ये बात पूरे साहित्य के हल्को में फैल गई । कई लेखको ने मुझे उन पर कोर्ट केस करने की सलाह दी लेकिन मैने इनकार कर दिया । आपस में लडकर शक्ति जाया करना मुझे गवारा नही था। लेकिन कुछ लोग उपन्यास लेख आदि में इस घटना का जिक्र करते रहे ।

यह बात इसलिए कहना जरूरी है क्योकि मै साफ कर देना चाहता हू कि मैने अपने मन में कभी भी उनके प्रति द्वेष नही रखा। और हमारे संबंध पहले की ही तरह रहे। आज वे नही है यह पीडा ब्यान करने के योग्य नही है। वाल्मीकि समाज आज भी उनकी कृतियों से परिचित नही है, न ही उनका मोल समझता है। यह दर्द ओमप्रकाश वाल्मीकि जी को हमेशा सताता था। इसी प्रकार दिवंगत हो चुके एडवोकेट भगवान दास, रामरतन जानोरकर और ओमप्रकाश वाल्मीकि को हिन्दी के पाठक कभी नही भुला पायेगे। उनके लिए सच्ची श्रधाजली तभी होगी जब उनके विचार हर दलित के घर में पहुचे और उनका अनुसरण करे। 

हिंदी में दलित साहित्य के विकास में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही. उन्होंने अपने लेखन में जातीय-अपमान और उत्पीड़न का जीवंत वर्णन किया है और भारतीय समाज के कई अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है.उन्हे ह़ृदय से विनम्र श्रंध्दांजली।



Baba Guru Ghasidas, the great social reformer of Chhattisgarh

  

छत्तीसगढ़ के महान समाज सुधारक बाबा गुरु घासीदास

संजीव खुदशाह

छत्तीसगढ़ के महान एवं सुप्रसिद्ध संत बाबा गुरु घासीदास का जन्म छत्तीसगढ़ के गिरोधपुरी नामक गांव मे 1756 में हुआ था। बाबा गुरु घासीदास ने जो संदेश दिया उसको समझने के लिए हमें उनके जन्म के समय की परिस्थितियों को समझना होगा। वह एक ऐसा समय था जब छत्तीसगढ़ में मराठाओं का शासन था और छत्तीसगढ़ की राजधानी रतनपुर थी। शोषण का बोलबाला था। जातिवाद ऊंच नीच चरम पर था, ऐसी स्थिति में बाबा का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ। वह आम लोगों की तरह जीवन जी रहे थे। लेकिन लगानजमीदारी, टैक्स आदि से ग्रामीण जीवन आर्थिक और सामाजिक रूप से निर्बल हो चुका था। आम जनता भूख प्‍यास से निहाल थी। इस कारण वह बहुत व्यथित थे।

Guru Ghasidas Navbharat

सर्वोत्‍तम स्‍वरूप जी अपनी किताब गुरु घासीदास और उनका सतनाम आंदोलन में जिक्र करते है कि बाबा गुरु घासीदास ने भुवनेश्‍वर स्थित जगन्नाथ मंदिर की महिमा सुनकर तीर्थ यात्रा की योजना बनाई। शायद मंदिरों में भगवान के दर्शन से ऊंच नीच छुआछूत प्रताड़ना से मुक्ति मिले लेकिन मंदिरों में उनके साथ और ज्यादा भेदभाव हुआ  जिससे बाबा व्यथित हो गये। उन्होंने उत्तर भारत के लगभग सभी मंदिरों में तीर्थ यात्रा की। यह ज्ञात हुआ सभी जगह शूद्रो अछूतो के साथ भेद भाव हो रहा है। बाबा का भगवान पर से भरोसा उठ गया और वे तर्कवादी बन गये। उन्‍होने कहा जब भगवान हमे छुआ छूत भेदभाव से मुक्ति नहीं दिला सकते तो ऐसे भगवान का त्‍याग करदो। बाबा ने एक ऐसे संसार की कल्‍पना की जहां सभी मानव बराबर हो। एक दूसरे में भेद न हो। पूरे संसार को यही संदेश दिया। कहा जाता है कि उन्होंने तप किया। जिसे हम तपस्या या अध्‍ययन या चिंतन भी कह सकते हैं। चिंतन किया की क्‍यों दलितों आदिवासी पिछड़ो के साथ अन्‍याय किया जाता है? क्‍यों वे गरीबी की मार झेल रहे है? पूजा भक्ति के बाद भी क्‍यों उन्‍हे प्रताडि़त किया जाता है? वे घर परिवार छोड़कर गिरौधपुरी से सोनाखान के जंगल छाता पहाड़ में 6 महीने तक चिंतन मनन करते रहे। तप करने के पश्चात उन्होंने जो निष्कर्ष निकाले। जो उन्‍हे आत्‍मज्ञान की अनुभूति हुई। उसका संदेश उन्‍होने लोगों को दिया। सत्य के मार्ग पर चलने का संदेश। वह आगे चलकर सतनाम कहलाया। जिसे मानने वालों को आम भाषा में सतनामी भी कहते हैं।

आज बाबा गुरु घासीदास की वाणियां लोगों के बीच प्रचलित हैं, वह श्रुति परंपरा से आई है। उनकी जीवनी पढ़ने पर ज्ञात होता है कि भ्रमण करने के पश्चात उनके जीवन पर गुरु रैदास, संत कबीर, गुरु नानक जैसे निर्गुण धारा के संतों का प्रभाव रहा। इसीलिए बाबा गुरु घासीदास को भी निर्गुण परंपरा का संत माना जाता है। उनके संदेशों में बुद्ध का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखता है। उन्होंने जो सात शिक्षाएं दी है वही शिक्षाएं पंचशील में भी मिलती हैं।

आइए जानते हैं कि वह सात शिक्षाएं क्या है ?

1. सतनाम पर विश्वास करना

2. जीव हत्या नहीं करना

3. मांसाहार नहीं करना

4. चोरी जुआ से दूर रहना

5. नशा सेवन नहीं करना

6. जाति पाति के प्रपंच में नहीं पड़ना

7. व्यभिचार नहीं करना

कुछ विद्वान मानते हैं की गुरु घासीदास की शिक्षाएं सीमित नहीं थी इसमें और भी शिक्षाएं शामिल थी। श्रुति परंपरा पर आधारित सतनामी समाज में बहुत सारी शिक्षाओं पर विश्वास किया जाता है। गुरु घासीदास बाबा विश्व को जाति पाती से दूर मनखे मनखे एक समान का संदेश दिया है। वह कहते हैं की अंधश्रद्धा और पाखंड में डूबा समाज गर्त में जाता है चाहे वह अपने को कितना ही महान समझे। इसीलिए इन सब से बाहर निकलो और सत्य पर चलो। उनके पिताजी श्री महंगूदास एक वैद्य थे। इस कारण गुरु घासीदास बाबा ने उनसे यह गुण सीखा और वह भी एक प्रसिध्‍द वैद्य बन गए। जड़ी बुटी पर आधारित चिकित्‍सा करते थे। वह एक वैज्ञानिक एवं तर्क वादी विचारधारा के व्यक्ति थे। उन्होंने दबी कुचली जनता को संगठित होने एवं अत्याचार से लड़ने का संदेश दिया। कहा जाता है कि उनके इस संदेश से प्रभावित होकर बहुत सारी अन्य जातियों के लोग बाबा गुरु घासीदास के प्रभाव में आये। वे सतनाम पंथ को मानने लगे। बाबा गुरु घासीदास की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई थी। कुछ अंग्रेज लेखकों ने बाबा गुरु घासीदास का जिक्र अपनी किताबों में किया है। 

बाबा गुरूघासी दास की शिक्षाओं को पंथी गीत एवं नृत्‍य के माध्‍यम से  स्‍मरण किया जाता है। जो अपनी खास शैली के लिए पूरे देश में प्रसिध्‍द है। पंथी गीत की एक बानगी यहां देखिये।

मंदिरवा म का करे जइबो ,

अपन घट के देव ल मनइबों ।

पथरा के देवता ह हालत ए न डोलत ,

ए अपन मन ल काबर भरमईबो ।

मंदिरवा म का करे जइबों ।

जैत खंभ की स्‍थापना

सर्वोत्‍तम स्‍वरूप जी लिखते है कि गुरु घासीदास की जहां रावटी लगती थी, वहां सबसे पहले छोटे रूप में पतली लकड़ी का खंभा और उसमें छोटा सा झंडा गाड़कर अपनी विजय पताका लहराते थे। इसी का बड़ा रूप सर्वप्रथम तेलासी मेंजहां मंदिर बना है उसके सामने जैतखाम गड़ाया गया है। बाबा गुरू घासीदास साहेब ने अपने जीवन काल में  इक्‍कीस संदेशो का प्रतीक 21 फीट का खंभा( 21 हाथ ) अर्थात 5 तत्‍व, 3 गुण, 13 सदगुण का खंभा गड़वाया था। जो की 21 सदगुणों का प्रतीक है। सार रूप में कहा जाय तो जैतखंभ 21 दुर्गुणों पर विजय पाने का प्रतीक है। जो की इस प्रकार है 1. काम 2. क्रोध 3. लोभ 4. मोह 5. झूठ 6. मत्सर 7. द्वेष 8. ईर्ष्या 9. अभिमान 10. छल 11. कपट 12. बैर-विरोध 13. मांसाहार 14. शराबखोरी 15. गांजाभांगबीड़ीतंबाकू 16. जुआ खेलना 17. निकम्मापन 18. चोरी करना 19. ठगी करना 20. बेईमानी करना 21. स्वार्थ साधन । गुरु घासीदास बाबा के अनुयायी आज भी अपने मुहल्‍ले, गांव या आंगन में जैत खंभ स्‍थापित करते है। जो उनकी श्रध्‍दा एवं सम्‍मान का प्रतीक है। राज्‍य शासन के द्वारा बाबा के गृह ग्राम गिरौदपुरी में विशाल जैख खंभ का निर्माण करवाया गया है जो की आज छत्‍तीगढ़ के प्रसिध्‍द पर्यटन स्‍थलों में शामिल है। इसी प्रकार सोनाखान के जंगल में स्थित छाता पहाड़ भी एक प्रसिध्‍द पर्यटन स्‍थल बन गया है।

कुछ लोग सतनामी समाज को छत्‍तीसगढ़ के बहार नारनौल का बताते है। इसबीच नारनौल पहुच कर अध्‍ययन करने वाले जाने माने सामाजिक कार्याकता श्री संजीत बर्मन कहते है कि हमारा नारनौल के सतनामी से कोई संबंध नहीं है क्‍योंकि वे पंजाबी राजपूत है। हमारा संबंध रैदास से एवं वहां के दलितो से जिनकी विचारधारा बाबा गुरूघासी दास से मिलती है क्‍योंकि वे भी सत्‍यनाम की बात करते है। यहां के सतनामी छत्‍तीसगढ़ के मूलवासी है।

इस प्रकार बाबा ने बाल विवाह पर रोक, विधवा विवाह को बढ़ा देने का प्रयास किया। मृतक भोज एवं कर्मकाण्‍ड का न करने का संदेश दिया। ऐसे समय जब सांमंत वाद जोरो पर था तब ऐसे संदेश देना किसी क्रांतिकारी कदम से कम नहीं था। इस लिए इसे सतनाम आंदोलन भी कहा जाता है। छत्‍तीसगढ़ में शांति सदभाव लाने में बाबा का बड़ा योगदान है। अब ये समय है की हम बाबा गुरूघासी दास के दिये गये संदेश को याद करे और अपने जीवन में उतारे। तभी बाबा के द्वारा किये गये उपकार का कुछ ऋण अदा हो पायेगा।

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Janiye Kaun hai रामरतन जानोरकर Ex Mayor Nagpur Ramratan Janorkar Dalit Mitra Story sanjeev khudshah

 

बाबूजी राम रतन जानोरकर जी ने एक सफाई मजदूर के रूप में अपना करियर शुरू किया और वह नागपुर महानगर पालिका के महापौर बने। वे डॉक्टर अंबेडकर के बहुत करीबी थे तथा भारतीय बौद्ध महासभा के लिए उल्लेखनीय कार्य किया। संजीव खुदशाह से जानिए इनके बारे में कुछ रोचक जानकारी।
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Ramratan Janorkar

Sanjeev Khudshah's important book that exposes superstition - Reality of Vastu Shastra

 अंधविश्वास की कलई खोलती संजीव खुदशाह की महत्वपूर्ण पुस्तक - वास्तु शास्त्र की वास्तविकता

विश्वास मेश्राम

Vastu Shastra ki Vastvikta
वास्‍तु शास्‍त्र की वास्‍तविकता
जब  डिग्रीधारी पढ़े लिखे लोग आसानी से अंधविश्वासों की चपेट में आ जाते हैं तो गैर पढ़े लिखे लोगों का तो पूछना ही क्या ? भारत का बहुसंख्य जनमानस, अपनी बगैर तर्क वाली विश्वासी परंपरा के कारण आसानी से इसका शिकार हो जाता है। इसका सबसे ताजा उदाहरण वास्तु शास्त्र है जो लोगों को अपने मकान, दुकान, दफ्तरों में तोड़फोड़ के लिए उकसाता है और आभासी सुरक्षा प्राप्त करने के लिए लोग अच्छे खासे भवन को तोड़कर नया निर्माण करने के पीछे भागते हैं, दक्षिण दिशा में दरवाजे वाला मकान या फ्लैट नहीं खरीदते या अपने बने बनाए नए घर में रहने नहीं जाते। 



        साइंस एक्टिविस्ट, लेखक और डीएमए इंडिया चैनल के संपादक संजीव खुदशाह की इसी वर्ष ताजा ताजा प्रकाशित पुस्तक "वास्तु शास्त्र की वास्तविकता" हमारे भवनों के बारे में फैले अंधविश्वासों का न सिर्फ खुलासा करती है बल्कि वह इनके ऐतिहासिक संदर्भों तक जाकर हमें तथ्यों से अवगत कराती है। इसके लिए संजीव ने बहुत मेहनत कर प्रमाण ढूंढे है।

  संजीव का इसे अंधविश्वास साबित करने का एक बड़ा तर्क यह है कि वास्तुशास्त्र की बुनियाद वर्ण पर टिकी है। ब्राम्हण वर्ण के लिए वास्तु के नियम पृथक हैं तो क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र और वर्णेतर जातियों के लिए अलग नियम हैं। अब जब पूरी की पूरी वर्णव्यवस्था ही सामंती अंधविश्वासों पर टिकी है तो उसे आधार मानकर बनाएं हुए नियम यूनिवर्सल हो ही नहीं सकते। संजीव का तो यहां तक दावा है कि वास्तुशास्त्र वर्तमान युग में बढ़ती हुई तार्किकता, और ज्ञान विज्ञान के कारण टूटती जाति व्यवस्था को फिर से कायम करने की असफल कोशिश का नतीजा है। 

इसी प्रकार इसके बहुत प्राचीन होने के दावों का भी संजीव ने पोस्टमार्टम कर इसे अर्वाचीन साबित कर दिखाया है।

वास्तु शास्त्र लोगों में डर का फायदा उठाने के लिए बनाया गया टूल है। कुछ चालाक और धूर्त किस्म के लोग, आम लोगों को डराकर उसका फायदा उठाने के लिए वास्तु शास्त्र का प्रचार प्रसार करते हैं। संजीव की इस मांग से कोई भी तर्कशील व्यक्ति सहमत हो सकता है कि वास्तु शास्त्र का धंधा करने वाले लोगों को उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में लाने की जरूरत है।

इस पुस्तक को - वास्तु शास्त्र की पड़ताल, वास्तु शास्त्र  क्या है ?, वास्तु शास्त्र का उद्देश्य, वास्तु के मुख्य स्तंभ - जाति, दिशा और दिवस, वास्तु पुरुष मंडल का अर्थ, वास्तु पुरुष की कहानी, वास्तु पुरुष का अभिप्राय, विज्ञान की कसौटी - शराब की दुकान , अमेरिका का व्हाइट हाउस, पुणे का शनिवारवाड़ा और इसे उपभोक्ता संरक्षण कानून के तहत लाने की जरूरत , अध्यायों में बाटकर समृद्ध किया गया है।

 सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली से 2023 में प्रकाशित संजीव खुदशाह की इस पुस्तक का मूल्य मात्र 50.00 रुपए है ताकि आम लोग इसे खरीदकर पढ़ सकें और अपने जीवन को वैज्ञानिक सोच के साथ आगे बढ़ा सके।


समीक्षक
विश्वास मेश्राम
 (सेवानिवृत) अपर कलेक्टर एवं 
कार्यकारी अध्यक्ष
छत्तीसगढ़ विज्ञान सभा

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प्रकाशक - सम्‍यक प्रकाशन SAMYAK PRAKASHAN

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