Backward Classes - Past & Future

सौजन्य से त्रैमासिक पत्रिका 'अपेक्षाजुलाई दिसम्बर अंक क्रं 36-37

पिछड़ा वर्ग: विगत-अगत

           टेकचंद

17 नवंबर 2011 के ‘नव भारत टाइम्स’ के मुखपृष्ठ की खबर- ‘ओ.बी.सी. में 100 नई जातियां।’

18 नवंबर 2011 के ‘जनसत्ता’ के मुखपृष्ठ की खबर- ‘मलाईदार तबके के लिए आय सीमा दोगुनी करने की सिफारिश।’

3 और 5 दिसंबर के ‘नई दुनिया’ की खबर -‘पिछड़े मुस्लिम वर्ग को आरक्षण।’

पहली खबर में बीस राज्यों के उम्मीदवारों को फायदा मिलने की बात की गई है।  दूसरी खबर में ओ.बी.सी. के लिए बनी ‘क्रीमी लेयर’ (मलाईदार तबके) की सीमा दोगुनी कर इसे सालाना नौ लाख रूपये करने की


सिफारिश की है। तीसरी खबर से स्पष्ट हो जाता है कि सरकार ‘मंडल आयोग’ के तहत सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी में अलग से 5-6 प्रतिशत कोटा तय करने जा रही है।

तीनों खबरों को और घोषित किया जाने वाले ‘मुहुर्त’ को देखकर लगता है कि केंन्द्र सरकार आगामी चुनावों को ठीक उसी तरह ‘इन्फ्लूएंस’ करना चाहती है जैसे छठा वेतन आयोग लागू कर दिया था। बहरहाल! ऐसे में अन्य पिछड़ा वर्ग को जानना बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। मोटे तौर पर देखे तो आज यह सामाजिक वर्ग से बढ़कर राजनीतिक अवधारणा ज्यादा लगी है। जहां-तहां राजनीतिक मंचों से उनके हितों की बात की जा रही है, लेकिन उसकी विगत स्थिति, इतिहास और भविष्य को समझने-समझाने के प्रयास कम ही दिखाई देते है।

दलित व पिछड़े वर्गों के साथ एक विचित्र सी स्थिति है कि साधन संपन्न होते ही वे भी वेदों, पुराणों की तरफ मुड़ने लगते है। जाति नामक अवधारणा से सदियों पीड़ित, शोषित, रहने के बावजूद अवसर मिलते ही स्वयं को श्रेष्ठ ठहराना और अपने नीचे एक आध छोटी जाति टोह लेते है। लोग, व्यक्ति, वर्ग अथवा ज्ञान की तह में जाति के लिए मनुस्मृति, शतपथ बा्रम्हण इत्यादि को आधार बनाते है। ऐसे में रचनाएं भी आऐंगी तो कुछ ऐसी--

ऑरजिन ऑफ शूद्र ऐ क्रिटिकल एनालसेज’: रामरतन सूद

चमार जाति का गौरवशाली इतिहास’: सत्तनाम सिंह

जाट जाति का स्वर्णिम इतिहास’: इत्यादि

उपर्युक्त जातियों तथा ऐसी ही अन्य जातियों को तथाकथित गौरव ‘स्वर्णिम युग’ का अहसास करवाने के लिए उसी ब्राम्हणवादी ग्रंथ परंपरा का ‘संदर्भ पुस्तक’ के तौर पर प्रयोग किया जाता है, जिनकी रचना का उद्देश्य ब्राम्हण जाति को श्रेष्ठ व अन्य के बीच स्वामी सेवक का संबंध विकसित करना था। दूसरी और वैज्ञानिक नृविज्ञान, सामाज विज्ञान, अर्थशास्त्र का उपयोग लगभग नही किया जाता है।

ऐसे परिदृश्‍य में एक महत्वपूर्ण शोध पढ़ने का अवसर मिलता है। ‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’ (पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं) लेखक और शोधार्थी ‘संजीव खुदशाह’ ने इस पुस्तक में पिछड़ा वर्ग के विगत-अगत पर गंभीर शोध किया है। उनकी ‘सफाई कामगार समुदाय’ पुस्तक पहले ही चर्चित हो चुकि है। प्रस्तुत-पुस्तक में पिछड़ा वर्ग की उन वास्तविकताओं को उभारा है, जो स्वयं और अन्यों द्वारा, गढ़े-रचे पूर्वाग्रहों, मिथकों में दब चुकी थी । कुल जमा 140 पृष्ठों व चार अध्याय में ‘पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, स्थिति एवं वर्गीकरण’ में संजीव पिछड़ा वर्ग की वास्तविकता बयां करते है-‘‘पिछड़ा वर्ग एक ऐसा कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है न ही अस्पृश्य या आदिवासी। इसी बीच की स्थिति के कारण न तो इसे सवर्ण होने का लाभ मिल सका न ही निम्नतम होने का फायदा।’’ (पृष्ठ 14) सदैव सवर्ण-अवर्ण के बीच झूलते पिछड़ा वर्ग में संजीव चेतना की कमी मानते हैं । और चेतना आती है वैज्ञानिक सोच से। पिछड़ा वर्ग आज तक धार्मिक ग्रंथों में अपनी जड़े सींचने का प्रयास करता रहा है। जहां अमुक देवता के अमुक-अमुक अंग से फलां-फलां जाति के मनुष्य की उत्पत्ति के मिथक पर आज भी पुरोहित वर्ग जान देता है। धार्मिक ग्रंथों की मानव उत्पत्ति संबंधी एक-एक मान्यता का संजीव तार्किक विश्लेषण करते है और पाते है कि स्वयं हिंदू धर्म-ग्रंथ मानव उत्पत्ति को लेकर एकमत नही है।

मनव उत्पत्ति की वैज्ञानिक खोजों में संजीव पांच सौ (500) करोड़ वर्ष पूर्व के अजीव काल अठारह करोड़ वर्ष पूर्व के जुरेसिककाल, नवपाषाण, धातुकाल के आकड़ों का खाका प्रस्तुत कर मनुष्य की उत्पत्ति और विकास को समझाते है। पिछड़ा वर्ग की सामाजिक स्थिति को परिभाषित करते हुए संजीव लिखते है कि -‘‘हिंदू धर्म में से यदि ब्राम्हण क्षत्रिय एवं वैष्य को निकाल दे तो शेष वर्ग ‘शूद्र’ को हम पिछड़ा वर्ग कह सकते है, इसमें अति शूद्र शामिल नही है। पिछड़ा वर्ग वर्षो से तिरस्कृत होता आया बल्कि यों कहें कि हाशिए पर रहा तो ज्यादा बेहतर होगा जिसे सवर्ण न हो पाने का क्षोभ है तो अस्पृश्य न होने का गुमान भी। वर्षो से हिंदू सभ्यता एवं संस्कृति को संजोए यह वर्ग आज भी अपने हस्ताक्षर को बेताब है। यदि हम पिछड़ा वर्ग को रेखांकित करें तो पाएंगे कि वर्ण-व्यवस्था का एक वर्ण शूद्र, जिनमें कुछ नई एवं उच्च समझी जाने वाली जातियां भी शामिल है जो सवर्ण होने का दावा करती है, किंतु सवर्ण इन्हे अपने में शामिल करने को तैयार नहीं है।’’ (वही 22)

यह ‘अस्पृश्य न होने का गुमान’ ‘सवर्ण होने का दावा’ महत्वपूर्ण है। क्योकि इन्ही कारणों से पिछड़ा वर्ग की मानसिकता मध्यवर्ग जैसी हो चली है। उपर वाले इन्हे नीचे धकेलेंगें और नीचे ये जाना नही चाहते। इसी संदर्भ में 28 नवंबर 2011 को दलित नेता उदितराज के नेतृत्व में हुई रैली के पर्चे को देखना जरूरी है। वे लिखते है कि -‘‘मंडल कमीशन की लड़ाई मूलतः दलितों ने ही लड़ी थी और जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री वी.पी.सिंह ने इसे लागू करने की घोषणा की तब जाकर कुछ पिछड़े वर्ग के लोग समर्थन में आए।’’

ठसी तरह की घटनाएं सन् 2004 में उस समय हुई जब मेडिकल में ओ.बी.सी. को लागू किया गया और उसका देशव्यापी विरोध किया गया। विरोध दलितों आदिवासियों को झेलना पड़ा था, क्योकि ओ.बी.सी. वर्ग तो तब भी- इसी टू बी और नॉट बी. की उहापोह भरी स्थिति में था। उनको लग रहा था कि आरक्षण की आरक्षण की मांग करने से वो शूद्रों अस्पृश्‍यों में गिने जाने लगेगें। इसका कारण समझ में आता है जब संजीव ओ.बी.सी. जातियों का वर्गीकरण करते है। वे इन्हे खेत कार्य, पशुपालन, कपड़े का काम, बर्तन, लोहा, धातु, तिलहन का काम, मछली पकड़ने तथा इस्कार जैसे लगभग 10-11 वर्गों में मानते है। दूसरी ओर चमार, सफाई कामगार, वैश्य, नाई, धोबी, मल्लाह, वेद्य इत्यादि को ‘अनुत्पादक’ किंतु सृजनात्मक माना है। सृजन आधुनिक युग में उत्पादन ही है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि ये सब जातियां पिछड़ी तो है किंतु साफ-सफाई खाल-मांस इत्यादि का काम करने वाली अनुसूचित जातियों के मुकाबले कुछ ‘उन्नत’ है। ऐसे में इन्हे स्वयं को ‘उच्च’ साबित करने के लिए अच्छा-खासा आधार मिल जाता है। उपर से सवर्णो के लिए वे थोड़े कम अस्पृष्य है। उनके काम धंधे भी ऐसे है जो सवर्णो के सीधे ‘टच’ में है। जैसे माली (सैनी) के फूल-फसल से, अहीर यादव के डंगरों से कुम्हार के बर्तन से , लोहार के औजार से , सुनार के गहने से, नाई के हाथ से केवट की नाव से, बढ़ई के काम से सवर्ण को उतनी घृणा नही होती जितनी मेहत्तर के मैला ढोने से, चमार द्वारा मृत पशुओं को उठाने, खाल खीचने से होती है। संभवतः वे सवर्णो (उपर के तीनों वर्ण) के सीधे संपर्क में भी उतने नही रहते जितने ओ. बी.सी. वर्ग की जातियां । इसी कारण ओ.बी.सी.जातियों ने ब्राम्हणवादी कर्मकांड पूजा-पाठ रह-सहन और सबसे ज्यादा हिंन्दू धार्मिक ग्रंथों की संस्कृति को लगभग ओढ़ लिया। वे उसमें धंस गए। उसी शतुर्मुर्ग की तरह, जो खतरा होने पर मुंडी तो रेत में छिपा लेता है लेकिन पूरा शरीर शिकारी को सौंप देता है। क्या आज पिछड़े वर्ग ने अपनी ताकत, राजनीति और अस्तित्व को दलितों से अलगाकर सवर्ण शिकारियों को नहीं सौंप-सा दिया है? संजीव तफसील से ओ.बी.सी. वर्ग द्वारा, पूजे जा रहे धार्मिक ग्रंथों के संदर्भो से ही बताते है कि -‘‘क्षत्रिय पिता व ब्राम्हण माता से सूत, शूद्र पिता व ब्राम्हण माता से चांडाल उत्पन्न होता है।’’ इन सभी स्मृति एवं पुराणों के आधार पर कोई भी पिछड़ा वर्ग का व्यक्ति अपने उपर गर्व नही कर सकता। यदि वे इन धर्म-ग्रंथों को मान्यता देते है, तो उन्हे यह भी मानना होगा कि वे किसी न किसी की  अवैध संतान की संतति है। इसी तरह ‘जाति एवं गोत्र विवाद तथा हिन्दूकरण’ नामक अध्याय में वे उन जातियों की वास्तविकता बताते है, जो सवर्ण होनक का दावा करती है किन्तु हिंदु धर्म ग्रंथ उनके प्रति कटुता से भरे पड़े है। कायस्थ, मराठा, भूमिहार, सूद आदि ऐसी विवादास्पद जातियां है। इसी अध्याय में गोत्रों, देवों व जातियों के हिन्दूकरण को शोधपरक ढंग से समझाया गया है।

लेखक लिखता है कि -‘‘ये पिछड़े वर्ग की जातियां जिन धर्म ग्रंथों पर अकाट्य श्रद्धा रखती है, जिनकी दिन रात स्तुति करती है, वे इन्हे इन्ही सवर्णो (ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य) की नाजायज संतान ठहराते है। आज हिंदू धर्म के बड़े पोषक के रूप् में पिछड़ा वर्ग शामिल है, जिनमें हजारों-हजार जातियां है। वे सभी वर्ण-व्यवस्था के अनुसार शूद्र में आति है।’’ (वही 43)

हम देख सकते हे कि किस प्रकार आरक्षण के लिए तो पिछड़ा वर्ग आवाज उठाता है किंतु अनुसूचित जाति व जनजाति के प्रति उनमें न सहानुभूति है, न सहयोग की भावना। मंडल कमीशन हो या एससी/एसटी का विवाद सवर्णो व प्रतिक्रिया वादियों का कोपभाजन 50/57 को बनना पड़ा था। यही कारण है कि पिछड़ा वर्ग आचार-विचार, संस्कार-संस्कृति कर्मकांड से पूरा सवर्ण हिंन्दूवादी बना रहेगा। साधन-संपन्न होते ही वह स्वयं को सवर्ण हिंन्दू मानने-मनवाले के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देता है। लेखक ऐतिहासिक तथ्य देते हुए मराठा शिवाजी द्वारा 6 जून 1674 को वंषावली, जाति सुधारने व्रातय स्तोम उपनयन तथा राज्याभिषेक का उदाहरण देता हैः ‘यदि मान भी ले कि वंशावली सच्ची थी फिर भी शिवाजी को उंची जाति में प्रवेश करने के लिए (सामाजिक स्वीकृति) एड़ी-चोटी एक करनी पड़ी। साथ ही अपने राज्याभिषेक के समय रूपये पानी की तरह बहाने पड़े जिसमें गागाभाट को 7000 हण दिए गए तथा शिवाजी को चांदी,तांबा,लोहा आदि से और कपूर, नमक, शक्कर, मक्खन, विभिन्न फलों, सुपारी आदि से भी तौला गया, जिसके मूल्य को ब्राम्हण में वितरित कर दिया गया। कुल खर्चा 1,50,000 हण था।’(वही 48) अब यदि उस वक्त के हिसाब से लगाएं तो एक हण तीन रूपये मूल्य का था। अर्थात आज के हिसाब से करोड़ों रूपये। इस प्रकार जब शासकों की यह हालत थी तो आम जनता की मानसिक स्थिति समझी जा सकती है।

जाति के हिन्दूकरण के साथ-साथ संजीव ‘रक्त सम्मिश्रण’ तथा गोत्रों के बदलाव, ग्रहण, त्याग व हिंदूकरण पर भी तथ्यात्मक जानकारी देते है। इनमें महत्वपूर्ण है-स्थानीय देवी-देवताओं का हिन्दूकरण। वे तफसील से समझाते हे कि किस प्रकार ब्राम्हणों ने अनार्य देव शिव शक्ति गणपति आदि का हिन्दूकरण कर दिया। यहां तक कि बुध्द को भी विष्णु का दसवां अवतार घोषित कर दिया। उड़ीसा, पुरी जगन्नाथ का उदाहरण बेहद दिलचस्प है कि आदिवासियों के आराध्यदेव जगन्नाथ को इस प्रकार वैदिकों के बंधन में जकड़ा गया कि-‘‘राजाओं के प्रशासनिक हितों की रक्षा करने वाले वैदिकों ने आसानी से जगन्नाथ पर धार्मिक कब्जा कर लिया और दलितों को मंदिर से बाहर कर दिया। जगन्नाथ के दर्शन आम जनता के लिए दुलर्भ हो गए।’’(वही 70) इसी संदर्भ में हम साई बाबा (शिरडी) वैष्णों देवी, केदारनाथ, कैलाश इत्यादि व गुड़गांव, बेरी जैसे स्थानीय देव-देवियों के हिन्दूकरण और ब्राम्हणीकरण को भी देख सकते है।

तीसरे अध्याय ‘विकास यात्रा के विभिन्न सोपान’ में कई महत्वपूर्ण बिंदुओं का विश्लेषण किया गया है। जिससे लेखक की गहन शोध दृष्टि का पता चलता है। जैसे- जाति आधारित आरक्षण आदिकाल से ही शुरू हो जाता है। ‘‘साईमन कमीशन दलित वर्णो के लिए भी संवैधानिक संरक्षणों की सिफारिश करने वाला था, किंतु कांग्रेस तथा हिंदू महासभा ने इसका विरोध किया।’’(वही 77)

काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट में कहा गया कि ‘पिछड़ेपन का दोष इन्ही जातियों का है,’ ‘सरकारी नौकरियों में आरक्षण गलत है,’ ‘पिछड़ेपन की शिनाख्त से जाति-व्यवस्था स्थायी तौर पर हावी रहेगी’(वही 80)। इनके अतिरिक्त मंडल आयोग की सिफारिशों पर विस्तार से बात की गई है। आरक्षण विरोधी बुद्धिजीवियों पर तीखे प्रश्न दागे गए है, जैसे-‘मैला साफ करने की नौकरी में आरक्षण पर दलितों का विरोध क्यो नही करते ?’

दलित एवं पिछड़ा वर्ग के बुद्धिजीवी को पंडित का दर्जा क्यों नही देते?’

मैनेजमेंट शीट क्या है? पेमेंट शीट क्या है? क्या इस रास्ते अगड़ों के बिगड़े बच्चे लाखों देकर नही आते? ये सीटें किसके लिए आरक्षित है?’

आरक्षण के विरोध को आंदोलन के रूप में क्यों पेष किया जाता है?’

ऐसे ही सवालों से जूझता लेखक सामाजिक-व्यवस्था पर प्रहार करता है-‘मेरी दृष्टि में आंदोलनरत डाक्टरों तथा सवर्ण पंचायत द्वारा सरपंच पद के लिए पर्चा दाखिल करने वाली दलित महिला को नंगी करके गांव में घुमाकर जला देने वाले जातिभिमानी लोगों में कोई अंतर नही है।’ (वही 85)

लेखक ने पिछड़े वर्ग के संत नामदेव, संत चोखामेला, संत कबीर, गुरू नानक, संत सेनजी, महात्मा ज्योतिबा फुले, पेरियार ई.वी.रामास्वामी, नारायण गुरू, संत रैदास इत्यादि समाज-सुधारकों के संघर्षों का ब्यौरा दिया हे और इसके बावजूद पिछड़ा वर्ग के अब तक पिछड़ा बना रहेन पर क्षोभ प्रकट किया है।

अंतिम अध्याय चार ‘पेशे के आधार पर पिछड़ा वर्ग (शूद्र जातियों) की जातियों की विवेचना प्रस्तुत करते है । मंडल कमीशन की सिफारिशों को ज्यों का त्यों अंग्रेजी में प्रकाशित भी किया गया है। इसी आधार पर पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों की आधिकारिक सूची जारी की है।’

अंत में लेखक ने महत्वपूर्ण समाधान भी प्रस्तुत किए हे जो बेहद महत्वपूर्ण है, जो आज के समय में दलितों एवं पिछड़ा वर्ग के साथ-साथ अन्यों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। कहा जा सकता हक कि अपने शोध परक दृष्टिकोण एवं सीमित कलेवर के कारण पुस्तक न केवल पठनीय हे बल्कि जरूरी भी है।

यह उनकी पिछली पुस्तक ‘सफाई कामगार समुदाय’ को सार्थकता व संपूर्णता भी प्रदान करती है। एक तरह से बौद्धिक रूप् से यह पुस्तक हमें और ज्यादा मांजेगी, हमारी सोच को और परिष्कृत करेगी ऐसी उम्मीद की जा सकती है।

टेकचंद

म.न.166 गांव नाहरपुर

रोहिणी सेक्टर-7 दिल्ली 110085


 पुस्तक का नाम    आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रहमिथक एवं वास्तविकताएं)   

लेखक   संजीव खुदशाह   

ISBN               97881899378 

मूल्य      200.00 रू.       

संस्करण 2010    पृष्ठ-142

प्रकाशक

शिल्पायन 10295, लेन नं.1

वैस्ट गोरखपार्कशाहदरा,

दिल्ली -110032  फोन-011-22821174

A work giving rise to a new debate on backward class discourse

पुस्तक समीक्षा

पिछड़ा वर्ग विमर्श के एक नये बहस जन्म देती कृति

            संतोष सोनी

संजीव खुदशाह ने अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग, (पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताऐं) में पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, स्थिति तथा वर्गीकरण पर मानव विकास की वैज्ञानिक अवधारणाओं से लेकर मानव सभ्यताओं के विकास क्रम में वर्ण व्यवस्था एवं इसके इतिहास पर विभिन्न दृष्टिकोण से तथा मान्यताओं व उपलब्ध हिन्दु मुस्लिम एवं इसाई धर्म ग्रंथों के आधार पर प्रकाश


डाला है। इसके लिये ऋग्वेद, शतपथ ब्राम्हण, तैत्रिरीय  ब्राम्हण, रामायण तथा विष्णु पुराण आदि के आधार पर शूद्र एवं उसमें सन्निहित अतिषूद्र की विषद व्याख्या की गई है। लेखक ने विभिन्न प्रकार से यह सिध्द करने का प्रयास किया है कि शूद्र वास्तव में भारत के मूल निवासी थे जिन्हे अनार्य कहा गया एवं आर्यो के व्दारा भारतीय भूभाग में बलात कब्जा कर उन पर शासन करने व उनका दमन करने हेतु षड़यंत्र पूर्वक अपने वर्ग में (वर्ण व्यवस्था मे) शामिल कर शूद्र का दर्जा दिया।

हिन्दू जाति व्यवस्था में पिछड़ा वर्ग के संबंध में लेखक विभिन्न मान्यताओं पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट करते है कि स्मृति एवं पुराण इन्हे सवर्ण जातियों की अवैध संतान बताती है तो दूसरी ओर इन्हे दासों नागों से जोड़कर भ्रम उत्पन्न करती है। यदि कुछ विशेष जातियॉं जो नई अथवा विवादित है उन्हे छोड़ दे तो शेष जातियॉ जो शूद्र के अर्न्तगत आती है(जिसमें अछूत एवं आदिम जाति नही है) पिछड़ा वर्ग के अर्न्तगत गिनी जाती है। हिन्दु जाति व्यवस्था में कार्य के आधार पर चार वर्णो की रचना की गई है, जिनमें ब्राम्हण(पुरोहित), क्षत्रिय (सैनिक), वैश्य (व्यापारी), शूद्र (दास) शामिल है किन्तु समाजिक व्यवस्था चलाने के लिए एक और वर्ग की आवश्यकता होती है जो उत्पादक एवं कामगार वर्ग है जैसे कपड़े, कृषि, औजार, आदि मानव उपयोग की वस्तुओं का उत्पादन करता हो या अनुत्पादक वर्ग की नाई, धोबी आदि हैं । ये दास में शामिल नही है।

मनुस्मृति अध्याय-एक श्लोक क्रमांक 87 से 91 में यह कहा गया है कि ‘इस सृष्टि का पालन करने हेतु इस महान विभूति ने उन सबके लिए अलग-अलग कर्त्तव्य निर्धारित कर दिये है जो (उनके)’ मुख, भुजा, जांघ और पैर से जन्मे है।

‘‘ब्राम्हणों के लिए उसके अध्ययन अध्यापन, यज्ञ करने (दूसरों से पुरोहित के रूप में) यज्ञ कराने दान लेने, और दान देने का आदेश दिया। ’’

‘‘लोगों की रक्षा करने, दान देने, यज्ञ करने, यज्ञ कराने, पढ़ने और वासनामयी वस्तुओं से उदासीन रहने का आदेश क्षत्रियों को दिया है।’’

‘‘मवेशी पालन, दान देने यज्ञ करने, यज्ञ कराने, पढ़ने, व्यापार करने, घन उधार देने तथा खेती का काम करने की जिम्मेदारी वैश्यों को दी गई।’’

‘‘शूद्रों का अन्य तीन जातियों की सेवा करने का विधान है। वह जितनी अधिक उच्च जाति की सेवा करेगा उतना ही अधिक योग्य कहलायेगा।’’

यहां पर यह स्पष्ट नही है कि कृषि व मवेशी पालन को छोड़कर जो वैश्यों के हिस्से में आये अन्य उत्पादन कार्य जैसे कृषि से संबंधित कार्य, औजार, वस्त्र, आभूषण, हथियार आदि उतपादक जातियां कौन से वर्ग में आयेंगी क्योकि इसके बिना समाज का संचालन संभव नही है। आमतौर पर हम इन उत्पादक जातियों को जो आज वर्तमान में विछड़ा वर्ग में आती है शूद्र में गिनते है।

इस प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए लेखक डॉ0 अम्बेडकर के माध्यम से यह स्पष्ट करता हैं कि ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण और तैत्तरीय ब्राह्मण के अनुसार पूर्व में हिन्दुओं (आर्यों) में केवल तीन वर्ग था पुरुष सूक्त एक क्षेपक है जो कि बाद में जोड़ा गया एवं शूद्र का एक अलग वर्ण के रूप में उल्लेख नहीं हैं दूसरा साक्ष्य के रूप ब्राह्मण ग्रंथ, शतपथ और तैत्तरीय दोनों ही ग्रंथ केवल तीन ही वर्णों का उल्लेख मिलता है शूद्र की अलग से उत्पत्ति के बारे में वे मौन है।

इस प्रकार ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण तथा तैत्तरीय ब्राह्मण जो कि आर्यो के प्रारंभिक ग्रंथ है में शूद्र एक पृथक वर्ग नही बल्कि द्वितीय वर्ण का ही एक भाग है एवं वास्तव में चार वर्णों की अवधारणा स्मृतिकाल के ग्रंथों में आई। (पृष्ठ क्र. 25, 26, 27)

मनुस्मृति के अनुसार चार वर्ण जो कि मुख, भुजाओं, जंघाओं एवं पैरों से जन्में है और अन्य ग्रंथों में शूद्र की उत्पत्ति आर्यों की त्रिवर्णीय जाति प्रथा (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) में आवश्यक सोलह संस्कार जिसमें उपनयन संस्कार (जनऊ संस्कार) प्रमुख थे लागू होते थे कालांतर में ब्राह्मण-क्षत्रियों के संर्घष के पश्चात् ब्राह्मणों के द्वारा जिन क्षत्रियों का उपनयन संस्कार बंद कर दिये गये वे शूद्रों में आ गये तथा वे सामजिक दृष्टि से तिरस्कृत हो गये। इस प्रकार शूद्र वर्ण की उत्पत्ति हुई। इसमें से अनार्य जो नाग, दानव, असुर, वानर, गंधर्व, किन्नर आदि के नामों से वेदों व पुराणों में पुकारी जाती है। डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार क्षत्रिय से बने शूद्र - अछूत या अति शूद्र में मिल गई। (पृष्ठ 27)। यहॉ पर कामगार श्रेणी के शूद्र जो कि पिछड़ा वर्ग के अन्तर्गत आते है। स्मृतियों के अनुसार जैसे धोबी, चमार, नर बैसफोड़, लुहार, सिलावट, नाई, रक्षक, तेली, नाविक, भेद, भील, सुवर्णकार, दर्जी, मकान बनाने वाले, सुनी, धनुषधारी ओ ध्वजाधारी ग्राम चाण्डाल कहलाते है। इनका दर्शन, स्पर्श, भाषण, स्नान, भोजन, जप, होम, देवपूजन, के समय निषिद्ध है। यदि ऐसा होता हो तो प्रायश्चित करना पेड़गा।

अतः उस समय उक्त सभी जातियॉ एक अछूत की तरह थी। इसके अलावा एक दुःखद स्थिति और थी स्मृति व पुराण लगभग सभी पिछड़ा वर्ग कामगार जातियों की किसी न किसी सवर्ण जातियों की अवैध सन्तान ठहराते है। उच्चवर्गीय पिता निम्नवर्गीय माता की सन्तान स्पर्षय एवं उच्चवर्गीय माता व निम्नवर्गीय पिता की सन्तान अस्पर्शय कहा गया (पृ. सं. 28 एवं 29 मे स्पर्षय एवं अस्पृर्शय संतानों की सूची दी गई है।)

श्री नवल वियोगी को उद्घृत करते हुए शूद्रों को दो मूल भागों में बांटा गया है। 1. अबहिस्कृत शूद्र - जिसे पिछड़ा वर्ग कहा गया है। 2. बहिस्कृत शूद्र - ये वे जातियॉं थी जो आर्यों के सामने आसानी से घुटने नहीं टेके, जिसे आज अति शूद्र या अछूत में गिना जाता हैं। (यहॉ पर पृ. क्र. 39 में दो सूचियॉ दी गई हैं, जिसमें पिछड़ा वर्ग की जातियों का वर्गीकरण उत्पादक व अनुत्पादक जातियों के आधार की गई हैं, एवं स्पष्ट किया गया है कि उत्पादक वर्ग के शूद्रों की श्रेणी अनुत्पादक वर्ग की श्रेणी से सामाजिक दर्जा अधिक श्रेष्ठ थी।)

हिन्दू जाति का उत्थान एवं पतन‘ के लेखक रजनीकांत शास्त्री को उद्घृत करते हुए लेखक यह स्पष्ट करते है कि उस काल में सभी जातियों में यौन संबंध इस कदर व्याप्त था कि कोई भी सवर्ण, गैर सवर्ण  जाति अपने आप को शुध्द रक्त होने का दावा नही कर सकती थी, (पृ क. 34)। इसी परिप्रेक्ष्य में डा. नवल वियोगी के व्दारा लेखक को भेजे पत्र का विवरण देते हुए लेखक उनके कुछ अंश उल्लेखित करते है कि ‘वास्तव में भारत की सभी आदिवासी जातियां नाग जातियों की संतान है जिनमें तक्षक या टांक वंष प्रमुख है। जिसने अधिकतर राजवंशों को जन्म दिया उन राजवंशों की जनजातियों ने BC, SC , ST तीनों वर्गो को जन्म दिया।’ श्री देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय के अनुसार भारत में जनगणना की विश्वसनीय रिर्पोट 1871-1872 से मिलनी शुरू हुई जिसके अनुसार भारत में ब्रिटिश शासन के अधीन लगभग 18 करोड़ 60 लाख लोग थे जिसमें 11 करोड़ से अधिक लोग जिन्हे मिली-जुली आबादी कहा गया वे मुख्यतया अनार्य लोगों में उत्पन्न हुई जिन्हे जनगणना रिर्पोट में आदिवासी कहा गया था। (पृ.क्र. 35)

पुस्तक में जाति एवं गोत्र पर भी बहुत कुछ लिखा गया है।

स्मृति व पुराणों के आधार पर कोई भी पिछड़ा वर्ग अथवा शूद्र अपने उपर गर्व नही कर सकता क्योंकि वे यदि इन धर्म ग्रन्थों को मान्यता देते है तो उन्हे यह मानना होगा कि वे किसी न किसी सवर्ण की अवैध संतान है यहां यह भी स्पष्ट किया गया है कि सत्ता की शक्ति तथा धन के बल पर किस प्रकार कई जातियां अपने को उच्च वर्णो में स्थापित कर समाज की जाति प्रथा में उंचे पायदान में आने का प्रयास करती रही है। यहां पर बंगाल के सेन वंश तथा मराठों के शासक शिवाजी भोसले के बारे में श्री सच्चिदानंद सिन्हा के हवाले से क्षत्रिय वर्ग के रूप  में प्रतिष्ठा पाने के प्रयास व सामाजिक श्रेष्ठता की आकांक्षा पर प्रकाश डाला गया है (पृ.क्र. 45-48) इसी संदर्भ में बंगाल की कायस्थ जाति व उड़ीसा की उच्च जातियों के बारे में भी नरवंश शास्त्री सर हिरवर्ट होप रिसले के विचार को स्थान दिया गया है एवं कायस्थों की जाति को सवर्ण जाति में से भिन्न मानते है।

आर्य व्यवस्था में ब्राम्हण, क्षत्रिय, एवं वैश्य अर्थात पुजारी, सैन्यकर्मी तथा व्यवसायी को छोड़कर सभी कलाकार, शिल्पकार, लेखक, वेज्ञानिक शूद्र में ही गिने गये जो कि भारत के मूल निवासी थे।

मराठा वंष, सेन वंष, सूद, भूमिहार जो कि स्वयं को क्षत्रिय या ब्राम्हण कहते रहे इसके लिए अपने गोत्र उच्च वर्णीय होने का तर्क देते रहे। इस बारे में लेखक का मन्तव्य है कि आर्यो में ब्राम्हण या पुरोहित अपने जजमानों को अपना गोत्र धारण करने पर विवश करते थे ताकि उनकी जजमानी बढ़ती जाये कालांतर में इसी गोत्रों को सहारा लेकर विभिन्न वंषों व्दारा स्वयं को क्षत्रिय या ब्राम्हण प्रमाणित किये जाने का प्रयास किया गया। वस्तुतः पिता या माता का नाम, राजा का नाम, उपाधि गोत्र के रूप में उनकी पहचान होती थी आर्यो व्दारा सप्रयास मिटा दिया गया जो उनकी षड़यंत्र कारी कूटनीति थी एवं पिछड़े वर्ग में हर छोटी जाति दूसरी छोटी जाति से खुद की जाति को श्रेष्ठ बताने की होड़ में संगठित नही हो पाये एवं गुलामी की मानसिकता से उबर नही पाये।

विदेशों में आरक्षण कि स्थितियों, काकाकालेलकर आयोग, मण्डल आयोग की सिफारिषों पर विषद अध्ययन प्रस्तुत किया गया है एवं इस दिषा में कांशीराम जी के राजनैतिक प्रयासों पर प्रकाश डाला गया है साथ ही दलित व पिछड़े मुसलमानों को  जोड़ने के प्रयास को उल्लेखित किया गया है।

पिछड़ेपन के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लेखक ने अंधविश्वास एवं निवारण पर अपने विचार प्रस्तुत किये है साथ ही पिछड़े व अन्य वर्ग से उत्पन्न सुधारवादी संतो व साहित्यकारों जिनमें गौतम बुध्द, संतकबीर, महात्मा फुले, रविदास चमार, चोखा मेला महार, सदन कसाई, नामदेव दर्जी, तथा कन्नड़ साहित्य के बसनेष्वर, अल्लभप्रभु, अक्कमहादेवी, महार संकव्या, विविध स्तर के संत एवं कवि आदि के व्दारा अपने-अपने समय काल में दलित व पिछड़ों के उत्थान के लिये प्रयास किये व जाति भेद पर, बली प्रथा पर, मंदिर प्रवेष हेतु तथा अंधविष्वासों को दूर करने के लिए अपना जीवन लगा दिया। संत नामदेव, गुरूनानक देव, सावता माली, नरहरी सुनार, संत चोखामेला, गोरा कुम्हार , संत गाडगेबाबा, संत सेनजी नाई, पेरियार ई.वी. रामास्वामी, नारायण गुरू, संत रैदास, अयंकाली आदि के योगदानों का संक्षिप्त विवरण दिया है। विभिन्न पिछड़े जातियों के पौराणिक व विभिन्न विद्वान तथा इतिहास वेत्तओं के  लेखन व साहित्य के माध्यम से उनके प्रारंभ, उत्थान एवं वर्तमान विवरण के रूप में लेखक द्वारा अपना दृष्टिकोण भी सम्माहित किया है। अंत में लेखक व्दारा संपूर्ण स्थान पर अपनी राय रखी है। इन जातियों के उत्थान हेतु अपने सुझाव रखे है।

बड़ी शिद्दत के साथ लिखी गई पुस्तक, अकाट्य प्रमाणों के साथ विद्वानों के विचार भी उल्लेखित किया गया है, जहां कई शास्त्रों, वेदों को खगांलकर प्रमाण जुटाए है। वही अपनी विचारों को भी उल्लेखित किया है।

लेखक व्दारा संपूर्ण दलित व पिछड़ा वर्ग की एतिहासिक व पौराणिक पृष्ठभूमि की विस्तृत जानकारी, वर्गीकरण के सभी समुचित संदर्भो तथा सांख्यकीय आधिकरिक विवरणों के साथ सहज व सरल भाषा में सामान्य तथा विशेषकर पिछड़े व दलित वर्ग हेतु एवं शोधपरक पुस्तक प्रस्तुत किया है, जो सभी के लिए उपयोगी व प्रेरणास्पद है। इस पुस्तक ‘‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’’ लेखक द्वारा उल्लेखित ‘‘पिछड़ो को सवर्ण न होने का क्षोभ है तो अस्पृष्य न होने का गुमान भी है।’’ इसी बीच की स्थिति के इर्द-गिर्द पूरी पुस्तक घूमती है। लेखक इन विचारों पर व्यवस्था को बहुत ही करीब से महसूस किया है। पर ये पुस्तक अब एक नए विषय को जन्म देती है कि आखिर पिछड़ा अपने आप को कहां स्थापित करे ? इतिहास बताता है कि सैकड़ो सालो से पिछड़ा हमेशा से उपेक्षित रहा है। तो आखिर कब तक ? इस विषय में बुध्दजीवियों में बहस होनी चाहिए। पुस्तक अच्छी साज-सज्जा के साथ प्रकाशित हुई  है इसमें कोई दो मत नही है। पुस्तक के महत्व के हिसाब से मूल्य ज्यादा प्रतीत नही होता है। सारगर्भित साहित्य के लेखन के लिए श्री संजीव खुदशाह प्रशंसा वा साधुवाद के पात्र है।

 

           

संतोष सोनी

हेमु नगर तोरवा

गुड़ाखु फैक्ट्री के पीछे

बिलासपुर (छत्तीसगढ) 495004

मोबाईल-09981830496

 पुस्तक का नाम    आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रहमिथक एवं वास्तविकताएं)   

लेखक   संजीव खुदशाह   

ISBN               97881899378 

मूल्य      200.00 रू.       

संस्करण 2010    पृष्ठ-142

प्रकाशक

शिल्पायन 10295, लेन नं.1

वैस्ट गोरखपार्कशाहदरा,

दिल्ली -110032  फोन-011-22821174

New Document Establishment of Backward classes

पुस्तक समीक्षा

पिछड़ा वर्ग नई स्थापनाओं का दस्तावेज

राजेश कुमार चौहान

‘‘पिछड़ा वर्ग की सभी जातियॉं चाहे वह कायस्थ हो या तेली या भूमिहार या खत्री सभी जातियां अपने आपको ब्राम्हण , क्षत्रिय या वैष्य होने का दावा करती है।..... हालांकि ये दावे उच्च जातियों द्वारा कभी भी स्वीकार नहीं किये गये। बल्कि ये पिछड़े वर्ग की जातियॉं जिन धर्म ग्रन्थों पर अकाट्य श्रध्दा रखती है, जिनकी दिन-रात स्तुति करती है वे ही इन्हे उन्ही सवर्णो की नाजायज सन्तान ठहराते है।’’

उपरोक्त उद्धरण संजीव खुदशाह की हालिया प्रकाशित पुस्तक


‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’ से है। लगभग इसी आशय का एक सूक्त वाक्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कहा है-‘भारत में छोटी से छोटी जाति भी अपने से नीचे की जाति तलाश लेती है।’ यहां संजीव खुदशाह और हजारी प्रसाद द्विवेदी दोनो का एक साथ उल्लेख करने का प्रयोजन यह रेखांकित करना है कि जिस टिप्पणी के लिए किसी सवर्ण को आला दर्जे का विद्वान दार्शनिक, चिंतक अथवा समाजशास्त्री मान लिया जाता है, उसी अभिव्यक्ति के लिए किसी भी दलित लेखक पर संकीर्ण-मानसिकता और जातिवादी होने का आरोप लगाया जाता है। अर्थात् जब हजारी प्रसाद द्विवेदी जातियता पर लिखते हैं तो वे आला दर्जे के आचार्य मान लिए जाते हैं और यदि संजीव खुदशाह जातियों के इतिहास को खंगाले तो उन्हे संकीर्ण दायरों से घिरा हुआ, आत्मवृत्त में घिरा हुआ अथवा जातिवादी कहा जायेगा।

अभी तक तमाम स्वीकृतियों के बावजूद दलित लेखन विवादास्पद बना हुआ है। इसे खारिज करने के लिए इस पर तमाम तरह के आरोप लगाये जाते है। लेकिन प्रतिबद्ध दलित लेखकों ने इस सबकी परवाह किये बिना अपना कार्य जारी रखा है। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण नाम और जुड़ता है- संजीव खुदशाह। संजीव खुदशाह ने ‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’ पुस्तक लिखकर यह सिद्ध कर दिया है कि दलित लेखक मात्र आत्मकथाओं और ब्राम्हणवाद के प्रति घृणा के दायरों में ही घिरे हुए नही है, वे अतीत के प्रति घृणा का पोषण ही नही करते हैं अपितु अपने समाज और विष्व के समाजों के अतीत, वर्तमान ओैर भविष्य का तटस्थ भाव से मुल्यांकन भी करते हैं।

संजीव खुदशाह ने ‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’ पुस्तक में पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातियों के इतिहास और वर्तमान का मूल्यांकन पूरी तटस्थता के साथ किया है। यही कारण है कि उनके निष्कर्ष किसी अतिवाद का षिकार नही होते। कहीं-कहीं तो वे निष्कर्ष देने से भी बचते हैं। केवल तथ्य पाठक के समक्ष रख देते हैं, इस सब में वे कितना सचेत हैं, यह पुस्तक की भूमिका से भी पता चलता है- ‘‘मैंने आम भाषा तथा सरल तरीके से अपनी बात कहने की कोशिश की है, ताकि आम आदमी को तथ्य समझने में दिक्कत न हो। जो नई स्थापनाएं तैयार हुई है, उसके पक्ष-विपक्ष में तर्क भी दिये गये हैं। निर्णय पर ज्यादा जोर नही दिया बल्कि उसे पाठकों पर छोड़ दिया गया है।’’

तथ्यों को इस तरह पाठक के समक्ष रख देना निश्चित रूप से लेखक की वस्तुनिष्ठता का परिचायक है। लेकिन इसी आधार पर कुछ बड़े आलोचक और विमर्श कारों ने पुस्तक का अवमूल्यन भी किया है। उनका कहना है कि पुस्तक में इधर-उधर बिखरे हुए और कुछ पुराने तथ्यों को सिलसिलेवार ढंग से रखा गया है, कोई मौलिक स्थापना नहीं दी गई। पुस्तक में मौलिक स्थापनाएं न होने की शिकायत करने वाले विमर्श कार पुस्तक के संदर्भ में यह गलतफहमी पैदा कर देते है कि पुस्तक में पिछड़ा वर्ग से संबंधित तथ्य और आंकड़ेबाजी ही है, मूल्यांकन का अभाव है। वास्तव में पुस्तक में मूल्यांकन का कोई अभाव नही है, लेखक ने पुस्तक की वस्तुनिष्ठता को बचाये रखने के लिए कहीं-कहीं निर्णय देने से परहेज किया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पूरी पुस्तक में कहीं कोई स्थापना नहीं मिलती ।  हॉं इतना जरूर है कि पुस्तक में कोई सनसनीखेज स्थापना नहीं है।

इस पुस्तक के लेखक ने पिछड़ा वर्ग पर कोई टीका टिप्पणी करने के बजाय उसकी वास्तविक स्थिति को समझने समझाने का प्रयास किया है-‘‘पिछड़ा वर्ग एक ऐसा कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है न ही अस्पृश्य या आदिवासी इसी बीच की स्थिति के कारण न तो इसे सवर्ण होने का लाभ मिल सका न ही निम्नतम होने का फायदा मिला।’’ यहॉं यदि लेखक वस्तुनिष्ठता का ध्यान न रखता तो आरोपों की भाषा में टीका टिप्पणी करने की पूरी संभावना बनती है उदाहरणार्थ - कहा जा सकता था कि पिछड़ा वर्ग की जातियॉं सवर्णो की लठैत बनी रही। इन जातियों ने दलितों के साथ मिलकर ब्राम्हणवाद के विरूद्ध कोई लड़ाई नही लड़ी, उल्टे दलितों का उत्पीड़न कियां इनका ब्राम्हणों से संघर्ष स्वयं ब्राम्हण बनने की होड़ में हुआ। लेखक पिछड़ा वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करते समय ऐसी सभी प्रतिक्रियाओं से उपर उठ जाता है। अन्यथा स्वयं लेखक ने भी पिछड़ा वर्ग को पूरी तरह बरी नही कर दिया है।

लेखक ने पुस्तक के पहले ही अध्याय में मण्डल आयोग लागू होने के समय आरक्षण विरोधियों द्वारा मचाये गये उपद्रव और ऑंखों देखी घटना का जिक्र करते हुए पिछड़ा वर्ग की भूमिका पर सवाल उठाया है। लेखक का मानना है कि पिछड़ा वर्ग में चेतना का अभाव होने के कारण वह अपनी सही भूमिका निश्चित ही नहीं कर पाता और अपने विरोधियों को ही मजबूत करता है। लेखक ने पुस्तक में बार-बार यह प्रश्न भी उठाया है- जबकि पिछड़ा वर्ग से कई समाज सुधारक और क्रांतिकारी सामने आए लेकिन पिछड़ा वर्ग में चेतना का विकास क्यों नहीं हुआ?

लेखक ने ऐसे ही कुछ और प्रश्नों के उत्तर भी पुस्तक के अंतिम अध्याय कें अंतिम खंड (समाधान) में दिये हैं। पिछड़ा वर्ग में चेतना का विकास क्यों नहीं हुआ, इस संदर्भ में लेखक की मान्यता है कि पिछड़ा वर्ग जाति व्यवस्था में अपने जाति-क्रम को लेकर हमेशा उहापोह की स्थिति में रहा है। उसे एक तरफ ब्राम्हण न हो पाने का हीनता बोध है तो दूसरी तरफ दलित जातियों से उपर होने का श्रेष्ठताबोध उसकी चेतना के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। वह यदि एक तरफ सवर्णों से थप्पड़ खाता है तो दूसरी तरफ दलितों को थप्पड़ लगाकर तुष्टि पा लेता है थप्पड़ का जवाब थप्पड़ से देने मे वह कतराता रहा और किसी बड़े सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष नहीं करता।

पुस्तक के अंतिम अध्याय के इसी अंतिम खण्ड(समाधान) में लेखक ने ऐसे प्रष्नों के उत्तर देने के साथ-साथ कुछ बहुप्रचारित मान्यताओं का पुरजोर खण्डन भी उत्तर देने के साथ-साथ कुछ बहुप्रचारित मान्यताओं का पुरजोर खण्डन भी किया है और अपनी कुछ मौलिक स्थापनाएं भी दी है। अतः जिन बड़े विमर्श कारों को पुस्तक से यह शिकायत है कि इसमें पिछड़ा वर्ग से संबंधित तथ्य और आंकड़ेबाजी है, वे इस अंतिम अध्याय को जरूर पढ़ें। ऐसे तो पुस्तक के कुल चारों अध्याय ही महत्वपूर्ण हैं। पहला अध्याय पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति और स्थिति से संबंधित है। दूसरे अध्याय में जाति और गोत्र के विवाद को तथ्यों और तर्कों के आलोक में सुलझाने का प्रयास किया है, साथ ही हिन्दूवाद की पोल खोली है।

तीसरे अध्याय में आरक्षण व्यवस्था का मूल्यांकन करते हुए लेखक इस निष्कर्ष तक पहुंचा है कि आरक्षण विरोधी सवर्ण इस बात पर ध्यान नहीं देते कि वे स्वयं सदियों से आरक्षण पाते आये हैं। सारे हिन्दूग्रन्थ इन सवर्णों को आरक्षण देते हैं। इसके अलावा पूंजी का आरक्षण भी इन्हीं सवर्णों को मिला है। सवर्णों को मिले इस आरक्षण के चलते पैदा हुई सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए दलितों और पिछड़ों को आरक्षण देना जरूरी हो जाता है। इसी अध्याय में लेखक ने पिछड़ा वर्ग के कुछ संतों और समाज सुधारकों का परिचय भी दिया है।

अंतिम अध्याय में पिछड़ा वर्ग की जातियों का विवेचन उनके पेशों के आधार पर किया है और मंडल कमीशन की रिपोर्ट का मूल्यांकन करते हुए एक प्रश्नोत्तरी भी ही है। और अंत में कुछ समाधान भी प्रस्तुत किये है। ये समाधान इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ये लेखक की वस्तुपरकता के साथ-साथ उसकी पक्षधरता भी सुनिश्चित करते हैं। स्पष्ट है कि लेखक ब्राम्हणवाद विरोधी मुहिम और समता मूलक संघर्ष की अगली कतार में है।

पुस्तक का नाम  आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)       

रोजश कुमार चौहान

5बी/16एफ, गली नं.-16, गुरूद्वारा मौहल्ला,

मौजपुर, दिल्ली-110053

मो. 09278210309

 

 

 

लेखक  संजीव खुदशाह

Isbn 97881899378    

मूल्य     200.00 रू.       

संस्करण 2010   पृष्ठ-142           

प्रकाशक

            षिल्पायन 10295, लेन नं.1

वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,

दिल्ली -110032  फोन-011-22821174