The Maintenance and Welfare of Parents and Senior Citizens (Amendment) Bill, 2019
DMAindiaOnline| Episode No159 Personality of The Week Advocat Clifton D'Rozario Karnataka High Court
आवाज की दुनिया के बादशाह रहे हैं अमीन सयानी
बिनाका गीत माला
के अमीन सयानी
संजीव खुदशाह
आवाज की दुनिया के बादशाह रहे हैं अमिन
सयानी। हीरो हीरोइन गायक कलाकारों के पीछे तो हमेशा लोग पागल रहे हैं लेकिन ऐसा
पहली बार हुआ जब किसी एनाउंसर के पीछे लोग इस तरह दीवाने थे। इनका क्रेज किसी
सुपरस्टार से कम कभी नहीं रहा। वे भारतीय उपमहाद्वीप के अनाउंसरों के आदर्श रहे हैं।
और लगभग हर दूसरा एनाआंसर उनकी तरह बोलना चाहता है। 50, 60 और
70 के दशक में पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में यह माहौल था कि हर
बुधवार को रात 8:00 बजे गलियां और सड़के सुनसान हो जाया करती
थी। लोग ट्रांजिस्टर, रेडियो से चिपक जाते । आधे घंटे का यह
प्रोग्राम लोगों को बहुत आकर्षित करता था। खास तौर पर अमीन सयानी की डायलॉग
डिलीवरी का जो अंदाज था वह काबिले तारीफ था। वो न ही कठिन हिंदी में था न ही कठिन
उर्दू में खालीस हिंदुस्तानी भाषा में बोलचाल की तर्ज में वे अपनी बात को कहते थे
और यही बात लोगों को पसंद आती थी। बिनाका गीत माला एक काउंटडाउन सो था जिसमें
फिल्मी गीतों की लोकप्रियता के आधार पर प्रति सप्ताह करीब 16 गीत सुनाए जाते थे। आधे घंटे की इस शो में गीत पूरे नहीं बजते थे। लेकिन
लोगों को यह जानने की उत्सुकता रहती की कौन सा गीत किस गीत के आगे है या पीछे है।
सरताज गीत कौन सा है ? कौन सा गीत किस पायदान में है ? इसी प्रकार साल भर के सरताज गीत दिसंबंर के आखरी
बुधवार को बजते जिसमें एक गीत सभी गीतो का सरताज बनता।
अमित सयानी बताते हैं कि जब उन्होंने बतौर
एनाउंसर अपनी करियर की शुरुआत करनी चाही तो ऑल इंडिया रेडियो ने उन्हें रिजेक्ट कर
दिया और यह कहा कि योर वॉइस इस नॉट सूटेबल फॉर अस।
हर गायक कलाकार अभिनेताओं की यह चाहत होती
कि उनके गीत बिनाका गीत माला में बजे। बिनाका गीत माला में गीत बजने का मतलब होता
था की फिल्म सुपरहिट होना तय है । अमीन सयानी इस कार्यक्रम में न केवल गीतों को
सुनाते थे बल्कि उस गीत की पृष्ठभूमि के बारे में भी बताते थे । जो की बहुत रोचक
हुआ करता था। लगभग उन्होंने तमाम फिल्मी हस्तियों से अपने इस काउंटडाउन शो बिनाका
गीत माला में बातचीत की और उसका एक आर्काइव भी अपने पास रखा। जिसे उन्होंने
गीतमाला की छांव में के अपने एपिसोड में प्रसारित किया। उन्होंने कुछ फिल्मों में
भी बतौर एनाउंसर अभिनय किया जैसे भूत बंगला, तीन देवियां, बॉक्सर
और कत्ल।
पिछले कुछ दिनों से वे काफी बीमार चल रहे
थे। लेकिन सक्रियता उनकी आखिरी दिनों तक बनी रही । आज के तमाम रेडियो जॉकी के वे
आईकान थे। आज वे हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी आवाज आज भी जैसे कि हमारे कानों में
गूंज रही है। जिन्होंने उनका प्रोग्राम रेडियो पर सुना है वह कभी उन्हें भूल नहीं
सकेंगे। उनकी यादें हमेशा उनके जहन में बनी रहेगी ।
Sant Ravidas's thoughts are relevant even today
मन चंगा तो कठौती में गंगा- संत कवि रविदास
संजीव खुदशाह
भारतीय समाज मे संत रविदास का स्थान विशेष है वे भक्ति काल के कवि होने के बावजूद उनके पदो में प्रगतिशीलता और समता छाप स्पष्ट झलकती है। उनके जन्म स्थान दिनांक उम्र आदि के बारे विद्वानों में
विरोधा भाष रहा है। किंतु ज्यादातर विद्वान मानते है कि सन 1398 ईसा में उनका जन्म हुआ था तथा उनके दोहे से ज्ञात होता है कि वे एक दलित समुदाय से ताल्लुक रखते है।जाति भी ओछी, करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा।
नीच से प्रभु ऊंच कियो है, कह रविरास चमारा।।
-- रैदास जी की बानी
वे एक मुख्यु धारा के संत कवि थे जिनका सीधा समाज से सरोकार था किंतु साहित्यिक मठाधीश उन्हे निर्गुण धारा के कवियों में वर्गीकृत करते है। शायद इसलिये की वे समकालीन कवियों रसखान, सूरदास, तुलसीदास की भांती सिर्फ भक्ति में ही डूबकर रचनाएं नही करते थे। वे कबीर की तरह समाज की रूढि़यों पर भी चोट करते रहे। वे संत कवि होने के बावजूद समाज को मार्गदर्शन देने का काम करते रहे। ऐसा कहा जाता है कि संत रविदास बनारस के निवासी थे लेकिन जीते जी उनकी ख्याति पूरे भारत में थी। उनके शिष्य और अनुयायी पूरे भारत में मिलते है चाहे पंजाब हो, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश या दक्षिण में महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश । ऐतिहासिक ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि संत रविदास के जीवन काल के दौरान
एक समय ऐसा था जब संत बनने के लिए किसी को गुरू बनाना जरूरी था। चित्तौड़ की रानी मीरा को तत्कालीन संतो ने शिष्या बनाने से इनकार कर दिया क्योकि वे एक स्त्री थी। वह भी राज परिवार की़। धार्मिक परंपरा के अ़नुसाऱ ये उचित नही माना जाता था। लेकिन संत रविदास ने इस रूढ़ी को तोड़ते हुए मीरा के अनुनय विनय को स्वीकार करते हुये अपनी शिष्या बनाया। मीरा के पदों में रैयदास का जिक्र कई स्थानों में मिलता है। रविदास की रचनाएं- नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिर्पोट के अनुसार उनकी रचनाएं विभिन्न हस्तालिखित ग्रन्थों के रूप मे मिली है ---1. रैदास की बानी, 2. रैदास जी की साखी, 3.रैदास के पद, 4.प्रहलाद लीला। ग़ौरतलब है कि सिक्खो के पवित्र धर्म ग्रन्थ ‘’गुरूग्रंथ साहेब’’ में संत रविदास के 40 पद संग्रहीत है।
रैदास की वाणी मानव भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का संतोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे।
संत रविदास जाति भेद, ऊंच-नीच, रंग-भेद, लिंग-भेद, पितृसत्ता को सारहीन एवं निरर्थक बताते थे। वे परस्पार मिलजुलकर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश देते थे।
वर्णाश्राम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
सन्देशह-ग्रन्थि खण्ड न-निपन, बानि विमुल रैदास की।।
इस पद में वे कहते है की मनुष्य मनुष्य से तब तक नही जुड पायेगा जब तक की जाति रहेगी।
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
वे हिन्दू मुस्लिम एकता की बात करते थे जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।
हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।
उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार उनके मुख से प्रसिध्द दोहे का जन्म् हुआ ।
- मन चंगा तो कठौती* में गंगा।
*कठौती- चमड़ा साफ करने का बर्तन।
आज भी प्रासंगिक है संत रविदास के विचार Publish on Navbharat 30 Jan 2018
Saint Valentine's Day giving the message of love
प्रेम का संदेश देता संत वैलेंटाइन दिवस
संजीव खुदशाह
सदियों
से प्रेम और उसकी भावनाओं को धर्म और संस्कृति के ठेकेदारों ने अपनी पैरो की जूती
समझा है तथा प्रेम के दीवानों पर सैंकड़ो सितम ढाये है। बावजूद इसके प्रेम के नाम
पर अपने आपको न्यौछावर कर देने वाले संत वेलेन्टाईन के बलिदान दिवस को पूरी
दुनिया बडी सिदृत मुहब्बत का त्यौहार मनाती है। आज विश्व की युवा पीढी और हर वह
व्यक्ति जो अपने जीवन साथी को प्यार करता है, अपने प्रेम के इजहार के लिए 14 फरवरी के इस
मुकदृदस दिन का बडी बेसब्री से इंतजार करता है।
वेलेन्टाइन डे क्यों मनाया जाता है
इसके पीछे कई मान्यताएं है। सर्वस्वीकृत मत और तथ्य ये
ऐसी
मान्यता है की प्रारंभ में रोम के निवासी इस दिन घरों में साफ सफाई किया करत थे और
एक दूसरों को प्रेम का संदेश देते थे। यह संदेश हस्त लिखित होता था। बाद में यह
दिवस प्रेम के आईकन के रूप में सर्व स्वीकृत होता गया। 1797 ईस्वी ब्रिटेन में
पहले पहल छपे हुये संदेश भेजने की परंपरा शुरू हुई बाद में ग्रिटिंग (चित्रकारी के साथ) के रूप में प्रेम के संदेश को प्रेषित किया जाने लगा। वह हस्तलिखित पत्र
आज इलेक्ट्रानिक कार्ड का रूप ले चुका है। बडी बडी कम्पनियाँ इस मौके पर तैयारी
करती है और युवाओं को लुभाने का प्रयास करती है। अब होटल, बाजार, बाग बगीचे सजा ये जाते है, गिफ्ट आईटमों में छूट की पेशकश की जाती है। पूरा बाज़ार मानो सज धज कर
तैयार हो जाता है।
विवाह
दिवस के रूप में मनाया जाना:- वैसे प्रेम और प्रेम विवाह किसी मूहूर्त के मोहताज नही होते है। बहुत कम
लोग जानते है कि इस दिन को विवाह दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। वेलेन्टाईन
दिवस के दिन विवाह किये जाने का क्रेज जोरों पर है प्रेमी जोडे विवाह करने हेतु इस
दिवस को चुनते है। इसलिए इसे विवाह दिवस के रूप में भी जाना जाने लगा है। 14 फरवरी
को ऐसी कई हाई प्रोफाईल शादियाँ सुर्खियों में रहती है जो कुण्डली मिलान, विवाह मुहूर्त के बिना सात फेरे लेकर अपनी शादी को यादगार बनाना चाहते है।
वेलेन्टाईन
को लेकर विवाद:- आज
से 1700 सौ साल पहले जिस प्रकार नफरत का जहर फैलाने वाले कट्टरवादी और तानाशाही
विचारधारा के लोग प्रेम के परवानो पर कहर ढाते थे। आज भी उस क्लॉ्डियस की संताने
इन प्रेमियों पर जुल्म ढाने से बाज नही आजे है। लेकिन उनका तरिका बदल गया है।
भारत में कुछ कट्टरपंथियों के द्वारा इस दिवस का विरोध किया जाता है। वे इस दिवस
को मनाने से मना करने के कई हास्यास्पद तर्क देते है जैसे इस प्रेम (वेलेन्टाईन) दिवस को मनाने से भारतीय संस्कृति
नष्ट हो जायेगी, यह विदेशी संस्कृति का हमला है, प्रेम करना गलत है आदि आदि। कुछ लोग इस दिवस का भारत में प्रभाव खत्म
करने की गरज से बजुर्ग दिवस, हिन्दू संस्कृति विकृत दिवस, पूजन दिवस, मातृ-पितृ दिवस मनाने तक की घोषणा
करते है। वे अपने आप को भारतीय संस्कृति का ठेकेदार समझते है। उनकी नजर में
भारतीय संस्कृति इतनी कमजोर है की वेलेन्टाईन दिवस मनाने से नष्ट हो जायेगी, न की और मजबूत होकर फलेगी फूलेगी।
वेलेन्टाईन
डे के विरोध का वास्तविक मकसद क्या है यदि गौर से देखे तो जो कट्टरपंथी लोग इस दिवस का
विरोध करते है, उनका संस्कृति और धर्म से कोई लेना
देना नही है वे जानते है कि उन्हे लोगो का समर्थन नही है वे इस तथ्य से तिल मिला
जाते है और किसी न किसी प्रकार से चर्चा में बने रहना चाहते है, शायद ये एक सबसे आसान रास्ता है मीडिया में बने रहने का। दूसरा मकसद यह
है कि वह क्लोडियस की तरह जनता की आँखो में घूल झोक कर, नफरत और घृणा का बीज बो कर लंबे समय तक सत्ता में काबिज रहना चाहते हो।
लेकिन सुखद है कि भारत का युवा इन सब से दूर प्रेम के इस दिवस को बडे ही तहजीब से
मनाता आ रहा है। सात समुन्दर पार से आये इस प्रेम के त्योहार को यहां के युवा ही
नही बुजुर्ग भी बडे शान से मनाते है। भारत में जाति, धर्म, ऊंच-नीच के भेद को मिटा कर वास्तव में वासुदेव
कुटुम्बकम का आगाज करने की पहल की जा चुकी है। यही बात इन नफरत के झंण्डाबरदारों
को खटकती है। बडी ही दुख की बात है जब हमारे देश की दीवाली अमेरिका के वाइट हाउस
में मनाई जाती है तो हम गौरांवित होते है और जब
पश्चिमी देशेा का कोई त्योहार हमारे देश में मनाया जाता है तो हम हाय तौबा मचाते
है। हमें इस दोगली नीति से बचना होगा। हमारे संविधान
में लिखा है कि भारत एक स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। यहाँ सबको अपनी तरह
जीवन जीने अधिकार है। यह अधिकार छीनने का हक किसी को भी नही है स्वयं माता पिता
को भी नही।
Publish on 8/2/2015 Nav Bharat
How to start your own business as a fresher, best idea | Industry Factory Dmaindia online
DMAindiaOnline| Episode No158 Personality of The Week Sanjay Gajghate Joint Director Industry CG Gov
Son of a sanitation Labour, former mayor of Nagpur, Dalit Mitra, Babu Ramratan Janorkar.
सफाई मजदूर के बेटे पूर्व महापौर नागपुर दलित मित्र बाबूरामरतन जानोरकर
संजीव खुदशाह
बाबू रामरतन जानोरकर एक ऐसे शख्स का नाम है जिन्होंने नागपुर की धरती में सफाई मजदूर के घर जन्म लिया डॉं भीमराव अंबेडकर के साथ काम किया। वे 14 अक्टूबर 1956 के डॉ भीमराव अंबेडकर की धम दीक्षा संयोजक समिति के उपसचिव रहे है। 1957 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा 1957 भारतीय बौद्ध महासभा के अखिल भारतीय अधिवेशन की वे जनरल सेक्रेटरी रहे।
राम रतन जानोरकरजी को प्यार से बाबूजी भी कहते थे। बाबूजी का जन्म 8 अगस्त 1931 में पांच पावली की सफाई मजदूर बस्ती में हुआ था। इनके पिताजी जालिम जियालाल नगर पालिका में सफाई जमादार थे और माता गंगाबाई भी नगरपालिका में सफाई मजदूर का काम करती थी। वह कहते हैं कि उनका परिवार
उत्तर प्रदेश के बांदा जिला से हिंदु जाति व्यवस्था और उनकी प्रताड़ना से तंग आकर नागपुर आ गये। वे डोमार अनुसूचित जाति वर्ग से आते थे।
प्रसिद्ध लेखक एडवोकेट भगवान दास कहते हैं कि जानोरकर साहब का जन्म डोमार जाति में हुआ था। जो बड़ी संख्या में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ जिलों में आबाद है। डोमार जाति अन्य अछूत जातियों से भिन्न है। बांदा जिले के गांव राजापुर तथा आसपास के इलाके में यदि कोई अछूत जाति सम्मान के लिए टक्कर देती है तो वह केवल डोमार लोग ही हैं। कई बार लड़ाई में उनके हाथों कत्ल भी हो जाता है। जानोरकर के दादा स्वर्गीय जियालाल दीवान इसी गांव में रहते थे। आज भी जानोरकर के परिवार के सदस्य इसी गांव में निवास करते हैं। 19वीं शताब्दी में ऐसी हालत में जातिगत लड़ाई के बाद डोमार जाति के लोग राजाओं रियासतों जातिवाद के अत्याचारों से तंग आकर या कहें भाग कर नजदीक के अंग्रेजी शासन के इलाके में शरण लेते रहे। गांव में उनका वहां कोई खास पेशा नहीं था। अन्य छोटी जातियों की तरह वे खेत मजदूर थे या वे सभी काम कर लेते थे जिन्हें गंदा और नीच समझा जाता था। बड़े शहर में जीविका के लिए जो भी बिना शिक्षा दीक्षा का काम मिला उन्होंने कर लिया। कुछ लोग नई बनी म्यूनिसिपल कमेटियों में सफाई का काम करने लगे और वहीं फस गए। आबादी बढ़ती चली गई और वह यही के होकर रह गए।
राम रतन जी जब 5 वर्ष के हुए तो उनके पिताजी का साया उठ गया और 10 वर्ष की आयु में माताजी ने साथ छोड़ दिया। परिवार आर्थिक संकट में फस गया। बाल्यावस्था में ही रामरतन जी को सफाई मजदूर की नौकरी करने के लिए मजबूर होना पड़ा। बड़ी बहनो समेत लंबा चौड़ा संयुक्त परिवार था। इस बीच उन्होंने अपनी पढ़ाई को भी जारी रखा। दलितों के मसीहा डॉ आंबेडकर से प्रेरणा लेकर राम रतन छात्र जीवन में ही दलित उद्धारक राजनीति से जुड़ गए थे। नागपुर में जब शेड्यूल कास्ट स्टूडेंट फेडरेशन बना तो वह उसके सचिव बन गए। छात्रों के बीच सक्रिय हिस्सेदारी के कारण बड़ी आसानी से उन्हें सक्रिय राजनीति में बिना किसी की उंगली पकड़े प्रवेश मिल गया। नागपुर महानगर पालिका की सेवा में स्वयं होकर मुक्ति पाई और दलितों की सेवा के काम में जुट गए। नागपुर शहर में शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के सचिव बन गए। इस पद के कारण भी सार्वजनिक तौर पर दलितों के बीच एक चमकते सितारे की तरह उभरे।
जानोरकर जी को पुस्तक, पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने का शौक था। शासन को अंदर से देखा राजनीति को बाहर से सोचने समझने और कुछ करने की आदत थी। जो बहुत कम लोगों में होती है। जिंदगी के कुछ उसूल बनाएऔर उन पर दृढ़ता से अमल किया। न झुके, न बिके, न डरे, न बहके अपने रास्ते पर चलते रहे हैं। बाबू हरिदास आवडे एक लंबे अरसे तक इस इलाके में काम करते रहे हैं। उनकी तरह ईमानदार निष्ठावान सूझबूझ वाले बहुत कम लोग पैदा होते हैं। जानोरकर जी उनके संपर्क में आये और उनकी मृत्यु तक वफादारी के साथ काम करते रहें।
जानोरकर जी ने 1949 में शेड्यूल कास्ट फेडरेशन में दिलचस्पी ली। परंतु नौकरी छोड़ने के बाद फेडरेशन तथा रिपब्लिकन पार्टी में पूरी लगन और दिलचस्पी से काम किया। कई महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त हुऐ, आंदोलन में भाग लिया, कई बार जेल भी गए, रिपब्लिकन पार्टी के झंडे तले इलेक्शन भी लड़े। 1951 के बाद वह बौद्ध धर्म में दिलचस्पी लेने लगे। 1956 में अन्य लोगों के साथ बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर द्वारा महान दीक्षा सम्मेलन में बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। दिक्षा समिति के उपसचिव रहे। 1975 में वे भारतीय बौद्ध महासभा में शामिल हुए। वे 1976 में नागपुर महानगर पालिका में मेयर चुने गए।
नागपुर में सफाई कर्मचारियों को कर्ज और जमाखोरों से मुक्त करने के लिए उन्होंने एक कोऑपरेटिव सोसाइटी कायम करने का सोचा और लोगों को यह समिति बनाने पर राजी किया। मेहतर को ऑपरेटिव सोसाइटी के नाम से स्थापित समूचे भारत में मेहतरों की या सबसे बड़ी कोऑपरेटिव सोसाइटी नागपूर (मेहतर बैंक) है जो करोड़ों अरबो रुपए का लेनदेन करती है।
जानोरकर जी राजनीतिज्ञ होने के अलावा समाज सुधारक भी थे। वह जात-पात विरोधी थे और केवल जात-पात के खिलाफ भाषण नहीं देते थे। बल्कि उसे अमल भी करते थे। अपने बच्चों के विवाह अपनी जन्म जाति से बाहर किया। खुद भी अंतरजातीय विवाह किया। उनके रिश्तेदारों में मेहतर, वाल्मीकि, इसाई आदि कई जाति के लोग हैं। नागपुर में विवाह और मृत्यु में अन्य अछूत जातियों में बहुत फिजूल खर्ची होती थी। परंतु अपनी लड़कियों के विवाह उन्होंने ठीक बाबा साहब डॉं अंबेडकर की दिखाएं रास्ते के मुताबिक किया। जानोरकर जी शराब सिगरेट बीड़ी आदि का सेवन नहीं करते थे और यह प्रचार भी करते थे कि नशा नहीं करना चाहिए। वह बहुत स्पष्टवादी थे उनकी यह आदत कभी-कभी कुछ लोगों को नाराज कर देती थी। परंतु उनके सोचने का ढंग बहुत ही तार्किक था।
जानोरकर जी सफाई कामगार जातियों में शिक्षा के प्रसार को महत्व देते थे। इसके लिए उन्होंने मध्य प्रदेश समेत अन्य प्रदेशों में प्रचार भी किया। पंपलेट और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने इस काम को आगे बढ़ाया। लेकिन संसाधनों की कमी के कारण यह लंबे समय तक नहीं चल सका। उन्होने पूरे देश में घूमकर बौध्द धर्म का प्रचार किया और लोगो को बौध्द धर्म की दीक्षा दी।
बाबू राम रतन जानोरकर जी बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी थे। वे रिपब्लिकन पार्टी और अंबेडकर आंदोलन की बढ़ोतरी के लिए संघर्षशील न रहते तो उनसे यह क्षमता थी कि वह समूचे भारत में एक जातियां वर्ग के नेता बन सकते थे। परंतु उन्होंने अंबेडकर आंदोलन को बढ़ाने और संगठन को महत्व दिया और पार्टी के प्रति वफादार रहे। यदि अन्य नेताओं की तरह वे बिक जाते तो ऊंचा पद और धन दोनों उनके पास होता। परंतु वह असूल से बंधे रहे एक छोटी सी झोपड़ी नुमा घर में रहकर भी बाबा साहब की मिशन को आगे बढ़ाने का प्रयास करते रहे। वह सही मायने में दलित मित्र हैं उस बीज की तरह जो मिट्टी में मिलकर अपना वजूद खोकर नए वृक्ष को जन्म देता है। उनके बारे में कहा जाता है कि वह गरीब स्थिति होने के बावजूद रोज सुबह ब्रेड, डबल रोटी गरीबों में बांटा करते थे और यह काम उन्होंने अपने जीवन पर्यंत किया। इन पंक्तियों के लेखक ने उन्हे ऐसा करते देखा है।
पहले नागपुर में सफाई कामगारों की नौकरियां जाति आधारित निकाली जाती थी। जिसमें सिर्फ सफाई कामगार जातियां ही आवेदन कर सकती थी। रामरतन जानोरकर ने इसका विरोध किया। उन्होने सभी जाति के लिए यह मार्ग खुलवाया। उन्होंने कहा कि जिस दिन सफाई कामगार जातियां दूसरे कामों में लग जायेगीं तथा सफाई काम में अन्य जातियां आएंगी तभी यह देश प्रगति हुआ है माना जाएगा।
भले ही वे वाल्मीकि एवं सुदर्शन जयंती में जाते थे। किन्तु वे यह मानते थे की सफाई कामगारों का भला पौराणिक ऋषियों की पूजा अर्चना करने से नहीं होगा क्योंकि इससे सफाई कामगार समाज धार्मिक जाति व्यवस्था के सामने नतमस्तक होकर शिक्षा से दूर हो जाता है। जिसके कारण वह विरोध नहीं कर पाता। वह मानते थे कि अंबेडकर वादी आंदोलन और विचारधारा के प्रभाव में आने के बाद ही समाज का भला हो सकेगा। उन्हे महाराष्ट्र सरकार द्वारा बाबा साहेब अंबेडकर दलित मित्र सम्मान दिया गया। वे पूरी जिंदगी सक्रिय रहे 19 जून 2005 को 74 वर्ष की आयु में उनका परी निर्वाण हुआ। काश पूरा समाज उनसे प्रेरणा लेता और उनके बताऐ रास्ते पर चलता।
इस पर केन्द्रीत वीडियों यहां देखे
Omprakash Valmiki's absence
ओमप्रकाश वाल्मीकि का न होना
संजीव खुदशाह
आज चुनाव कार्य की व्यस्तता के बीच देशबंधु के प्रधान संपादक श्री ललित सुरजन जी के माध्यम से यह जानकारी प्राप्त हुई की हिन्दी के मशहूर साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि नही रहे। उनका आज यानी 17.11.2013 की सुबह देहरादून के एक अस्पताल मे निधन हो गया। वे 67 साल के थे। इसके बाद शील बोधी, सुन्दरलाल टाँकभौरे सहित कई साथियों के SMS और फोन भी आये। दरअसल ओमप्रकाश
वाल्मीकि केवल लेखक नही थे वे एक दलित दृष्टा भी थे। दलित शब्द इसलिए यहां प्रयोग करना जरूरी है क्योकि उन्होने प्रगतिशील दृष्टिकोण को ऐसे ढंग से प्रस्तुत किया जहां दलित दृष्टि के बिना प्रगतिशीलता एक रूढी प्रतीत होती है।
वे एक अच्छे कहानीकार के साथ-साथ्ा कवि एवं विचारक भी थे। उन्हे विशेष प्रसिध्दि तब प्राप्त हुई जब उनकी आत्मकथा जूठन प्रकाशित हुई। जूठन ने ये बताया की एक भंगी भी इंसान होता है। और उसके सीने में भी दिल धडकता है। जूठन ने साहित्य के हल्को में हलचल मचा दी। लोगो ने एक सफाई वाले की जिन्दगी को करीब से देखा और ये किताब कई भाषाओं में अनुदीत हुई।
मेरी उनसे मुलाकात तब हुई जब मै अपनी किताब सफाई कामगार समुदाय पर काम कर रहा था। इस हेतु मुझे कुछ साथियों ने उनका नाम सुझाया। मुझे उनका साक्षात्कार लेना था एवं शोध हेतु उनसे रायसुमारी करनी थी। गौर करने वाली बात ये है कि उस समय मुझे ये नही मालूम था कि वे मशहूर लेखक है। मुझे सिर्फ ये बताया गया कि वे समाजिक कार्यकर्ता है और कुछ लिखते भी है।
जबलपुर स्थित डिफेंस कालोनी के उनके निवास पर मेरी उनसे मुलाकात हुई। मैने उनसे कुछ प्रश्न पूछे। उन्होने बडी ही विदृवता से जवाब दिया। उन्होने ये भी बताया जैन धर्म में जिन चार लोगो को प्रवेश में मनाही है उनमें से एक भंगी भी है। मैने अपनी किताब में इसका जिक्र भी किया है। उन्होने ये भी बताया की यहां के सफाई कामगार वाल्मीकि की तरह सुदर्शन को मानते है और वे अम्बेडकरी आंदोलन से इत्तेफाक नही रखते है। उन्होने ये भी बताया कि उन्हे उनके ही लोग सभाओं कार्यक्रमों में बुलाने से परहेज रखते है। क्योकि समाजिक नेताओ को लगता है कि उनके आने से सुदर्शन और वाल्मीकि का भ्रम हट जायेगा और उनकी नेतागीरी जाती रहेगी। इस समय उनकी पत्नी चंदाजी शायद बीमार थी। उन्होन स्वयं चाय बनाकर हमे दिया, मना करने पर भी वे मेहमान नवाजी पर तत्पर थे।
बाद में मेरी किताब सफाई कामगार समुदाय प्रकाशित हो गई। उनसे अक्सर बात होती रहती कभी साहित्यिक कभी निजी बाते होती। हलांकि वे आज नही है फिर भी यह जिक्र करना आवश्यक है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि का विवादो से चोली दामन का नाता रहा है। उनपर अक्सर रचनाएं चुराने का आरोप लगता रहा है। धर्मवीर ने “जूठन का लेखक कौन?” नाम से एक किताब ही लिख डाली। मुकेश मानस की अनूदीत किताब “मै हिन्दू क्यो नही हूं ?“ (लेखक-कांचा इलैया) के अनुवाद चुराने का आरोप उन पर लगा। इसी प्रकार कई और भी विवाद उनसे जुडे रहे। हैरानी की बात ये है कि मेरे साथ भी उनके संबंधो में तब तल्खी आ गई जब वे अपनी नई किताब “सफाई देवता” में मेरे किताब के अंश को बिना उचित संदर्भ देते हुए प्रकाशित कर दिया । मेरे एवं हिन्दी के अन्य लेखको की आपत्ति के बाद, उन्होने गलती स्वीकार कर ली और मामला खत्म हो गया। लेकिन ये बात पूरे साहित्य के हल्को में फैल गई । कई लेखको ने मुझे उन पर कोर्ट केस करने की सलाह दी लेकिन मैने इनकार कर दिया । आपस में लडकर शक्ति जाया करना मुझे गवारा नही था। लेकिन कुछ लोग उपन्यास लेख आदि में इस घटना का जिक्र करते रहे ।
यह बात इसलिए कहना जरूरी है क्योकि मै साफ कर देना चाहता हू कि मैने अपने मन में कभी भी उनके प्रति द्वेष नही रखा। और हमारे संबंध पहले की ही तरह रहे। आज वे नही है यह पीडा ब्यान करने के योग्य नही है। वाल्मीकि समाज आज भी उनकी कृतियों से परिचित नही है, न ही उनका मोल समझता है। यह दर्द ओमप्रकाश वाल्मीकि जी को हमेशा सताता था। इसी प्रकार दिवंगत हो चुके एडवोकेट भगवान दास, रामरतन जानोरकर और ओमप्रकाश वाल्मीकि को हिन्दी के पाठक कभी नही भुला पायेगे। उनके लिए सच्ची श्रधाजली तभी होगी जब उनके विचार हर दलित के घर में पहुचे और उनका अनुसरण करे।
हिंदी में दलित साहित्य के विकास में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही. उन्होंने अपने लेखन में जातीय-अपमान और उत्पीड़न का जीवंत वर्णन किया है और भारतीय समाज के कई अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है.उन्हे ह़ृदय से विनम्र श्रंध्दांजली।
Baba Guru Ghasidas, the great social reformer of Chhattisgarh
छत्तीसगढ़ के महान समाज सुधारक बाबा गुरु घासीदास
संजीव खुदशाह
छत्तीसगढ़ के महान एवं सुप्रसिद्ध संत बाबा गुरु घासीदास का जन्म छत्तीसगढ़ के गिरोधपुरी नामक गांव मे 1756 में हुआ था। बाबा गुरु घासीदास ने जो संदेश दिया उसको समझने के लिए हमें उनके जन्म के समय की परिस्थितियों को समझना होगा। वह एक ऐसा समय था जब छत्तीसगढ़ में मराठाओं का शासन था और छत्तीसगढ़ की राजधानी रतनपुर थी। शोषण का बोलबाला था। जातिवाद ऊंच नीच चरम पर था, ऐसी स्थिति में बाबा का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ। वह आम लोगों की तरह जीवन जी रहे थे। लेकिन लगान, जमीदारी, टैक्स आदि से ग्रामीण जीवन आर्थिक और सामाजिक रूप से निर्बल हो चुका था। आम जनता भूख प्यास से निहाल थी। इस कारण वह बहुत व्यथित थे।
आज बाबा गुरु घासीदास की वाणियां लोगों के बीच प्रचलित हैं, वह श्रुति परंपरा से आई है। उनकी जीवनी पढ़ने पर ज्ञात होता है कि भ्रमण करने के पश्चात उनके जीवन पर गुरु रैदास, संत कबीर, गुरु नानक जैसे निर्गुण धारा के संतों का प्रभाव रहा। इसीलिए बाबा गुरु घासीदास को भी निर्गुण परंपरा का संत माना जाता है। उनके संदेशों में बुद्ध का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखता है। उन्होंने जो सात शिक्षाएं दी है वही शिक्षाएं पंचशील में भी मिलती हैं।
आइए जानते हैं कि वह सात शिक्षाएं क्या है ?
1. सतनाम पर विश्वास करना
2. जीव हत्या नहीं करना
3. मांसाहार नहीं करना
4. चोरी जुआ से दूर रहना
5. नशा सेवन नहीं करना
6. जाति पाति के प्रपंच में नहीं पड़ना
7. व्यभिचार नहीं करना
कुछ विद्वान मानते हैं की गुरु घासीदास की शिक्षाएं सीमित नहीं थी इसमें और भी शिक्षाएं शामिल थी। श्रुति परंपरा पर आधारित सतनामी समाज में बहुत सारी शिक्षाओं पर विश्वास किया जाता है। गुरु घासीदास बाबा विश्व को जाति पाती से दूर मनखे मनखे एक समान का संदेश दिया है। वह कहते हैं की अंधश्रद्धा और पाखंड में डूबा समाज गर्त में जाता है चाहे वह अपने को कितना ही महान समझे। इसीलिए इन सब से बाहर निकलो और सत्य पर चलो। उनके पिताजी श्री महंगूदास एक वैद्य थे। इस कारण गुरु घासीदास बाबा ने उनसे यह गुण सीखा और वह भी एक प्रसिध्द वैद्य बन गए। जड़ी बुटी पर आधारित चिकित्सा करते थे। वह एक वैज्ञानिक एवं तर्क वादी विचारधारा के व्यक्ति थे। उन्होंने दबी कुचली जनता को संगठित होने एवं अत्याचार से लड़ने का संदेश दिया। कहा जाता है कि उनके इस संदेश से प्रभावित होकर बहुत सारी अन्य जातियों के लोग बाबा गुरु घासीदास के प्रभाव में आये। वे सतनाम पंथ को मानने लगे। बाबा गुरु घासीदास की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई थी। कुछ अंग्रेज लेखकों ने बाबा गुरु घासीदास का जिक्र अपनी किताबों में किया है।
बाबा गुरूघासी दास की शिक्षाओं को पंथी गीत एवं नृत्य के माध्यम से स्मरण किया जाता है। जो अपनी खास शैली के लिए पूरे देश में प्रसिध्द है। पंथी गीत की एक बानगी यहां देखिये।
मंदिरवा म का करे जइबो ,
अपन घट के देव ल मनइबों ।
पथरा के देवता ह हालत ए न डोलत ,
ए अपन मन ल काबर भरमईबो ।
मंदिरवा म का करे जइबों ।
जैत खंभ की स्थापना
सर्वोत्तम स्वरूप जी लिखते है कि गुरु घासीदास की जहां रावटी लगती थी, वहां सबसे पहले छोटे रूप में पतली लकड़ी का खंभा और उसमें छोटा सा झंडा गाड़कर अपनी विजय पताका लहराते थे। इसी का बड़ा रूप सर्वप्रथम तेलासी में, जहां मंदिर बना है उसके सामने जैतखाम गड़ाया गया है। बाबा गुरू घासीदास साहेब ने अपने जीवन काल में इक्कीस संदेशो का प्रतीक 21 फीट का खंभा( 21 हाथ ) अर्थात 5 तत्व, 3 गुण, 13 सदगुण का खंभा गड़वाया था। जो की 21 सदगुणों का प्रतीक है। सार रूप में कहा जाय तो जैतखंभ 21 दुर्गुणों पर विजय पाने का प्रतीक है। जो की इस प्रकार है 1. काम 2. क्रोध 3. लोभ 4. मोह 5. झूठ 6. मत्सर 7. द्वेष 8. ईर्ष्या 9. अभिमान 10. छल 11. कपट 12. बैर-विरोध 13. मांसाहार 14. शराबखोरी 15. गांजा, भांग, बीड़ी, तंबाकू 16. जुआ खेलना 17. निकम्मापन 18. चोरी करना 19. ठगी करना 20. बेईमानी करना 21. स्वार्थ साधन । गुरु घासीदास बाबा के अनुयायी आज भी अपने मुहल्ले, गांव या आंगन में जैत खंभ स्थापित करते है। जो उनकी श्रध्दा एवं सम्मान का प्रतीक है। राज्य शासन के द्वारा बाबा के गृह ग्राम गिरौदपुरी में विशाल जैख खंभ का निर्माण करवाया गया है जो की आज छत्तीगढ़ के प्रसिध्द पर्यटन स्थलों में शामिल है। इसी प्रकार सोनाखान के जंगल में स्थित छाता पहाड़ भी एक प्रसिध्द पर्यटन स्थल बन गया है।
कुछ लोग सतनामी समाज को छत्तीसगढ़ के बहार नारनौल का बताते है। इसबीच नारनौल पहुच कर अध्ययन करने वाले जाने माने सामाजिक कार्याकता श्री संजीत बर्मन कहते है कि हमारा नारनौल के सतनामी से कोई संबंध नहीं है क्योंकि वे पंजाबी राजपूत है। हमारा संबंध रैदास से एवं वहां के दलितो से जिनकी विचारधारा बाबा गुरूघासी दास से मिलती है क्योंकि वे भी सत्यनाम की बात करते है। यहां के सतनामी छत्तीसगढ़ के मूलवासी है।
इस प्रकार बाबा ने बाल विवाह पर रोक, विधवा विवाह को बढ़ा देने का प्रयास किया। मृतक भोज एवं कर्मकाण्ड का न करने का संदेश दिया। ऐसे समय जब सांमंत वाद जोरो पर था तब ऐसे संदेश देना किसी क्रांतिकारी कदम से कम नहीं था। इस लिए इसे सतनाम आंदोलन भी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में शांति सदभाव लाने में बाबा का बड़ा योगदान है। अब ये समय है की हम बाबा गुरूघासी दास के दिये गये संदेश को याद करे और अपने जीवन में उतारे। तभी बाबा के द्वारा किये गये उपकार का कुछ ऋण अदा हो पायेगा।
Click Here to see video
Janiye Kaun hai रामरतन जानोरकर Ex Mayor Nagpur Ramratan Janorkar Dalit Mitra Story sanjeev khudshah
Sanjeev Khudshah's important book that exposes superstition - Reality of Vastu Shastra
अंधविश्वास की कलई खोलती संजीव खुदशाह की महत्वपूर्ण पुस्तक - वास्तु शास्त्र की वास्तविकता
विश्वास मेश्राम
वास्तु शास्त्र की वास्तविकता |
इसी प्रकार इसके बहुत प्राचीन होने के दावों का
भी संजीव ने पोस्टमार्टम कर इसे अर्वाचीन साबित कर दिखाया है।
वास्तु शास्त्र लोगों में डर का फायदा उठाने के
लिए बनाया गया टूल है। कुछ चालाक और धूर्त किस्म के लोग, आम लोगों को
डराकर उसका फायदा उठाने के लिए वास्तु शास्त्र का प्रचार प्रसार करते हैं। संजीव
की इस मांग से कोई भी तर्कशील व्यक्ति सहमत हो सकता है कि वास्तु शास्त्र का धंधा
करने वाले लोगों को उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में लाने की जरूरत है।
इस पुस्तक को - वास्तु शास्त्र की पड़ताल, वास्तु
शास्त्र क्या है ?, वास्तु शास्त्र
का उद्देश्य, वास्तु के मुख्य स्तंभ - जाति, दिशा और दिवस, वास्तु पुरुष मंडल का अर्थ, वास्तु पुरुष की कहानी, वास्तु पुरुष का अभिप्राय,
विज्ञान की कसौटी - शराब की दुकान , अमेरिका
का व्हाइट हाउस, पुणे का शनिवारवाड़ा और इसे उपभोक्ता
संरक्षण कानून के तहत लाने की जरूरत , अध्यायों में बाटकर
समृद्ध किया गया है।
समीक्षकविश्वास मेश्राम (सेवानिवृत) अपर कलेक्टर एवं कार्यकारी अध्यक्षछत्तीसगढ़ विज्ञान सभा
पुस्तक प्राप्त करने के लिए सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली में संपर्क करे।
प्रकाशक - सम्यक प्रकाशन SAMYAK PRAKASHAN
Story to being Periyar
पेरियार बनने की कहानी
संजीव
खुदशाह
अगर पेरियार
को समझना है तो ये जानना जरूरी है कि पेरियार कैसे पेरियार बने। बतादू की ई वी
रामास्वामी पेरियार एक समृध परिवार से थे। एक बार काशी के मंदिर में एक सामूहिक
भोज रखा गया और उस भोज से पेरियार को उठा दिया गया। क्योकि वे एक ओबीसी परिवार से
आते थे। ओबीसी होने के कारण उन्हे जलील होना पड़ा। धर्म की सत्ता का उन्हे
ज्ञान हुआ की धर्म की सत्ता वास्तव में क्या है। वहां उन्होने देखा की काशी
में जो दान दाता की लिस्ट है उसमें सबसे ज्यादा ओबीसी समाज के ही लोग है। लेकिन उन्हे
भोज में शामिल होने का अधिकार नहीं है क्योकि वे पिछड़े(शूद्र) समाज के है। वे छोटी
जाति के है।
ठीक इसी के समांनतर ऐसी ही घटना अंबेडकर और
महात्मा फूले के साथ भी घटती है । महात्मा फूले जब अपने सवर्ण मित्र की बरात में
जाते है तो ओबीसी होने के कारण उनको बेइज्जत किया जाता है, उन्हे जलील होना पड़ता है। जबकि वे भी एक समृध्द ठेकेदार परिवार से थे।
ठीक इसी प्रकार डॉ अंबेडकर जब ट्रेन से उतर कर अपने पिता के पास जाते है जिल
बैलगाड़ी में बैठते है। उस बैलगाड़ी में उनको छोटी यानि दलित जाति का होने के कारण
जलील किया जाता है। जबकि डॉ अंबेडकर एक सैन्य अफसर सूबेदार के बेटे थे।
मैं
यही बतलाना चाहता हूँ की अगर कोई व्यक्ति जाति के नाम पर उसे जलील होता है तो
बेगैरत व्यक्ति धार्मिक गुलाम बन जाता है। लेकिन जिसमें थोड़ी भी गैरत बची है, जिसमें थोड़ा भी स्वाभिमान बचा है, वह व्यक्ति
तर्कवादी बनेगा। पेरियार बनेगा। वह व्यक्ति अंबेडकर बनेगा। महात्मा फूले बनेगा। अगर
पेरियार उस घटना से आहत नहीं होते तो वे धार्मिक गुलाम बनते। जिस प्रकार करोड़ो ओबीसी, एससी, एस टी धार्मिक गुलाम बने हुये है।
बहुत
सारे ओबीसी, एस सी, एसटी के लोग
कहते है कि उनके साथ कभी जातिगत भेद भाव नहीं हुआ। वे कहते है हमारा प्रमोशन हो
गया, हम बड़े पद में चले गये। हमारा बिजनेस है, करोड़ो की सम्पत्ति, बंगला है। फिर भी हमें किसी
ने जाति के नाम पर जलील नहीं किया गया। तो वे लोग झूठ बोलते है। दरअसल वे लोग अपनी
औकात को भूल गये है। इनमें यह पहचान करने का गुण कि उनके साथ भेद भाव हो रहा है, खत्म हो चुका है। जैसे जैसे आप डिस्क्रिमिनेशन को स्वीकार करते जाते है।
आपको जलालत महसूस होना बंद हो जाता है। और आप व्यवस्था को स्वीकार कर लेते है।
धार्मिक गुलाम बन जाते है। अपनी जलालत को ही अपनी इज्जत समझने लगते है। ऐसा कोई
ओबीसी, एस सी, एस टी का व्यक्ति नहीं
होगा जिन्हे जाति का लांछन सहन नहीं करना पड़ा हो। एक आदिवासी महिला राष्ट्रपति
तक को जाति के नाम पर पुरी के मंदिर में जलिल होना पड़ता है,
जबकि वह धार्मिक थी। तो आम आदमी की बात ही क्या करे।
पंडित
बाल गंगा धर तिलक ने सार्वजनिक रूप से आखिर क्यों कहा की तेली, तंबोली, कुर्मी क्या संसद में आकर गाय भैस चराएंगे? क्या इससे उनका पूरा समाज जलील
नहीं हुआ। मेरा कहने का मतलब है कि कही न कही, कभी न कभी ये
समाज, छोटी जाति का होने के कारण जलील होता है। चाहे कितनी
भी ऊची पोस्ट में हो या व्यापार में हो। इस प्रकार जलील होने के कारण दो बाते
होती है। एक या तो वह इन जलालत को स्वीकार करने के बाद हमेंशा के लिए धार्मिक
गुलाम बन जायेगा। या फिर तर्कवादी-विद्रोही बन जायेगा,
पेरियार, अंबेडकर या महात्मा फूले बन जायेगा।
तीनो की स्थिति को देखिये वे समृध्द शाली परिवार से आते थे। उन्हे किसी चीज की
कमी नहीं थी। बावजूद इसके उन्हे जलालत झेलनी पड़ी। तो यह कहना की आपने कभी जलालत
नहीं झेली यह एक झूठ है। ऐसा हो नहीं सकता। ये हो सकता है कि आप धार्मिक गुलाम बन
गये हो और आपमें जलालत को सहने का गुण आ गया हो।
यहां
मैं बताना चाहूंगा की पेरियार ने 4 महत्वपूर्ण बाते कहीं है
(पहली) बात वह कहते हैं ईश्वर के बारे में
(दूसरी) बात कहते हैं धर्म के बारे में
(तीसरी) बात कहते हैं धर्म शास्त्र के बारे में
(चौथी) बात कहते हैं वो ब्राह्मणवाद के बारे में
वो
कहते हैं की इन चार चीजों का खात्मा किया जाना चाहिए। वो कहते हैं की जब तक इनका खात्मा
नहीं होगा। तब तक उनका उत्थान संभव नहीं। वे कहते हैं की ईश्वर को इसलिए रचा गया, ईश्वर का निर्माण इसलिए किया। ताकि छोटी जाति से अपनी सेवा करा सके।
इसीलिए ईश्वर की रचना की गई। और ईश्वर को
स्थापित करने के लिए धर्म की रचना की गई। धर्म को स्थापित करने के लिए शास्त्र
लिखा गया है। और यह कहा गया है की यह अपौरुषेय है। इसको किसी पुरुष ने नहीं रचा
भगवान ने लिखा है। वे दावा करते है कि यह ग्रंथ आकाश से उतरा है। उसके बाद अंत में जो चौथा है वह ब्राह्मणवाद। इन
तीनों चीजों को स्थापित करने के लिए ब्राह्मणवाद को लागू किया गया। ब्राह्मणवाद का
मतलब होता है अंधविश्वास का पालन करना, ब्राह्मणवाद का मतलब
है भेदभाव को स्थापित करना। ब्राह्मणवाद का मतलब होता है स्त्रियों का शोषण करना। ब्राह्मणवाद
का मतलब है किसी एक जाति को सर्वश्रेष्ठ बताना बाकी जाती को निम्न बताना। इन चार
चीजों का खात्मा होना चाहिए। ईश्वर का, धर्म का, शास्त्रों का और ब्राह्मणवाद का। वे कहते
है कि इनके खात्में के लिए मैं जीवन भर आंदोलन करता रहूंगा।
एक
महत्वपूर्ण बात पेरियार से जुड़ी हुई है वह है तर्क। वे एक तर्कशास्त्री के रूप
में काम करते है। वे कहते है कि तर्क और विज्ञान का रास्ता कल्याण का रास्ता है।
मतलब आप समझ लीजिए की कोई व्यक्ति अगर वो दावा कर रहा है की मैं वंचित वर्ग के लिए
उनके भलाई के लिए काम कर रहा हूं और उसके अंदर तर्क शक्ति नहीं है। उसके अंदर
विज्ञान की विचारधारा नहीं है। तो वो झूठा है। अगर वो व्यक्ति कलावा पहने हुए हैं, वो व्यक्त जनेऊ पहने हुए हैं, तिलक लगाए हुए हैं और तरह-तरह
के धार्मिक आडंबर करता है। तो वो वंचितों के लिए काम नहीं कर रहा। वह वंचितों को
ठग रहा है। अगर वह बहुत सारे अंगूठियां को पहना हुआ है। मतलब कहीं न कहीं ऐसे
चिन्ह को धारण कर रहा है। जिससे की यह मैसेज जाता है की वह एक अंधविश्वासी व्यक्ति
है। तो वो वंचितों के लिए काम नहीं कर रहा। बल्कि वंचितों के साथ में ठगी का काम
कर रहा हैं। उनको ठगने का काम मत करो। क्योंकि जो वैज्ञानिक विचारधारा है, जो विज्ञान को बढ़ाने वाली विचारधारा है, जो तर्क
की विचारधारा है। वो वास्तव में वंचितों की मुक्ति का मार्ग है। अगर अंधविश्वास को
हटा दिया जाए, विज्ञान को ला दिया जाए तो जो मानसिक गुलाम है
वह अपने आप तर्कशील हो जाएंगे। सबसे पहले उन गुलामों को विज्ञान की तरफ लाना होगा।
अंधविश्वास से मुक्त करना होगा। क्योंकि जितनी भी गुलामी का माहौल बनाया गया है।
वह अंधविश्वास के बल पर बनाया गया। ऊंच-नीच क्या है एक अंधविश्वास है। भेदभाव क्या
है एक अंधविश्वास है। जाति क्या है एक अंध विश्वास है। विज्ञान को ना मानना क्या
है एक अंधविश्वास है। तो इससे मुक्ति किए बगैर आप किसी भी गुलाम को या किसी भी
वंचित वर्ग एस सी एस टी ओबीसी का उध्दार का आप सपना देखते है। तो वो सपना कभी भी
पूरा नहीं हो सकता। वो एक झूठ है, एक सपना है, एक भ्रम है, छल है। ऐसा अगर आप कर रहे है तो लोगों के साथ एक छल कर रहे है।
अंधविश्वास
को भी दो हिस्से में बांट दिया गया है। एक उच्च वर्ण का अंधविश्वास दूसरा निम्न
वर्ण का अंधविश्वास। छुआ छूत, वेद शास्त्र, जातिवाद, जनेऊ, कुंडली, फलित ज्योतिष, हस्तरेखा जैसे उच्च वर्ण के
अंधविश्वास को वे अंधविश्वास नहीं मानते । वे सिर्फ निम्न वर्ण के अंधविश्वास
झाड़फूक, डायन प्रथा, तोता मैना से
भविष्य बतना को ही अंधविश्वास मानते है। असल में अंधविश्वास का दायरा सीमित नहीं
होना चाहिए। आप एक निम्न वर्ग का विश्वास
को ही आप खुलासा करिए और जो उच्च वर्ग का अंधविश्वास है उसको आप बचाइए। ये जो सोच है। इस सोच का भी पर्दाफाश करने की
जरूरत है। साथियों कितने लोग इस पर काम
करते हैं। अगर आप एक सामाजिक कार्यकर्ता है। वंचितों के लिए काम कर रहे हैं। अपने समाज
के लिए काम कर रहे हैं। लेकिन आप के अंधविश्वास विरोधी कार्यकर्ता के गुण नहीं है
तो आप का ये काम अधूरा है। आप लोगों को छलने का काम कर रहे है। आप उसके साथ ठगी कर
रहे हैं। आपको एक सामाजिक कार्यकर्ता होने
के साथ-साथ एक अंधविश्वास विरोधी कार्यकर्ता भी बनना पड़ेगा। तब कहीं जाकर आप किसी
वंचित वर्ग का भला कर पाएंगे। डॉक्टर अंबेडकर, महात्मा फुले, कबीर, पेरियार साहब की जिंदगी को देखिए। इन्होंने जो काम किया साथ-साथ दोनों प्रकार के अंधविश्वास
पर उन्होंने चोट किया।
उन्होंने सच्ची रामायण इसी उद्देश्य लिखी।उन्होंने
उस समय मौजूद जितने 20 प्रकार के अलग-अलग रामायण का अध्ययन किया। उन्होने एक ही
किताब पढ़कर सच्ची रामायण नहीं लिखी। गहरा अध्ययन किया था उन्होने।
जेंडर
जस्टिस पर उनके विचार
वो
स्त्री पुरुष की बराबरी की बात करते हैं। वे बात करते हैं की किस प्रकार से महिला
पुरुष का विवाह हो, उनका संबंध बराबरी को हो। वे
कहते है कि पति पत्नी नहीं बोलना चाहिए। क्योकि पति का मतलब मालिक है और पत्नी का
मतलब दासी। मालिक एवं दासी का रिश्ता नहीं हो सकता। दोनो के बीच दोस्ती का रिश्ता
होना चाहिए। उनके बीच बराबरी, एक दूसरे के सम्मान का रिश्ता
होना चाहिए। वे कहते है कि विवाह आडंबर रहित कोर्ट में होना चाहिए। समारोह खर्चीले
नहीं होना चाहिए।
धर्म
ग्रंथ नहीं पॉलिटिकल ग्रंथ है
दूसरा
जो एक महत्वपूर्ण बात ये है की वे कहते हैं की धर्म ग्रंथ रामायण और महाभारत
धार्मिक ग्रंथ नहीं बल्कि ये पॉलिटिकल ग्रंथ है। लोगों का ब्रेन को वॉश करने के
लिए ग्रंथ को बनाया गया। इन ग्रंथो का मकसद सांस्कृतिक गुलाम बनाये रखना है। उसका
असर आपको देखने के लिए मिलता है। अब देखिए तमिलनाडु में जो उनकी बनाई पार्टी है वह
आज सत्ता में है। तमिलनाडु के सरकारी कार्यालय में आपको किसी देवी देवता की
तस्वीर या मूर्ति नहीं मिलेगी! बकायदा वहां पर एक ऑर्डर
पास किया गया है की सरकारी कार्यालय में कोई भी देवी-देवता,
अल्ला भगवान, का फोटो नहीं लगाया जाएगा। लेकिन आप यदि उत्तर
भारत में आकर के देखेगें सरकारी कार्यालय को मंदिर सा बना दिया जाता है। क्यों
बनाया जाता है? क्या आजादी किसी खास जाति या किसी खास धर्म
का योगदान से ही मिली है। संविधान में सभी धर्म के लोगों ने अपना योगदान दिया। यह
एक डेमोक्रेटिक देश है। ये धर्मनिरपेक्ष देश है, ये सेकुलर
देश है। जिसकी नजर में सारे धर्म एक है। एक जैसे है। धर्म से रहित देश है। संविधान
कहता है की धर्मनिरपेक्ष का मतलब होता है किसी भी धर्म से जुड़ा हुआ नहीं है।
लेकिन संसद धार्मिक स्वतंत्रता भी देता है। इसका मतलब यह नहीं है की है देश किसी
धर्म का उसका पालन करने के लिए खड़ा हो जाए। एक डेमोक्रेटिक देश के सरकारी कार्यालयों
में, थानों में मंदिर और मस्जिद क्यों दिखाई पड़ते हैं। ये
सोचना पड़ेगा। इसी के बारे में पेरियार साहब बोलते हैं की वोट का पॉलिटिक्स से भी ज्यादा
महत्वपूर्ण है सांस्कृतिक बदलाव।
सांस्कृतिक
बदलाव कितना जरूरी है। आरएसएस जैसा बड़ा संगठन क्यों आपने आपको सांस्कृतिक संगठन
कहता है। कितना महत्वपूर्ण है सांस्कृतिक बदलाव। इसको आप समझिए पेरियार साहब उस
समय क्या कह रहे हैं। की सांस्कृतिक बदलाव की बहुत जरूरत है। इसीलिए आर एस एस ने
अपने आप को कभी भी पॉलिटिकल संगठन नहीं माना। सांस्कृतिक संगठन माना। उसके लिए ही
काम किया। लेकिन आजादी के बाद का जो माहौल है। उसको आप देख सकते हैं की किस प्रकार
से वोट की राजनीति पर ध्यान केन्द्रित किया गया। जो वंचित वर्ग एस सी, एस टी, ओबीसी के द्वारा संचालित राजनीतिक पार्टी
चाहे बीएसपी की बात कहे, चाहे एसपी की बात कहें, चाहे और दूसरी आरजेडी की बात करे। इन्होंने सिर्फ वोट की राजनीति पर ध्यान
केन्द्रित किया। इसका हस्र क्या हो रहा है। आज उत्तर प्रदेश में आप देख सकते हैं।
बिहार में आप देख सकते हैं। सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं हुआ। सांस्कृतिक परिवर्तन
नहीं होने के कारण वोट की सत्ता हाथ से निकलती जा रही है। आज तमिलनाडु में आरक्षण
विधेयक पास किया और 50% से ज्यादा आरक्षण वे अपने लोगों को दे रहे हैं। ये कैसे हो
पाया। इस सांस्कृतिक परिवर्तन, विचार के प्रति अडिग रहने का
उनका जो संकल्प है। उसके कारण वे ऐसा कर पाए। आज वे ईडबल्यूएस आरक्षण को अपने
यहां लागू नहीं कर रहे है। क्योंकि उन्होंने सांस्कृतिक परिवर्तन किया, वैचारिक परिवर्तन की उन्होंने
बात रखी है। उसकी बात करते हैं और उसको लागू करते हैं। वह एक तरफ ऐसा नहीं करते
हैं जैसे की उत्तर भारत में होता है। वह एक तरफ कहते हैं की वह दलितों वंचितों,
अल्पसंख्यकों की पार्टी है। दूसरी तरफ वो सवर्ण की ईडब्ल्यूएस
आरक्षण के समर्थन की भी बात करते हैं। वैचारिक जो लडंखडांने वाली बात उनके अंदर
नहीं है। इस चीज को उत्तर भारत के लोगों को सीख लेनी चाहिए। तब कहीं वह बदलाव हो
पाएगा जिसका सपना रामास्वामी पेरियार ने देखा था।
आप
कोई भी सामाजिक काम करते हैं या सामाजिक बदलाव की बात करते हैं, आप एक लेखक हैं या आप स्कॉलर हैं और आप बहुत बुद्धिजीवी हैं और आप
वैज्ञानिक कार्यकर्ता हैं वंचितों के लिए कम करते हैं। आप चाहते हैं की समता
समानता हो और साथ-साथ आप चाहते हैं की जो सुरक्षा चक्र के घेरे में आप रहे। तो
संभव नहीं है। आपको जोखिम उठाना पड़ेगा। आपको हर प्लेटफार्म में अपने एजेंडे की
बात को रखना पड़ेगा। बिना जोखिम उठाए कोई भी काम आप नहीं कर सकते। जोखिम से डर
करके आप कोई भी काम नहीं कर सकते ।
मतलब
सुरक्षा चक्र में रहना चाहते हैं तो आप सामाजिक काम करना छोड़ दीजिए। मात करिए
क्योंकि सामाजिक काम विज्ञान को लेकर के काम करने के लिए आपको कुछ लोगों को नाराज
करना पड़ेगा। तब कहीं जाकर के समता समानता वाला प्रबुध्द भारत। जिसका सपना हमारे
पूर्वजों ने देखा था। वैसे भारत का अपने निर्माण कर पाएंगे। नहीं तो फिर मेरा
ख्याल है की आप सिर्फ नाम और अपने फेम के लिए काम करना चाहते हैं। आपका मकसद कुछ
और है। वो मकसद नहीं है जो की आप दिखाना चाह रहे हैं।
तो
पेरियार का सपनों का भारत बनाने के लिए हमको पेरियार के बताए हुए रास्ते पर चलना
पड़ेगा। तब कहीं जाकर के हम उनके मकसद को कामयाब बना सकते हैं और वैसा भारत हम बना
सकते हैं जिसका सपना बाबा साहब ने महात्मा फुले ने देखा था।