Pali language is The Mother of Sanskrit, Evolution of Indian language and script, पाली संस्कृत भाषा
The journey from a Devdasi to Lata Mangeshkar
एक देवदासी से लता मंगेशकर तक का सफर
संजीव खुदशाह
लता मंगेशकर एक
देवदासी परिवार से आती थी। आप समझ सकते हैं कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में उन्हें
कितना संघर्ष करना पड़ा होगा। मेंस्ट्रीम मीडिया में किसी खास जाति का कब्जा रहा
है। यह लोग अति प्रसिद्ध लोगों को उची जाति का या उससे संबंधित बताने की साजिश
करते रहे हैं। यह साजिश आज की नहीं है बुध्द, कबीर, रैदास, अंबेडकर के साथ
भी ऐसी ही कोशिश की गई। आइए मैं बताता हूं कि लता मंगेशकर दरअसल किस परिवार से
ताल्लुक रखती थी। क्योंकि मैं लता के उस गांव तक गया हूं एवं उस मंदिर भी मेरा
जाना हुआ है जहां लता का परिवार, उसकी दादी देवदासी थी। पिता
उस मंदिर में बाजा बजाया करते थे।
लता मंगेशकर के दादा
गणेश गोवा के मंगेश नाम के गांव में रहा करते थे। वही एक मंदिर है जिसका नाम मंगेश
नाथ मंदिर है। गणेश जी यही मंदिर में बाजा बजाया करते थे। यह बात मंगेश गांव के
लोग एवं उनके पुजारी आज भी बताते हैं। जाहिर है बाजा बजाने वाले लोग ब्राह्मण नहीं
होते। गणेश ने इसी मंदिर की देवदासी येसूबाई से शादी की। जैसा कि जगजाहिर है।
देवदासियों का पुजारियों द्वारा यौन उत्पीड़न किया जाता रहा है। इसलिए किसी भी
पुरुष का देवदासी के साथ विवाह अच्छा नहीं माना जाता है। यदि गणेश ब्राह्मण होते
तो उन्हें बहिष्कृत कर दिया जाता है। लेकिन उन्हें एवं उनके देवदासी पुत्र दीनानाथ
को मंदिर में बाजा बजाने का काम करने दिया गया।
गरीबी परिस्थति
होने के कारण बाद में दीनानाथ इंदौर आ गए। चूकिं देवदासी परिवार अपने नाम के साथ
उस मंदिर का नाम जोड़ते हैं। जिस मंदिर में उन्होंने काम किया है। उसी परंपरा के
अनुसार दीनानाथ ने अपने नाम के साथ मंदिर का नाम मंगेशकर जोड़ लिया। उन्होंने यहां
भी जीविका उपार्जन के लिए गाने बजाने का काम शुरू किया। यदि वे उची जाति के होते
तो कतई ऐसा नहीं करते, क्योंकि उस जमाने में
यह काम नीची जाति के लोग ही किया करते थे। वे नाटक किया करते थे। ज्यादातर महिलाओं
के पात्र निभाते थे। दीनानाथ मंगेशकर ने पहली शादी नर्मदा से कि उन्हें एक पुत्री
लतिका प्राप्त हुई। मां बेटी का देहांत जल्द हो गया। बाद में दीनानाथ ने नर्मदा की
बहन सेवंती से विवाह किया। जिनसे उन्हें लता, मीणा, आशा, उषा नामक पुत्रियों एवं हृदयनाथ नाम के पुत्र
की प्राप्ति हुई।
देवदासी पर किताब
लिखने वाले अनिल चावला पृष्ठ क्रमांक 6 पर लिखते हैं कि The contribution
of devadasis to music is also significant. MS Subbulakshmi, Lata Mangeshkar and
her sister Asha Bhonsle (the three most renowned women singers of India) trace
their lineage to devadasi community. Devadasis, as a community, developed distinct
customs, practices and traditions that were best suited to enable them to live
as artists without suppressing their physical and emotional needs. This
professional community was controlled by women and was matriarchal. एमएस
सुब्बुलक्ष्मी लता मंगेशकर और उनकी बहन आशा भोंसले भारत की 3 सबसे प्रसिद्ध महिला गायिकाएं देवदासी वंश
समुदाय से आती हैं। देवदासियों ने एक अलग सामुदायिक पहचान रीति रिवाज प्रथाओं
परंपराओं को विकसित किया। जो उनकी शारीरिक और भावनात्मक जरूरतों को दबाए बिना
कलाकारों के रूप में सक्षम बनाने के लिए सबसे उपयुक्त है। यह पेशेवर समुदाय
महिलाओं द्वारा नियंत्रित था और मातृसत्तात्मक था।[1]
लता मंगेशकर अपने
एक इंटरव्यू में बताती है कि उन्हें पहले हृदया के नाम से जाना जाता था। लेकिन
उनके पिता एक नाटक में लतिका का किरदार निभाते थे जो काफी प्रसिद्ध हुआ। इसलिए
उन्हें लता नाम से बाद में पुकारा जाने लगा। दीनानाथ की पहली पुत्री का नाम भी
लतिका था।
शास्त्रों
के हिसाब से लता ब्राह्मण नहीं है
यदि सनातन
शास्त्रों, मनुस्मृति की मानें
तो दीनानाथ ब्राह्मण नहीं है। यदि थोड़ी देर के लिए दीनानाथ के पिता गणेश को
ब्राह्मण मान भी लिया जाए। तो उनकी शादी देवदास जी यानी नीची जाति की स्त्री से
होने के कारण मनुस्मृति के अध्याय 10 के अनुसार यह अनुलोम
संतान है। जिसे वर्णसंकर संतान बताया गया है। इस अध्याय के श्लोक संख्या 11-50
के अनुसार दीनानाथ की जाती चांडाल यानी शूद्र[2]
होती है। अतः किसी भी हाल में लता की जाति ब्राह्मण नहीं है। जैसा कि बताया जा रहा
है।
लता
को लता रहने दिया जाए उसे जाति के चश्मे से देखना गलत है
लता निर्विवाद
रूप से एक महान गायिका है। वह जीते जी किवदंती बन चुकी थी। हमें गर्व है कि हमने
उस काल में सांसे ली है। जब लता भी इस हवा में सांस ले रही थी। उनके संघर्षपूर्ण
जीवन से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए। जिस प्रकार से मीडिया उन्हे जाति के चश्में से
देख रहा है और किसी खास जाति का महिमामंडन किया जा रहा है वह गलत है।
आज जो समाज
उन्हें ब्राह्मण बताने पर तुला है। वही समाज सालों पहले लता के परिवार पर कई जुल्म
ढाए। उन्हें काम के लिए दर-दर भटकना पड़ा। उनके परिवार को पलायन करना पड़ा। पेट
पालने के लिए नाच गाना करना पडा। लता को उनकी पतली आवाज किसी काम की नहीं कहकर
मजाक उड़ाया गया। चारों पांचों भाई बहन की जिम्मेदारी लता के कंधों पर आ गई। इस
कारण उन्हें आजीवन अविवाहित रहना पड़ा। उनके पिता को बहिष्कृत सा जीवन जीना पड़ा।
लता
जी का फिल्मी करियर एवं विवाद
लता जीते जी
संगीत का पर्याय बन चुकी थी। निसंदेह महान गायिका थी। लेकिन विवादों से उनका चोली
दामन का साथ रहा है। मोहम्मद रफी के साथ उनका विवाद रॉयल्टी को लेकर था। मोहम्मद
रफी का कहना था कि जब हम गाने की पूरी फीस ले लेते हैं तो रॉयल्टी पर हमारा कोई
अधिकार नहीं। लेकिन लता चाहती थी कि उन्हें गाने की रॉयल्टी भविष्य में भी मिलती
रहे। दोनों ने 4 साल तक कोई गीत साथ
में नहीं गाया अनबन बनी रही।
उसी प्रकार एै मेरे
वतन के लोगों गीत के संबंध में आशा जी कहती हैं कि 15
दिन इस गीत को मैंने रिहर्सल किया। यह एक डूयेट गीत था जिसे लता आशा
दोनो का गाना था। लता ने इसे अकेले गाने की शर्त रखी और लताजी ने मुझसे यह गीत छीन
लिया।
बता दूं कि बहन
उषा एवं लता की आवाज काफी मिलती है। जय संतोषी माँ फिल्म के सारे गाने उषा मंगेशकर
ने गाए हैं। उषा मंगेशकर टीवी पर दिए एक साक्षात्कार में यह आरोप लगाती है कि लता
के कारण उनका गायन करियर चौपट हो गया। साठ के दशक में जब लता अपने जीवन की
ऊंचाइयों में थी। तब वह गायन, निर्देशन, शब्दों के चयन से लेकर कई मामलों में हस्तक्षेप करने लगी। कोई प्रोड्यूसर
या संगीतकार उन्हें नाराज नहीं करना चाहता था। नाराज करने का सीधा मतलब था। फिल्में
प्लाप होना। क्योंकि लता के गीत फिल्म सफलता की गारंटी माने जाते थे। यानी उस
समय बिना लता के गाने के फिल्म की कल्पना करना मुश्किल था।
इसी समय लता से
हूबहू मिलती जुलती आवाज सुमन कल्याणपुर की आई उन्हें लता रफी के साथ अनबन के दौरान
खूब गीत मिले। लेकिन वह भी लता के आभामंडल के सामने टिक नहीं पाई। लता के आलोचक
कहते हैं कि जिस प्रकार पुरुष पार्श्व गायन में आवाज की वैरायटी दिखती है। वैसी
वैरायटी स्त्री पार्श्व गायन में नहीं मिलती। हिरोइन के आवाज की पर्याय लता की
आवाज बन गई। नई गायीका भी लता की ही नकल करती। क्योंकि लता ना केवल गायिका थी वह
एक अच्छी राजनीतिज्ञ की भी थी। उन्होंने कई गायिकाओं को इंडस्ट्री से बाहर करवा
दिया।
केवल आशा कुछ समय
तक टिकी रही। उसका कारण था ओ पी नैयर से लता की तल्खी तथा राहुल देव वर्मन से आशा
की शादी होना। शारदा, अनुराधा पौडवाल, उर्मिला, सुमन कल्याणपुर जैसी सुरीली आवाज वाली
गायिका लता के आभामंडल के सामने टिक नहीं पाई। जबकि पुरुष गायन के एल सहगल, मोहम्मद रफी, किशोर कुमार,
मुकेश, मन्ना डे, शैलेंद्र सिंह, सुरेश वाडेकर नई सतरंगी छटा बिखेरी। इसी प्रकार कवीता कृष्ण मूर्ति
बताती है की किस प्रकार लता मंगेशकर ने उन्हे पार्श्व गायन का मौका दिलवाया।
एक समय तब वह
विवादों में आए जब उन्होंने अपने घर के सामने बनने वाले पुल का विरोध किया और धमकी
दी कि यदि पुल बनता है तो वह मुंबई छोड़ देगी।
लता मंगेशकर कभी
भी सक्रीय राजनीति का हिस्सा नही रही लेकिन वह कभी भी जनता के तरफ नही खड़ी हुई।
उनकी पूरी लड़ाई व्यक्तिगत हितो पर केन्द्रीत थी। चाहे मामला रायल्टी का
हो या ओवर ब्रिज का, किसान आंदोलन के
दौरान वे किसानों के खिलाफ खड़ी दिखी। व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा हो लेकिन उसके
विचार ही उसे जीवित रखाते है। इस मामले में लता मंगेशकर का पक्ष कमजोर था। आखिरी
समय में लता कट्टरवाद की ओर खड़ी दिखती है। खास तौर पर दक्षिणपंथी विचारधारा के
पक्ष में थी। जब बाल ठाकरे परिवार पावर में थे। तब उनके साथ दिखती। वह बाल ठाकरे
एवं नरेन्द्र मोदी के पैर छूते देखी जाती। वह खुलेआम वीर सावरकर को महान बताती और
उनकी स्तुति करती थी। ऐसा भी कहा जाता है कि डॉक्टर अंबेडकर के ऊपर लिखे गए गीत को
उन्होंने गाने से मना कर दिया। उन्होंने उन देवदासियों के पक्ष में कभी आवाज़ नहीं
उठाया जिस परिवार से वे आती थी। वह इतनी जल्दी कैसे भूल गई की उनकी दादी येसूबाई
कभी मंगेश मंदिर में देवदासी थी? देवदासियों के प्रति उनकी
एक आवाज लाखो देवदासियों की नरक जैसी जिन्दगी को बहाल कर देती।
[1] Page no 5 Devadasis- sinners or sinned against (An attempt
to look at the myth and reality of history and present status of Devadasis) by
Anil Chawla www.samarthbharat.com
[2] मनुस्मृति अध्याय 10 श्लोक क्रमांक
11-15
Kanshiram Rare Video, part 2, bahujan samaj party Vishnu Baghel DMAindia Online
सन 1995 में बहुजन समाज पार्टी का एक बड़ा आयोजन डॉ खूबचंद बघेल की पुण्यतिथि के अवसर रायपुर छत्तीसगढ़ में किया गया। इस कार्यक्रम का आयोजन तत्कालीन जिला अध्यक्ष बहुजन समाज पार्टी रायपुर के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता विष्णु बघेल द्वारा किया गया। करीब 30 वर्ष पुराना यह दुर्लभ वीडियो आपके लिए पेश है जिसमें कांशीराम समेत तमाम दूसरे राष्ट्रीय स्तर के नेता अपनी बात रख रहे हैं। दाऊराम रत्नाकार, भीमसिंह पटेल रीवा सांसद, देखिए इस श्रृंखला का दुसरा भाग।
Kanshiram Rare Video, part 1, bahujan samaj party Vishnu Baghel DMAindia Online
Mahatma Buddha, the pioneer of world peace
विश्व शांति के अग्रदूत महात्मा बुद्ध
रश्मि वर्मा
विश्व में कुछ ऐसे महापुरुष रहे हैं जिन्होंने अपने जीवन से समस्त मानव जाति को एक नई राह दिखाई है। उन्हीं में से एक महान विभूति गौतम बुद्ध थे, जिन्हें महात्मा बुद्ध के नाम से जाना जाता है। दुनिया को अपने विचारों से नया मार्ग दिखाने वाले महात्मा बुद्ध भारत के एक महान दार्शनिक, समाज सुधारक और बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। भारतीय वैदिक परंपरा में धीरे-धीरे जो कुरीतियाँ
महात्मा बुद्ध ने 528 ईसा पूर्व
में वैशाख पूर्णिमा के दिन बोधगया में एक पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए आत्म
बोध प्राप्त किया। वैशाख पूर्णिमा के दिन ही 483
ईसा पूर्व में कुशीनारा नामक स्थान पर महात्मा बुद्ध को निर्वाण
प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शिष्यों ने राजगृह में एक परिषद का
आह्वान किया, जहाँ बौद्ध धर्म की मुख्य शिक्षाओं को
संहिताबद्ध किया गया। इन शिक्षाओं को पिटकों के रूप में समानुक्रमित करने के लिये
चार बौद्ध संगीतियों का आयोजन किया गया जिसके पश्चात् तीन मुख्य पिटक बने। विनय पिटक (बौद्ध मतावंलबियों के लिये व्यवस्था के नियम), सुत पिटक (बुद्ध के उपदेश सिद्धांत) तथा अभिधम्म पिटक (बौद्धदर्शन),
जिन्हें संयुक्त रूप से त्रिपिटक कहा जाता है। इन सब को पाली भाषा
में लिखा गया है। ध्यातव्य है कि बुद्ध के दर्शन का
सबसे महत्त्वपूर्ण विचार ‘आत्म दीपो भवः’ अर्थात ‘अपने दीपक स्वयं बनो’। इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति को अपने जीवन का उद्देश्य या नैतिक-अनैतिक
प्रश्न का निर्णय स्वयं करना चाहिये। यह विचार इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह
ज्ञान और नैतिकता के क्षेत्र में एक छोटे से बुद्धिजीवी वर्ग के एकाधिकार को
चुनौती देकर हर व्यक्ति को उसमें प्रविष्ट होने का अवसर प्रदान करता है। बुद्ध के
दर्शन का दूसरा प्रमुख विचार ‘मध्यम मार्ग’ के नाम से जाना जाता है। सूक्ष्म दार्शनिक स्तर पर तो इसका अर्थ कुछ भिन्न
है, किंतु लौकिकता के स्तर पर इसका अभिप्राय सिर्फ इतना है
कि किसी भी प्रकार के अतिवादी व्यवहार से बचना चाहिये। बुद्ध दर्शन का तीसरा प्रमुख विचार ‘संवेदनशीलता’
है। यहाँ संवेदनशीलता का अर्थ है दूसरों के दुखों को अनुभव करने की
क्षमता। वर्तमान में मनोविज्ञान जिसे समानुभूति कहता है, वह
प्रायः वही है जिसे भारत में संवेदनशीलता कहा जाता रहा है। बुद्ध दर्शन का चौथा प्रमुख विचार यह है कि वे परलोकवाद की बजाय इहलोकवाद
पर अधिक बल देते हैं। गौरतलब है कि बुद्ध के समय प्रचलित दर्शनों में चार्वाक के
अलावा लगभग सभी दर्शन परलोक पर अधिक ध्यान दे रहे थे। उनके विचारों का सार यह था
कि इहलोक मिथ्या है और परलोक ही वास्तविक सत्य है। इससे निरर्थक कर्मकांडों तथा
अनुष्ठानों को बढ़ावा मिलता था। बुद्ध ने जानबूझकर
अधिकांश पारलौकिक धारणाओं को खारिज किया। बुद्ध दर्शन का पाँचवा प्रमुख विचार यह
है कि वे व्यक्ति को अहंकार से मुक्त होने की सलाह देते हैं। अहंकार का अर्थ है ‘मैं’ की भावना। यह ‘मैं’
ही अधिकांश झगड़ों की जड़ है। इसलिये व्यक्तित्व पर अहंकार करना एकदम
निरर्थक है।बुद्ध दर्शन का छठा प्रमुख विचार ह्रदय परिवर्तन के विश्वास से संबंधित
है। बुद्ध को इस बात पर अत्यधिक विश्वास था कि हर व्यक्ति के भीतर अच्छा बनने की
संभावनाएँ होती हैं, ज़रूरी यह है की उस पर विश्वास किया जाए
और उसे समुचित परिस्थितियाँ प्रदान की जाएँ। बुद्ध का सबसे कमज़ोर विचार उनका यह
विश्वास है कि संपूर्ण जीवन दुखमय है।
उन्होंने जो चार आर्य सत्य बताए
हैं, उनमें से पहला ‘सर्वम दुखम’ है
अर्थात सबकुछ दुखमय है। इस बिंदु पर बुद्ध एकतरफा झुके हुए नज़र आते हैं जबकि जीवन
को न तो सिर्फ दुखमय कहा जा सकता है और न ही सिर्फ सुखमय। सत्य तो यह है कि सुखों
की अभिलाषा ही वे प्रेरणाएँ है जो व्यक्ति को जीवन के प्रति उत्साहित करती है।
बुद्ध के विचारों में एक अन्य महत्त्वपूर्ण खामी नारियों के अधिकारों के संदर्भ
में दिखती है। जैसे महिलाओं को शुरूआत में संघ में प्रवेश नहीं देना। ऐसा माना
जाता है कि उन्होंने अपने शिष्य आनंद से कहा था कि अगर संघ में महिलाओं का प्रवेश
न होता तो यह धर्म एक हजार वर्ष तक चलता पर अब यह 500 वर्ष
ही चल पाएगा। जबकि वर्तमान में हम देखते हैं कि महिलाएँ हर क्षेत्र में पुरुषों से
कंधे से कंधा मिला कर चलने में सक्षम हैं। महात्मा
बुद्ध भारतीय विरासत के एक महान विभूति हैं। उन्होंने संपूर्ण मानव सभ्यता को एक
नयी राह दिखाई। उनके विचार, उनकी मृत्यु के लगभग 2500
वर्षों के पश्चात् आज भी हमारे समाज के लिये प्रासंगिक बने हुए हैं। वर्तमान समय में बुद्ध के स्व निर्णय के विचार का महत्त्व बढ़ जाता है
दरअसल आज व्यक्ति अपने घर, ऑफिस, कॉलेज
आदि जगहों पर अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण फैसले भी स्वयं न लेकर दूसरे की सलाह पर
लेता है अतः वह वस्तु बन जाता है। बुद्ध का ‘अप्प दीपो भवः’
का सिद्धांत व्यक्ति को व्यक्ति बनने पर बल देता है। बुद्ध का मध्यम मार्ग सिद्धांत आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना बुद्ध के
समय था। उनके इन विचारों की पुष्टि इस कथन से होती है कि वीणा के तार को उतना नहीं
खींचना चाहिये कि वह टूट ही जाए या फिर उतना भी उसे ढीला नहीं छोड़ा जाना चाहिये
कि उससे स्वर ध्वनि ही न निकले। दरअसल आज दुनिया में
तमाम तरह के झगड़े हैं जैसे- सांप्रदायिकता, आतंकवाद,
नक्सलवाद, नस्लवाद तथा जातिवाद इत्यादि। इन
सारे झगड़ों के मूल में बुनियादी दार्शनिक समस्या यही है कि कोई भी व्यक्ति देश या
संस्था अपने दृष्टिकोण से पीछे हटने को तैयार नहीं है। इस दृष्टि से इस्लामिक
स्टेट जैसे अतिवादी समूह हो या मॉब लिंचिंग विचारधारा को कट्टर रूप में स्वीकार
करने वाला कोई समूह हो या अन्य समूह सभी के साथ मूल समस्या नज़रिये की ही है।
महात्मा बुद्ध के मध्यम मार्ग सिद्धांत को
स्वीकार करते ही हमारा नैतिक दृष्टिकोण बेहतर हो जाता है। हम यह मानने लगते हैं कि
कोई भी चीज का अति होना घातक होता है। यह विचार हमें विभिन्न दृष्टिकोणों के
मेल-मिलाप तथा आम सहमति प्राप्त करने की ओर ले जाता है। महात्मा बुद्ध का यह विचार
की दुःखों का मूल कारण इच्छाएँ हैं, आज के उपभोक्तावादी समाज के
लिये प्रासंगिक प्रतीत होता है। दरअसल प्रत्येक इच्छाओं की संतुष्टि के लिये
प्राकृतिक या सामाजिक संसधानों की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे में अगर सभी व्यक्तियों
के भीतर इच्छाओं की प्रबलता बढ़ जाए तो प्राकृतिक संसाधन नष्ट होने लगेंगे,
साथ ही सामजिक संबंधों में तनाव उत्पन्न हो जाएगा। ऐसे में अपनी
इच्छाओं को नियंत्रित करना समाज और नैतिकता के लिये अनिवार्य हो जाता है। इस बात
की पुष्टि हाल ही में ‘अर्थ आवर शूट डे’ के रिपोर्ट से होती है जिससे यह पता चलता है कि जो संसाधन वर्ष भर चलना
चाहिये था वह आठ माह में ही समाप्त हो गया।
प्रत्येक विचारक की तरह बुद्ध कुछ बिंदुओं पर
आकर्षित करते है तो कुछ बिंदुओं पर नहीं कर पाते हैं। विवेकशीलता का लक्षण यही है
कि हम अपने काम की बातें चुन लें और जो अनुपयोगी हैं, उन्हें
त्याग दें। बुद्ध से जो सीखा जाना चाहिये, वह यह है कि जीवन
का सार संतुलन में है, उसे किसी भी अतिवाद के रास्ते पर ले
जाना गलत है। हर व्यक्ति के भीतर सृजनात्मक संभावनाएँ होती हैं, इसलिये व्यक्ति को अंधानुकरण करने के बजाय स्वयं अपना रास्ता बनाना
चाहिये।
रश्मि वर्मा
सामाजिक कार्यकर्ता
मो. 88174 94455
(लेखक के स्वतंत्र विचार
है)
“Khoob Chand Baghel was not only a dreamer of Chhattisgarh but he was also a great leader of social change.
"खूब चंद बघेल न सिर्फ छत्तीसगढ़ के स्वप्न दृष्टा थे बल्कि वे सामाजिक परिवर्तन के महानायक भी थे !"
साहु रामलाल गुप्ता
खूब चंद बघेल जी का जन्म 19 जुलाई 1900 को छत्तीसगढ़ रायपुर के पास पथरी ग्राम में हुआ था ।
आप प्रारंभ से ही सामाजिक राजनीतिक जागरूकता से ओतप्रोत थे । अपनी मेडिकल शिक्षा के दौरान आपने पढ़ाई छोड़कर तत्कालीन स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े और कई बार जेल भी गए । आजादी मिलने के बाद भी आप
अपने जीवन के अंतिम समय तक विभिन्न राजनीतिक मंचों के साथ एवम् सामाजिक क्षेत्र में भी पूरी मजबूती के साथ अपनी उपस्थिति को आपने बनाए रखा ।
सामाजिक असमानता, छुआछूत, और जाति भेदभाव के विरुद्ध आपने "हरिजन सेवक संघ" के मंत्री के तौर भी पूरी तन्मयता के साथ जुड़े रहे ।
"अपमानजनक परंपरा पर करारा प्रहार"
तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में अनुसूचित जाति के लोगों का बाल नाई लोग नहीं काटते थे । इस सामाजिक असमानता के विरुद्ध आपने श्री अनंत राम बर्छिहा (भविष्य में विधायक) के साथ मिलकर एक सशक्त आंदोलन चलाया । जिसमें आपको पर्याप्त सफलता भी मिली । इस आंदोलन के कारण आपको सामाजिक बहिष्कार का दंश भी झेलना पड़ा ।
इस मुद्दे पर अपने नाटक लिखकर जन-जन के बीच जाकर उसका सफल मंचन भी किया । जिसके लिए आपको सराहा भी गया ।
"उपजाति बंधन को तोड़ा"
आपने स्वयं उपजाति बंधन तोड़कर अपनी द्वितीय पुत्री की शादी दिल्लीवार कुर्मी समाज में किया । समाज ने पुनः इस मुद्दे को आधार बनाकर आपको सामाजिक बहिष्कृत का दंड दिया । आपने हिम्मत नहीं हारी और आपने अपनी तृतीय पुत्री की शादी भी "काका कालेलकर आयोग" के सदस्य श्री रामेश्वर पटेल, बिहार (भविष्य में सांसद) से संपन्न कराई । आप सामाजिक रूढ़ियों पर सदैव करारा प्रहार करते रहे ।
"राष्ट्रीय कुर्मी महासम्मेलन"
आपने अखिल भारतीय कुर्मी महासभा के दो-दो राष्ट्रीय अधिवेशन की अध्यक्षता भी की । प्रथम 1948 कानपुर में और द्वितीय 1966 नागपुर में । आपने राष्ट्रीय अधिवेशन में भारतीय हिंदू समाज में व्याप्त शाखाभेद, उपजातिभेद एवं जाति व्यवस्था के कारण, जो ऊंच-नीच, छुआछूत आदि असमानतावादी व्यवस्था थी । उसे समाज एवं राष्ट्रीय विरोधी करार देते हुए उसे दूर करने का आह्वान किया, ताकि राष्ट्रीय एकजुटता कायम की जा सके ।
"राष्ट्रीय अधिवेशन को संबोधित करते हुए आगे आपने कहा कि उपजातियां से भेदभाव मिटाना इस युग का छोटे से छोटा, हल्के से हल्का कदम होगा । सही मायने में तो हमको और आपको समस्त मानव जाति के अंदर रहने वाली ब्राह्मणवादी जाति-पांति की सड़ी एवं खड़ी व्यवस्था को ही पहले दूर करना होगा । वर्ण व्यवस्था रूपी शरीर में जाति व्यवस्था एक कोढ़ है । जो समस्त भारतीय समाज को नष्ट कर रहा है ।
"पंक्ति तोड़ो आंदोलन"
उसे समय छत्तीसगढ़ में शादी वगैरह के कार्यक्रम में हर जाति के लोगों को अलग-अलग पंक्ति में भोजन के लिए बैठाया जाता था । जिसे आपने "पंक्ति तोड़ो आंदोलन" चलाकर इस असामाजिक प्रथा को समाप्त करवाया । जो आगे चलकर सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में "मील का पत्थर" साबित हुआ ।
"किसबिन नाचा बंद करवाया"
उस समय जाति विशेष में अपने ही परिवार की बहन बेटियों से नाच-गाना आदि खुलेआम करवाया जाता था । इस तथाकथित "किसबिन नाच" को आपने कठिन प्रयास से बंद करवाया । आपने समाज से बेरोजगारी दूर करने के लिए "ग्राम उद्योग संघ" की भी स्थापना की । आपने गांव-गांव में विभिन्न प्रकार के ग्रामीण उद्योगों की स्थापना की । इस अभियान में तेल पेराई उद्योग , घानी निर्माण, हथकरघा, धान कुटाई, साबुन आदि के उद्योग स्थापित किए एवं मार्केटिंग भी करवाए ।
"शिक्षा के क्षेत्र में प्रयास"
सन् 1958 -59 में आपने सिलियरी में जनता हाई स्कूल की स्थापना की । जिससे ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों को भी शिक्षा का अवसर मिला । आज वही स्कूल "खूबचंद बघेल शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय" के नाम से जाना जाता है ।
"विभिन्न सामाजिक राजनीतिक कार्य"
सन् 1931 से 1969 तक आप आजीवन सामाजिक एवं राजनीतिक संघर्ष में पूरी तनमयता के साथ मशगूल रहे । सन् 1946 की अंतरिम सरकार में अपने संसदीय सचिव का दायित्व भी संभाला था ।
आप आप रवि शंकर शुक्ल की जन विरोधी नीतियों से असहमति व्यक्त करते हुए आचार्य कृपलानी और जयप्रकाश जी के समाजवादी आंदोलन से जुड़ गए । सन 52 और 57 में आप विधायक भी निर्वाचित हुए । सन् 54 के बाद अपने समाजवादी आंदोलन की बागडोर भी छत्तीसगढ़ में संभाली । समाजवादी आंदोलन में आपके प्रमुख साथी ठाकुर प्यारेलाल सिंह, विश्वनाथ यादव एवं तामस्कर जी एडवोकेट रहे, ये सभी गांधीवादी थे ।
"जनहित के मुद्दों पर संघर्ष से आप कभी भी पीछे नहीं रहे"
आप आप जनहित के मुद्दे पर सदैव संघर्षरत रहे । चाहे छुई-खदान तहसील का गोली चालान कांड रहा हो या 1961 में आदिवासियों पर लोहांडीगुड़ा में गोली चालन कांड रहा हो या तकाबी के माध्यम से किसानों को लूटने का मुद्दा रहा हो । इन सभी मुद्दों पर आपने सरकारी षडयंत्र के विरुद्ध खुलकर पूरी ताकत से अपनी आवाज उठाई ।
कैलाश नाथ काटजू के मुख्यमंत्रित्व काल में भी आप जनहित के मुद्दे पर सदैव सरकार से टकराते रहे। चाहे सायना बांध घपला कांड हो या 1961 में धान निर्यात पर प्रतिबंध का मुद्दा रहा हो । इन सभी मुद्दों पर आपने बृजलाल वर्मा एवम् हरि प्रेम बघेल आदि के सहयोग से "धान सत्याग्रह आंदोलन" चलाया ।
"बस्तर का बहुचर्चित कांड"
1966 में आदिवासी राजा एवम् बस्तर नरेश प्रवीरचंद्र भंजदेव सहित 300 आदिवासी जनों की हत्या के विरोध में अपने द्वारिका प्रसाद मिश्र से खुला विरोध व्यक्त किया था ।
"किसानों को उनका हक दिलवाया"
भिलाई स्टील प्लांट की स्थापना के समय जिन किसानों की जमीन गई थी । उन्हें अनिवार्य रूप से नौकरी न देने पर आपने आंदोलन चलाकर किसानों को उनका हक दिलाया । इसी तरह हीराकुंड बांध, रायगढ़ में भी किसानों को उनका हक दिलाने तक आपने संघर्ष किया ।
"छत्तीसगढ़ राज्य की परिकल्पना एवम् उनका संघर्ष"
सन 1946 में ही आपने कांग्रेस की बैठक में छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव की चर्चा की थी । छत्तीसगढ़ के विकास के मुद्दे को लेकर अपने सन् 1948 में शुक्ला मंत्रिमंडल से त्यागपत्र भी दे दिया था ।
छत्तीसगढ़ के मुद्दों को लेकर "क्षुब्ध छत्तीसगढ़" शीर्षक से लेख लिखकर "राष्ट्र बंधु" पेपर में छपवाया भी था । जिसमें छत्तीसगढ़ की उपेक्षा का मुद्दा मजबूती के साथ आपने उठाया था ।
उनका कहना था कि छत्तीसगढ़ के सोए स्वाभिमान को जगाना, एवं उसके गौरव गरिमा को उजागर करना, उसे शोषण, अन्याय और दमन से मुक्त कराना ही उनका लक्ष्य है ।
वे विभिन्न सभाओं एवं बैठकों एवं लेखों के माध्यम से छत्तीसगढ़ की अस्मिता और उसके मुद्दे को उठाते रहे ।
1956 में छत्तीसगढ़ राज्य की कल्पना को साकार रूप देने के लिए जुझारू एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं का एक सम्मेलन राजनांदगांव में आयोजित भी किया गया । सम्मेलन में छत्तीसगढ़ी महासभा का गठन भी किया गया । सम्मेलन में छत्तीसगढ़ राज्य का प्रस्ताव भी पारित किया गया ।
25 सितंबर 1967 को रायपुर में छत्तीसगढ़ महासभा को पुनर्गठित किया गया । सर्वसम्मत से छत्तीसगढ़ महासभा का नाम बदलकर "छत्तीसगढ़ भातृ संघ" स्वीकार किया गया । परसराम यदु, रेशमलाल जांगड़े, हरि ठाकुर, रामाधार चंद्रवंशी आदि सामाजिक राजनीतिक नेतृत्वकर्ताओं ने आपकी आवाज को अपनी भी आवाज दी । इस लक्ष्य में आपको बृजलाल वर्मा एवं राजा नरेश चंद्र सिंह का भी समर्थन एवं सहयोग मिला ।
इस आंदोलन के बढ़ते प्रभाव से घबराकर तत्कालीन मुख्यमंत्री श्यामा चरण शुक्ल ने इस संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया था ।
"छत्तीसगढ़िया के मुद्दे पर उनका दृष्टिकोण"
रवि शंकर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति को अपने छत्तीसगढ़िया की परिभाषा को स्पष्ट करते हुए बताया था कि,
"जो छत्तीसगढ़ के हित में अपना हित समझता है और छत्तीसगढ़ के मान सम्मान को अपना मान सम्मान समझता है एवम् छत्तीसगढ़ के अपमान को अपना अपमान समझता है, वह छत्तीसगढ़ी है, चाहे वह किसी भी धर्म, भाषा, प्रांत या जाति का हो ।"
आजादी मिलने के बाद ही उन्हें तत्कालीन सरकार के रवैए से छत्तीसगढ़ की उपेक्षा का एहसास हो गया था । उन्होंने देखा कि शासक वर्ग छत्तीसगढ़ के शोषक वर्ग को सहयोग के साथ बढ़ावा भी दे रहा है एवं छत्तीसगढ़ की शोषित पीड़ित जनता को पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया है ।
वरिष्ठ पत्रकार मधुकर खेर आपके बारे में लिखते हैं कि, प्रचारतंत्र का स्वतंत्र जाल न होने के कारण डॉक्टर बघेल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को वह सम्मानजनक स्थान नहीं मिल पाया जिसके कि वे हकदार थे ।"
1965 में भीषण अकाल के समय "टाइम्स पत्रिका" की अमेरिकी महिला पत्रकार लिखती हैं कि, मेरे दो घंटे तक डॉक्टर बघेल का साक्षात्कार लेने के बाद, छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े क्षेत्र में भी ऐसे जुझारू कर्मठ नेतृत्व हो सकते हैं, इस बात पर मुझे आश्चर्य हुआ ।
22 फरवरी 1969 को आप अपनी विशाल सामाजिक, राजनीतिक विरासत छोड़कर हम सबसे विदा हो गए ।
छत्तीसगढ़ सरकार आज प्रतिवर्ष 2 लाख का पुरस्कार अपने छत्तीसगढ़ के माटी पुत्र डॉक्टर खूबचंद बघेल के नाम पर प्रदान करती है ।
सच तो यह है कि आज अर्द्ध शताब्दी के बाद भी समाज के इस संघर्षशील, त्यागी, जागरूक, समाज समर्पित व्यक्तित्व का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है । उन्हें सिर्फ "छत्तीसगढ़ का स्वप्न दृष्टा" कहना उनका सही मूल्यांकन नहीं होगा । वह एक ओर जहां समर्पित व्यक्तित्व के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, वहीं इन दोनों अलंकरणों से हटकर आप सर्वप्रथम "सामाजिक न्याय को प्रतिबद्ध एक सामाजिक योद्धा" भी थे, जो इनकी वास्तविक विरासत मनाई जानी चाहिए ।
आपके यशस्वी पौत्र चार्टर्ड अकाउंटेंट विष्णु दत्त बघेल जी आपके आंदोलन और संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए पूरी तरह से संकल्पित है एवं उनकी विचारधारा को आगे बढ़ाने में आप सतत प्रयासरत भी हैं ।
लेखक-
साहु रामलाल गुप्ता,
मोबाइल 94077 64442.
बहुजन समाज को सांस्कृतिक गुलाम कैसे बनाया है? सत्ता धारी सवर्ण समाज ने। bahujan samaj cultural
बिना सांस्कृतिक गुलामी के ये कैसे संभव है कि महिलाएं उस रामायण के कांड का पाठ खुद करती? जिसमें यह कहा गया है डोर गवार शुद्र पशु नारी यह है ताड़न के अधिकारी। एक दलित ओबीसी उस भागवत कथा का आयोजन खुद करता है जिसमें उसे नीच बताया गया है। इसलिए एसी एसटी पिछड़ा वर्ग समाज को सांस्कृतिक गुलामी का एहसास कराना जरूरी है।
हिंदुओं की आबादी क्यों कम हो रही है, why the Hindu population is decreasing or decline संजीव खुदशाह
हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी के आर्थिक सलाहकार परिषद ने सर्वे किया और यह पाया की पिछले 65 सालों में हिंदुओं की जनसंख्या 8% कम हुई है और अल्पसंख्यक जैसे मुस्लिम, ईसाई, सिख और बौद्ध की आबादी बढ़ी है। आई जानने की कोशिश करते हैं हिंदू बहुल इस देश में आखिर हिंदुओं की संख्या क्यों काम हो रही है?
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आवाज की दुनिया के बादशाह रहे हैं अमीन सयानी
बिनाका गीत माला
के अमीन सयानी
संजीव खुदशाह
आवाज की दुनिया के बादशाह रहे हैं अमिन
सयानी। हीरो हीरोइन गायक कलाकारों के पीछे तो हमेशा लोग पागल रहे हैं लेकिन ऐसा
पहली बार हुआ जब किसी एनाउंसर के पीछे लोग इस तरह दीवाने थे। इनका क्रेज किसी
सुपरस्टार से कम कभी नहीं रहा। वे भारतीय उपमहाद्वीप के अनाउंसरों के आदर्श रहे हैं।
और लगभग हर दूसरा एनाआंसर उनकी तरह बोलना चाहता है। 50, 60 और
70 के दशक में पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में यह माहौल था कि हर
बुधवार को रात 8:00 बजे गलियां और सड़के सुनसान हो जाया करती
थी। लोग ट्रांजिस्टर, रेडियो से चिपक जाते । आधे घंटे का यह
प्रोग्राम लोगों को बहुत आकर्षित करता था। खास तौर पर अमीन सयानी की डायलॉग
डिलीवरी का जो अंदाज था वह काबिले तारीफ था। वो न ही कठिन हिंदी में था न ही कठिन
उर्दू में खालीस हिंदुस्तानी भाषा में बोलचाल की तर्ज में वे अपनी बात को कहते थे
और यही बात लोगों को पसंद आती थी। बिनाका गीत माला एक काउंटडाउन सो था जिसमें
फिल्मी गीतों की लोकप्रियता के आधार पर प्रति सप्ताह करीब 16 गीत सुनाए जाते थे। आधे घंटे की इस शो में गीत पूरे नहीं बजते थे। लेकिन
लोगों को यह जानने की उत्सुकता रहती की कौन सा गीत किस गीत के आगे है या पीछे है।
सरताज गीत कौन सा है ? कौन सा गीत किस पायदान में है ? इसी प्रकार साल भर के सरताज गीत दिसंबंर के आखरी
बुधवार को बजते जिसमें एक गीत सभी गीतो का सरताज बनता।
अमित सयानी बताते हैं कि जब उन्होंने बतौर
एनाउंसर अपनी करियर की शुरुआत करनी चाही तो ऑल इंडिया रेडियो ने उन्हें रिजेक्ट कर
दिया और यह कहा कि योर वॉइस इस नॉट सूटेबल फॉर अस।
हर गायक कलाकार अभिनेताओं की यह चाहत होती
कि उनके गीत बिनाका गीत माला में बजे। बिनाका गीत माला में गीत बजने का मतलब होता
था की फिल्म सुपरहिट होना तय है । अमीन सयानी इस कार्यक्रम में न केवल गीतों को
सुनाते थे बल्कि उस गीत की पृष्ठभूमि के बारे में भी बताते थे । जो की बहुत रोचक
हुआ करता था। लगभग उन्होंने तमाम फिल्मी हस्तियों से अपने इस काउंटडाउन शो बिनाका
गीत माला में बातचीत की और उसका एक आर्काइव भी अपने पास रखा। जिसे उन्होंने
गीतमाला की छांव में के अपने एपिसोड में प्रसारित किया। उन्होंने कुछ फिल्मों में
भी बतौर एनाउंसर अभिनय किया जैसे भूत बंगला, तीन देवियां, बॉक्सर
और कत्ल।
पिछले कुछ दिनों से वे काफी बीमार चल रहे
थे। लेकिन सक्रियता उनकी आखिरी दिनों तक बनी रही । आज के तमाम रेडियो जॉकी के वे
आईकान थे। आज वे हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी आवाज आज भी जैसे कि हमारे कानों में
गूंज रही है। जिन्होंने उनका प्रोग्राम रेडियो पर सुना है वह कभी उन्हें भूल नहीं
सकेंगे। उनकी यादें हमेशा उनके जहन में बनी रहेगी ।
Sant Ravidas's thoughts are relevant even today
मन चंगा तो कठौती में गंगा- संत कवि रविदास
संजीव खुदशाह
भारतीय समाज मे संत रविदास का स्थान विशेष है वे भक्ति काल के कवि होने के बावजूद उनके पदो में प्रगतिशीलता और समता छाप स्पष्ट झलकती है। उनके जन्म स्थान दिनांक उम्र आदि के बारे विद्वानों में
विरोधा भाष रहा है। किंतु ज्यादातर विद्वान मानते है कि सन 1398 ईसा में उनका जन्म हुआ था तथा उनके दोहे से ज्ञात होता है कि वे एक दलित समुदाय से ताल्लुक रखते है।जाति भी ओछी, करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा।
नीच से प्रभु ऊंच कियो है, कह रविरास चमारा।।
-- रैदास जी की बानी
वे एक मुख्यु धारा के संत कवि थे जिनका सीधा समाज से सरोकार था किंतु साहित्यिक मठाधीश उन्हे निर्गुण धारा के कवियों में वर्गीकृत करते है। शायद इसलिये की वे समकालीन कवियों रसखान, सूरदास, तुलसीदास की भांती सिर्फ भक्ति में ही डूबकर रचनाएं नही करते थे। वे कबीर की तरह समाज की रूढि़यों पर भी चोट करते रहे। वे संत कवि होने के बावजूद समाज को मार्गदर्शन देने का काम करते रहे। ऐसा कहा जाता है कि संत रविदास बनारस के निवासी थे लेकिन जीते जी उनकी ख्याति पूरे भारत में थी। उनके शिष्य और अनुयायी पूरे भारत में मिलते है चाहे पंजाब हो, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश या दक्षिण में महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश । ऐतिहासिक ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि संत रविदास के जीवन काल के दौरान
एक समय ऐसा था जब संत बनने के लिए किसी को गुरू बनाना जरूरी था। चित्तौड़ की रानी मीरा को तत्कालीन संतो ने शिष्या बनाने से इनकार कर दिया क्योकि वे एक स्त्री थी। वह भी राज परिवार की़। धार्मिक परंपरा के अ़नुसाऱ ये उचित नही माना जाता था। लेकिन संत रविदास ने इस रूढ़ी को तोड़ते हुए मीरा के अनुनय विनय को स्वीकार करते हुये अपनी शिष्या बनाया। मीरा के पदों में रैयदास का जिक्र कई स्थानों में मिलता है। रविदास की रचनाएं- नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिर्पोट के अनुसार उनकी रचनाएं विभिन्न हस्तालिखित ग्रन्थों के रूप मे मिली है ---1. रैदास की बानी, 2. रैदास जी की साखी, 3.रैदास के पद, 4.प्रहलाद लीला। ग़ौरतलब है कि सिक्खो के पवित्र धर्म ग्रन्थ ‘’गुरूग्रंथ साहेब’’ में संत रविदास के 40 पद संग्रहीत है।
रैदास की वाणी मानव भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का संतोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे।
संत रविदास जाति भेद, ऊंच-नीच, रंग-भेद, लिंग-भेद, पितृसत्ता को सारहीन एवं निरर्थक बताते थे। वे परस्पार मिलजुलकर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश देते थे।
वर्णाश्राम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
सन्देशह-ग्रन्थि खण्ड न-निपन, बानि विमुल रैदास की।।
इस पद में वे कहते है की मनुष्य मनुष्य से तब तक नही जुड पायेगा जब तक की जाति रहेगी।
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
वे हिन्दू मुस्लिम एकता की बात करते थे जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।
हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।
उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार उनके मुख से प्रसिध्द दोहे का जन्म् हुआ ।
- मन चंगा तो कठौती* में गंगा।
*कठौती- चमड़ा साफ करने का बर्तन।
आज भी प्रासंगिक है संत रविदास के विचार Publish on Navbharat 30 Jan 2018
Saint Valentine's Day giving the message of love
प्रेम का संदेश देता संत वैलेंटाइन दिवस
संजीव खुदशाह
सदियों
से प्रेम और उसकी भावनाओं को धर्म और संस्कृति के ठेकेदारों ने अपनी पैरो की जूती
समझा है तथा प्रेम के दीवानों पर सैंकड़ो सितम ढाये है। बावजूद इसके प्रेम के नाम
पर अपने आपको न्यौछावर कर देने वाले संत वेलेन्टाईन के बलिदान दिवस को पूरी
दुनिया बडी सिदृत मुहब्बत का त्यौहार मनाती है। आज विश्व की युवा पीढी और हर वह
व्यक्ति जो अपने जीवन साथी को प्यार करता है, अपने प्रेम के इजहार के लिए 14 फरवरी के इस
मुकदृदस दिन का बडी बेसब्री से इंतजार करता है।
वेलेन्टाइन डे क्यों मनाया जाता है
इसके पीछे कई मान्यताएं है। सर्वस्वीकृत मत और तथ्य ये
ऐसी
मान्यता है की प्रारंभ में रोम के निवासी इस दिन घरों में साफ सफाई किया करत थे और
एक दूसरों को प्रेम का संदेश देते थे। यह संदेश हस्त लिखित होता था। बाद में यह
दिवस प्रेम के आईकन के रूप में सर्व स्वीकृत होता गया। 1797 ईस्वी ब्रिटेन में
पहले पहल छपे हुये संदेश भेजने की परंपरा शुरू हुई बाद में ग्रिटिंग (चित्रकारी के साथ) के रूप में प्रेम के संदेश को प्रेषित किया जाने लगा। वह हस्तलिखित पत्र
आज इलेक्ट्रानिक कार्ड का रूप ले चुका है। बडी बडी कम्पनियाँ इस मौके पर तैयारी
करती है और युवाओं को लुभाने का प्रयास करती है। अब होटल, बाजार, बाग बगीचे सजा ये जाते है, गिफ्ट आईटमों में छूट की पेशकश की जाती है। पूरा बाज़ार मानो सज धज कर
तैयार हो जाता है।
विवाह
दिवस के रूप में मनाया जाना:- वैसे प्रेम और प्रेम विवाह किसी मूहूर्त के मोहताज नही होते है। बहुत कम
लोग जानते है कि इस दिन को विवाह दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। वेलेन्टाईन
दिवस के दिन विवाह किये जाने का क्रेज जोरों पर है प्रेमी जोडे विवाह करने हेतु इस
दिवस को चुनते है। इसलिए इसे विवाह दिवस के रूप में भी जाना जाने लगा है। 14 फरवरी
को ऐसी कई हाई प्रोफाईल शादियाँ सुर्खियों में रहती है जो कुण्डली मिलान, विवाह मुहूर्त के बिना सात फेरे लेकर अपनी शादी को यादगार बनाना चाहते है।
वेलेन्टाईन
को लेकर विवाद:- आज
से 1700 सौ साल पहले जिस प्रकार नफरत का जहर फैलाने वाले कट्टरवादी और तानाशाही
विचारधारा के लोग प्रेम के परवानो पर कहर ढाते थे। आज भी उस क्लॉ्डियस की संताने
इन प्रेमियों पर जुल्म ढाने से बाज नही आजे है। लेकिन उनका तरिका बदल गया है।
भारत में कुछ कट्टरपंथियों के द्वारा इस दिवस का विरोध किया जाता है। वे इस दिवस
को मनाने से मना करने के कई हास्यास्पद तर्क देते है जैसे इस प्रेम (वेलेन्टाईन) दिवस को मनाने से भारतीय संस्कृति
नष्ट हो जायेगी, यह विदेशी संस्कृति का हमला है, प्रेम करना गलत है आदि आदि। कुछ लोग इस दिवस का भारत में प्रभाव खत्म
करने की गरज से बजुर्ग दिवस, हिन्दू संस्कृति विकृत दिवस, पूजन दिवस, मातृ-पितृ दिवस मनाने तक की घोषणा
करते है। वे अपने आप को भारतीय संस्कृति का ठेकेदार समझते है। उनकी नजर में
भारतीय संस्कृति इतनी कमजोर है की वेलेन्टाईन दिवस मनाने से नष्ट हो जायेगी, न की और मजबूत होकर फलेगी फूलेगी।
वेलेन्टाईन
डे के विरोध का वास्तविक मकसद क्या है यदि गौर से देखे तो जो कट्टरपंथी लोग इस दिवस का
विरोध करते है, उनका संस्कृति और धर्म से कोई लेना
देना नही है वे जानते है कि उन्हे लोगो का समर्थन नही है वे इस तथ्य से तिल मिला
जाते है और किसी न किसी प्रकार से चर्चा में बने रहना चाहते है, शायद ये एक सबसे आसान रास्ता है मीडिया में बने रहने का। दूसरा मकसद यह
है कि वह क्लोडियस की तरह जनता की आँखो में घूल झोक कर, नफरत और घृणा का बीज बो कर लंबे समय तक सत्ता में काबिज रहना चाहते हो।
लेकिन सुखद है कि भारत का युवा इन सब से दूर प्रेम के इस दिवस को बडे ही तहजीब से
मनाता आ रहा है। सात समुन्दर पार से आये इस प्रेम के त्योहार को यहां के युवा ही
नही बुजुर्ग भी बडे शान से मनाते है। भारत में जाति, धर्म, ऊंच-नीच के भेद को मिटा कर वास्तव में वासुदेव
कुटुम्बकम का आगाज करने की पहल की जा चुकी है। यही बात इन नफरत के झंण्डाबरदारों
को खटकती है। बडी ही दुख की बात है जब हमारे देश की दीवाली अमेरिका के वाइट हाउस
में मनाई जाती है तो हम गौरांवित होते है और जब
पश्चिमी देशेा का कोई त्योहार हमारे देश में मनाया जाता है तो हम हाय तौबा मचाते
है। हमें इस दोगली नीति से बचना होगा। हमारे संविधान
में लिखा है कि भारत एक स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। यहाँ सबको अपनी तरह
जीवन जीने अधिकार है। यह अधिकार छीनने का हक किसी को भी नही है स्वयं माता पिता
को भी नही।
Publish on 8/2/2015 Nav Bharat