आरक्षण के उप-विभाजन के विरोध में वह शख्स हो सकता है जो स्वानुभूति से शून्य होगा : ईश कुमार गंगानिया, लेखक, विचारक और संपादक
अंबेडकरवादी विद्वान और लेखक श्री ईश कुमार गंगानिया के साथ विद्या भूषण रावत की बातचीत
ईश कुमार गंगानिया अम्बेडकरी साहित्य के क्षेत्र मे एक बेहद सम्मानित नाम है। अलग-अलग विधाओं में अब तक दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। तेईस पुस्तकें हिन्दी में और तीन पुस्तकें अंग्रेजी में हैं। इनमें दस काव्य संग्रह, एक ग़ज़ल संग्रह ‘गर्दो-गुबार’, एक कहानी-संग्रह ‘इंट्यूशन’, एक उपन्यास ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ और दो पुस्तकें देश के मूल निवासियों के अस्मिता संघर्ष पर आधारित हैं। एक पुस्तक ‘अन्ना आंदोलन: भारतीय लोकतंत्र को चुनौती’, शेष आठ
पुस्तकें साहित्यिक आलोचना और समकालीन मुद्दों पर लिखे गए निबंधों का संग्रह हैं। Surgical Strike (Novel), Synthetic Eggs (Collection of Stories) and Bard’s Beloved (English Poetry) अंग्रेजी में प्रकाशित हैं। आपका आत्मवृत ‘मैं और मेरा गिरेबां’ एक अलग पहचान के साथ मौजूद है। प्रभात प्रकाशन द्वारा ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के हिन्दी और अंग्रेजी में दूसरे संस्करण का वर्तमान प्रकाशन एक सुखद एवं उल्लेखनीय उपलब्धि हैं। ‘इश्तिहार’व ‘बरसों पुरानी नफासत’दोनों काव्य संग्रह आपकी पच्चीसवीं एवं छब्बीसवीं प्रकाशित पुस्तकें हैं। श्री गंगानिया विभिन्न साहित्यिक गतिविधियों से भी जुड़े रहे हैं और उन्होंने हिन्दी मे की पत्रिकाओ को निकालने और चलाने मे अपना व्यक्तिगत सहयोग दिया है। वह अलग-अलग अवधि के लिए आलोचना की लोकप्रिय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका ‘अपेक्षा’ के उप-संपादक, ‘आजीवक विजन’ नामक द्विभाषीक मासिक पत्रिका के संपादक और ‘अधिकार दर्पण’के उप-संपादक रह चुके हैं। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन के साथ वह हिंदी की लोकप्रिय त्रैमासिक पत्रिका ‘समय संज्ञान’ के संपादक के रूप में अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं।
प्रस्तुत बातचीत मुख्यतः अनुसूचित जातियों के विषय मे सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के संबंध मे है जिसने वर्गीकरण पर अपनी सहमति दे दी और अब पूरे देश मे पार्टिया और बुद्धिजीवियों का खेमा पूरी तरह से विभाजित दिखाई दे रहा है। ये बातचीत बहुत महत्वपूर्ण है इसलिए क्योंकि आज अम्बेडकरी आंदोलन और बहुजन आंदोलन मे एक संकट है और ऐसे अवसर पर बुद्धिजीवयो की बड़ी भूमिका होती है जो समाज को सही दिशा दे सके। विद्या भूषण रावत ने इस विषय पर विस्तारपूर्वक बात कि लेखक और विचारक श्री ईश कुमार गंगानिया जो वर्तमान मे साहित्यिक पत्रिका समय संज्ञान के संपादक भी है।
एससी-एसटी आरक्षण के वर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
इस फैसले पर पहली दृष्टि में जो प्रतिक्रिया आ रही हैं, उसने चारों तरफ के माहौल को गरमा दिया है। हर तरफ एक अजीब-सा शोर है, अफवाहों का माहौल है कि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण खत्म कर दिया है। मौजूदा सरकार की सह पर सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण से साथ खिलवाड़ किया है। यह आरक्षण को खत्म करने की प्रक्रिया का हिस्सा है। इसे पूरी तरह से गैर-जिम्मेदाराना हरकत कहा जा सकता है, लफ्फाजी कहा जा सकता है। मैं निजी तौर पर योगेंद्र यादव की इस टिप्पणी से सहमत हूं, जिसके अनुसार—‘इस फैसले से आरक्षण खत्म नहीं हुआ है बल्कि और अधिक पुख्ता हुआ है।’ यह आज का सच है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। कल यह यदि आपदा में कोई अवसर ढूंढने का कोई औजार बन गया तो जाहिर है कुछ भी हो सकता है।
लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान दौर, अफवाहों, साजिशों और अनैतिकता को नैतिकता और देशद्रोह जैसी गतिविधियों को देशभक्ति का जामा पहनाने का दौर है। अक्सर सच्चाई वह नहीं होती, जो राजनीतिक मुखौटों से या दरबारी मीडिया द्वारा देश की मासूम जनता के सामने उन्हें छलने के लिए परोसी जाती है। यदि मौजूदा ऐपीसोड को संदेह के इसी नजरिए से देखें तो अदालत का यह फैसला ऐसे समय में आया है जहां कई राज्यों के चुनाव हैं। इसका सीधा-सा तात्पर्य है, जो जनता वर्तमान निजाम से विमुख हो गई थी, उसे पुन: लच्छेदार भाषणों व जुमलेबाजी के दम पर आपदा में अवसर तलाशने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। ऐसे में तथाकथित समाज के रहनुमा मासूम जनता का सौदा करने वाले नए-नए मुखौटों के साथ मैदान-ए-जंग में उतर आते हैं, जनता के वोटों का सौदा करते हैं और सत्ता के चरण चुंबक बन बैठते हैं।
मौजूदा आरक्षण सुप्रीम कोर्ट के फैसले को यदि सरल शब्दों में समझें तो 1 अगस्त को 7 जजों की बैंच ने जो फैसला दिया है उसकी सुनवाई के दौरान डीवाई चंद्रचूड़ ने स्पष्ट कहा है कि जिस प्रकार OBC को पिछड़ा और अति-पिछड़ा वर्ग में बांटा गया है, उसी तरह 7 में से 4 जजों ने अपनी राय देते वक्त तर्क दिया है कि SC-ST के संबंध में इस प्रकार की व्यवस्था की जा सकती है ताकि सब्सटेंटिव इक्वलिटी सुनिश्चित हो सके। सब्सटेंटिव इक्वलिटी से मतलब जिन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिला है, उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। यह निर्णय बाध्यकारी नहीं है और राज्यों को विशेष पारदर्शी व त्रुटि रहित प्रक्रिया के विषय में गाइड लाइन जारी हुई हें। जहां तक इससे जुड़ा मसला क्रिमीलेयर का है, इसका विरोध लगभग सभी पार्टियों ने किया है और इसे व्यवहारिक व संविधान में वर्णित आरक्षण की मूल भावना के विरुद्ध माना है।
इस निर्णय का दूसरा मसला आरक्षण के सब-कैटेगराइज़ेशन का मसला है। इसे लेकर सुविधाभोगी एससी-एसटी आक्रोशित हैं; और जो वर्षों से आरक्षण के लाभ से वंचित हैं, स्वाभाविक रूप से वे आनंदित हैं और होना भी चाहिए। मैं जातियों के नाम गिनाने का पक्षधर नहीं हूं इसलिए मैं आरक्षण के उप-विभाजन के पक्ष में वर्षों से रहा हूं। इसके विरोध में वह शख्स हो सकता है जो स्वानुभूति से शून्य होगा। जो महान विचारक स्वयं को अम्बेडकरवादी होने का दावा करते हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए कि उप-विभाजन के विरोध में वे जो तर्क दे रहे हैं, ये वही तर्क हैं जो सवर्ण समाज स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान डा. अम्बेडकर के विरुद्ध दे रहा था। जब बाबा साहब सामाजिक न्याय की आवाज उठा रहे थे। उस दौरान उन पर भी आरोप लगा था कि देश की आजादी के लिए सारा देश एकजुट हो रहा है, देश को आजाद कराना चाहता है और डा. अम्बेडकर देश को बांटने की बात कर रहे हैं। उन पर अंग्रेजों का समर्थक/पिट्ठू तक आरोप लगा। देश का गद्दार तक का आरोप लगा। आज आरक्षण के विरोध में जो हो रहा है, वह वर्णवादियों जैसा वही काम है जो अगड़ी दलित जातियां उप-विभाजन के संभावित लाभार्थियों के विरुद्ध समाज को बांटने का आरोप लगा रहे हैं। उन्हें संदेह और दुश्मन की तरह देखा जा रहा है। मैं पूरी जिम्मेदारी से कह सकता हूं कि ऐसे मसलों में विद्वेषपूर्ण भावना से ग्रस्त व्यक्ति अम्बेडकरवाद के नाम पर जो कुछ भी अनर्गल बातें कर रहे हैं, वे अम्बेडकरवादी नहीं हो सकते। बाबा साहब ने ऐसे व्यक्तियों का fissiparous यानी निजद्वैतवादी कहा है।
जबकि अधिकांश दलों ने क्रीमीलेयर सिद्धांत का खुलकर विरोध किया है, दलित समूहों के बीच विभाजन अब सार्वजनिक रूप से खुल गया है, संख्यात्मक रूप से शक्तिशाली समुदाय इस बात पर जोर देते हैं कि वर्गीकरण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, लेकिन हाशिये पर रहने वाले समुदाय जैसे बाल्मीकि या पारंपरिक रूप से मैला ढोने वाले समुदाय, मुशहर, डोम, मडिगा इस बात पर दृढ़ हैं कि उन्हें अलग कोटा मिलना चाहिए। इस पर आपका क्या विचार है?
सबसे पहले क्रिमीलेयर, जो दलित समाज में अभी बनी ही नहीं है, पर बात करना बे मायने हैं। दूसरे, तय है कि क्रिमीलेयर के मसले पर निर्विवादित रूप सभी इसके विरुद्ध हैं और किसी भी कीमत पर इसे लागू नहीं होने देना चाहते। लगभग सभी राजनीतिक दलों की भी इसके विरुद्ध प्रतिक्रिया आ चुकी है। लेकिन सबसे विवादित मसला उप-विभाजन का है। सुप्रीम कोर्ट के आंदोलनकारी वकील भी इसे संविधान के अनुरूप दिया फैसला नहीं मानते, वे इसे ओपिनियन के आधार पर दिया गया निर्णय मानते हैं। इसलिए उनका कहना है—‘हमें संविधान की ओपिनियन चाहिए। हमें ओपिनियन के आधार पर कोई जजमेंट नहीं चाहिए। (वैसे यह सभी जानते हैं कि अयोध्या के मामले में संवैधानिक पीठ ने बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने को आपराधिक कृत्य माना था लेकिन फैसला जनता की ओपिनियन के आधार पर आया। एक प्रकार से यह अपराधियों को पुरस्कृत करने जैसा कार्य बन कर रह गया।) हमें लगता है ऐसी ओपिनियन आधारित गतिविधियां, जिनका चलन आजकल काफी बढ़ गया है, संविधान की मूल भावना के पक्ष में नहीं हैं। यह संविधान के शासन के विरुद्ध लगती हैं। इसलिए वकीलों का तर्क है—‘कोई भी क्लासीफिकेशन संसद द्वारा होगा, न कि किसी अदालत या उसकी किसी बैंच के द्वारा। लेकिन इसके विपरीत उन्होंने अपने प्रदर्शन के दौरान एक कुतर्क भी किया—‘अगर उन्हें वाल्मीकियों की चिंता है तो 10-20 वर्ष से दैनिक वेतन/अस्थाई नौकरियां पक्की कर दें। उन्हें बरसों से कॉन्ट्रैक्ट पर क्यों रखा हुआ है?
इसी तर्ज पर चंद्रभान प्रसाद अम्बेडकरनामा यू-ट्यूब चैनल पर प्रो. रतन लाल को बताते है-यह उप-वर्गीकरण चमार व महार रेजिमेंट के विरुद्ध अभियान है। अगर उप-वर्गीकरण हो जाएगा तो चमार, महार आदि आरक्षण के लिए संघर्ष में रुचि नहीं लेगा और आरक्षण खत्म हो जाएगा। अगर चमार कमजोर पड़ जाएगा तो आरक्षण खत्म हो जाएगा या इसकी रक्षा नहीं हो पाएगी। उनका मानना है। वे यह स्वीकार करते हैं कि उप-वर्गीय चेतना और मन के स्तर पर तो विभाजन हो ही चुका है। अपने धारा प्रवाह में चंद्रभान प्रसाद दलितों की अगड़ी जातियों के महिमामंडन में खुद को कुतर्क की श्रेणी में आने से बच नहीं पाते। वे कहते हैं—‘पासी समाज के पास चमारों से कहीं अधिक जमीनें हुआ करती थी। पासी समाज के यहां ब्राह्मण वर्ग कथा एवं शादियों में जाया करता था। जब वाल्मीकि समाज, धोबी समाज और खटीक समाज के पास जब पैसा आया, वह उतने से ही खुश हो गए; मगर वे शिक्षा की ओर अधिक अग्रसर नहीं हुए।’ ये तर्क वे तर्क हैं जो जातिवादी/वर्चस्ववादी समाज हाशियाकृत समाज के मनोबल को तोड़ने के लिए प्रयोग करता आया है। सदैव बताता आया है—'हम कितने कर्मठ हैं और तुम कितने नकारा।’ मुझे प्रसाद जी का यह तेवर अम्बेडकर विरोधी नजर आता है।
चंद्रभान प्रसाद अपने अहंकार के चलते सातवें आसमान पर हैं और वे अम्बेडकरवाद का पहाड़ा कुछ इसी तर्ज पर पढ़ाते हैं—‘सबसे पहले चमार, जाटव, दोहरे, रविदास जाति के लोग, महाराष्ट्र में महार, माला समाज जातियों ने डॉ भीमराव अंबेडकर को आदर्श माना और शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया। क्योंकि पहले जो बाबा साहब के कैलेंडर छपते थे उनमें सबसे ज्यादा चमारों, महारों, माला जातियों के घर पर टंगे होते थे, उनमें लिखा होता था शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो। यानी शिक्षा का मंत्र उनके यहां पहुंचा और कैलेंडर पर लिखे होने से फलीभूत भी हो गया। बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के विचारों का मतलब स्कूल जाओ, कॉलेज जाओ, विश्वविद्यालय जाओ। जब शिक्षा होगी तो आपका विकास होगा। जो अंबेडकरवादी हो गये, उन लोगों में जो बहुत-सी बुराइयां समाज में थी, उनको उन्होंने छोड़ दिया। जब उन्होंने उन गंदे कामों को छोड़ा तो उनके सामने रोजी-रोटी की भी समस्या उत्पन्न हुई तो उन्होंने दिल्ली गाजियाबाद, मुंबई, कलकत्ता आदि बड़े शहरों में जाकर बड़ी-बड़ी फैक्ट्रीज में काम किया और अपने बच्चों को भी पढ़ाते रहे।’
यहाँ प्रसाद जी से मेरा एक मासूम-सा सवाल है—‘अम्बेडकरवादियों ने समाज में निरंतर पीछे छूट रही जातियों और समुदायों को वैचारिक रूप से शिक्षित-प्रशिक्षित क्यों नहीं किया? क्या यह नहीं मानकर चला जाना चाहिए कि दलित समाज की अगड़ी जातियों ने इन पिछड़ी जातियों के साथ तथाकथित सवर्णों जैसा अछूतपन नहीं बरता? इन्होंने बड़े भाई की भूमिका अदा क्यों नहीं की? अब जब सब-कैटेगराइज़ेशन की बात आ गई तो इसका विरोध क्यों? चंद्रभान प्रसाद अपने वक्तव्य में यही तो कह रहे हैं कि अगर उन्होंने अम्बेडकरवाद को अपनाया होता तो वे भी अगड़े दलितों के साथ होते। मतलब साफ है कि वे तभी से रिजर्वेशन बांटते, जब से यह लागू हुआ था। लेकिन जब इतने सालों बाद रिजर्वेशन बांटने की नौबत आ ही गई है तो इतनी परेशानी व हायतौबा क्यों? मुझे इसमें नैतिकता व ईमानदारी जैसा कुछ नहीं लगता। जब अम्बेडकरवादी वर्णवादी चरित्र से निरंतर लड़ रहें हैं तो चंद्रभान प्रसाद साहब की क्या मजबूरी है कि वे खुद उप-वर्गीय आरक्षण के संभावित लाभार्थियों को वर्णवाद का पहाड़ा पढ़ाने पर तुले हैं। मुझे लगता है बुद्धिजीवियों को जनता की भावना का सम्मान करना चाहिए; जनता को मूर्ख बनाने की मूर्खता तो राजनेताओं के लिए छोड़ देनी चाहिए।
मौजूदा संदर्भ में मैं पुन: योगेंद्र यादव को बीच में लाना जरूरी समझता हूं। उनका कहना है—‘मैं वाल्मीकियों के पक्ष में बोलना चाहता हूं। वे हरियाणा, पंजाब और यूपी जैसे कई राज्यों का जिक्र करते हुए बताते हैं कि यह लड़ाई अब रुकने वाली नहीं है। वे लोगों के साथ अपने बरसों के संपर्क के आधार पर कह रहे हैं। अब इन्हें दबाया नहीं जा सकता। ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरज पाल चौहान भी ऐसा ही कर रहे थे।
एक मान्यता के अनुसार—‘शिक्षा और नौकरियों में एक समान आरक्षण के अवसर मिलने के बावजूद जातियों का एक समूह पिछड़ गया है, आगे नहीं बढ़ पाया है, जबकि उसी कैटेगरी में आने वाली दूसरी जातियों का एक बहुत छोटा-सा समूह काफी आगे बढ़ गया है। इस फैसले के बाद अब ये संभव है कि राज्य सरकारें अपने यहां SC जातियों में सब-कैटेगराइज़ेशन करें. और ये तय करें कि SC को मिलने वाला आरक्षण SC जातियों के बीच कैसे बंटे. कुछ जातियों को अब प्रेफरेंशियल ट्रीटमेंट मिलेगा, उन्हें, जिन्हें इसकी ज़रूरत है. मेरा चंद्रभान प्रसाद और उनकी अपनी मंडली से आग्रह है कि वे ऐसे फतवे जारी न करें जैसे—‘विभिन्न प्रदेशों में जो मनुवाद के विरोध में लड़ाकू जातियां हैं, वे अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। अगर ऐसी जातियां अलग हो जाएंगी तो निश्चित रूप से 10-20 साल में ‘नोट फाउंड शुटेबल (एनएफए)’ के नाम पर आरक्षण को समाप्त कर दिया जाएगा।’ मुझे लगता है उप-विभाजन के लाभार्थी अम्बेडकर के ‘ब्रोकन पीपल’ की एकता में बाधक नहीं हैं। बाधक वे हैं जो वर्णवादी कुतर्क शास्त्र का पुनर्पाठ कर रहे हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि नौकरियों के लिए लड़ाई, विशेष रूप से सरकारी क्षेत्र में, केवल यह दर्शाती है कि हम उन पर कितना निर्भर हैं, जबकि यह ज्ञात तथ्य है कि 1990 के दशक के बाद ये नौकरियाँ शून्य हो गई हैं। निजीकरण बढ़ रहा है और सार्वजनिक उपक्रमों को भी निजी संस्थाओं को बेच दिया गया है। एलआईसी, राष्ट्रीयकृत बैंक, रेलवे भी निजीकरण की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन हमने कुछ अपवादों को छोड़कर बुद्धिजीवियों और नेताओं की ओर से शक्तिशाली आवाज़ें कभी नहीं सुनीं। इनके खिलाफ सबसे बड़ी लड़ाई वामपंथी ट्रेड यूनियनों ने शुरू की है, लेकिन ज्यादातर मामलों में एससी/एसटी ट्रेड यूनियनों को उनके साथ काम करने में भी असहजता महसूस होती है। निजीकरण की प्रक्रिया 1990 के दशक से शुरू हुई, लेकिन अंबेडकरवादी समूहों की ओर से हमें इसके विरोध में ज्यादा कुछ सुनने को नहीं मिला। उनमें से कुछ ने वास्तव में इसका समर्थन किया।
रावत जी, आप ठीक कह रहे हैं कि 1990 के दशक के बाद ये नौकरियां बहुत ही कम हो गई हैं। लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि 2014 के बाद से नौकरियों का अकाल-सा पड़ गया है। सभी जानते हैं कि आरक्षण खत्म करने के लिए क्या-क्या बेचा जा रहा है, किसको बेचा जा रहा है और क्यों बेचा जा रहा है? सभी यह भी जानते हैं जिन्हें नौकरी देनी है उन्हें लेटरल एंट्री से नौकरी दी जाती जो अन्य मन चाहे हजारों लाभार्थियों और सरकार के लिए अलग-अलग उपजाऊ जमीन तैयार करते हैं। यह भी किसी से छिपा कि सवर्ण समाज के लिए 10 प्रतिशत विशेष आरक्षण के निहितार्थ क्या हैं? सभी जानते हैं कि आज देश में खुला खेल फर्रुखाबादी चल रहा है। कह सकते हैं कि अपना देश कुछ-कुछ अंडरवर्ल्ड के एकछत्र साम्राज्य की तर्ज पर चलता नजर आता है।
अब सवाल नौकरी का है तो मांगने जाएगा कौन? हम तथाकथित ऐसे लोकतंत्र में जी रहे हैं जहां अपना हक मांगने वाले हजारों किसान मौसम के क्रूर थपेड़े झेलते हैं मगर उन्हें अपनी मेहनत के प्रतिफल का आश्वासन तक नहीं मिलता। क्रूरता की पराकाष्ठा तो तब हो जाती है जब सैंकड़ों किसानों की जान चली जाती है लेकिन कोई पूछने वाला नहीं। एनआरसी, सीएए आंदोलन में पूरा देश सड़कों पर होता है, मौसम की मार झेलता है लेकिन पत्थर दिल हृदय पिघलने का नाम नहीं लेते। नोटबंदी के कहर से कौन वाकिफ नहीं है, परिणामस्वरूप, देश शहंशाह आलम के रहमोकरम पर ही चलेगा। मैं मणिपुर और महिला पहलवानों पर यहां बात नहीं करना चाहता; और क्या-क्या गिनाऊँ, नौकरी मांगने में लाठी खाने वालों की कमी नहीं है लेकिन परिणाम क्या? जिस देश में न्याय (?) बुलडोजर से मिलता हो और लगभग सभी न्याय के दरबार बापू के बंदर बने नजर आएं तो कौन करेगा आंदोलन, कैसे होगा आंदोलन?
जहां तक नौकरी मांगने या पेंडिंग आरक्षण पूरा कराने का सवाल है, अम्बेडकरवादी भी उसी हाड मांस का बना है जिसके पैरोकार न्याय के दरबार तब बने हैं। जहां लगभग सारे राजनीतिक दल डर से कपाल भांति कर रहे हैं, जहां विश्व विख्यात सबसे सशक्त किसान आंदोलन लगभग घुटने टेक चुके हैं तो अम्बेडकरवादियों की क्या मजाल कि वह सत्ता के सामने नौकरी के लिए ताल ठोके। जहां तक अम्बेडकरवादियों का वामपंथी ट्रेड यूनियनों के साथ आंदोलन में सहयोग का प्रश्न है, वे दलित समाज का विश्वास जीतने कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। वहां जाति का प्रश्न गूंगा जैसा बना नजर आता है। इसकी दूसरी बड़ी वजह यह भी है कि अम्बेडकरवादियों भी अंधभक्ति के अद्भुत प्रतिमान पेश करते हैं। उदाहरण के लिए—‘ 12.12.1945 में नागपुर में डा. अम्बेडकर ने मार्क्सवादियों की आलोचना की थी, क्योंकि उन्होंने अपनी मजदूरों की अलग पार्टी बनाने की अपेक्षा कांग्रेस में शामिल होने की बात की। वे कहते हैं-कम्युनिष्टों से सावधान रहो। शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन अनुसूचित जातियों की एक मात्र सच्ची प्रतिनिधि संस्था है।’ ऐसे और भी अनेक उदाहरण हो सकते हैं जब बाबा साहब ने किन्हीं मुद्दों पर मार्क्सवाद से खुद का अलगाने की बात की है। बस स्वघोषित अम्बेडकरवादियों के लिए ऐसी बातें यह पत्थर की लकीर हैं; इस लकीर में डा. अम्बेडकर भी दोबारा लौट कर आ भी जाएं और इसे बदलना चाहें अगर, वे इसमें कोई बदलाव नहीं कर सकते। चलिए छोडि़ए, लेकिन वर्तमान परिदृष्य में तथाकथित अम्बेडकरवादी यहां भी उसी लकीर को पकड़े है कि बाबा चाहते तो महारों के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था कर सकते थे। उन्होंने ऐसा नहीं किया तो हम कैसे कर सकते हैं? वैसे उप-विभाजन के मामले में वे बहुत कुछ कर सकते हैं लेकिन यह उन्हें घाटे का सौदा लगता है, इसलिए वे आरक्षण उप-विभाजन कुछ करने वाले नहीं है। जो करना है, सरकार को करना है।
प्रसाद जी लोकप्रिय शख्सियत है, जाहिर है वे हमेशा ऊंची उड़ान में ही रहते हैं। एक तरफ वे हर मंच पर ‘दलित विचारक’ के लेबल के साथ बैठते हैं और उन्होंने कोट को अपना सुरक्षा कवच जैसा बना रखा है; क्योंकि उनका मानना है कि बाबा साहब ने ऐसा कुछ कहा था। जब वे चंडीगढ़ के एक स्कॉलर का उदाहरण देते हैं तो लगता है कि उन्होंने अम्बेडकरवादी कोट उतार दिया है। वे बताते हैं—‘एक अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में एक छात्र ने बहुत अच्छे अंकों से परीक्षा पास की थी। जब कॉलेज में प्लेसमेंट होता था तो उसे कॉलेज के जनरल समाज के बहुत कम अंकों से पास हुए बच्चे अच्छे-अच्छे पैकेज पर फैक्ट्री में चले जाते थे लेकिन दलित समाज के बच्चे को सभी नकार देते थे। उसका कारण था जाति कॉलम। दलित समाज का छात्र बहुत ही दुखी था क्योंकि उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसके जूनियर कम अंकों से पास हुए हैं फिर भी अच्छे पैकेज पर जा रहे हैं, वह क्यों नहीं सेलेक्ट होता है तब उसने किसी दलित समाज के विद्वान व्यक्ति (संभवत: प्रसाद जी) से पूछा इसका क्या कारण है तब उसे दलित समाज के विद्वान ने बताया की तुम्हारा जाति कलम ही आड़े रहा है। अब की बार जब भी प्लेसमेंट कॉलेज में हो तो अपने आवेदन में जाति कलम हटा देना। उस कॉलेज में प्लेसमेंट के लिए कंपनी आई और उसको सेलेक्ट कर लिया और उसे कॉलेज के इतिहास में सबसे हाईएस्ट पैकेज पर वह गया।’
वे इतने पर ही नहीं रुकते और फिर दूसरी ऊंची उड़ान भरते हैं—‘आज भी हिंदुत्व काल में वोटों की राजनीति में आपको हिंदू मानते हैं, लेकिन आज भी एक चाय का होटल खोल लीजिए और अपनी जाति का बोर्ड आगे टांग दीजिए। हो सकता हो आपके होटल में लोग तोड़फोड़ करने आ जाएं। नहीं तो पूरे दिन में एक दो लोग ही आपके यहां चाय पीने आएंगे।’ अब पाठक खुद ही सोचें कि प्रसाद साहब कैसे अम्बेडकरवादी है, कैसे अस्मितावादी है? एक ओर अम्बेडकवाद को अपनी और अपने समाज की सारी योग्यता, सफलता व महानता का श्रेय देते हैं तो दूसरी और गुलाटी मार कर ‘पुन: मूषक भव’ यानी अपने खुद के अवसरवादी हेलीपैड (नए अम्बेडकरवाद) पर लैंड कर जाते हैं, क्यों?
क्या आपको लगता है कि राजनेता और बुद्धिजीवी उन समुदायों की भावनाओं को शांत करने के लिए कुछ और कर सकते थे, जो पूरे आरक्षण ढांचे में खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। क्या ये बुद्धिजीवी राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं की तरह व्यवहार कर रहे हैं? आज दलित आंदोलन पूरी तरह से विभाजित है और हाशिए पर पड़े समूहों को लगता है कि उनके विकास में सबसे बड़ा खलनायक उनके अपने भाई-बहन हैं।
यह अपने आप में रेखांकित करने वाला मसला है। राजनेता और बुद्धिजीवी, (मैं अपवादों की बात नहीं कर रहा हूं) दोनों के बीच एक अघोषित समझौता जैसा कुछ हो गया लगता है। इनकी दुनिया ‘एक-दूसरे की पीठ खुजलाने तक सीमित हो कर रह गई है।’ इसलिए इनकी भाषा, बौद्धिकता और नैतिकता का कोई विश्वसनीय पैमाना नहीं रह गया है। चंद्रभान प्रसाद जी का मानना है—‘कुछ जातियां बंटवारे को लेकर बहुत खुश हैं। उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि चमार, महार, माला समाज अगर कमजोर होगा तो संघर्ष कौन करेगा। जो लोगों को दलितों के पक्ष में काम करने का ढोंग कर रहे हैं और कह रहे हैं कि बटवारा सही है, तो ऐसे लोग वह है अगर कोई दलित गधे की सवारी करता है तो तालियां बजाते हैं अगर कोई दलित घोड़े की सवारी करता है तो उस पर लाठियां बरसाते हैं।’
वे अपनी विद्वता और सामने वाले को स्वत: अज्ञानी की श्रेणी में मानकर चलते हुए टिप्पणी करते हैं—‘आज भी दलित समाज से मंदिर जाने में मारपीट होती है। घोड़े पर दूल्हा बनकर चढ़ने में मारपीट होती है, कोई दलित अच्छी मूंछ रख ले तो उससे मारपीट होती है और अंत में मैं यही कहूंगा आप सभी लोग मिलकर पहले आरक्षण पूरा करवा लें। नहीं तो आप कितने ताकतवर हैं आपकी कोई औकात नहीं है। जब देश के राष्ट्रपति को भी मंदिर में न घुसने दिया गया हो, ऐसे समाज से क्या उम्मीद की जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट से क्या उम्मीद की जा सकती है जिसमें एक ही जाति का बोलबाला हो।’ इसका सीधा व सरल जो अर्थ निकलता है कि उप-विभाजन के दावेदार उप-कोटा की लड़ाई छोड़ कर आरक्षण पूरा कराने की लड़ाई में लग जाएं। परिणामस्वरूप, ‘न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।’
गौरतलब है, राजनीतिक दल जो फैसला करते हैं अपना वोट बैंक को सुनिश्चित करने की दृष्टि से ही करते हैं। उन्हें वास्तविक/सार्वभौमिक न्याय से कोई लेना देना नहीं होता। जो चुनकर संसद या विधान सभाओं में बैठे हैं, वे भी कमोबेश दलितों के सुविधाभोगी ही हैं, इसलिए वे चुप हैं और आरक्षण को पुराने ढर्रे पर ही चलाए रखना चाहते हैं। वे अपनी भाषा खुद न बोलकर अपने माउथपीस यानी तथाकथित बुद्धिजीवियों/अम्बेडकरवादियों से काम कराते हैं। इनकी अपनी पार्टी का इन पर दबाव है। यह हार-जीत की सौदेबाजी का मसला है, न्याय का नहीं है। उन्हें जनता की पीठ पर सवार होकर राजनीति करनी होती है, उसके आंसू पोंछना या जख्मों पर मरहम लगाना, इनका काम नहीं है। काफी अरसे से जो स्थिति मुसलमानों की है जो शुत्रमुर्ग की तरह रेत में मुंह गढ़ाए बैठे हैं, मॉब-लिंचिंग पर भी मौन हैं, वे बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर मौन हैं। वे इस कृत्य को अपराध माने जाने के बावजूद, इसे राम समर्थकों को दे देने पर किसी ने उफ तक नहीं की।
मुझे लगता है कि कमोबेश आज आरक्षण के उप-विभाजन का लाभार्थियों की स्थिति भी वैसी ही होकर रह गई है जैसी की भारतीय मुसलमानों की। कह सकते हैं कि हाशिए पर पड़े समूहों को लगता है कि उनके विकास में सबसे बड़े खलनायक उनके अपने भाई और बहन हैं। न ठीक से कुछ निगले बनता है और न ही उगले; अब देखना यह है कि ऊंट किसी करवट बैठता है? चंद्रभान जैसे महान चिंतक ऐसे ज्वलंत माहौल में उप वर्गीकरण के संबंध में वाल्मीकियों की ओर इशारा करते हुए कहते है-‘ये उन्हें बंदूक दिलाना चाहते हैं, जिन्हें बंदूक चलाना आता ही नहीं।’ यह वर्णवादी भाषा हाशियाकृत समाज के खिलाफ तब से बोली जा रही है, जब से आरक्षण लागू हुआ है। पाठक वर्ग खुद ही तय करें कि हमारे बुद्धिजीवी आग में पेट्रोल डाल रहे हैं या पानी?
इस तथ्य को क्यों भुलाया जा रहा है कि विभिन्न समुदायों ने जो उप कोटा की मांग की है वह एक बहुत पुरानी मांग है, आखिर इसका इतना विरोध क्यों है? प्रमुख समुदायों और उनके प्रवक्ताओं का पूरा ध्यान यह रहा है कि ब्राह्मण और सवर्ण उन्हें विभाजित करने की कोशिश कर रहे हैं? मान लें कि सवर्ण विभाजित एससी चाहते हैं तो इन नेताओं और बुद्धिजीवियों ने उन्हें एक साथ लाने के लिए क्या किया है? आप सिर्फ़ ब्राह्मणों को हर बात के लिए दोषी ठहराकर किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकते? क्या यह ब्राह्मणवाद नहीं है जब आप अपने भाई-बहनों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करते हैं? आप उन्हें अपने तथाकथित न्यूज़ चैनलों में बुलाते हैं और उन्हें अपमानित करते हैं? क्या समानता और एकता लाने का यही तरीका है?
उप-विभाजन का मसला कोई नया नहीं है, एक जानकारी के अनुसार—‘1975 में पंजाब में कांग्रेस की ज्ञानी जेल सिंह सरकार ने SC कैटेगरी में आधा सीटों का कोटा (First preference) मजहबी सिख व वाल्मीकि जातियों को देने का फैसला किया था, यह 2006 तक चला, जब पंजाब एवं हरियाणा कोर्ट ने रोक लगा दी। तब इसके विरोध में पंजाब में बहुत बड़ा आंदोलन हुआ। वाल्मीकि एवं मजहबी सिख को कोटा रखने के लिए कांग्रेस की अमरिंदर सिंह सरकार The Punjab Scheduled Castes and Backward Classes (Reservation in Services) Act, 2006 कानून लेकर आई।’
इस कड़ी में एक अन्य जानकारी यह भी साझा की जा सकती है—‘2010 में चमार महासभा के देविन्दर सिंह के चुनौती देने पर हाईकोर्ट ने 50% कोटा देने की धारा 4(5) पर रोक लगा दी। 2010 में पंजाब सरकार सुप्रीम कोर्ट गई। फिर यह केस 5 जजों की बैंच से होता हुआ 7 जजों की बैंच में गया और फरवरी 2024 से इस देविन्दर सिंह बनाम पंजाब सरकार केस की सुनवाई शुरू हुई। इस तरह इस केस में 1 अगस्त को राज्य को वर्गीकरण की स्वतंत्रता देने का निर्णय आया। राज्य द्वारा कोटा दी जाने वाली जातियों की स्थिति की जांच कोर्ट भी कर सकती है।’
यदि हम रिजर्वेशन को ब्लागर आकाश सिंह (5 अगस्त 2024 ) के नजरिए से देखें तो भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में से है, जहां समानता का हक संविधान बनते ही दे दिया गया था. पश्चिम के कई देशों में चमड़ी के रंग या जेंडर के आधार पर भेदभाव आधुनिक काल तक चला. लंबे आंदोलन के बाद वहां संविधान संशोधन हुए, नए कानून बने और सभी नागरिकों को समान माना गया. भारत में ये स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही तय हो गया था कि आज़ादी मिलने के बाद कोई बड़ा-छोटा नहीं होगा. इसीलिए जब संविधान लिखा गया, तब अनुच्छेद 14 से लेकर 18 में बार-बार बराबरी के हक की बात हुई. मतलब हर शख्स कानून या सरकार की नज़र में बराबर है. अब समानता सुनने में तो बहुत अच्छा सिद्धांत है. लेकिन इसके कुछ असर भी होते हैं.
दीगर सवाल यही है कि हम जानते हैं कि सामने वाला वर्णवादी हमें बांटना कर अपना उल्लू सीधा करना चाहता है और सदियों से यही चल रहा है और हम इसके शिकार हो रह हैं। हमारे देश की सरकारें भी कमोबेश जनता को आपस में बांटने व लड़ाने से ही बनती बिगड़ती हैं। इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि ब्राह्मणवाद समाज में हर जगह बैठा वह बंदर है जो बिल्लियों को लड़ाता है और उनके हिस्से की सारी रोटी भी खुद ही खा जाता है। चंद्रभान इसे मायावती के संदर्भ में कहते हैं—‘आरएसएस दलितों से चक्रवद्धि ब्याज वसूल रहा है।’ वही चंद्रभान प्रसाद दूसरी तरफ कहते हैं कि दलित किसी से दबे नहीं।’
मैं कभी इस पक्ष में नहीं रहा कि हर विवाद के लिए ब्राह्मणवाद को दोषी ठहराया जाए। जब हमें बंदर के चरित्र का पता है तो यह हमारी नासमझी है, मूर्खता है कि हम अपनी रोटी पर उसे कब्जा करने देते हैं। लेकिन अम्बेडकरवादी भी जो अपने को बाबा साहब के पहले सूत्र के अनुसार शिक्षित बताते हैं, पहले कदम पर फेल हो रहे हैं, संघर्ष करना और संगठित होना तो बाद की बात है। अगर हम शिक्षित होते या हो गए होते तो बंदर हमारी रोटी की ओर देखने तक का साहस नहीं कर सकता था। हमारा उप-वर्गीकरण के मसले पर इतना शोर-शराबा यही बताता हैं कि हमने बंदरों के सामने समर्पण किया हुआ है और हमने सीखकर भी कुछ सीखा नहीं है।
मेरे इस संबंध में कुछ प्रश्न है:
1. आज चमार, पासी, महार वगैरा बहुसंख्यक हैं, तुलनात्मक रूप में दबंग हैं तो वे कमजोर दलितों के आरक्षण का विरोध क्यों कर रहे हैं? सदियों से चले आ रहे वर्णवादियों के इस विभाजनकारी फार्मूले में नया क्या है?
2. क्या आदमी आज अपनी नादानी के चलते मात्र ‘जाति’ होकर नहीं रह गया है, जो सारे विवादों की जड़ है?
3. जो राजनेता आरक्षण के दम पर चुन कर आए हैं, वे मौन क्यों हैं? उनकी अपनी राय क्यों नहीं है?
4. वे कौन लोग हैं, जो बिना किसी ठोस पहचान के भारत बंद करने की साजिश करते हैं?
5. वे कौन है जो सारा तमाशा डा. अम्बेडकर और अम्बेडकरवाद के नाम पर करते हैं?
6. चंद्रभान प्रसाद का इरादा क्या है जब वे कहते हैं—‘चमार ने कभी आत्मसमर्पण नहीं किया। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब हिटलर की रॉयल आर्मी आयी तो चमारों को भेजने का निर्णय लिया क्योंकि जिन्हें लाठी उठाने का हक नहीं मिला। अगर उन्हें राइफल दे देंगे तो वो दुश्मन को हरा देंगे। इस लिए चमार रेजिमेंट का गठन हुआ। चंद्रभान प्रसाद को स्पष्ट करना चाहिए कि आज वे किसे राइफल थमाना चाहते हैं और कौन नई रेजिमेंट बनाना चाहते हैं और किसे युद्ध में हराना चाहते हैं? मुझे लगता है कि हमें ऐसे ज्वलंत प्रश्नों के रूबरू होने की सख्त जरूरत है।
क्या ‘बुद्धिजीवियों’ और ‘राजनेताओं’ में यह डर है कि अगर वे अपने समुदाय के ख़िलाफ़ बोलेंगे तो उनका बहिष्कार किया जा सकता है या उन्हें राजनीतिक रूप से बर्बाद किया जा सकता है? क्या ऐसे लोग नहीं हैं जो खड़े होकर सच बोल सकें?
इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए मैं रूसो के सामाजिक संविदा Social Contract के पहले वाक्य को याद करना चाहता हूं, जिसमें वे कहते हैं—‘Man is born free and everywhere he is in chains. अर्थात मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है और हर जगह वह जंजीरों में जकड़ा है।’ मौजूदा संदर्भ में मुझे गब्बर का डॉयलाग याद आता है—‘‘जो डर गया समझो मर गया।’ हम गब्बर के संदर्भ से इत्तेफाक नहीं रखते, मगर यह हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों और राजनेताओं की मानसिक गुलामी और उनके डर पर फिट बैठता है। मैं ठीक से कह नहीं सकता कि ये डरे हुए लोग, जिंदा हैं या मर गए हैं। हां, इतना यकीन से कहा जा सकता है कि इनका जमीर वेटिलेटर पर जरूर हैं। मैं फिर दोहरा दूं कि यहां अपवादों की बात नहीं हो रही है।
जिसे खुद पर भरोसा नहीं होता वह हमेशा ही डरा रहता है। हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी और राजनेता निस्संदेह बड़े व्यापारी हो गए हैं। इनका हर कदम शादी के घोड़े जैसा है; वह तभी आगे बढ़ता है जब सामने नाच कूद के बाद नोटों की बरसात होती है। बस ऐसा ही कुछ मसला हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों और राजनेताओं का है। जातिवाद के वशीभूत चंद्रभान साहब का तर्क है कि आरक्षण के उप-विभाजन से जब चमारों का नशा उतरेगा तो उप-विभाजन वालों पर नशा चढ़ेगा, जिन्हें आरक्षण का लाभ मिलेगा; और 10-20 साल बाद जब आरक्षण खत्म हो जाएगा तो सब का नशा उतर जाएगा। वे कहना चाह रहे हैं कि आरक्षण अगर मौजूद है तो यह पासी चमारों जैसी लड़ाकू-/संघर्षशील बिरादरियों की वजह से जिंदा है। वे पुनः लॉलीपाप थमाने के अंदाज में कहते हैं—‘दलित समाज हार्वर्ड में पढ़ाई के बारे में क्यों नहीं सोचते? ये नोबेल पुरस्कार पाने का क्यों नहीं सोचते? आईएएस की औलाद भी व्यापार की क्यों नहीं सोचते? नौकरी की क्यों सोचते हैं? ये व्यापार की क्यों नहीं सोचते?...वगैरा-वगैरा।
प्रसाद जी भूल जाते हैं कि उन्होंने अभी-अभी कौन-सा फतवा जारी किया था और जल्दबाजी में दूसरा फतवा जारी कर देते हैं—‘ब्लैक अफ्रीकन के पैरों में बेडि़यां बंधी थी लेकिन आज वे 100 मीटर की दौड़ में सबसे आगे निकल जाते हैं। क्या प्रसाद साहब उप-विभाजन के पैरों में बेडि़यां इसलिए डालना चाहते है कि वे उन्हें ब्लैक अफ्रीकन की तरह जीवन की दौड़ में सबसे अच्छे धावक बनाना चाहते हैं? प्रसाद जी पूछा जा सकता है कि जब उनके पैरों में सदियों से बेडि़यां ही पड़ी हैं तो वे आज तक महान धावक कैसे नहीं बने? वे उप-विभाजन के लाभार्थियों को और बेडि़यां क्यों पहनाना चाहते हैं? अंतत: वे अपने पत्ते खोलते हुए बताते हैं—‘ चमार महार आदि अन्य समाजों से आगे निकल गए हैं। सबसे पहले चमार अंबेडकरवादी हुए इसलिए इन्होंने तरक्की की। चमारों पर प्रतिबंध लगा कि जानवरों की खाल न उतारें और उनका मांस न खाए, इसलिए वे आगे बढ़ गए। सफाई वाले की दूसरी पीढ़ी भी वही काम कर रही है क्यों? वाल्मीकियों ने ऐसा क्यों नहीं किया। वे वाल्मीकियों पर आरोप लगा रहे हैं। वे फैक्ट्री में काम क्यों नहीं करते। धोबी फैक्ट्री नहीं जाते, प्रेस करते है। जो वाल्मीकि आदि खुशी मना रहे हैं, उनका भी दस-बीस साल में खत्म हो जाएगा। हमारा मानना है कि यह स्टेटमेंट बेहद गैर जिम्मेदाराना व पूर्वाग्रही है। ‘वे एक सीएम का जिक्र बार-बार करते हैं कि वे गांजा पीए रहते हैं, अभी दिल्ली में मंत्री बने हैं। वे किसी चपरासी भी नहीं बना पाए।’ सभी जानते हैं, वे किसे कह रहे हैं लेकिन फिर भी बिना नाम लिए बोले जा रहे हैं।
अगर गरीबी ही दूर करनी है तो सबको रोजगार मुहैया कराते, सभी को रोजगार का अधिकार क्यों नहीं है? कुछ कम्युनिटी इतनी पिछड़ी क्यूं है? यह सरकार की असफलता है, इसका ठींकरा आरक्षण के सिर पर क्यों फोड़ा जा रहा है। सरकार के सारे पक्षों का उल्लेख और समीक्षा होनी चाहिए। आरक्षण भटकाने का काम, उद्धार करने वाले कौन? जो आरक्षण पूरा नहीं कर सकते, वे आगे बढ़कर गरीबी उन्मूलन के प्रयास नहीं करेंगे। आज आरक्षण का मुद्दा गरमाना कही चुनाव के नए अखाड़े की पृष्टभूमि तो नहीं है? आरक्षण भटकाने का काम आरक्षित सीट पर बैठे लागों का वर्गीकरण करने का जिम्मा क्यों नहीं उठाते? अभी तक साढ़े दस प्रतिशत आरक्षण पूरा हुआ है, बारह प्रतिशत अभी तक पूरा नहीं हुआ। हो सकता है कि अति दलित भी इसका लाभ उठाकर अति दलित की श्रेणी से बाहर आ जाते।
हम सभी आनुपातिक प्रतिनिधित्व की वकालत करते रहे हैं। ऐसा आभास दिया जा रहा है जैसे वाल्मीकि और दूसरे समुदायों को सिर्फ शामिल किया गया है और वे दूसरों का कोटा खा जाएँगे?
रावत जी, अगर यही सवाल मैं पलट का पूछूं-क्या अब से पहले प्रमुख दलित लाभार्थी, उप-विभाजन के लाभार्थियों का कोटा खा नहीं रहे थे? अगर वे नहीं खा रहे थे तो उप-विभाजन के लाभार्थी भी दूसरों का कोटा कैसे खा सकते हैं। अगर वे खाएंगे तो अपने हिस्से का, फिर किसी को एतराज क्यों? लेकिन एतराज और कुतर्क बराबर जारी हैं। इस कड़ी मैं अम्बेडकरनामा पर प्रो. रतन लाल द्वारा एडवोकेट डा. सुरेश माने, (बीआरएसपी) को बीच में लाना चाहता हूं। माने के अनुसार—‘बाबा साहब न ब्रोकन पीपल को जोड़ने की बात की थी उनको सुप्रीम कोर्ट का फैसला पुन: लोगों-समाज को तोड़ने का प्रयास कर रहा है, मेरा सवाल अलग है। आरक्षण सभी अनुसूचित और जनजातियों की एकता की प्रतीक है। उप-विभाजन को आरक्षण तोड़ने का तरीका कहना शरारतपूर्ण है।
जहां तक एकता बनाए रखने का सवाल है। हिन्दू भी तो दलितों को अपना कहते हैं लेकिन व्यवहार में क्या? उप-विभाजन का मतलब अम्बेडकरवाद से नाता खत्म हो जाना नहीं है। आरक्षण समर्थकों के तर्क उतने ही खोखले हैं जितने जातिवादियों के होते हैं। बाबा साहब चाहते थे कि समाज का एक आधार बने। लेकिन एक परिवार में भी अनेक प्रकार की शारीरिक व आर्थिक असमानताएं होती हैं लेकिन परिवार के नाम पर आपस में कंपनसेट करना होता है। फिर अम्बेडकरवादी परिवार में कुछ ऊंच-नीच है तो आपस में निपटकर परिवार (अम्बेडकरवादी) की एकता बनाए रखने की जरूरत है। ऐसा नहीं कि आर्थिक प्राथमिकताओं के चलते अम्बानियों की तरह अपनी माता श्री को अदालत में लाकर खड़ा कर दें।
मुझे लगता है वाल्मीकि भी इसी रणनीति पर काम कर रहा है और यही सबसे उपयुक्त रणनीति है। आजकल हमारे नेता संसद और मंचों पर ऐसे चीखते-चिल्लाते हैं जैसे कोई अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति चीखते-चिल्लाते हैं। जिसे खुद पर भरोसा है और वह नैतिक है तो उसे चीखने-चिल्लाने और किसी बाहुबली जैसा प्रदर्शन करने की जरूरत नहीं है।
हमें इन चीखने-चिल्लाने वालों के झांसे में नहीं आना है और अपनी दूरदृष्टि का परिचय देते हुए आपसी सौहार्द बनाए रखना है। अम्बेडकरवाद उप-विभाजन का समर्थन करता है और अली अनवर की तर्ज पर पसमांदा यानी जो पीछे छूट गया है, यह हमारी जिम्मेदारी है कि उसे अपने साथ लाएं। आरक्षण का आधार यही है और यही अम्बेडकरवाद है।
हमने कई कार्यकर्ताओं को गालियाँ देते हुए भी देखा है जो विशेष रूप से मैला ढोने वाले समुदाय के लोगों के लिए उप-कोटा का समर्थन करते रहे हैं? ये गालियाँ वैसी ही हैं जैसी सवर्ण दलितों के साथ करते हैं। क्या यह हमारे जाति आधारित दृष्टिकोण को उजागर नहीं करता है?
कहने की जरूरत नहीं कि आज का समाज मनोदैहिक विकार (Psychosomatic Disorder) से पीडि़त है। उसमें सार्वभौमिक नैतिकता और ईमानदारी से सोचने की शक्ति क्षीण हुई है। वर्तमान राजनीति ने कर्णधारों ने राजनीति को इतने नीचे गिरा दिया है कि सोचने से भी ग्लानि होती है। समाज की बात छोडि़ए राजनीतिक मंचों, विधान सभाओं और संसद में माननीयों की टिप्पणियां व भाव भंगिमा इतने निचले स्तर की होती है कि कोई भी जिम्मेदार नागरिक शर्म से पानी-पानी हो जाए। सत्ता ने जनता के एक वर्ग विशेष को इस स्तर तक मानसिक दिवालिया व अंधभक्त बना दिया है कि इसकी ट्रोल आर्मी सर्वोच्च न्यायालय की भी गरिमा को तार-तार करने में जरा भी संकोच नहीं करती। मीडिया का जैसे कोई चरित्र बचा ही नहीं है। इसलिए किसी भी साधारण से मसले पर गाली-ग्लोज होना नया नॉर्मल हो गया है। ओबीसी के आरक्षण के चलते वीपी सिंह ने भी गालियां खाई हैं, उन्हें मानसिक रूप से बीमार तक बताया गया लेकिन बंदे में दम था कि पीछे नहीं हटा। भले ही आज देश उन्हें सम्मान न दे, कोई फर्क नहीं पड़ता।
ऐसे में उप-कोटा के लाभार्थी किसी खेत की मूली हैं। वैसे भी दलितों को तो सामान्य परिस्थितियों में रोजमर्रा की जिंदगी में अस्मिता पर रोज नए-नए आक्रमण झेलने पड़ते हैं। गालियों का सवर्ण जैसा होना दलितों के ब्राह्मणवाद को दर्शाता है। भले ही हम किसी अन्य धर्म में धर्मांतरित क्यों न हो जाएं, जातीय चरित्र अपने सार्वभौमिक सत्य से जरा भी विचलित नहीं होता।। यह मुझे स्वतंत्रता संग्राम की याद दिलाता है जब अंग्रेजों ने कहा था कि भारतीय लोग असभ्य हैं। इसलिए हमें इन पर तब तक शासन करने की जरूरत है, जब तक ये सभ्य नहीं हो जाते। वैसे आज हम विश्वगुरु हो गए हैं, मगर यह शोध का विषय हो गया कि किस मामले में?
मैं इन गाली देने वालों और उप-विभाजन के विरुद्ध फतवे जारी करने वालों की समझ को दुरुस्त करने के लिए ब्लागर आकाश सिंह के 5 अगस्त 2024 से एक उदाहरण साझा करना चाहता हूं। इसके अनुसार—‘ तीन लोग हैं. A, B और C उन्हें एक 5 फीट ऊंची दीवार के पार देखना है. अब A की हाइट 3 फीट है. B की हाइट 4 फीट है और C की हाइट साढ़े 5 फीट है. ज़ाहिर है, A को दीवार के पार देखने के लिए किसी बक्से पर चढ़ने की ज़रूरत पड़ेगी. अगर आप इक्वालिटी या समानता की रूढ़ समझ से आगे बढ़ेंगे, तो आप सभी को 1.5-1.5 फीट के बक्से दे देंगे. तब देखिए क्या होगा. B जो है, जिसकी हाइट चार फीट है, वो बक्से पर खड़ा होकर दीवार के पार देख पाएगा. C, जो कि दीवार के पार यूं ही देख सकता था, उसके पास बक्सा बेकार पड़ा रहेगा. और A, बक्सा मिलने के बावजूद दीवार से छोटा ही रह जाएगा.
हमने देखा कि इक्वैलिटी या समानता अच्छा सिद्धांत है. लेकिन सिर्फ इसी चीज़ को ध्यान में रखकर नीति बनाने से सभी को फायदा हो, ये ज़रूरी नहीं है. और सरकार का तो काम है सभी के लिए काम करना, इसीलिए संविधान निर्माताओं ने उसे इक्वैलिटी के साथ-साथ ईक्वल प्रोटेक्शन ऑफ लॉ के सिद्धांत से भी बांधा. ईक्वल प्रोटेक्शन ऑफ लॉ का सिद्धांत कहता है कि C को बक्सा मत दो. बी को डेढ़ फीट ऊंचा बक्सा दो. और A को ढाई फीट ऊंचा बक्सा दो. माने सरकार सभी की समान सहायता करे, उससे काम नहीं चलेगा. सरकार को सहायता ऐसे देनी है कि अंत में समानता स्थापित हो. इसी समानता को स्थापित करने का टूल है आरक्षण या अफर्मेटिव एक्शन। हम जानते हैं कोई भी उदाहरण दो लेकिन जिनकी नीयत में फितूर है वे कभी सुधरने वाले नहीं हैं। मैं आह्वान करता हूं कि आइए गाली खाने के लिए अपने कानों के पर्दे और दिमाग को पहले से दुरुस्त कर लें।
जाति विरोधी आंदोलन अब कहां है? क्या आपको लगता है कि ऐसा कभी नहीं हुआ क्योंकि हम सभी अपनी जातिगत जटिलताओं से पीड़ित थे और खुद को अपनी जातियों तक सीमित रखते थे? अन्य सबसे हाशिए के समुदायों तक पहुंचने का कोई प्रयास नहीं किया गया है? अनुसूचित जातियों में भी अंतरजातीय विवाह नहीं होते हैं? हम हर चीज के लिए ब्राह्मणों को दोषी ठहराते हैं, लेकिन जातिविहीन समाज बनाने के लिए हमारे अपने मोर्चे पर क्या किया गया है?
भाई रावत जी, हम निरंतर जातिवादियों/ब्राह्मणवादियों को दोष देते हैं लेकिन जातियों की लड़ाई लड़ते-लड़ते हम खुद घोर जातिवादी हो गए हैं। हम अपनी जातियों के इतिहास लिखने लगे हैं, खुद की शासकीय वंशावली का मन चाहा निर्माण करने में लगे हैं। यह जातिवादियों की सबसे बड़ी विजय है कि ‘हल्दी लगे न फिटकरी’ की तर्ज पर जातिवादियों को दलितों को आपस में बांटने का मकसद खुद-ब-खुद पूरा हो रहा है। ये वहां पहुंचने की कोशिश नहीं कर रहे जहां जातियां थी ही नहीं। ये वहां नहीं पहुंच रहे जहां जातिविहीन समाज था और कितना शांतिप्रिय, खुशहाल व प्रगतिशील था। मजे की बात है कि यह काम खुद तथाकथित अम्बेडकरवादी कर रहा है। हमने अपनी-अपनी जातियों के संगठन बना लिए है, अपनी समस्याओं के निदान की अपेक्षा हम जातियों की आपसी मोर्चेबंदी के शिकार हो रहे हैं। हमारी सारी ऊर्जा बेवजह अनुत्पादक कार्यों में जाया हो रही है।
जहां तक अंतरजातीय विवाह का मसला है, यह परिवार के स्तर पर नहीं बल्कि युवा पीढ़ी की पहल पर हो रहा है। आपसी प्यार संबंधों के आधार पर हो रहा है, न कि किसी जाति तोड़क क्रांति के दम पर। कहने-सुनने में बड़ा अजीब लग सकता है लेकिन यह एक बड़ी हकीकत का हिस्सा है। वर्तमान निजाम के क्रियाकलापों ने नागरिक से नागरिकता का सपना ही छीन लिया है। उसके जीवन की जंग रोजी-रोटी कमाने और परिवार के निर्वाह में पूरी की पूरी खर्च हो जाती है। इस सबके बावजूद मोबाइल के स्तर पर बड़ी क्रांति हो रही है। अपना जो भी समय मिलता है, मोबाइल की आराधना को समर्पित हो जाता है। अब चाहें तो इस पर ताली बजा सकते हैं या फिर अपना माथा पीट सकते हैं।
संकट गंभीर है, लेकिन राजनेता केवल वर्चस्व की भाषा बोलेंगे। बुद्धिजीवियों का क्या कर्तव्य है? उनमें से कई लोग गालियों के डर से नहीं बोल रहे हैं। एक बुद्धिजीवी के रूप में आपको क्या लगता है कि उन्हें एक साथ लाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? जानबूझकर एक धारणा बनाई गई है जैसे कि वाल्मीकि दलितों की एकता में सबसे बड़ी बाधा हैं और इसलिए राजनीतिक दल और उनके अनुयायी विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में ‘हमें परवाह नहीं है’ दृष्टिकोण अपना रहे हैं? भविष्य का एजेंडा क्या होना चाहिए और बुद्धिजीवी कहां हैं?
बुद्धिजीवी का कर्तव्य है कि वह राजनीति व समाज के आगे-आगे एक मशाल की तरह अपने चारों ओर के माहौल को रोशन करता चले। राजनीति और समाज इस पर भरोसा करे और इसका अनुसरण करे। लेकिन आज के बुद्धिजीवियों को खुद पर ही भरोसा नहीं है तो अन्य का भरोसा कैसे हासिल कर सकते हैं। अवसरवाद ने बुद्धिजीवियों के पैरों नीचे से जमीन ही खींच ली है। इसलिए न उनका अपना कोई आधार बचा है और न ही जनाधार। मेरा सवाल है कि इसमें नया क्या है? अवसरवादियों ने यह धारणा तो पहले से बनाई हुई है कि वाल्मीकियों का कोई वजूद नहीं है, इनकी अपनी कोई स्थाई वैचारिकी नहीं है। राजनीतिक दल और उनके अनुयायी विशेष पहले ही एक जाति विशेष की राजनीति करते हैं; इसलिए उत्तर प्रदेश में उन्हें किसी की परवाह नहीं है। वैसे भी उत्तर प्रदेश के बुलडोजर राज में किसे किसकी परवाह है? इसलिए किसी को भी बेवजह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि किसी को जनता के हितों और उनकी बेहतर जीवनशैली की परवाह है। भविष्य का एजेंडा क्या होना चाहिए और बुद्धिजीवी कहां हैं? मैं इस प्रश्न पर अलग से चर्चा करना चाहूंगा।
दलित-शोषित-उत्पीडि़त समाज के उत्थान यानी सामाजिक न्याय के लिए आरक्षण के संबंध में बुद्धिजीवी के भविष्य एजेंडा क्या होना चाहिए?
मेरा मानना है कि जातीय उत्पीड़न के शिकार सिर्फ हिन्दू, सिख और बौद्ध ही नहीं हैं। मुसलमानों और ईसाइयों में दलित हैं। हिन्दू धर्म से दलित जिस भी धर्म में गए हैं, वहां भी वे दलित ही हैं और बुरे हाल हैं। यदि सामाजिक न्याय मिलना ही है तो उन्हें क्यों नहीं मिलना चाहिए? वे हमारे दुश्मन नहीं, हमारे भाई ही हैं। मैं यहां विषय को राजनीति या विवाद का अखाड़ा नहीं बनाना चाहता; मगर यह अवश्य चाहता हूं कि थोड़ा फुर्सत का समय निकालकर उनकी हालत पर भी विचार करें। मौजूदा संदर्भ में मैं Niraj Doiphode के आलेख ‘दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों के लिए आरक्षण’ से कुछ जानकारी साझा करना चाहता हूं। इसके अनुसार—‘भारत में दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों पर पर्याप्त डाटा नहीं है। अनुमान है कि भारत में 20 मिलियन ईसाई हैं, जिनमें से सत्तर प्रतिशत दलित समुदाय के हैं। इनमें केरल में पुलायन, तमिलनाडु में परिहा, कर्नाटक में तिगाला, आंध्र प्रदेश में माला, एमपी, यूपी और बिहार में चमार, पंजाब में चुराहा, गुजरात में वानकर, महाराष्ट्र में महार आदि शामिल हैं। दलित मुसलमान भारत के सभी हिस्सों में फैले हुए हैं।’...कई लोगों ने बौद्ध धर्म नहीं अपनाया क्योंकि नव-बौद्धों को धर्मांतरण के बाद भेदभाव का सामना करना पड़ा था, इसलिए उन्होंने ईसाई धर्म और इस्लाम को चुना।…उनके धर्म परिवर्तन के बावजूद, दलित ईसाई और दलित मुसलमान अभी भी "भूमि, जल और सम्मान" तक पहुंच से वंचित हैं।’
‘…काका कालेलकर की अध्यक्षता में कालेलकर आयोग के नाम से भी जाने वाले पहले पिछड़ा वर्ग आयोग ने 1955 में सिफारिश की थी कि "जाति की बीमारी को खत्म करने से पहले, इसके बारे में सभी जानकारी को एक नैदानिक रिकार्ड की तरह वैज्ञानिक तरीके से दर्ज और वर्गीकृत किया जाना चाहिए" और यह 1961 की जनगणना में किया जा सकता है, यदि 1957 से पहले नहीं।’…सिफारिशों के बाद, 1956 में धर्मांतरित सिखों को अनुसूचित जाति समूह में शामिल किया गया, और 1990 में बौद्धों को जोड़ा गया, लेकिन मुसलमानों और ईसाइयों को छोड़ दिया गया।’...भारत का संविधान अनुसूचित जातियों को कई तरह की सुरक्षा और लाभ प्रदान करता है जो दलित मुसलमानों और ईसाइयों को नहीं मिलते हैं। एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम हाशिए के समुदायों के खिलाफ अपराधों पर मुकदमा चलाने और पीड़ितों को निवारण और पुनर्वास प्रदान करने के लिए विशेष अदालतें स्थापित करता है। दलित समुदायों के मुसलमान और ईसाई एससी के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में सीटो के लिए चुनाव नहीं लड़ सकते हैं।’
अंत में सभी सवालों की परिधि से बाहर, मैं दलित दस्तक के संपादक अशोक दास की मि. अठावल और मि. रूपराम दोनों राजस्थानी वाल्मीकि, से खुली चर्चा के कुछ अंश साझा करना चाहता हूं जो उप-विभाजन के लाभार्थी के नजरिए की बानगीभर है। मैं सार रूप में कुछ बिंदुओं को रेखांकित करना चाहता हूं, मसलन:
1. अगर हमें कुछ मिल गया तो हम अलग कैसे हो गए, विरोधी कैसे हो गए?
2. ये दोनों कहते हैं कि हम एट्रोसिटी, संविधान और डा. अम्बेडकर के मामले में साथा हैं, फिर अलग कैसे हैं?
3. आपसी संवाद की अपेक्षा भारत बंद क्यों हो रहा है? इसका बहिष्कार न होना क्या एकता का प्रतीक है?
4. उप-विभाजन के लाभार्थियों को समझाया जा रहा है कि उन्हें आरक्षण के अलावा अलग स्कूल, कॉलेज आदि खोले जाने के लिए संघर्ष करना चाहिए।
5. इन दोनों का तर्क है कि आजादी के बाद तो पूरे समाज की एक जैसी स्थिति थी और आरक्षण का लाभ मिला। अगर आज हमारी हालत आजादी के समय जैसी है तो इसका भी वैसा ही लाभ मिलेगा जैसे अन्य को मिला और हम लोग भी काफी आगे बढ़ सकते है।
6. बाबा साहब ने दलित समाज को ब्रोकन पीपल कहा है। अगर हमें अलग से कुछ मिल जाता है तो यह समाज का बंटवारा कैसे हो गया? आज कुछ लोग उप-विभाजन के चलते हमारे मनोबल को तोड़ रहे हैं।
उप-विभाजन के इस फैसले के चलते जिसके दिल में जो आ रहा है, अम्बेडकर और अम्बेडकरवाद के नाम पर कुछ भी कहे जा रहा है। चंद्रभान साहब कहते हैं कि हाथ में मोटे-मोटे राखी के धागे बांधेंगे और इन्हें आरक्षण भी चाहिए? संभवत: वे कहना चाह रहे हैं कि वे हिन्दूवादी हैं, इसलिए आरक्षण के हकदार नहीं हैं। मेरा सवाल है—‘जो अम्बेडकर को नहीं मानेगा, क्या उसे आरक्षण नहीं मिलेगा? जिसे देखो सारे विवाद में अम्बेडकर और अम्बेडकरवाद की छतरी के नीचे जो मर्जी कहे जा रहा है। नहीं भूलना चाहिए कि अम्बेडकर और अम्बेडकरवाद का मसला अलग है। इसे यहां बेवजह आरक्षण के इस विवाद में घसीट कर मलीन नहीं किया जाना चाहिए। एक बात और, बार-बार तर्क दिया जा रहा है—‘अम्बेडकर ने महारों के लिए अलग से आरक्षण नहीं मांगा था।’ इस टिप्पणी के माध्यम से वे कहना चाहते हैं कि आज भी अलग से आरक्षण नहीं मांगना चाहिए। लेकिन हमारा मानना है कि उस समय अलग से आरक्षण मांगना बाबा साहब के व्यक्तित्व के विरुद्ध जाता और सारा आंदोलन ही खत्म हो जाता। लेकिन आज उप-विभाजन का मसला उतना ही प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है जितना उस समय महारों के लिए अलग से आरक्षण की मांग न करना। लेकिन आज की परिस्थितियां मांग करती है कि समाज की एकता, अखंडता और भाईचारे के लिए उप-विभाजन को दोनों बाहें फैलाकर अंगीकार करने की जरूरत है।
अंत में याद करना जरूरी महसूस हो रहा है कि कर्नाटक को अलग प्रदेश के रूप में मान्यता के समय राष्ट्रीयता के संबंध में बाबा साहब ने कहा था—‘मैं चाहता हूं कि सारे लोग भारतीय पहले और भारतीय अंत में और भारतीय के अतिरिक्त और कुछ न रहें।’ आज इस मौके पर मेरा करबद्ध आग्रह है कि भारतीय बनें और भारतीयता का परिचय दें। यह बड़े भाई को दूसरे छोटे भाई को गले लगा कर प्यार करने में है, उसका हौसला अफ़ज़ाई करने में है।
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Swachchakar Dignity: आरक्षण के उप-विभाजन के विरोध में वह शख्स हो सकता है जो स्वानुभूति से शून्य होगा : ईश कुमार गंगानिया, लेखक, विचारक और संपादक